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आपके (Non-Muslims) सवाल हमारे जवाब muslims-answer

अगर बसों, रेलों या  सार्वजनिक स्थान पर मुसलमान मिलने पर आप उससे धर्म से संबन्धित प्रश्न करते हो तो डा. जाकिर नायक के यह 20 उत्तर आपके सामान्य बीस प्रश्नों के उत्तर है जिन्हें फरीद बुक डिपू ने शुद्ध हिन्दी और मधुर संदेश संगम, दिल्ली ने आसान हिन्दी और उर्दू में भी छापा है,REPLIES TO THE MOST COMMON QUESTIONS ASKED BY NON-MUSLIMS (Hindi-pdf book)
नाम से धूम मचा चुकी इस किताब का यह फरीद बुक डिपू द्वारा किया गया अनुवाद है:
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Mansahaar uchit ya anuchit

Islam Aur Hindu Dharm Me Samantae (Hindi)

Islam ke Vishay Main Gher Musalimon ke Sawalon ke Jawabat - (Hindi) - (PB)

Islam atankwad ya bhaichaara

Islam mein aurton ke adhikar


निम्‍नलिखित प्रश्‍नों के आगे क्रमानुसार उत्‍तर हैं
प्रश्नः1. इस्लाम में पुरूष को एक से अधिक पत्नियाँ रखने की अनुमति क्यों है?
प्रश्नः2. यदि एक पुरूष को एक से अधिक पत्नियाँ करने की अनुमति है तो इस्लाम में स्त्री को एक समय में अधिक पति रखने की अनुमति क्यों नहीं है?
प्रश्नः3.‘‘इस्लाम औरतों को पर्दे में रखकर उनका अपमान क्यों करता है?
प्रश्नः4. यह कैसे संभव है कि इस्लाम को शांति का धर्म माना जाए क्योंकि यह तो तलवार (युद्ध और रक्तपात) के द्वारा फैला है?
प्रश्नः5. अधिकांश मुसलमान रूढ़िवादी और आतंकवादी हैं?
प्रश्नः6.पशुओं को मारना एक क्रूरतापूर्ण कृत्य है तो फिर मुसलमान मांसाहारी भोजन क्यों पसन्द करते हैं?
प्रश्नः7. मुसलमान पशुओं को ज़िब्ह (हलाल) करते समय निदर्यतापूर्ण ढंग क्यों अपनाते हैं? अर्थात उन्हें यातना देकर धीरे-धीरे मारने का तरीकष, इस पर बहुत लोग आपत्ति करते हैं?
प्रश्नः8. विज्ञान हमें बताता है कि मनुष्य जो कुछ खाता है उसका प्रभाव उसकी प्रवृत्ति पर अवश्य पड़ता है, तो फिर इस्लाम अपने अनुयायियों को सामिष आहार की अनुमति क्यों देता है? यद्यपि पशुओं का मांस खाने के कारण मनुष्य हिंसक और क्रूर बन सकता है?
प्रश्नः9. यद्यपि इस्लाम में मूर्ति पूजा वर्जित है परन्तु मुसलमान काबे की पूजा क्यों करते हैं? और अपनी नमाज़ों के दौरान उसके सामने क्यों झुकते हैं?
प्रश्नः10. मक्का और मदीना के पवित्रा नगरों में ग़ैर मुस्लिमों को प्रवेश की अनुमति क्यों नहीं है?
प्रश्नः11. इस्लाम में सुअर का मांस खाना क्यों वर्जित है?
प्रश्नः12. इस्लाम में शराब पीने की मनाही क्यों है?
प्रश्नः13. क्या कारण है कि इस्लाम में दो स्त्रीयों की गवाही एक पुरुष के समान ठहराई जाती है?
प्रश्नः14. इस्लामी कानून के अनुसार विरासत की धन-सम्पत्ति में स्त्री का हिस्सा पुरूष की अपेक्षा आधा क्यों है?
प्रश्नः15. क्या पवित्र कुरआन अल्लाह का कलाम (ईष वाक्य) है?
उत्तर:  online book: "IS THE QURAN GOD'S WORD?" किया कुरआन ईश्वरीय ग्रन्थ है?
प्रश्नः16. आप आख़िरत अथवा मृत्योपरांत जीवन की सत्यता कैसे सिद्ध करेंगे?
प्रश्नः17. क्या कारण है कि मुसलमान विभिन्न समुदायों और विचाधाराओं में विभाजित हैं?
प्रश्नः18. सभी धर्म अपने अनुयायियों को अच्छे कामों की शिक्षा देते हैं तो फिर किसी व्यक्ति को इस्लाम का ही अनुकरण क्यों करना चाहिए? क्या वह किसी अन्य धर्म का अनुकरण नहीं कर सकता?
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 اسلام دشمن جو دوست بن گئے  🌿 इस्लाम दुश्मन जो दोस्त बन गए 
प्रश्नः19. यदि इस्लाम विश्व का श्रेष्ठ धर्म है तो फिर क्या कारण है कि बहुत से मुसलमान बेईमान और विश्वासघाती होते हैं। धोखेबाज़ी, घूसख़ोरी और नशीले पदार्थों के व्यापार जैसे घृणित कामों में लिप्त होते हैं।
प्रश्नः20. मुसलमान ग़ैर मुस्लिमों का अपमान करते हुए उन्हें ‘‘काफ़िर’’ क्यों कहते हैं?



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बहुपत्नी प्रथा
प्रश्नः इस्लाम में पुरूष को एक से अधिक पत्नियाँ रखने की अनुमति क्यों है?
उत्तरः बहुपत्नी प्रथा (Policamy)से आश्य विवाह की ऐसे व्यवस्था से है जिसके अनुसार एक व्यक्ति एक से अधिक पत्नियाँ रख सकता है। बहुपत्नी प्रथा के दो रूप हो सकते हैं। उसका एक रूप (Polygyny)है जिसके अनुसार एक पुरूष एक से अधिक स्त्रिायों से विवाह कर सकता है। जबकि दूसरा रूप (Polyandry) है जिसमें एक स्त्री एक ही समय में कई पुरूषों की पत्नी रह सकती है। इस्लाम में एक से अधिक पत्नियाँ रखने की सीमित अनुमति है। परन्तु (Polyandry)अर्थात स्त्रियों द्वारा एक ही पुरूष में अनेक पति रखने की पूर्णातया मनाही है।
अब मैं इस प्रश्न की ओर आता हूँ कि इस्लाम में पुरूषों को एक से अधिक पत्नियाँ रखने की अनुमति क्यों है?
पवित्र क़ुरआन विश्व का एकमात्र धर्मग्रंथ है जो केवल ‘‘एक विवाह करो’’ का आदेश देता है
सम्पूर्ण मानवजगत मे केवल पवित्र क़ुरआन ही एकमात्र धर्म ग्रंथ (ईश्वाक्य) है जिसमें यह वाक्य मौजूद हैः ‘‘केवल एक ही विवाह करो’’, अन्य कोई धर्मग्रंथ ऐसा नहीं है जो पुरुषों को केवल एक ही पत्नी रखने का आदेश देता हो। अन्य धर्मग्रंथों में चाहे वेदों में कोई हो, रामायण, महाभारत, गीता अथवा बाइबल या ज़बूर हो किसी में पुरूष के लिए पत्नियों की संख्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया है, इन समस्त ग्रंथों के अनुसार कोई पुरुष एक समय में जितनी स्त्रियों से चाहे विवाह कर सकता है, यह तो बाद की बात है जब हिन्दू पंडितों और ईसाई चर्च ने पत्नियों की संख्या को सीमित करके केवल एक कर दिया।
हिन्दुओं के धार्मिक महापुरुष स्वयं उनके ग्रंथ के अनुसार एक समय में अनेक पत्नियाँ रखते थे। जैसे श्रीराम के पिता दशरथ जी की एक से अधिक पत्नियाँ थीं। स्वंय श्री कृष्ण की अनेक पत्नियाँ थीं।
आरंभिक काल में ईसाईयों को इतनी पत्नियाँ रखने की अनुमति थी जितनी वे चाहें, क्योंकि बाइबल में पत्नियों की संख्या पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया है। यह तो आज से कुछ ही शताब्दियों पूर्व की बात है जब चर्च ने केवल एक पत्नी तक ही सीमित रहने का प्रावधान कर दिया था।
यहूदी धर्म में एक से अधिक पत्नियाँ रखने की अनुमति है। ‘ज़बूर’ में बताया गया है कि हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की तीन पत्नियाँ थीं जबकि हज़रत सुलेमान (अलैहिस्सलाम) एक समय में सैंकड़ों पत्नियों के पति थे। यहूदियों में बहुपत्नी प्रथा ‘रब्बी ग्रश्म बिन यहूदा’ (960 ई. से 1030 ई.) तक प्रचलित रही। ग्रश्म ने इस प्रथा के विरुद्ध एक
धर्मादेश निकाला था। इस्लामी देशों में प्रवासी यहूदियों ने, यहूदी जो कि आम तौर से स्पेनी और उत्तरी अफ्ऱीकी यहूदियों के वंशज थे, 1950 ई. के अंतिम दशक तक यह प्रथा जारी रखी। यहाँ तक कि इस्राईल के बड़े रब्बी (सर्वोच्चय धर्मगुरू) ने एक धार्मिक कानून द्वारा विश्वभर के यहूदियों के लिए बहुपत्नी प्रथा पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
रोचक तथ्य
भारत में 1975 ई. की जनगणना के अनुसार मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दुओं में बहुपत्नी प्रथा का अनुपात अधिक था। 1975 ई. में Commitee of the Status of Wemen in Islam (इस्लाम में महिलाओं की प्रतिष्ठा के विषय में गठित समिति) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के पृष्ठ 66-67 पर यह बताया गया है कि 1951 ई. और 1961 ई. के मध्यांतर में 5.6 प्रतिशत हिन्दू बहुपत्नी धारक थे, जबकि इस अवधि में मुसलमानों की 4.31 प्रतिशत लोगों की एक से अधिक पत्नियाँ थीं। भारतीय संविधान के अनुसार केवल मुसलमानों को ही एक से अधिक पत्नियाँ रखने की अनुमति है। गै़र मुस्लिमों के लिए एक से अधिक पत्नी रखने के वैधानिक प्रतिबन्ध के बावजूद मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दुओं में बहुपत्नी प्रथा का अनुपात
अधिक था। इससे पूर्व हिन्दू पुरूषों पर पत्नियों की संख्या के विषय में कोई प्रतिबन्ध नहीं था। 1954 में ‘‘हिन्दू मैरिज एक्ट’’ लागू होने के पश्चात हिन्दुओं पर एक से अधिक पत्नी रखने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इस समय भी, भारतीय कानून के अनुसार किसी भी हिन्दू पुरूष के लिए एक से अधिक पत्नी रखना कषनूनन वर्जित है। परन्तु हिन्दू
धर्मगं्रथों के अनुसार आज भी उन पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
आईये अब हम यह विश्लेषण करते हैं कि अंततः इस्लाम में पुरूष को एक से अधिक पत्नियाँ रखने की अनुमति क्यों दी गई है?
पवित्र क़ुरआन पत्नियों की संख्या सीमित करता है जैसा कि मैंने पहले बताया कि पवित्र क़ुरआन ही वह एकमात्र धार्मिक ग्रंथ है जिसमें कहा गया हैः
‘‘केवल एक से विवाह करो।’’
इस आदेश की सम्पूर्ण व्याख्या पवित्र क़ुरआन की निम्नलिखित आयत में मौजूद है जो ‘‘सूरह अन्-निसा’’ की हैः
‘‘यदि तुम को भय हो कि तुम अनाथों के साथ न्याय नहीं कर सकते तो जो अन्य स्त्रियाँ तुम्हें पसन्द आएं उनमें दो-दो, तीन-तीन, चार-चार से निकाह कर लो, परन्तु यदि तुम्हें आशंका हो कि उनके साथ तुम न्याय न कर सकोगे तो फिर एक ही पत्नी करो, अथवा उन स्त्रियों को दामपत्य में लाओ जो तुम्हारे अधिकार में आती हैं। यह अन्याय से बचने के लिए भलाई के अधिक निकट है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 4 : 3 )
पवित्र क़ुरआन के अवतरण से पूर्व पत्नियों की संख्या की कोई सीमा निधारि‍त नहीं थी। अतः पुरूषों की एक समय में अनेक पत्नियाँ होती थीं। कभी-कभी यह संख्या सैंकड़ों तक पहुँच जाती थी। इस्लाम ने चार पत्नियों की सीमा निधारि‍त कर दी। इस्लाम किसी पुरूष को दो, तीन अथवा चार शादियाँ करने की अनुमति तो देता है, किन्तु न्याय करने की शर्त के साथ।
इसी सूरह में पवित्र क़ुरआन स्पष्ट आदेश दे रहा हैः
‘‘पत्नियों के बीची पूरा-पूरा न्याय करना तुम्हारे वश में नहीं, तुम चाहो भी तो इस पर कषदिर (समर्थ) नहीं हो सकते। अतः (अल्लाह के कानून का मन्तव्य पूरा करने के लिए यह पर्याप्त है कि) एक पत्नी की ओर इस प्रकार न झुक जाओ कि दूसरी को अधर में लटकता छोड़ दो। यदि तुम अपना व्यवहार ठीक रखो और अल्लाह से डरते रहो तो अल्लाह दुर्गुणों की उपेक्षा करने (टाल देने) वाला और दया करने वाला है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 4:129)
अतः बहु-विवाह कोई विधान नहीं केवल एक रियायत (छूट) है, बहुत से लोग इस ग़लतफ़हमी का शिकार हैं कि मुसलमानों के लिये एक से अधिक पत्नियाँ रखना अनिवार्य है।
विस्तृत परिप्रेक्ष में अम्र (निर्देशित कर्म Do's) और नवाही (निषिद्ध कर्म Dont's) के पाँच स्तर हैंः
कः फ़र्ज़ (कर्तव्य) अथवा अनिवार्य कर्म।
खः मुस्तहब अर्थात ऐसा कार्य जिसे करने की प्रेरणा दी गई हो, उसे करने को प्रोत्साहित किया जाता हो किन्तु वह कार्य अनिवार्य न हो।
गः मुबाह (उचित, जायज़ कर्म) जिसे करने की अनुमति हो।
घः मकरूह (अप्रिय कर्म) अर्थात जिस कार्य का करना अच्छा न माना जाता हो और जिस के करने को हतोत्साहित किया गया हो।
ङः हराम (वर्जित कर्म) अर्थात ऐसा कार्य जिसकी अनुमति न हो, जिसको करने की स्पष्ट मनाही हो।
बहुविवाह का मुद्दा उपरोक्त पाँचों स्तरों के मध्यस्तर अर्थात ‘‘मुबाह’’ के अंर्तगत आता है, अर्थात वह कार्य जिसकी अनुमति है। यह नहीं कहा जा सकता कि वह मुसलमान जिसकी दो, तीन अथवा चार पत्नियाँ हों, वह एक पत्नी वाले मुसलमान से अच्छा है।
स्त्रियों की औसत आयु पुरूषों से अधिक होती है प्राकृतिक रूप से स्त्रियाँ और पुरूष लगभग समान अनुपात से उत्पन्न होते हैं। एक लड़की में जन्म के समय से ही लड़कों की अपेक्षा अधिक प्रतिरोधक क्षमता (Immunity)होती है और वह रोगाणुओं से अपना बचाव लड़कों की अपेक्षा अधिक सुगमता से कर सकती है, यही कारण है कि बालमृत्यु में लड़कों की दर अधिक होती है। संक्षेप में यह कि स्त्रियों की औसत आयु पुरूषों से अधिक होती है और किसी भी समय में अध्ययन करने पर हमें स्त्रियों की संख्या पुरूषों से अधिक ही मिलती है।
कन्या गर्भपात तथा कन्याओं की मृत्यु के कारण भारत में पुरूषों की संख्या स्त्रियों से ज़्यादा है
अपने कुछ पड़ौसी देशों सहित, भारत की गणना विश्व के उन कुछ देशों में की जाती है जहाँ स्त्रियों की संख्या पुरूषों से कम है। इसका कारण यह है कि भारत में अधिकांश कन्याओं को शैशव काल में ही मार दिया जाता है। जबकि इस देश में प्रतिवर्ष दस लाख से अधिक लड़कियों की भ्रुणहत्या अर्थात ग्रर्भपात द्वारा उनको इस संसार में आँख खोलने से पहले ही नष्ट कर दिया जाता है। जैसे ही यह पता चलता है कि अमुक गर्भ से कन्या का जन्म होगा, तो गर्भपात कर दिया जाता है, यदि भारत में यह क्रूरता बन्द कर दी जाए तो यहाँ भी स्त्रियों की संख्या पुरूषों से अधिक होगी।

(आज स्थिति यह है कि भारतीय समाज विशेष रूप से हिन्दू समाज में कन्याभ्रुण हत्या का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। अल्ट्रा साउण्ड तकनीक द्वारा भ्रुण के लिंग का पता चलते ही गर्भ्रपात कराने का चलन चर्म पर पहुँच गया है और अब यह स्थिति है कि पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों में स्त्रियों की इतनी कमी हो गई है कि लाखों पुरूष कुंवारे रह गए हैं। कुछ लोग अन्य राज्यों से पत्नियाँ ख़रीद कर लाने पर विवश हैं। इसका मुख्य कारण हिन्दू समाज में भयंकर दहेज प्रथा को बताया जाता है) अनुवादक

विश्व जनसंख्या में स्त्रियाँ अधिक हैं
अमरीका में स्त्रियों की संख्या कुल आबादी में पुरूषों से 87 लाख
अधिक है। केवल न्यूयार्क में स्त्रियाँ पुरूषों से लगभग 10 लाख अधिक हैं, जबकि न्यूयार्क में पुरूषों की एक तिहाई संख्या समलैंगिक है। पूरे अमरीका में कुल मिलाकर 2.50 करोड़ से अधिक समलैंगिक (Gays)मौजूद हैं अर्थात ये पुरूष स्त्रियों से विवाह नहीं करना चाहते। ब्रिटेन में स्त्रियों की संख्या पुरूषों से 40 लाख के लगभग अधिक है। इसी प्रकार जर्मनी में स्त्रियाँ पुरूषों से 50 लाख अधिक हैं। रूस में स्त्रियाँ पुरूषों से 90 लाख अधिक हैं। यह तो अल्लाह ही बेहतर जानता है कि विश्व में स्त्रियों की संख्या पुरूषों की अपेक्षा कितनी अधिक है।
प्रत्येक पुरूष को केवल एक पत्नी तक सीमित रखना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं
यदि प्रत्येक पुरूष को केवल एक पत्नी रखने की अनुमति हो तो केवल अमरीका ही में लगभग 3 करोड़ लड़कियाँ बिन ब्याही रह जाएंगी क्योंकि वहाँ लगभग ढाई करोड़ पुरूष समलैंगिक हैं। ब्रिटेन में 40 लाख, जर्मनी में 50 लाख और रूस में 90 लाख स्त्रियाँ पतियों से वंचित रहेंगी।
मान लीजिए, आपकी या मेरी बहन अविवाहित है और अमरीकी नागरिक है तो उसके सामने दो ही रास्ते होंगे कि वह या तो किसी विवाहित पुरूष से शादी करे अथवा अविवाहित रहकर सार्वजनिक सम्पत्ति बन जाए, अन्य कोई विकल्प नहीं। समझदार और बुद्धिमान लोग पहले विकल्प को तरजीह देंगे।
अधिकांश स्त्रियाँ यह नहीं चाहेंगी कि उनके पति की एक और पत्नी भी हो, और जब इस्लाम की बात सामने आए और पुरूष के लिए इससे शादी करना (इस्लाम को बचाने हेतु) अनिवार्य हो जाए तो एक साहिबे ईमान विवाहित मुसलमान महिला यह निजी कष्ट सहन करके अपने पति को दूसरी शादी की अनुमति दे सकती है ताकि अपनी मुसलमान बहन को ‘‘सार्वजनिक सम्पत्ति’’ बनने की बहुत बड़ी हानि से बचा सके।
‘‘सार्वजनिक सम्पत्ति’’ बनने से अच्छा है कि विवाहित पुरूष से शादी कर ली जाए
पश्चिमी समाज में यह आम बात है कि पुरूष एक शादी करने के बावजूद (अपनी पत्नी के अतिरिक्त) दूसरी औरतों जैसे नौकरानियों (सेक्रेट्रीज़ और सहकर्मी महिलाओं) आदि से पति-पत्नि वाले सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। यह एक ऐसी स्थिति है जो एक स्त्री के जीवन को लज्जाजनक और असुरक्षित बना देती है, क्या यह अत्यंत खेद की बात नहीं कि वही समाज जो पुरूष को केवल एक ही पत्नी पर प्रतिबंधित करता है और दूसरी पत्नी को सिरे से स्वीकार नहीं करता, यद्यपि दूसरी स्त्री को वैध पत्नी होने के कारण समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है, उसका सम्मान समान रूप से किया जाता है और वह एक सुरक्षित जीवन बिता सकती है।
अतः वे स्त्रियाँ जिन्हें किसी कारणवश पति नहीं मिल पाता। वे केवल दो ही विकल्प अपनाने पर विवश होती हैं, किसी विवाहित पुरूष से दाम्पत्य जोड़ लें अथवा ‘‘सार्वजनिक सम्पति’’ बन जाएं। इस्लाम अच्छाई के आधार पर स्त्री को प्रतिष्ठा प्रदान करने के लिये पहले विकल्प की अनुमति देता है। इसके औचित्य में अनेक तर्क मौजूद हैं। परन्तु इस का प्रमुख उद्देश्य नारी की पवित्रता और सम्मान की रक्षा करना है।
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एक समय में एक से अधिक पति (Policamy)
प्रश्नः यदि एक पुरूष को एक से अधिक पत्नियाँ करने की अनुमति है तो इस्लाम में स्त्री को एक समय में अधिक पति रखने की अनुमति क्यों नहीं है?
उत्तरः अनेकों लोग जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं, यह पूछते हैं कि आख़िर इस्लाम मे पुरूषों के लिए ‘बहुपत्नी’ की अनुमति है जबकि स्त्रियों के लिए यह वर्जित है, इसका बौद्धिक तर्क क्या है?....क्योंकि उनके विचार में यह स्‍त्रि
का ‘‘अधिकार’’ है जिससे उसे वंचित किया गया है आर्थात उसका अधिकार हनन किया गया है।
पहले तो मैं आदरपूर्वक यह कहूंगा कि इस्लाम का आधार न्याय और समता पर है। अल्लाह ने पुरूष और स्त्री की समान रचना की है किन्तु विभिन्न योग्यताओं के साथ और विभिन्न ज़िम्मेदारियों के निर्वाहन के लिए। स्त्री और पुरूष न केवल शारीरिक रूप से एक दूजे से भिन्न हैं वरन् मनोवैज्ञानिक रूप से भी उनमें स्पष्ट अंतर है। इसी प्रकार उनकी भूमिका और दायित्वों में भी भिन्नता है। इस्लाम में स्त्री-पुरूष (एक दूसरे के) बराबर हैं परन्तु परस्पर समरूप (Identical)नहीं है।
पवित्र क़ुरआन की पवित्र सूरह ‘‘अन्-निसा’’ की 22वीं और 24वीं आयतों में उन स्त्रियों की सूची दी गई है जिनसे मुसलमान विवाह नहीं कर सकते। 24वीं पवित्र आयत में यह भी बताया गया है कि उन स्त्रियों से भी विवाह करने की अनुमति नहीं है जो विवाहित हो।
निम्ननिखित कारणों से यह सिद्ध किया गया है कि इस्लाम में स्त्री के लिये एक समय में एक से अधिक पति रखना क्यों वर्जित किया गया है।
1. यदि किसी व्यक्ति के एक से अधिक पत्नियाँ हों तो उनसे उत्पन्न संतानों के माता-पिता की पहचान सहज और संभव है अर्थात ऐसे बच्चों के माता-पिता के विषय में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता और समाज में उनकी प्रतिष्ठा स्थापित रहती है। इसके विपरीत यदि किसी स्त्री के एक से अधिक पति हों तो ऐसी संतानों की माता का पता तो चल जाएगा लेकिन पिता का निर्धारण कठिन होगा। इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था में माता-पिता की पहचान को अत्याधिक महत्व दिया गया है।
मनोविज्ञान शास्त्रियों का कहना है कि वे बच्चे जिन्हें माता पिता का ज्ञान नहीं, विशेष रूप से जिन्हें अपने पिता का नाम न मालूम हो वे अत्याघिक मानसिक उत्पीड़न और मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रस्त रहते हैं। आम तौर पर उनका बचपन तनावग्रस्त रहता है। यही कारण है कि वेश्याओं के बच्चों का जीवन अत्यंत दुख और पीड़ा में रहता है। ऐसी कई पतियों की पत्नी से उत्पन्न बच्चे को जब स्कूल में भर्ती कराया जाता है और उस समय जब उसकी माता से बच्चे के बाप का नाम पूछा जाता है तो उसे दो अथवा अधिक नाम बताने पड़ेंगे।
मुझे उस आधुनिक विज्ञान की जानकारी है जिसके द्वारा ‘‘जेनिटिक टेस्ट’’ या DNA जाँच से बच्चे के माता-पिता की पहचान की जा सकती है, अतः संभव है कि अतीत का यह प्रश्न वर्तमान युग में लागू न हो।
2. स्त्री की अपेक्षा पुरूष में एक से अधिक पत्नी का रूझान अधिक है।
3. सामाजिक जीवन के दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक पुरूष के लिए कई पत्नियों के होते हुए भी अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करना सहज होता है। यदि ऐसी स्थिति का सामना किसी स्त्री को करना पड़े अर्थात उसके कई पति हों तो उसके लिये पत्नी की ज़िम्मेदारिया कुशलता पूर्वक निभाना कदापि सम्भव नहीं होगा। अपने मासिक धर्म के चक्र में विभिन्न चरणों के दौरान एक स्त्री के व्यवहार और मनोदशा में अनेक परिवर्तन आते हैं।
4. किसी स्त्री के एक से अधिक पति होने का मतलब यह होगा कि उसके शारीरिक सहभागी (Sexual Partners)भी अधिक होंगे। अतः उसको किसी गुप्तरोग से ग्रस्त हो जाने की आशंका अधिक होगी चाहे वह समस्त पुरूष उसी एक स्त्री तक ही सीमित क्यों न हों। इसके विपरीत यदि किसी पुरूष की अनेक पत्नियाँ हों और वह अपनी सभी पत्नियों तक ही सीमित रहे तो ऐसी आशंका नहीं के बराबर है।
उपरौक्त तर्क और दलीलें केवल वह हैं जिनसे सहज में समझाया जा सकता है। निश्चय ही जब अल्लाह तआला ने स्त्री के लिए एक से
अधिक पति रखना वर्जित किया है तो इसमें मानव जाति की अच्छाई के अनेकों उद्देश्य और प्रयोजन निहित होंगे।
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मुसलमान औरतों के लिये हिजाब (पर्दा)
प्रश्नः ‘‘इस्लाम औरतों को पर्दे में रखकर उनका अपमान क्यों करता है?
उत्तरः विधर्मी मीडिया विशेष रूप से इस्लाम में स्त्रियां को लेकर समय समय पर आपत्ति और आलोचना करता रहता है। हिजाब अथवा मुसलमान स्त्रियों के वस्त्रों (बुर्का) इत्यादि को अधिकांश ग़ैर मुस्लिम इस्लामी कानून के तहत महिलाओं का ‘अधिकार हनन’ ठहराते हैं। इससे पहले कि हम इस्लाम में स्त्रियों के पर्दे पर चर्चा करें, यह अच्छा होगा कि इस्लाम के उदय से पूर्व अन्य संस्कृतियों में नारी जाति की स्थिति और स्थान पर एक नज़र डाल ली जाए।
अतीत में स्त्रियों को केवल शारीरिक वासनापूर्ति का साधन समझा जाता था और उनका अपमान किया जाता था। निम्नलिखित उदाहरणों से यह तथ्य उजागर होता है कि इस्लाम के आगमन से पूर्व की संस्कृतियों और समाजों में स्त्रियों का स्थान अत्यंत नीचा था और उन्हें समस्त मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया था।
बाबुल (बेबिलोन) संस्कृति में
प्राचीन बेबिलोन संस्कृति में नारीजाति को बुरी तरह अपमानित किया गया था। उन्हें समस्त मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया था। मिसाल के तौर पर यदि कोई पुरुष किसी की हत्या कर देता था तो मृत्यु दण्ड उसकी पत्नी को मिलता था।
यूनानी (ग्रीक) संस्कृति में
प्राचीन काल में यूनानी संस्कृति को सबसे महान और श्रेष्ठ माना जाता है। इसी ‘‘श्रेष्ठ’’ सांस्कृतिक व्यवस्था में स्त्रियों को किसी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं था। प्राचीन यूनानी समाज में स्त्रियों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। यूनानी पौराणिक साहित्य में ‘‘पिंडौरा’’ नामक एक काल्पनिक महिला का उल्लेख मिलता है जो इस संसार में मानवजाति की समस्त समस्याओं और परेशानियों का प्रमुख कारण थी, यूनानियों के अनुसार नारी जाति मनुष्यता से नीचे की प्राणी थी और उसका स्थान पुरूषों की अपेक्षा तुच्छतम था, यद्यपि यूनानी संस्कृति में स्त्रियों के शील और लाज का बहुत महत्व था तथा उनका सम्मान भी किया जाता था, परन्तु बाद के युग में यूनानियों ने पुरूषों के अहंकार और वासना द्वारा अपने समाज में स्त्रियों की जो दुर्दशा की वह यूनानी संस्कृति के इतिहास में देखी जा सकती है। पूरे यूनानी समाज में देह व्यापार समान्य बात होकर रह गई थी।
रोमन संस्कृति में
जब रोमन संस्कृति अपने चरमोत्कर्ष पर थी तो वहाँ पुरूषों को यहाँ तक स्वतंत्रता प्राप्त थी कि पत्नियों की हत्या तक करने का अधिकार था। देह व्यापार और व्यभिचार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था।
प्राचीन मिस्री संस्कृति में
मिस्र की प्राचीन संस्कृति को विश्व की आदिम संस्कृतियों में सबसे उन्नत संस्कृति माना जाता है। वहाँ स्त्रियों को शैतान का प्रतीक माना जाता था।
इस्लाम से पूर्व अरब में
अरब में इस्लाम के प्रकाशोदय से पूर्व स्त्रियों को अत्यंत हेय और तिरस्कृत समझा जाता था। आम तौर पर अरब समाज में यह कुप्रथा प्रचलित थी कि यदि किसी के घर कन्या का जन्म होता तो उसे जीवित दफ़न कर दिया जाता था। इस्लाम के आगमन से पूर्व अरब संस्कृति अनेकों प्रकार की बुराइयों से बुरी तरह दूषित हो चुकी थी।
इस्लाम की रौशनी
इस्लाम ने नारी जाती को समाज में ऊँचा स्थान दिया, इस्लाम ने स्त्रियों को पुरूषों के समान अधिकार प्रदान किये और मुसलमानों को उनकी रक्षा करने का निर्देश दिया है। इस्लाम ने आज से 1400 वर्ष पूर्व स्त्रियों को उनके उचित अधिकारों के निर्धारण का क्रांतिकारी कष्दम उठाया जो विश्व के सांकृतिक और समाजिक इतिहास की सर्वप्रथम घटना है। इस्लाम ने जो श्रेष्ठ स्थान स्त्रियों को दिया है उसके लिये मुसलमान स्त्रियों से अपेक्षा भी करता है कि वे इन अधिकारों की सुरक्षा भी करेंगी।
पुरूषों के लिए हिजाब (पर्दा)
आम तौर से लोग स्त्रियों के हिजाब की बात करते हैं परन्तु पवित्र क़ुरआन में स्त्रियों के हिजाब से पहले पुरूषों के लिये हिजाब की चर्चा की गई है। (हिजाब शब्द का अर्थ है शर्म, लज्जा, आड़, पर्दा, इसका अभिप्राय केवल स्त्रियों के चेहरे अथवा शरीर ढांकने वाले वस्त्र, चादर अथवा बुरका इत्यादि से ही नहीं है।)
पवित्र क़ुरआन की सूरह ‘अन्-नूर’ में पुरूषों के हिजाब की इस प्रकार चर्चा की गई हैः
‘‘हे नबी! ईमान रखने वालों (मुसलमानों) से कहो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें और अपनी शर्मगाहों की रक्षा करें। यह उनके लिए ज़्यादा पाकीज़ा तरीका है, जो कुछ वे करते हैं अल्लाह उससे बाख़बर रहता है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 24:30)
इस्लामी शिक्षा में प्रत्येक मुसलमान को निर्देश दिया गया है कि जब कोई पुरूष किसी स्त्री को देख ले तो संभवतः उसके मन में किसी प्रकार का बुरा विचार आ जाए अतः उसे चाहिए कि वह तुरन्त नज़रें नीची कर ले।
स्त्रियों के लिए हिजाब
पवित्र क़ुरआन में सूरह ‘अन्-नूर’ में आदेश दिया गया हैः
‘‘हे नबी! मोमिन औरतों से कह दो, अपनी नज़रें बचा कर रखें और अपनी शर्मगाहों की सुरक्षा करें, और अपना बनाव-श्रंगार न दिखाएं, सिवाय इसके कि वह स्वतः प्रकट हो जाए और अपने वक्ष पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें, वे अपना बनाव-श्रंगार न दिखांए, परन्तु उन लोगों के सामने पति, पिता, पतियों के पिता, पुत्र...।’’ (पवित्र क़ुरआन, 24:31)
हिजाब की 6 कसौटियाँ
पवित्र क़ुरआनके अनुसार हिजाब के लिए 6 बुनियादी कसौटियाँ अथवा शर्तें लागू की गई हैं।
1. सीमाएँ (Extent):प्रथम कसोटी तो यह है कि शरीर का कितना भाग (अनिवार्य) ढका होना चाहिए। पुरूषों और स्त्रियों के लिये यह स्थिति भिन्न है। पुरूषों के लिए अनिवार्य है कि वे नाभी से लेकर घुटनों तक अपना शरीर ढांक कर रखें जबकि स्त्रियों के लिए चेहरे के सिवाए समस्त शरीर को और हाथों को कलाईयों तक ढांकने का आदेश है। यदि वे चाहें तो चेहरा और हाथ भी ढांक सकती हैं। कुछ उलेमा का कहना है कि हाथ और चेहरा शरीर का वह अंग है जिनको ढांकना स्त्रियों के लिये अनिवार्य है अर्थात स्त्रियों के हिजाब का हिस्सा है और यही कथन उत्तम है। शेष पाँचों शर्तें स्त्रियों और पुरूषों के लिए समान हैं।
2. धारण किए गये वस्त्र ढीले-ढाले हों, जिससे अंग प्रदर्शन न हो (मतलब यह कि कपड़े तंग, कसे हुए अथवा ‘‘फ़िटिंग’’ वाले न हों।
3. पहने हुए वस्त्र पारदर्शी न हों जिनके आर पार दिखाई देता हो।
4. पहने गए वस्त्र इतने शोख़, चटक और भड़कदार न हों जो स्त्रियों को पुरूषों और पुरूषों को स्त्रियों की ओर आकर्षित करते हों।
5. पहने गए वस्त्रों का स्त्रियों और पुरूषों से भिन्न प्रकार का होना अनिवार्य है अर्थात यदि पुरूष ने वस्त्र धारण किये हैं तो वे पुरूषों के समान ही हों, स्त्रियों के वस्त्र स्त्रियों जैसे ही हों और उन पर पुरूषों के वस्त्रों का प्रभाव न दिखाई दे। (जैसे आजकल पश्चिम की नकल में स्त्रियाँ पैंट-टीशर्ट इत्यादि धारण करती हैं। इस्लाम में इसकी सख़्त मनाही है, और मुसलमान स्त्रियों के लिए इस प्रकार के वस्त्र पहनना हराम है।
6. पहने गए वस्त्र ऐसे हों कि जिनमें ‘काफ़िरों’ की समानता न हो। अर्थात ऐसे कपड़े न पहने जाएं जिनसे (काफ़िरों के किसी समूह) की कोई विशेष पहचान सम्बद्ध हो। अथवा कपड़ों पर कुछ ऐसे प्रतीक चिन्ह बने हों जो काफ़िरों के धर्मों को चिन्हित करते हों।
हिजाब में पर्दें के अतिरिक्त कर्म और
आचरण भी शामिल है
लिबास में उपरौक्त 6 शर्तों के अतिरिक्त सम्पूर्ण ‘हिजाब’ में पूरी नैतिकता, आचरण, रवैया और हिजाब करने वाले की नियत भी शामिल है। यदि कोई व्यक्ति केवल शर्तों के अनुसार वस्त्र धारण करता हे तो वह हिजाब के आदेश पर सीमित रूप से ही अमल कर रहा होगा। लिबास के हिजाब के साथ ‘आँखों का हिजाब, दिल का हिजाब, नियत और अमल का हिजाब भी आवश्यक है। इस (हिजाब) में किसी व्यक्ति का चलना, बोलना और आचरण तथा व्यवहार सभी कुछ शामिल है।
हिजाब स्त्रियों को छेड़छाड़ से बचाता है
स्त्रियों के लिये हिजाब क्यों अनिवार्य किया गया है? इसका एक कारण पवित्र क़ुरआन के सूरह ‘‘अहज़ाब’’ में इस प्रकार बताया गया हैः
‘‘हे नबी! अपनी पत्नियों और बेटियों और ईमान रखने वाले (मुसलमानों) की स्त्रियों से कह दो कि अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें, यह मुनासिब तरीका है ताकि वे पहचान ली जाएं, और न सताई जाएं। अल्लाह ग़फूर व रहीम (क्षमा करने वाला और दयावान) है। (पवित्र क़ुरआन , 33:59)
पवित्र क़ुरआन की इस आयत से यह स्पष्ट है कि स्त्रियों के लिये पर्दा इस कारण अनि‍वार्य किया गया ताकि वे सम्मानित ढंग से पहचान ली जाएं और छेड़छाड़ से भी सुरक्षित रह सकें।
जुड़वाँ बहनों की मिसाल
‘‘मान लीजिए कि दो जुड़वाँ बहनें हैं, जो समान रूप से सुन्दर भी हैं। उनमें एक ने पूर्णरूप से इस्लामी हिजाब किया हुआ है, उसका सारा शरीर (चादर अथवा बुरके से) ढका हुआ है। दूसरी जुड़वाँ बहन ने पश्चिमी वस्त्र धारण किये हुए हैं, अर्थात मिनी स्कर्ट अथवा शाटर्स इत्यादि जो पश्चिम में प्रचलित सामान्य परिधान है। अब मान लीजिए कि गली के नुक्कड़ पर कोई आवारा, लुच्चा लफ़ंगा या बदमाश बैठा है, जो आते जाते लड़कियों को छेड़ता है, ख़ास तौर पर युवा लड़कियों को। अब आप बताईए कि वह पहले किसे तंग करेगा? इस्लामी हिजाब वाली लड़की को या पश्चिमी वस्त्रों वाली लड़की को?’’
ज़ाहिर सी बात है कि उसका पहला लक्ष्य वही लड़की होगी जो पश्चिमी फै़शन के कपड़ों में घर से निकली है। इस प्रकार के आधुनिक वस्त्र पुरूषों के लिए प्रत्यक्ष निमंत्रण होते हैं। अतः यह सिद्ध हुआ कि पवित्र कुरआन ने बिल्कुल सही फ़रमाया है कि ‘‘हिजाब लड़कियों को छेड़छाड़ इत्यादि से बचाता है।’’
दुष्कर्म का दण्ड, मृत्यु
इस्लामी शरीअत के अनुसार यदि किसी व्यक्ति पर किसी विवाहित स्त्री के साथ दुष्कर्म (शारीरिक सम्बन्ध) का अपराध सिद्ध हो जाए तो उसके लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान है। बहुतों को इस ‘‘क्रूर दण्ड व्यवस्था’’ पर आश्चर्य है। कुछ लोग तो यहाँ तक कह देते हैं कि इस्लाम एक निर्दयी और क्रूर धर्म है, नऊजुबिल्लाह (ईश्वर अपनी शरण में रखे) मैंने सैंकड़ो ग़ैर मुस्लिम पुरूषों से यह सादा सा प्रश्न किया कि ‘‘मान लें कि ईश्वर न करे, आपकी अपनी बहन, बेटी या माँ के साथ कोई दुष्कर्म करता है और उसे उसके अपराध का दण्ड देने के लिए आपके सामने लाया जाता है तो आप क्या करेंगे?’’ उन सभी का यह उत्तर था कि ‘‘हम उसे मार डालेंगे।’’ कुछ ने तो यहाँ तक कहा, ‘‘हम उसे यातनाएं देते रहेंगे, यहाँ तक कि वह मर जाए।’’ तब मैंने उनसे पूछा, ‘‘यदि कोई व्यक्ति आपकी माँ, बहन, बेटी की इज़्ज़त लूट ले तो आप उसकी हत्या करने को तैयार हैं, परन्तु यही दुर्घटना किसी अन्य की माँ, बहन, बेटी के साथ घटी हो तो उसके लिए मृत्युदण्ड प्रस्तावित करना क्रूरता और निर्दयता कैसे हो सकती है? यह दोहरा मानदण्ड क्यों है?’’
स्त्रियों का स्तर ऊँचा करने का
पश्चिमी दावा निराधार है
नारी जाति की स्वतंत्रता के विषय में पश्चिमी जगत की दावेदारी एक ऐसा आडंबर है जो स्त्री के शारीरिक उपभोग, आत्मा का हनन तथा स्त्री को प्रतिष्ठा और सम्मान से वंचित करने के लिए रचा गया है। पश्चिमी समाज का दावा है कि उसने स्त्री को प्रतिष्ठा प्रदान की है, वास्तविकता इसके विपरीत है। वहाँ स्त्री को ‘‘आज़ादी’’ के नाम पर बुरी तरह अपमानित किया गया है। उसे ‘‘मिस्ट्रेस’’ (हर प्रकार की सेवा करने वाली दासी) तथा ‘‘सोसाइटी बटरफ़्लाई’’ बनाकर वासना के पुजारियों तथा देह व्यापारियों का खिलौना बना दिया गया है। यही वे लोग हैं जो ‘‘आर्ट’’ और ‘‘कल्चर’’ के पर्दों में छिपकर अपना करोबार चमका रहे हैं।
अमरीका मे बलात्कार की दर सर्वाधिक है
संयुक्त राज्य अमरीका (U.S.A.)को विश्व का सबसे अधिक प्रगतिशील देश समझा जाता है। परन्तु यही वह महान देश है जहाँ बलात्कार की घटनाएं पूरे संसार की अपेक्षा सबसे अधिक होती हैं। एफ़.बी.आई की रिपोर्ट के अनुसार 1990 ई. में केवल अमरीका में प्रति दिन औसतन 1756 बलात्कार की घटनाएं हुईं। उसके बाद की रिपोर्टस में (वर्ष नहीं लिखा) प्रतिदिन 1900 बलात्कार काण्ड दर्ज हुए। संभवतः यह आंकड़े 1992, 1993 ई. के हों और यह भी संभव है कि इसके बाद अमरीकी पुरूष बलात्कार के बारे में और ज़्यादा ‘‘बहादुर’’ हो गए हों।

‘‘वास्तव में अमरीकी समाज में देह व्यापार को कषनूनी दर्जा हासिल है। वहाँ की वेश्याएं सरकार को विधिवत् टेक्स देती हैं। अमरीकी कानून में ‘बलात्कार’ ऐसे अपराध को कहा जाता है जिसमें शारीरिक सम्बन्ध में एक पक्ष (स्त्री अथवा पुरूष) की सहमति न हो। यही कारण है कि अमरीका में अविवाहित जोड़ों की संख्या लाखों में है जबकि स्वेच्छा से व्याभिचार अपराध नहीं माना जाता। अर्थात इस प्रकार के स्वेच्छाचार और व्यभिचार को भी बलात् दुष्कर्म की श्रेणी में लाया जाए तो केवल अमरीका में ही लाखों स्त्री-पुरूष ‘‘ज़िना’’ जैसे महापाप में संलग्न हैं।’’ (अनुवादक)

ज़रा कल्पना कीजिए कि अमरीका में इस्लामी हिजाब की पाबन्दी की जाती है जिसके अनुसार यदि किसी पुरूष की दृष्टि किसी परस्त्री पर पड़ जाए तो वह तुरंत आँखें झुका ले। प्रत्येक स्त्री पूरी तरह से इस्लामी हिजाब करके घर से निकले। फिर यह भी हो कि यदि कोई पुरूष बलात्कार का दोषी पाया जाए तो उसे मृत्युदण्ड दिया जाए, मैं आपसे पूछता हूँ कि ऐसे हालात में अमरीका में बलात्कार की दर बढ़ेगी, सामान्य रहेगी अथवा घटेगी?
इस्लीमी शरीअत के लागू होने से बलात्कार घटेंगे
यह स्वाभाविक सी बात है कि जब इस्लामी शरीअत का कानून लागू होगा तो उसके सकारात्मक परिणाम भी शीध्र ही सामने आने लगेंगे। यदि इस्लामी कानून विश्व के किसी भाग में भी लागू हो जाए, चाहे अमरीका हो, अथवा यूरोप, मानव समाज को राहत की साँस मिलेगी। हिजाब स्त्री के सम्मान और प्रतिष्ठा को कम नहीं करता वरन् इससे तो स्त्री का सम्मान बढ़ता है। पर्दा महिलाओं की इज़्ज़त और नारित्व की सुरक्षा करता है।
‘‘हमारे देश भारत में प्रगति और ज्ञान के विकास के नाम पर समाज में फै़शन, नग्नता और स्वेच्छाचार बढ़ा है, पश्चिमी संस्कृति का प्रसार टी.वी और सिनेमा आदि के प्रभाव से जितनी नग्नता और स्वच्छन्दता बढ़ी है उससे न केवल हिन्दू समाज का संभ्रांत वर्ग बल्कि मुसलमानों का भी एक पढ़ा लिखा ख़ुशहाल तब्क़ा बुरी तरह प्रभावित हुआ है। आज़ादी और प्रगतिशीलता के नाम पर परंपरागत भारतीय समाज की मान्यताएं अस्त-व्यस्त हो रही हैं, अन्य अपराधों के अतिरिक्त बलात्कार की घटनाओं में तेज़ी से वृद्धि हो रही है। चूंकि हमारे देश का दण्डविघान पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित है अतः इसमें भी स्त्री-पुरूष को स्चेच्छा और आपसी सहमति से दुष्कर्म करने को दण्डनीय अपराध नहीं माना जाता, भारतीय कानून में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की सज़ा भी कुछ वर्षों की कैद से अधिक नहीं है तथा न्याय प्रक्रिया इतनी विचित्र और जटिल है कि बहुत कम अपराधियों को दण्ड मिल पाता है। इस प्रकार के अमानवीय अपराधों को मानव समाज से केवल इस्लामी कानून द्वारा ही रोका जा सकता है। इस संदर्भ में इस्लाम और मुसलमानों के कट्टर विरोधी भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण आडवानी ने बलात्कार के अपराधियों को मृत्यु दण्ड देने का सुझाव जिस प्रकार दिया है उस से यही सन्देश मिलता है कि इस्लामी कानून क्रूरता और निर्दयता पर नहीं बल्कि स्वाभाविक न्याय पर आधारित है। यही नहीं केवल इस्लामी शरीअत के उसूल ही प्रगति के नाम पर विनाश के गर्त में गिरती जा रही मानवता को तबाह होने से बचा सकते हैं।’’ (अनुवादक)
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क्या इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला है?
प्रश्नः यह कैसे संभव है कि इस्लाम को शांति का धर्म माना जाए क्योंकि यह तो तलवार (युद्ध और रक्तपात) के द्वारा फैला है?
उत्तरः अधिकांश ग़ैर मुस्लिमों की एक आम शिकायत है कि यदि इस्लाम ताकष्त के इस्तेमाल से न फैला होता तो इस समय उनके अनुयायियों की संख्या इतनी अधिक (अरबों में) हरगिज़ नहीं होती। आगे दर्ज किये जा रहे तथ्य यह स्पष्ट करेंगे कि इस्लाम के तेज़ी से विश्वव्यापी फैलाव में तलवार की शक्ति नहीं वरन् उसकी सत्यता तथा बुद्धि और विवेकपूर्ण तार्किक प्रमाण इसके मुख्य कारण है।
इस्लाम का अर्थ है ‘शांति’ अरबी भाषा में इस्लाम शब्द ‘सलाम’ से बना है जिसका अर्थ है, सलामती और शांति। इस्लाम का एक अन्य अर्थ है कि अपनी इच्छा और इरादों को ईश्वर (अल्लाह) के आधीन कर दिया जाए। अर्थात इस्लाम शांति का धर्म है और यह शांति (सुख संतोष और सुरक्षा) तभी प्राप्त हो सकती है जब मनुष्य अपने आस्तित्व, इच्छाओं ओर आकांक्षाओं को ईश्वर के आधीन कर दे अर्थात स्वंय को पूरी तरह समर्पित कर दे। कभी-कभार शांति बनाए रखने के लिए बल प्रयोग करना पड़ता है
इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति शांति और एकता स्थापित रखने के पक्ष में नहीं है। ऐसे अनेकों लोग हैं जो अपने निहित अथवा प्रत्यक्ष स्वार्थों की पूर्ति के लिए शांति व्यवस्था में व्यावधान उत्पन्न करते रहते हैं, अतः कुछ अवसरों पर बल प्रयोग करना पड़ता है। यही कारण है कि प्रत्येक देश में पुलिस विभाग होता है जो अपराधियों और समाज विरोधी तत्वों के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग करता है ताकि देश में शांति व्यवस्था बनी रहे। इस्लाम शांति का सन्देश देता है। इसी के साथ वह हमें यह शिक्षा भी देता है कि अन्याय के विरुद्ध लड़ें। अतः कुछ अवसरों पर अन्याय और अराजकता के विरुद्ध बल प्रयोग आवश्यक हो जाता है। विदित हो कि इस्लाम में शक्ति का प्रयोग केवल और केवल शांति तथा न्याय की स्थापना एवं विकास के लिए ही किया जा सकता है।
इतिहासकार लेसी ओलेरी की राय
इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला, इस सामान्य भ्रांति का सटीक जवाब प्रसिद्ध इतिहासकार लेसी ओलेरी ने अपनी विख्यात पुस्तक ‘‘इस्लाम ऐट दि क्रास रोड’’ पृष्ठ 8) में इस प्रकार दिया है।
‘‘इतिहास से सिद्ध होता है कि लड़ाकू मुसलमानों के समस्त विश्व में फैलने और विजित जातियों को तलवार के ज़ोर पर इस्लाम में प्रविष्ट करने की कपोल-कल्पित कहानी उन मनगढ़ंत दंतकथाओं में से एक है जिन्हें इतिहासकार सदैव से दोहराते आ रहे हैं।’’
मुसलमानों ने स्पेन पर 800 वर्षों तक शासन किया
स्पेन पर मुसलमानों का 800 वर्षों तक एकछत्र शासन रहा है परन्तु स्पेन में मुसलमानों ने वहाँ के लोगों का धर्म परिवर्तन अर्थात मुसलमान बनाने के लिए कभी तलवार का उपयोग नही किया। बाद में सलीबी ईसाईयों ने स्पेन पर कष्ब्ज़ा कर लिया और मुसलमानों को वहाँ से निकाल बाहर किया, तब यह स्थिति थी कि स्पेन में किसी एक मुसलमान को भी यह अनुमति नहीं थी कि वह आज़ादी से अज़ान ही दे सकता।
एक करोड़ 40 लाख अरब आज भी कोपटिक ईसाई हैं
मुसलमान विगत् 1400 वर्षों से अरब के शासक रहे हैं। बीच के कुछ वर्ष ऐसे हैं जब वहाँ फ्ऱांसीसी अधिकार रहा परन्तु कुल मिलाकर अरब की धरती पर मुसलमान 14 शताब्दियों से शासन कर रहे हैं। इसके बावजूद वहाँ एक करोड़ 40 लाख कोपटिक क्रिश्चियन हैं, अर्थात वह ईसाई जो पीढ़ी दर पीढ़ी वहाँ रहते चले आ रहे हैं। यदि मुसलमानों ने तलवार इस्तेमाल की होती तो उस क्षेत्र में कोई एक अरबवासी भी ऐसा नहीं होता जो ईसाई रह जाता।
भारत में 80 प्रतिशत से अधिक ग़ैर मुस्लिम हैं
भारत में मुसलमानों ने लगभग 1000 वर्षों तक शासन किया है। यदि वे चाहते, और उनके पास इतनी शक्ति थी कि भारत में बसने वाले प्रत्येक ग़ैर मुस्लिम को (तलवार के ज़ोर पर) इस्लाम स्वीकार करने पर विवश कर सकते थे। आज भारत में 80 प्रतिशत से अधिक ग़ैर मुस्लिम हैं। इतनी बड़ी गै़र मुस्लिम जनसंख्या यह स्पष्ट गवाही दे रही है कि उपमहाद्वीप में इस्लाम तलवार के ज़ोर पर हरगिज़ नहीं फैला।
इंडोनेशिया और मलेशिया
जनसंख्या के आधार पर इंडोनेशिया विश्व का सबसे बड़ा इस्लामी देश है। मलेशिया में भी मुसलमान बहुसंख्यक हैं। यह पूछा जासकता है कि वह कौन सी सेना थी जिसने (सशस्त्र होकर) इंडोनेशिया और मलेशिया पर आक्रमण किया था और वहाँ इस्लाम फैलाने के लिए मुसलमानों की कौन सी युद्ध शक्ति का इसमें हाथ है?
अफ्ऱीकष का पूर्वी समुद्र तट
इसी प्रकार अफ्ऱीकी महाद्वीप के पूर्वी समुद्रतट के क्षेत्र के साथ-साथ इस्लाम का तीव्रगति से विस्तार हुआ है। एक बार फिर वही प्रश्न सामाने आता है कि यदि इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला है तो आपत्ति करने वाले इतिहास का तर्क देकर बताएं कि किस देश की मुसलमान सेना उन क्षेत्रों को जीतने और वहाँ के लोगों को मुसलमान बनाने गई थी?
थामस कारलायल
प्रसिद्ध इतिहासकार थामस कारलायल अपनी पुस्तक ‘‘हीरोज़ एण्ड हीरो वर्शिप’’ में इस्लाम फैलने के विषय में भ्रांति का समाधान करते हुए लिखता हैः
‘‘तलवार तो है, परन्तु आप तलवार लेकर वहाँ जाएंगे? प्रत्येक नई राय की शुरूआत अल्पमत में होती है। (आरंभ में) केवल एक व्यक्ति के मस्तिष्क में होती है, यह सोच वहीं से पनपती है। इस विश्व का केवल एक व्यक्ति जो इस बात पर विश्वास रखता है, केवल एक व्यक्ति जो शेष समस्त व्यक्तियों के सामने होता है, फिर (यदि) वह तलवार उठा ले और (अपनी बात) का प्रचार करने का प्रयास करने लगे तो वह थोड़ी सी सफलता ही पा सकेगा। आप के पास अपनी तलवार अवश्य होनी चाहिए परन्तु कुल मिलाकर कोई वस्तु उतना ही फैलेगी जितना वह अपने तौर पर फैल सकती है।’’
दीन (इस्लाम) में कोई ज़बरदस्ती नहीं
इस्लाम किस तलवार द्वारा फैला? यदि मुसलमानों के पास यह तलवार होती और उन्होंने इस्लाम फैलाने के लिये उसका प्रयोग किया भी होता तब भी वे उसका प्रयोग नहीं करते क्योंकि पवित्र क़ुरआन का स्पष्ट आदेश हैः
‘‘दीन के बारे में कोई ज़बरदस्ती नहीं है, सही बात ग़लत बात से छाँटकर रख दी गई है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 2:256)
ज्ञान, बुद्धि और तर्क की तलवार
वास्तविकता यह है कि जिस तलवार ने इस्लाम को फैलाया, वह ज्ञान, बुद्धि और तर्क की तलवार है। यही वह तलवार है जो मनुष्य के हृदय और मस्तिष्क को विजित करती है। पवित्र कुरआन के सूरह ‘अन्-नह्ल’ में अल्लाह का फ़रमान हैः
‘‘हे नबी! अपने रब के रास्ते की तरफ़ दावत दो, ज्ञान और अच्छे उपदेश के साथ लोगों से तर्क-वितर्क करो, ऐसे ढंग से जो बेहतरीन हो। तुम्हारा रब ही अधिक बेहतर जानता है कि कौन राह से भटका हुआ है और कौन सीधे रास्ते पर है।’’ (पवित्र क़ुरआन, 16:125)
इस्लाम 1934 से 1984 के बीच
विश्व में सर्वाधिक फैलने वाला धर्म रीडर्स डायजेस्ट, विशेषांक 1984 में प्रकाशित एक लेख में विश्व के प्रमुख धर्मों में फैलाव के आंकड़े दिये गये हैं जो 1934 से 1984 तक के 50 वर्षों का ब्योरा देते हैं। इसके पश्चात यह लेख ‘दि प्लेन ट्रुथ’’ नामक पत्रिका में भी प्रकाशित हुआ। इस आकलन में इस्लाम सर्वोपरि था जो 50 वर्षों में 235 प्रतिशत बढ़ा था। जबकि ईसाई धर्म का विस्तार केवल 47 प्रतिशत रहा। क्या यह पूछा जा सकता है कि इस शताब्दी में कौन सा युद्ध हुआ था जिसने करोड़ों लोगों को धर्म परिवर्तन पर बाध्य कर दिया?
इस्लाम यूरोप और अमरीका में सबसे अधिक तेज़ी से फैलने वाला धर्म है इस समय इस्लाम अमरीका में सबसे अधिक तेज़ी से फैलने वाला धर्म है। इसी प्रकार यूरोप में भी तेज़ गति से फैलने वाला धर्म भी इस्लाम ही है। क्या आप बता सकते हैं कि वह कौन सी तलवार है जो पश्चिम के लोगोें को इस्लाम स्वीकार करने पर विवश कर रही है।
डा. पीटर्सन का मत डा. जोज़फ़ एडम पीटर्सन ने बिल्कुल ठीक कहा है किः
‘‘जो लोग इस बात से भयभीत हैं कि ऐटमी हथियार एक न एक दिन अरबों के हाथों में चले जाएंगे, वे यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि इस्लामी बम तो गिराया जा चुका है, यह बम तो उसी दिन गिरा दिया गया था जिस दिन मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का जन्म हुआ था।’’

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मुसलमान रूढ़िवादी ;(Fundamentalist) और आतंकवादी हैं
प्रश्नः अधिकांश मुसलमान रूढ़िवादी और आतंकवादी हैं?
उत्तरः यह वह प्रश्न है जो मुसलमानों से प्रायः सीधे अथवा सांकेतिक रूप से विश्व समस्याओं अथवा धर्म पर चर्चा के दौरान किया जाता है। मुसलमानों के विरुद्ध ऐसी मानसिकता मीडिया मे निरंतर व्यक्त की जाती है और उसके साथ मुसलमानों के विषय में आधारहीन जानकारी भी जोड़ दी जाती है।
वास्तव में यही वह ग़लत-सलत जानकारी और झूठे प्रचार हैं जो मुसलमानों के साथ भेदभाव और उनके विरुद्ध हिंसक कार्यवाहियों के पीछे होते हैं। इस जगह मैं अमरीकी मीडिया में मुसलमानों के विरुद्ध ज़हरीले प्रचार का एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूंगा।
ओकलाहमा बम धमाके के तुरंत बाद अमरीकी मीडिया ने यह प्रोपेगण्डा आरंभ कर दिया कि इस हमले के पीछे ‘‘मध्य पूर्व की साज़िश’’ है। कुछ समय पश्चात असली अपराधी पकड़ा गया जो सचमुच उस काण्ड का ज़िम्मेदार था, पता चला कि वह अमरीकी सशस्त्र सेना से सम्बन्ध रखने वाला सैनिक था।
अब हम रूढ़िवाद (Fundamentalism) और आतंकवाद के आरोपों का विश्लेषण करेंगे।
शब्द ‘रूढ़िवाद’ का अर्थ
रूढ़िवादी अथवा फ़ंडामेंटलिस्ट ऐसा कोई भी व्यक्ति होता है जो किसी विशेष विचारधारा अथवा आचार संहिता से सम्बद्ध रहते हुए उसके अनुसार अमल करता है। जैसे किसी व्यक्ति के कुशल डाक्टर होने के लिए आवश्यक है कि वह मेडिकल नालेज् और चिकित्सा विज्ञान की मौलिक बातों की जानकारी रखता हो और उस पर पूरी तरह अमल भी करता हो। दूसरे शब्दों में उसे चिकित्सा विज्ञान या मेडिकल साइंस का ‘‘रूढ़िवादी’’ होना चाहिए। इसी प्रकार एक कुशल गणित शास्त्री होने के लिए उस व्यक्ति को गणित का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो और उसके नियमों के अनुसार ही वह अपना कार्य करता हो, अर्थात उसे गणित का ‘‘रूढ़िवादी’’ होना चाहिए। इसी प्रकार एक अच्छा वैज्ञानिक होने के लिये यह आवश्यक है कि उक्त व्यक्ति को विज्ञान की बुनियादी बातों का भली प्रकार ज्ञान हो और वह उस ज्ञान का पाबन्द हो, अर्थात अच्छा वैज्ञानिक होने के लिये उसे विज्ञान का ‘‘रूढ़िवादी’’ होना चाहिए।
सभी रूढ़िवादी समान नहीं होते
समस्त प्रकार के रूढ़िवादियों का विवरण संक्षेप में नहीं किया जा सकता। इससे अभिप्राय यह है कि समस्त रूढ़िवादियों अथवा फ़ण्डामेंटालिस्टों को समान रूप से अच्छा या बुरा नहीं कष्रार दिया जा सकता। वर्गीकरण के लिए आवश्यक है कि उस विचारधारा अथवा सक्रियता को देखा जाए जिस से उस रूढ़िवादी का सम्बन्ध है। जैसे एक रूढ़िवादी चोर अथवा डकैत समाज के लिए हानिकारक हैं अतः वह अप्रिय होगा, इसके विपरीत एक रूढ़िवादी डाक्टर या सर्जन अपने कार्य से समाज को लाभ पहुंचाता है अतः उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जा सकता है।
मुझे गर्व है कि मैं मुसलमान रूढ़िवादी हूँ
मैं फ़ण्डामेंटालिस्ट मुसलमान हूँ, (आप अपने शब्दों में रूढ़िवादी कह सकते हैं) अल्लाह की कृपा है कि मैं इस्लाम के मौलिक नियमों की जानकारी रखता हूँ, उनकी रक्षा करता हूँ और उन्हीं नियमों पर अमल करने का प्रयास करता हूँ। एक सच्चे मुसलमान को अपने फ़ण्डामेंटलिस्ट अथवा रूढ़िवादी कहे जाने पर कदापि लज्जित नहीं होना चाहिए। मुझे मुसलमान फ़ण्डामेंटलिस्ट अथवा रूढ़िवादी होने पर गर्व है। मैं जानता हूँ कि इस्लाम के मौलिक नियम ही समस्त मानवजाति और समस्त संसार के लिए लाभकारी हैं। इस्लाम की बुनियादी बातों में कोई एक बात भी ऐसी नहीं है जो कुल मिलाकर मानव समाज हेतु अहितकर हो। बहुत से लोग इस्लाम के बारे में ग़लतफ़हमी का शिकार हैं। वे समझते हैं कि इस्लाम की कई बातें अनुचित हैं तथा न्यायसंगत नहीं हैं। इसका कारण इस्लाम के सम्बन्ध में उनका अल्पज्ञान और ग़लत जानकारी है। यदि इस्लाम का खुले मन से विवेचनात्मक अध्ययन किया जाए तो इस सत्यता से पलायन कर पाना संभव ही नहीं रहता कि वास्तव में इस्लाम सामुहिक एवं व्यक्तिगत दोनों आधार पर मानवजाति हेतु पूर्णतया कल्याणकारी है।
शब्द फ़ण्डामेंटालिस्ट का अनुवाद
अंग्रेज़ी भाषा के इस शब्द का वास्तविक अर्थ है किसी विचारधारा के मौलिक नियमों के प्रति कटिबद्धता जिसे रूढ़ि अर्थात परंपरा और पुराने उसूलों पर चलने वाला रूढ़िवादी कहा जाता है। उर्दू में Fundamentalism अथवा रूढ़िवाद का अर्थ है ‘बुनियाद परस्त’। वेब्स्टर्ज़ डिक्शनरी के अनुसार दरअस्ल फ़ण्डामेंन्टलिज़्म अमरीका में प्रोटेस्टेंट ईसाईयों द्वारा छेड़ा गया एक आन्दोलन था जो बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ था। यह आन्दोलन ईसाई समाज में आधुनिकता के प्रचलन की प्रतिक्रिया पर
आधारित था। ईसाई रूढ़िवादियों ने इस आन्दोलन में बाइबल को आधार बनाया था, ईसाई फ़ण्डामेंटलिज़्म के इस आन्दोलन में यह ज़ोर दिया गया था कि बाइबल के निर्देश और नियम केवल आस्था और नैतिकता के मुआमलों में ही सीमित नहीं वरन् ऐतिहासिक रिकार्ड के सन्दर्भ में भी बिल्कुल सही माने जाएं। इस बात पर विशेष बल दिया जाता था कि केवल और केवल बाईबल को ही ख़ुदा का सच्चा कलाम (ईश्वरीय सन्देश) माना जाए। इससे सिद्ध हुआ कि यह शब्द थ्नदकंउमदजंसपेउ सर्वप्रथम ईसाईयों के उस गिरोह ने इस्तेमाल किया जिसका विश्वास था कि बाइबल ही ख़ुदा का एकमात्र कलाम है जो किसी भी प्रकार की त्रुटियों और फेरबदल से सुरक्षित है।
आॅक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी के अनुसार फ़ण्डामेंटलिज़्म से आश्य, किसी भी धर्म, विशेषरूप से इस्लाम की प्राचीन अथवा मौलिक शिक्षा और आस्था पर सख़्ती से पाबन्द रहना है।
यदि आज किसी व्यक्ति के सामने ‘‘फ़ण्डामेंटलिज़्म’’ या रूढ़िवादी का शब्द इस्तेमाल किया जाए तो वह तुरन्त किस ऐसे मुसलमान की कल्पना करता है जो आतंकवादी हो।
प्रत्येक मुसलमान को ‘‘आतंकवादी’’ होना चाहिए
प्रत्येक मुसलमान को आंतकवादी होना चाहिए। आतंकवादी कोई ऐसा व्यक्ति होता है जो भय और आतंक का कारण बनता है। जैसे कोई डाकू किसी पुलिस वाले को देखता है तो वह आतंकित हो जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक मुसलमान को समाज विरोधी तत्वों के लिए आतंकवादी होना चाहिए। चाहे वह चोर, डाकू हो अथवा बदकार। जब भी ऐसा कोई बुरा व्यक्ति किसी मुसलमान को देखे तो उसे भयभीत और आतंकित हो जाना चाहिए। यह सच है कि शब्द ‘‘आतंकवादी’’ से आशय उस व्यक्ति से होता है जो जन साधारण में भय और आतंक फैलाने का कारण हो। लेकिन एक सच्चे मुसलमान के लिए आवश्यक है कि वह केवल विशेष लोगोें के लिए ही आतंकवादी हो। अर्थात उन लोगों के लिए जो समाज के बुरे तत्व हैं। जबकि वह सामान्य लोगों के लिए आतंक का कारण न बने। बल्कि यह कहना अधिक ठीक होगा कि एक सच्चे मुसलमान को साधारण और निर्दोष लोगों के लिए शांति और सुरक्षा का साधन होना चाहिए।
‘‘आतंकवादी’’ और ‘‘राष्ट्रवादी’’
एक ही काम करने वालों के दो नाम
ब्रितानी साम्राज्य से मुक्ति प्राप्त करने से पहले, भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले वे लोग जो आहिंसा पर सहमत नहीं थे, उन्हें अंग्रेज़ी साम्राज्य ने ‘‘आतंकवादी’’ क़रार दे दिया था। उन्हीं लोगों को आज भारत में स्वतंत्रता के बलिदानियों और राष्ट्र भक्तों के रूप में याद किया जाता है। यह देखने वाली बात है कि यह लोग वही हैं, काम भी एक ही है परन्तु उन पर दो विपरीत पक्षों की ओर से दो विभिन्न लेबिल लगा दिये गए हैं। एक पक्ष के लिए वे ‘‘आतंकवादी’’ थे, इसके विपरीत जिन लोगों का दृष्टिकोण यह था कि ब्रितानिया को भारत पर शासन करने का कोई अधिकार नहीं है, वह उन लोगों को ‘‘देशभक्त’’ और ‘‘बलिदानी नायकों’’ के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।
अतः यह आवश्यक है कि किसी व्यक्ति का फै़सला करने से पहले दोनों पक्षों की बात सुनी जाए। परिस्थतियों का आकलन किया जाए। आरोपी की नीयत को भी सामने रखा जाए और फिर उसी के अनुसार उस व्यक्ति के लिए कोई फ़ैसला किया जाए।
इस्लाम का मतलब ‘‘शांति’’ है
इस्लाम लफ़्ज़ ‘‘सलाम’’ से निकला है जिसका अर्थ है ‘‘शांति’’। यह शांति का धर्म है जिसके मौलिक सिद्धांत उसके अनुयायियों को यह शिक्षा देते हैं कि वे शांति स्थापित करें और विश्व में शांति फैलाएं। अतः हर मुसलमान को फ़ण्डामेंटालिस्ट होना चाहिए अर्थात शांति के धर्म की, इस्लाम की बुनियादी बातों पर अनिवार्य रूप से अमल करना चाहिए। उसे केवल उन लोगों के लिए ‘आतंकवादी’ होना चाहिए जो समाज में शांति और सुरक्षा के शत्रु हैं। ताकि समाज में सुख, न्याय और शांति स्थापित और स्थिर रखी जा सके।


6
मांसाहारी भोजन
प्रश्नः पशुओं को मारना एक क्रूरतापूर्ण कृत्य है तो फिर मुसलमान मांसाहारी भोजन क्यों पसन्द करते हैं?
उत्तरः ‘शाकाहार’ आज एक अंतराष्ट्रीय आन्दोलन बन चुका है बल्कि अब तो पशु-पक्षियों के अधिकार भी निर्धारित कर दिये गए हैं। नौबत यहां तक पहुंची है कि बहुत से लोग मांस अथवा अन्य प्रकार के सामिष भोजन को भी पशु-पक्षियों के अधिकारों का हनन मानने लगे हैं।
इस्लाम केवल इंसानों पर ही नहीं बल्कि तमाम पशुओं और
प्राणधारियों पर दया करने का आदेश देता है परन्तु इसके साथ-साथ इस्लाम यह भी कहता है कि अल्लाह तआला ने यह धरती और इस पर मौजूद सुन्दर पौधे और पशु पक्षी, समस्त वस्तुएं मानवजाति के फ़ायदे के लिए उत्पन्न कीं। यह मनुष्य की ज़िम्मेदारी है कि वह इन समस्त
संसाधनों को अल्लाह की नेमत और अमानत समझकर, न्याय के साथ इनका उपयोग करे।
अब हम इस तर्क के विभिन्न पहलुओं पर दृष्टि डालते हैं।
मुसलमान पक्का ‘शाकाहारी’ बन सकता है
एक मुसलमान पुरी तरह शाकाहारी रहकर भी एक अच्छा मुसलमान बन सकता है। मुसलमानों के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह सदैव मांसाहारी भोजन ही करें।
पवित्र क़ुरआन मुसलमानों को मांसाहार की अनुमति देता है
पवित्र क़ुरआन में मुसलमानों को मांसाहारी भोजन की अनुमति दी गई है। इसका प्रमाण निम्नलिखित आयतों से स्पष्ट हैः
‘‘तुम्हारे लिए मवेशी (शाकाहारी पशु) प्रकार के समस्त जानवर हलाल किये गए हैं।’’ (पवित्र क़ुरआन , 5:1)
‘‘उसने पशु उत्पन्न किये जिनमें तुम्हारे लिए पोशाक भी है और ख़ूराक भी, और तरह तरह के दूसरे फ़ायदे भी।’’ (पवित्र क़ुरआन , 16:5)
‘‘और हकीकत यह है कि तुम्हारे लिये दुधारू पशुओं में भी एक शिक्षा है, उनके पेटों में जो कुछ है उसी में से एक चीज़ (अर्थात दुग्ध) हम तुम्हें पिलाते हैं और तुम्हारे लिए इनमे बहुत से दूसरे फ़ायदे भी हैं, इनको तुम खाते हो और इन पर और नौकाओं पर सवार भी किये जाते हो।’’ (पवित्र क़ुरआन , 23:21)
मांस पौष्टिकता और प्रोटीन से भरपूर होता है
मांसाहारी भोजन प्रोटीन प्राप्त करने का अच्छा साधन है। इसमें भरपूर प्रोटीन होते है। अर्थात आठों जीवन पोषक तत्व। (इम्यूनो एसिड) मौजूद होते हैं। यह आवश्यक तत्व मानव शरीर में नहीं बनते। अतः इनकी पूर्ती बाहरी आहार से करना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त माँस में लोहा, विटामिन-बी, इत्यादि पोषक तत्व भी पाए जाते हैं।
मानवदंत प्रत्येक प्रकार के भोजन के लिए उपयुक्त हैं
यदि आप शाकाहारी पशुओं जैसे गाय, बकरी अथवा भेड़ आदि के दांतों को देखें तो आश्चर्यजनक समानता मिलेगी। इन सभी पशुओं के दाँत
सीधे अथवा फ़्लैट हैं। अर्थात ऐसे दांत जो वनस्पति आहार चबाने के लिए उपयुक्त हैं। इसी प्रकार यदि आप शेर, तेंदुए अथवा चीते इत्यादि के दांतों का निरीक्षण करें तो आपको उन सभी में भी समानता मिलेगी। मांसाहारी जानवारों के दांत नोकीले होते हैं। जो माँस जैसा आहार चबाने के लिए उपयुक्त हैं। परनतु मनुष्य के दाँतों को ध्यानपुर्वक देखें तो पाएंगे कि उनमें से कुछ दांत सपाट या फ़्लैट हैं परन्तु कुछ नोकदार भी हैं। इसका मतलब है कि मनुष्य के दांत शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के आहार के लिए उपयुक्त हैं। अर्थात मनुष्य सर्वभक्षी प्राणी है जो वनास्पति और माँस प्रत्येक प्रकार का आहार कर सकता है।
प्रश्न किया जा सकता है कि यदि अल्लाह चाहता कि मनुष्य केवल शाकाहारी रहे तो उसमें हमें अतिरिक्त नोकदार दांत क्यों दिये? इसका तार्किक उत्तर यही है कि अल्लाह ने मनुष्य को सर्वभक्षी प्राणी के रूप में रचा है और वह महान विधाता हमसे अपेक्षा रखता है कि हम शाक सब्ज़ी के अतिरिक्त सामिष आहार (मांस, मछली, अण्डा इत्यादि) से भी अपनी शारीरिक आवश्यकताएं पूरी कर सकें।
मनुष्य की पाचन व्यवस्था शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन को पचा सकती है
शाकाहारी प्राणीयों की पाचन व्यवस्था केवल शाकाहारी भोजन को पचा सकती है। मांसाहारी जानवरों में केवल मांस को ही पचाने की क्षमता होती है। परन्तु मनुष्य हर प्रकार के खाद्य पद्रार्थों को पचा सकता है। यदि अल्लाह चाहता कि मनुष्य एक ही प्रकार के आहार पर जीवत रहे तो हमारे शरीर को दोनों प्रकार के भोजन के योग्य क्यों बनाता कि वह शक सब्ज़ी के साथ-साथ अन्य प्रकार के भोजन को भी पचा सके।
पवित्र हिन्दू धर्मशास्त्रों में भी
मांसाहारी भोजन की अनुमति है
(क) बहुत से हिन्दू ऐसे भी हैं जो पूर्ण रूप से शाकाहारी हैं। उनका विचार है कि मास-मच्छी खाना उनके धर्म के विरुद्ध है परन्तु यह वास्तविकता है कि हिन्दुओं के प्राचीन धर्मग्रन्थों में मांसाहार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। उन्हीं ग्रंथों में ऐसे साधू संतों का उल्लेख है जो मांसाहारी थे।
(ख) मनुस्मृति जो हिन्दू कानून व्यवस्था का संग्रह है, उसके पाँचवे
अध्याय के 30वें श्लोक में लिखा हैः
‘‘खाने वाला जो उनका मांस खाए कि जो खाने के लिए है तो वह कुछ बुरा नहीं करता, चाहे नितदिन वह ऐसा क्यों न करे क्योंकि ईश्वर ने स्वयं ही बनाया है कुछ को ऐसा कि खाए जाएं और कुछ को ऐसा कि खाएं।’’
(ग) मनुस्मृति के पाँचवें अध्याय के अगले श्लोक नॉ 31 में लिखा हैः
‘‘बलि का माँस खाना उचित है, यह एक रीति है जिसे देवताओं का आदेश जाना जाता है ’’
(घ) मनुस्मृति के इसी पाँचवें अध्याय के श्लोक 39-40 में कहा गया हैः
‘‘ईश्वर ने स्वयं ही बनाया है बलि के पशुओं को बलि हेतु। तो बलि के लिये मारना कोई हत्या नहीं है।’’
(ङ) महाभारत, अनुशासन पर्व के 58वें अध्याय के श्लोक 40 में धर्मराज युधिष्ठिर और भीष्म पितामहः के मध्य इस संवाद पर कि यदि कोई व्यक्ति अपने पुरखों के श्राद्ध में उनकी आत्मा की शांति के लिए कोई भोजन अर्पित करना चाहे तो वह क्या कर सकता है। वह वर्णन इस प्रकार हैः
‘‘युधिष्ठिर ने कहाµ ‘हे महाशक्तिमान, मुझे बताओ कि वह कौन सी वस्तु है जिसे यदि अपने पुरखों की आत्मा की शांति के लिए अर्पित करूं तो वह कभी समाप्त न हो, वह क्या वस्तु है जो (यदि दी जाए तो) सदैव बनी रहे? वह क्या है जो (यदि भेंट की जाए तो) अमर हो जाए?’’
भीष्म ने कहाः ‘‘हे युधिष्ठिर! मेरी बात ध्यानपुर्वक सुनो, वह भेंटें क्या हैं जो कोई श्रद्धापूर्वक अर्पित की जाए जो श्रद्धा हेतु अचित हो और वह क्या फल है जो प्रत्येक के साथ जोड़े जाएं। तिल और चावल, जौ और उड़द और जल एवं कन्दमूल आदि उनकी भेंट किया जाए तो हे राजन! तुम्हारे पुरखों की आत्माएं प्रसन्न होंगी। भेड़ का (मांस) चार मास तक, ख़रगोश के (मांस) की भेंट चार मास तक प्रसन्न रखेगी, बकरी के (मांस) की भेंट छः मास तक और पक्षियों के (मांस) की भेंट सात मास तक प्रसन्न रखेगी। मृग के (मांस) की भेंट दस मास तक, भैंसे के (मांस) का दान ग्यारह मास तक प्रसन्न रखेगा। कहा जाता है कि गोमांस की भेंट एक वर्ष तक शेष रहती है। भेंट के गोमांस में इतना घृत मिलाया जाए जो तुम्हारे पुरखों की आत्माओं को स्वीकार्य हो, धरनासा (बड़ा बैल) का मांस तुम्हारे पुरखों की आत्माओं को बारह वर्षों तक प्रसन्न रखेगा। गेण्डे का मांस, जिसे पुरखों की आत्माओं को चन्द्रमा की उन रातों में भेंट किया जाए जब वे परलोक सिधारे थे तो वह उन्हें सदैव प्रसन्न रखेगा। और एक जड़ी बूटी कलासुका कही जाती है तथा कंचन पुष्प की पत्तियाँ और (लाल) बकरी का मांस भी, जो भेंट किया जाए, वह सदैव-सदैव के लिये है। यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारें पितरों की आत्मा सदैव के लिए शांति प्राप्त करे तो तुम्हें चाहिए कि लाल बकरी के मांस से उनकी सेवा करो।’’ (भावार्थ)
हिन्दू धर्म भी अन्य धर्मों से प्रभावित हुआ है
यद्यपि हिन्दू धर्म शास्त्रों में मांसाहारी भोजन की अनुमति नहीं है परन्तु हिन्दुओं के अनुयायियों ने कालांतर में अन्य धर्मों का प्रभाव भी स्वीकार किया और शाकाहार को आत्मसात कर लिया। इन अन्य धर्मों में जैनमत इत्यादि शामिल हैं।
पौधे भी जीवनधारी हैं
कुछ धर्मों ने शकाहार पर निर्भर रहना इसलिए भी अपनाया है क्योंकि आहार व्यवस्था में जीवित प्राणधारियों को मारना वार्जित है। यदि कोई व्यक्ति अन्य प्राणियों को मारे बिना जीवित रह सकता है तो वह पहला व्यक्ति होगा जो जीवन बिताने का यह मार्ग स्वीकार कर लेगा। अतीत में लोग यह समझते थे कि वृक्ष-पौधे निष्प्राण होते हैं परन्तु आज यह एक प्रामाणिक तथ्य है कि वृक्ष-पौधे भी जीवधारी होते हैं अतः उन लोगों की यह धारणा कि प्राणियों को मारकर खाना पाप है, आज के युग में
निराधार सिद्ध होती है। अब चाहे वे शाकाहारी क्यों न बने रहें।
पौधे भी पीड़ा का आभास कर सकते हैं
पूर्ण शाकाहार में विश्वास रखने वालों की मान्यता है कि पौधे कष्ट और पीड़ा महसूस नहीं कर सकते अतः वनस्पति और पेड़-पौधों को मारना किसी प्राणी को मारने के अपेक्षा बहुत छोटा अपराध है। आज विज्ञान हमें बताता है कि पौधे भी कष्ट और पीड़ा का अनुभव करते हैं किन्तु उनके रुदन और चीत्कार को सुनना मनुष्य के वश में नहीं। इस का कारण यह है कि मनुष्य की श्रवण क्षमता केवल 20 हटर्ज़ से लेकर 20,000 हर्टज फ्ऱीक्वेंसी वाली स्वर लहरियाँ सुन सकती हैं। एक कुत्ता 40,000 हर्टज तक की लहरों को सुन सकता है। यही कारण है कि कुत्तों के लिए विशेष सीटी बनाई जाती है तो उसकी आवाज़ मनुष्यों को सुनाई नहीं देती परन्तु कुत्ते उसकी आवाज़ सुनकर दौड़े आते हैं, उस सीटी की आवाज़ 20,000 हर्टज से अधिक होती है।
एक अमरीकी किसान ने पौधों पर अनुसंधान किया। उसने एक ऐसा यंत्र बनाया जो पौधे की चीख़ को परिवर्तित करके फ्ऱीक्वेंसी की
परिधि में लाता था कि मनुष्य भी उसे सुन सकें। उसे जल्दी ही पता चल गया कि पौधा कब पानी के लिए रोता है। आधुनिकतम अनुसंधान से सिद्ध होता है कि पेड़-पौधे ख़ुशी और दुख तक को महसूस कर सकते हैं और वे रोते भी हैं।

(अनुवादक के दायित्व को समक्ष रखते हुए यह उल्लेख हिन्दी में भी किया गया है। दरअस्ल पौधे के रोने चीख़ने की बात किसी अनुसंधान की चर्चा किसी अमरीकी अख़बार द्वारा गढ़ी गई है। क्योंकि गम्भीर विज्ञान साहित्य और अनुसंघान सामग्री से पता चला है कि प्रतिकूल परिस्थतियों अथवा पर्यावरण के दबाव की प्रतिक्रिया में पौधों से विशेष प्रकार का रसायनिक द्रव्य निकलता है। वनस्पति वैज्ञानिक इस प्रकार के रसायनिक द्रव्य को ‘‘पौधे का रुदन और चीत्कार बताते हैं) अनुवादक
दो अनुभूतियों वाले प्राणियों की हत्या करना

निम्नस्तर का अपराध है
एक बार एक शाकाहारी ने बहस के दौरान यह तर्क रखा कि पौधों में दो अथवा तीन अनुभूतियाँ होती हैं। जबकि जानवरों की पाँच अनुभूतियाँ होती है। अतः (कम अनुभव क्षमता के कारण) पौधों को मारना जीवित जानवरों को मारने की अपेक्षा छोटा अपराध है। इस जगह यह कहना पड़ता है कि मान लीजिए (ख़ुदा न करे) आपका कोई भाई ऐसा हो जो जन्मजात मूक और बधिर हो अर्थात उसमें अनुभव शक्ति कम हो, वह वयस्क हो जाए और कोई उसकी हत्या कर दे तब क्या आप जज से कहेंगे कि हत्यारा थोड़े दण्ड का अधिकारी है। आपके भाई के हत्यारे ने छोटा अपराध किया है और इसीलिए वह छोटी सज़ा का अधिकारी है? केवल इसलिए कि आपके भाई में जन्मजात दो अनुभूतियाँ कम थीं? इसके बजाए आप यही कहेंगे कि हत्यारे ने एक निर्दोष की हत्या की है अतः उसे कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए।
पवित्र क़ुरआन में फ़रमाया गया हैः
‘‘लोगो! धरती पर जो पवित्र और वैध चीज़ें हैं, उन्हें खाओ और शैतान के बताए हुए रास्तों पर न चलो, वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 2ः168)
पशुओं की अधिक संख्या
यदि इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति शाकाहारी होता तो परिणाम यह होता कि पशुओं की संख्या सीमा से अधिक हो जाती क्योंकि पशुओं में उत्पत्ति और जन्म की प्रक्रिया तेज़ होती है। अल्लाह ने जो समस्त ज्ञान और बुद्धि का स्वामी है इन जीवों की संख्या को उचित नियंत्रण में रखने का मार्ग सुझाया है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि अल्लाह तआला ने हमें (सब्ज़ियों के साथ साथ) पशुओं का माँस खाने की अनुमति भी दी है।
सभी लोग मांसाहारी नहीं,
अतः माँस का मूल्य भी उचित है
मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं कि कुछ लोग पूर्ण रूप से शाकाहारी हैं परन्तु उन्हें चाहिए कि मांसाहारियों को क्रूर और अत्याचारी कहकर उनकी निन्दा न करें। वास्तव में यदि भारत के सभी लोग मांसाहारी बन जाएं तो वर्तमान मांसाहारियों का भारी नुकष्सान होगा क्योकि ऐसी स्थिति में माँस का मूल्य कषबू से बाहर हो जाएगा।


7
पशुओं को ज़िब्हा करने का इस्लामी तरीकष निदर्यतापूर्ण है
प्रश्नः मुसलमान पशुओं को ज़िब्ह (हलाल) करते समय निदर्यतापूर्ण ढंग क्यों अपनाते हैं? अर्थात उन्हें यातना देकर धीरे-धीरे मारने का तरीकष, इस पर बहुत लोग आपत्ति करते हैं?
उत्तरः निम्नलिखित तथ्यों से सिद्ध होता है कि ज़बीहा का इस्लामी तरीकष न केवल मानवीयता पर आधारित है वरन् यह साइंटीफ़िक रूप से भी श्रेष्ठ है।
जानवर हलाल कने का इस्लामी तरीकष
अरबी भाषा का शब्द ‘‘ज़क्कैतुम’’ जो क्रिया के रूप में प्रयोग किया जाता है उससे ही शब्द ‘‘ज़क़ात’’ निकलता है, जिसका अर्थ है ‘‘पवित्र करना।’’
जानवर को इस्लामी ढंग से ज़िब्हा करते समय निम्न शर्तों का पूर्ण
ध्यान रखा जाना आवश्यक है।
(क) जानवर को तेज़ धार वाली छुरी से ज़िब्हा किया जाए। ताकि जानवर को ज़िब्हा होते समय कम से कम कष्ट हो।
(ख) ज़बीहा एक विशेष शब्द है जिस से आश्य है कि ग्रीवा और गर्दन की नाड़ियाँ काटी जाएं। इस प्रकार ज़िब्हा करने से जानवर रीढ़ की हड्डी काटेे बिना मर जाता है।
(ग) ख़ून को बहा दिया जाए।
जानवर के सिर को धड़ से अलग करने से पूर्व आवश्यक है कि उसका सारा ख़ून पूरी तरह बहा दिया गया हो। इस प्रकार सारा ख़ून निकाल देने का उद्देश्य यह है कि यदि ख़ून शरीर में रह गया तो यह कीटाणुओं के पनपने का माध्यम बनेगा। रीढ़ की हड्डी अभी बिल्कुल नहीं काटी जानी चाहिए क्योंकि उसमें वह धमनियाँ होती हैं जो दिल तक जाती हैं। इस समय यदि वह धमनियाँ कट गईं तो दिल की गति रुक सकती है और इसके कारण ख़ून का बहाव रुक जाएगा। जिससे ख़ून नाड़ियों में जमा रह सकता है।
कीटाणुओं और बैक्टीरिया के लिये
ख़ून मुख्य माध्यम है
कीटाणुओं, बैक्टीरिया और विषाक्त तत्वों की उत्पति के लिये ख़ून एक सशक्त माध्यम है। अतः इस्लामी तरीके से ज़िब्हा करने से सारा ख़ून निकाल देना स्वास्थ्य के नियमों के अनुसार है क्योंकि उस ख़ून में कीटाणु और बैक्टीरिया तथा विषाक्त तत्व अधिकतम होते हैं।
मांस अधिक समय तक स्वच्छ और ताज़ा रहता है
इस्लामी तरीकष्े से हलाल किये गए जानवर का मांस अधिक समय तक स्वच्छ और ताज़ा तथा खाने योग्य रहता है क्योंकि दूसरे तरीकषें से काटे गए जानवर के मांस की अपेक्षा उसमें ख़ून की मात्रा बहुत कम होती है।
जानवर को कष्ट नहीं होता
ग्रीवा की नाड़ियाँ तेज़ी से काटने के कारण दिमाग़ को जाने वाली
धमनियों तक ख़ून का प्रवाह रुक जाता है, जो पीड़ा का आभास उत्पन्न करती हैं। अतः जानवर को पीड़ा का आभास नहीं होता। याद रखिए कि हलाल किये जाते समय मरता हुआ कोई जानवर झटके नहीं लेता बल्कि उसमें तड़पने, फड़कने और थरथराने की स्थिति इसलिए होती है कि उसके पुट्ठों में ख़ून की कमी हो चुकी होती है और उनमें तनाव बहुत अधिक बढ़ता या घटता है।


8
मांसाहारी भोजन मुसलमानों को हिंसक बनाता है
प्रश्नः विज्ञान हमें बताता है कि मनुष्य जो कुछ खाता है उसका प्रभाव उसकी प्रवृत्ति पर अवश्य पड़ता है, तो फिर इस्लाम अपने अनुयायियों को सामिष आहार की अनुमति क्यों देता है? यद्यपि पशुओं का मांस खाने के कारण मनुष्य हिंसक और क्रूर बन सकता है?
उत्तरः केवल वनस्पति खाने वाले पशुओं को खाने की अनुमति है। मैं इस बात से सहमत हूँ कि मनुष्य जो कुछ खाता है उसका प्रभाव उसकी प्रवृत्ति पर अवश्य पड़ता है। यही कारण है कि इस्लाम में मांसाहारी पशुओं, जैसे शेर, चीता, तेंदुआ आदि का मांस खाना वार्जित है क्योंकि ये दानव हिंसक भी हैं। सम्भव है इन दरिन्दों का मांस हमें भी दानव बना देता। यही कारण है कि इस्लाम में केवल वनस्पति का आहार करने वाले पशुओं का मांस खाने की अनुमति दी गई हैं। जैसे गाय, भेड़, बकरी इत्यादि। यह वे पशु हैं जो शांति प्रिय और आज्ञाकारी प्रवृत्ति के हैं। मुसलमान शांति प्रिय और आज्ञाकारी पशुओं का मांस ही खाते हैं। अतः वे भी शांति प्रिय और अहिंसक होते हैं।
पवित्र क़ुरआन का फ़रमान है कि रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बुरी चीज़ों से रोकते हैं।
पवित्र क़ुरआन में फ़रमान हैः
‘‘वह उन्हें नेकी का हुक्म देता है, बदी से रोकता है, उनके लिए पाक चीज़ें हलाल और नापाक चीज़ें हराम करता है, उन पर से वह बोझ उतारता है जो उन पर लदे हुए थे। वह
बंधन खोलता है जिनमें वे जकड़े हुए थे।’’ (पवित्र क़ुरआन , 7ः157)
एक अन्य आयत में कहा गया हैः
‘‘जो कुछ रसूल तुम्हें दे तो वह ले लो और जिस चीज़ें से तुम्हें रोक दे उसमें रुक जाओ, अल्लाह से डरो, अल्लाह सख़्त अज़ाब (कठोरतम दण्ड) देने वाला है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 7ः159)
मुसलमानों के लिए महान पैग़म्बर का यह निर्देश ही उन्हे कषयल करने के लिए काफ़ी है कि अल्लाह तआला नहीं चाहता कि वह कुछ जानवरों का मांस खाएं जबकि कुछ का खा लिया करें।
इस्लाम की सम्पूर्ण शिक्षा पवित्र क़ुरआन और उसके बाद हदीस पर आधारित है। हदीस का आश्य है मुसलमानों के महान पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन जो ‘सही बुख़ारी’, ‘मुस्लिम’, सुनन इब्ने माजह’, इत्यादि पुस्तकों में संग्रहीत हैं। और मुसलमानों का उन पर पूर्ण विश्वास है। प्रत्येक हदीस को उन महापुरूषों के संदर्भ से बयान कया गया है जिन्होंने स्वंय महान पैग़म्बर से वह बातें सुनी थीं।
पवित्र हदीसों में मांसाहारी जानवर
का मांस खाने से रोका गया है
सही बुख़ारी, मुस्लिम शरीफ़ में मौजूद, अनेक प्रमाणिक हदीसों के अनुसार मांसाहारी पशु का मांस खाना वर्जित है। एक हदीस के अनुसार, जिसमें हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हु) के संदर्भ से बताया गया है कि हमारे पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने (हदीस नॉ 4752), और सुनन इब्ने माजह के तेरहवें अध्याय (हदीस नॉ 3232 से 3234 तक) के अनुसार निम्नलिखित जानवरों का मांस खाने से मना किया हैः
1. वह पशु जिनके दांत नोकीले हों, अर्थात मांसाहारी जानवर, ये जानवर बिल्ली के परिवार से सम्बन्ध रखते हैं। जिसमें शेर, बबर शेर, चीता, बिल्लियाँ, कुत्ते, भेड़िये, गीदड़, लोमड़ी, लकड़बग्घे इत्यादि शामिल हैं।
2. कुतर कर खाने वाले जानवर जैसे छोटे चूहे, बड़े चूहे, पंजों वाले ख़रगोश इत्यादि।
3. रेंगने वाले कुछ जानवर जैसे साँप और मगरमच्छ इत्यादि।
4. शिकारी पक्षी, जिनके पंजे लम्बे और नोकदार नाख़ून हों (जैसे आम तौर से शिकारी पक्षियों के होते हैं) इनमें गरूड़, गिद्ध, कौए और उल्लू इत्यादि शामिल हैं।
ऐसा कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है जो किसी सन्देह और संशय से ऊपर उठकर यह सिद्ध कर सके कि मांसाहारी अपने आहार के कारण हिसंक भी बन सकता है।

9
मुसलमान काबा की पूजा करते हैं।
प्रश्नः यद्यपि इस्लाम में मूर्ति पूजा वर्जित है परन्तु मुसलमान काबे की पूजा क्यों करते हैं? और अपनी नमाज़ों के दौरान उसके सामने क्यों झुकते हैं?
उत्तरः काबा हमारे लिये किष्बला (श्रद्धेय स्थान, दिशा) है, अर्थात वह दिशा जिसकी ओर मुँह करके मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं। यह बात ध्यान देने योग्य है कि, मुसलमान नमाज़ के समय काबे की पूजा नहीं करते, मुसलमान केवल अल्लाह की इबादत करते हैं और उसी के आगे झुकते हैं। जैसा कि पवित्र क़ुरआन की सूरह अल-बकष्रः में अल्लाह का फ़रमान हैः
‘‘हे नबी! यह तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की तरफ़ उठना हम देख रहे है, लो हम उसी किष्बले की तरफ़ तुम्हें फेर देते हैं जिसे तुम पसन्द करते हो। मस्जिदुल हराम (काबा) की तरफ़ रुख़ फेर दो, अब तुम जहाँ कहीं हो उसी तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ा करो।’’ (पवित्र क़ुरआन , 2ः144)
इस्लाम एकता और सौहार्द के
विकास में विश्वास रखता है
जैसे, यदि मुसलमान नमाज़ पढ़ना चाहें तो बहुत सम्भव है कि कुछ लोग उत्तर की दिशा की ओर मुँह करना चाहें, कुछ दक्षिण की ओर, तो कुछ पूर्व अथवा पश्चिम की ओर, अतः एक सच्चे ईश्वर (अल्लाह) की उपासना के अवसर पर मुसलमानों में एकता और सर्वसम्मति के लिए उन्हें यह आदेश दिया गया कि वह विश्व मे जहाँ कहीं भी हों, जब अल्लाह की उपासना (नमाज़) करें तो एक ही दिशा में रुख़ करना होगा। यदि मुसलमान काबा की पूर्व दिशा की ओर रहते हैं तो पश्चिम की ओर रुख़ करना होगा। अर्थात जिस देश से काबा जिस दिशा में हो उस देश से मुसलमान काबा की ओर ही मुँह करके नमाज़ अदा करें।
पवित्र काबा धरती के नक़्शे का केंद्र है
विश्व का पहला नक़्शा मुसलमानों ने ही तैयार किया था। मुसलमानों द्वारा बनाए गए नक़शे में दक्षिण ऊपर की ओर और उत्तर नीचे होता था। काबा उसके केंद्र में था। बाद में भूगोल शास्त्रियों ने जब नक़शे बनाए तो उसमें परिवर्तन करके उत्तर को ऊपर तथा दक्षिण को नीचे कर दिया। परन्तु अलहम्दो लिल्लाह (समस्त प्रशंसा केवल अल्लाह के लिए है) तब भी काबा विश्व के केंद्र में ही रहा।
काबा शरीफ़ का तवाफ़ (परिक्रमा) अल्लाह के एकेश्वरत्व का प्रदर्शन है
जब मुसलमान मक्का की मस्जिदे हराम में जाते हैं, वे काबा का तवाफ़ करते हैं अथवा उसके गिर्द चक्कर लगाकर परिक्रमा करते हैं तो उनका यह कृत्य एक मात्र अल्लह पर विश्वास और उसी की उपासना का प्रतीक है क्योंकि जिस प्रकार किसी वृत्त (दायरे) का केंद्र बिन्दु एक ही होता है उसी प्रकार अल्लाह भी एकमात्र है जो उपासना के योग्य है।
हज़रत उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीस सही बुख़ारी, खण्ड 2, किताब हज्ज, अध्याय 56 में वर्णित हदीस नॉ 675 के अनुसार हज़रत उमर (रज़ियल्लाह अन्हु) ने काबा में रखे हुए काले रंग के पत्थर (पवित्र हज्र-ए- अस्वद) को सम्बोधित करते हुए फ़रमायाः
‘‘मैं जानता हूँ कि तू एक पत्थर है जो किसी को हानि अथवा लाभ नहीं पहुंचा सकता। यदि मैंने हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को चूमते हुए नहीं देखा होता तो मैं भी तुझे न छूता (और न ही चूमता)।’’
(इस हदीस से यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि
विधर्मियों की धारणा और उनके द्वारा फैलाई गई यह भ्रांति पूर्णतया निराधार है कि मुसलमान काबा अथवा हज्र-ए-अस्वद की पूजा करते हैं। किसी वस्तु को आदर और सम्मान की दृष्टि से देखना उसकी पूजा करना नहीं हो सकता।) (अनुवादक)
लोगों ने काबे की छत पर खड़े होकर अज़ान दी
महान पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के समय में लोग काबे के ऊपर चढ़कर अज़ान भी दिया करते थे, अब ज़रा उनसे पूछिए जो मुसलमानों पर काबे की पूजा का आरोप लगाते हैं कि क्या कोई मूर्ति पूजक कभी अपने देवता की पूजी जाने वाली मूर्ति के ऊपर खड़ा होता है?


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मक्का मे ग़ैर मुस्लिमों को प्रवेश की अनुमति नहीं
प्रश्नः मक्का और मदीना के पवित्र नगरों में ग़ैर मुस्लिमों को प्रवेश की अनुमति क्यों नहीं है?
उत्तरः यह सच है कि कानूनी तौर पर मक्का और मदीना शरीफ़ के पवित्र नगरों में ग़ैर मुस्लिमों को प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। निम्नलिखित तथ्यों द्वारा प्रतिबन्ध के पीछे कारणों और औचित्य का स्पष्टीकरण किया गया है।
समस्त नागरिकों को कन्टोन्मेंट एरिया (सैनिक छावनी) में जाने की अनुमति नहीं होती
मैं भारत का नागरिक हूँ। परन्तु फिर भी मुझे (अपने ही देश के) कुछ वर्जित क्षेत्रों में जाने की अनुमति नहीं है। प्रत्येक देश में कुछ न कुछ ऐसे क्षेत्र अवश्य होते हैं जहाँ सामान्य जनता को जाने की इजाज़त नहीं होती। जैसे सैनिक छावनी या कन्टोन्मेंट एरिया में केवल वही लोग जा सकते हैं जो सेना अथवा प्रतिरक्षा विभाग से सम्बंधित हों। इसी प्रकार इस्लाम भी समस्त मानवजगत और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए एकमात्र सत्यधर्म है। इस्लाम के दो नगर मक्का और मदीना किसी सैनिक छावनी के समान महत्वपूर्ण और पवित्र हैं, इन नगरों में प्रवेश करने का उन्हें ही अधिकार है जो इस्लाम में विश्वास रखते हों और उसकी प्रतिरक्षा में शरीक हों। अर्थात केवल मुसलमान ही इन नगरों में जा सकते हैं।
सैनिक संस्थानों और सेना की छावनियों में प्रवेश पर प्रतिबन्ध के विरुद्ध एक सामान्य नागरिक का विरोध करना ग़ैर कषनूनी होता है। अतः ग़ैर मुस्लिमों के लिये भी यह उचित नहीं है कि वे मक्का और मदीना में ग़ैर मुस्लिमों के प्रवेश पर पाबन्दी का विरोध करें।
मक्का और मदीना में प्रवेश का वीसा
1. जब कोई व्यक्ति किसी अन्य देश की यात्रा करता है तो उसे सर्वप्रथम उस देश में प्रवेश करने का अनुमति पत्र ;टपेंद्ध प्राप्त करना पड़ता है। प्रत्येक देश के अपने कषयदे कानून होते हैं जो उनकी ज़रूरत और व्यवस्था के अनुसार होते हैं तथा उन्हीं के अनुसार वीसा जारी किया जाता है। जब तक उस देश के कानून की सभी शर्तों को पूरा न कर दिया जाए उस देश के राजनयिक कर्मचारी वीसा जारी नहीं करते।
2. वीसा जारी करने के मामले में अमरीका अत्यंत कठोर देश है, विशेष रूप से तीसरी दुनिया के नागरिकों को वीसा देने के बारे में, अमरीकी आवर्जन कानून की कड़ी शर्तें हैं जिन्हें अमरीका जाने के इच्छुक को पूरा करना होता है।
3. जब मैं सिंगापुर गया था तो वहाँ के इमैग्रेशन फ़ार्म पर लिखा था ‘‘नशे की वस्तुएँ स्मगल करने वाले को मृत्युदण्ड दिया जायेगा।’’ यदि मैं सिंगापुर जाना चाहूँ तो मुझे वहाँ के कानून का पालन करना होगा। मैं यह नहीं कह सकता कि उनके देश में मृत्युदण्ड का निर्दयतापूर्ण और क्रूर प्रावधान क्यों है। मुझे तो केवल उसी अवस्था में वहाँ जाने की अनुमति मिलेगी जब उस देश के कानून की सभी शर्तों के पालन का इकष्रार करूंगा।
4. मक्का और मदीना का वीसा अथवा वहाँ प्रवेश करने की बुनियादी शर्त यह है कि मुख से ‘‘ला इलाहा इल्लल्लाहु, मुहम्मदुर्रसूलल्लाहि’’ (कोई ईश्वर नहीं, सिवाय अल्लाह के (और) मुहम्मद (सल्लॉ) अल्लाह के सच्चे सन्देष्टा हैं), कहकर मन से अल्लाह के एकमात्र होने का इकरार किया जाए और हज़रत मुहम्मद (सल्लॉ) को अल्लाह का सच्चा रसूल स्वीकार किया जाए।

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सुअर का मांस हराम है
प्रश्नः इस्लाम में सुअर का मांस खाना क्यों वर्जित है?
उत्तरः इस्लाम में सुअर का माँस खाना वर्जित होने की बात से सभी परिचित हैं। निम्नलिखित तथ्यों द्वारा इस प्रतिबन्ध की व्याख्या की गई है।
पवित्र क़ुरआन में कम से कम चार स्थानों पर सुअर का मांस खाने की मनाही की गई है। पवित्र क़ुरआन की सूरह 2, आयत 173, सूरह 5, आयत 3, सूरह 6, आयत 145, सूरह 16, आयत 115 में इस विषय पर स्पष्ट आदेश दिये गए हैंः
‘‘तुम पर हराम किया गया मुरदार (ज़िब्हा किये बिना मरे हुए जानवर) का मांस, सुअर का मांस और वह जानवर जो अल्लाह के नाम के अतिरिक्त किसी और नाम पर ज़िब्हा किया गया हो, जो गला घुटने से, चोट खाकर, ऊँचाई से गिरकर या टक्कर खाकर मरा हो, या जिसे किसी दरिन्दे नें फाड़ा हो सिवाय उसके जिसे तुम ने ज़िन्दा पाकर ज़िब्हा कर लिया और वह जो किसी आस्ताने (पवित्र स्थान, इस्लाम के मूल्यों के आधार पर) पर ज़िब्हा किया गया हो।’’ (पवित्र क़ुरआन , 5ः3)
इस संदर्भ में पवित्र क़ुरआन की सभी आयतें मुसलमानों को संतुष्ट करने हेतु पर्याप्त है कि सुअर का मांस क्यों हराम है।
बाइबल ने भी सुअर का मांस खाने की मनाही की है
संभवतः ईसाई लोग अपने धर्मग्रंथ में तो विश्वास रखते ही होंगे। बाइबल में सुअर का मांस खाने की मनाही इस प्रकार की गई हैः
‘‘और सुअर को, क्योंकि उसके पाँव अलग और चिरे हुए हैं। पर वह जुगाली (पागुर) नहीं करता, वह भी तुम्हारे लिये अपवित्र है, तुम उनका मांस न खाना, उनकी लााशों को न छूना, वह तुम्हारे लिए अपवित्र हैं।’’ (ओल्ड टेस्टामेंट, अध्याय 11, 7 से 8)
कुछ ऐसे ही शब्दों के साथ ओल्ड टेस्टामेंट की पाँचवी पुस्तक में सुअर खाने से मना किया गया हैः
‘‘और सुअर तुम्हारे लिए इस कारण से अपवित्र है कि इसके पाँव तो चिरे हुए हैं परन्तु वह जुगाली नहीं करता, तुम न तो उनका माँस खाना और न उनकी लाशों को हाथ लगाना।’’ (ओल्ड टेस्टामेंट, अध्याय 14ः8)
ऐसी ही मनाही बाइबल (ओल्ड टेस्टामेंट, अध्याय 65, वाक्य 2 ता 5) में भी मौजूद है।
सुअर के मांसाहार से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं
अब आईए! ग़ैर मुस्लिमों और ईश्वर को न मानने वालों की ओर, उन्हें तो बौद्धिक तर्क, दर्शन और विज्ञान के द्वारा ही कषयल किया जा सकता है। सुअर का मांस खाने से कम से कम 70 विभिन्न रोग लग सकते हैं। एक व्यक्ति के उदर में कई प्रकार के कीटाणु हो सकते हैं, जैसे राउण्ड वर्म, पिन वर्म और हुक वर्म इत्यादि। उनमें सबसे अधिक घातक टाईनिया सोलियम (Taenia Soliam) कहलाता है। सामान्य रूप से इसे टेपवर्म भी कहा जाता है। यह बहुत लम्बा होता है और आंत में रहता है। इसके अण्डे (OVA)रक्त प्रवाह में मिलकर शरीर के किसी भी भाग में पहुंच सकते हैं। यदि यह मस्तिष्क तक जा पहुंचे तो स्मरण शक्ति को बहुत हानि पहुंचा सकते हैं। यदि दिल में प्रवेश कर जाए तो दिल का दौरा पड़ सकता है। आँख में पहुंच जाए तो अंधा कर सकते हैं। जिगर में घुसकर पूरे जिगर को नष्ट कर सकते हैं। इसी प्रकार शरीर के किसी भाग को हानि पहुंचा सकते हैं। पेट में पाया जाने वाला एक अन्य रोगाणु Trichura Lichurasiहै।
यह एक सामान्य भ्रांति है कि यदि सुअर के मांस को भलीभांति पकाया जाए तो इन रोगाणुओं के अण्डे नष्ट हो जाएंगे। अमरीका में किये गए अनुसंधान के अनुसार ट्राईक्योरा से प्रभावित 24 व्यक्तियों में 20 ऐसे थे जिन्होंने सुअर का माँस अच्छी तरह पकाकर खाया था। इससे पता चला कि सुअर का मांस अच्छी तरह पकाने पर सामान्य तापमान पर भी उसमें मौजूद रोगाणु नहीं मरते जो भोजन पकाने के लिए पर्याप्त माना जाता है।
सुअर के मांस में चर्बी बढ़ाने वाला तत्व होता है
सुअर के मांस में ऐसे तत्व बहुत कम होते हैं जो मांसपेशियों को विकसित करने के काम आते हों। इसके विपरीत यह चर्बी से भरपूर होता है। यह वसा रक्त नलिकाओं में एकत्र होती रहती है और अंततः
अत्याधिक दबाव (हाइपर टेंशन) ओर हृदयघात का कारण बन सकती है। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि 50 प्रतिशत से अधिक अमरीकियों को हाइपर टेंशन का रोग लगा हुआ है।
सुअर संसार के समस्त जानवरों से अधिक घिनौना जीव
सुअर संसार में सबसे अधिक घिनौना जानवर है। यह गंदगी, मैला इत्यादि खाकर गुज़ारा करता है। मेरी जानकारी के अनुसार यह बेहतरीन सफ़ाई कर्मचारी है जिसे ईश्वर ने पैदा किया है। वह ग्रामीण क्षेत्र जहाँ शौचालय आदि नहीं होते और जहाँ लोेग खुले स्थानों पर मलमूत्र त्याग करते हैं, वहाँ की अधिकांश गन्दगी यह सुअर ही साफ़ करते हैं।
कुछ लोग कह सकते हैं कि आस्ट्रेलिया जैसे उन्नत देशों में सुअर पालन स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण में किया जाता है। परन्तु इतनी सावधानी के बावजूद कि जहाँ सुअरों को बाड़ों में अन्य पशुओं से अलग रखा जाता है, कितना ही प्रयास कर लिया जाए कि उन्हें स्वच्छ रखा जा सके किन्तु यह सुअर अपनी प्राकृतिक प्रवत्ति में ही इतना गन्दा है कि उसे अपने साथ के जानवरों का मैला खाने ही में आनन्द आता है।
सुअर सबसे निर्लज्ज जानवर
इस धरती पर सबसे ज़्यादा बेशर्म जानवर केवल सुअर है। सुअर एकमात्र जानवर है जो अपनी मादिन (Mate)के साथ सम्भोग में अन्य सुअरों को आमंत्रिक करता है। अमरीका में बहुत से लोग सुअर खाते हैं अतः वहाँ इस प्रकार का प्रचलन आम है कि नाच-रंग की अधिकतर पार्टियों के पश्चात लोग अपनी पत्नियाँ बदल लेते हैं, अर्थात वे कहते हैं‘ ‘‘मित्र! तुम मेरी पत्नी और मैं तुम्हारी पत्नी के साथ आनन्द लूंगा...।’’
यदि कोई सुअर का मांस खाएगा तो सुअर के समान ही व्यवहार करेगा, यह सर्वमान्य तथ्य है।

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शराब की मनाही
प्रश्नः इस्लाम में शराब पीने की मनाही क्यों है?
उत्तरः मानव संस्कृति की स्मृति और इतिहास आरंभ होने से पहले से शराब मानव समाज के लिए अभिशाप बनी हुई है। यह असंख्य लोगों के प्राण ले चुकी है। यह क्रम अभी चलता जा रहा है। इसी के कारण विश्व के करोड़ों लोगों का जीवन नष्ट हो रहा है। समाज की अनेकों समस्याओं की बुनियादी वजह केवल शराब है। अपराधों में वृद्धि और विश्वभर में करोड़ों बरबाद घराने शराब की विनाशलीला का ही मौन उदाहरण है।
पवित्र क़ुरआन में शराब की मनाही
निम्नलिखित पवित्र आयत में क़ुरआन हमें शराब से रोकता है।
‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो! यह शराब, जुआ और यह आस्ताने और पांसे, यह सब गन्दे और शैतानी काम हैं। इनसे परहेज़ करो, उम्मीद है कि तुम्हें भलाई प्राप्त होगी।’’ (सूरह 5, आयत 90)
बाईबल में मदिरा सेवन की मनाही
बाईबल की निम्नलिखित आयतों में शराब पीने की बुराई बयान की गई हैः
‘‘शराब हास्यास्पद और हंगामा करने वाली है, जो कोई इनसे धोखा खाता है (वह) बुद्धिमान नहीं।’’ (दृष्टांत अध्याय 20, आयत 1)
‘‘और शराब के नशे में मतवाले न बनो।’’ (अफ़सियों, अध्याय 5, आयत 18)
मानव मस्तिष्क का एक भाग ‘‘निरोधी केंद्र’’ (Inhibitory Centre) कहलाता है। इसका काम है मनुष्य को ऐसी क्रियाओं से रोकना जिन्हें वह स्वयं ग़लत समझता हो। जैसे सामान्य व्यक्ति अपने बड़ों के सामने अशलील भाषा का प्रयोग नहीं करता। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति को शौच की आवश्यकता होती है वह सबके सामने नहीं करता और शौचालय की ओर रुख़ करता है।
जब कोई शराब पीता है तो उसका निरोधी केंद्र स्वतः ही काम करना बन्द कर देता है। यही कारण है कि शराब के नशे में धुत होकर वह व्यक्ति ऐसी क्रियाएं करता है जो सामान्यतः उसकी वास्तविक प्रवृति से मेल नहीं खातीं। जेसे नशे में चूर व्यक्ति अशलील भाषा बोलने में कोई शर्म महसूस नहीं करता। अपनी ग़लती भी नहीं मानता, चाहे वह अपने माता-पिता से ही क्यों न बात कर रहा हो। शराबी अपने कपड़ों में ही मूत्र त्याग कर लेते हैं, वे न तो ठीक से बात कर पाते हैं और न ही ठीक से चल पाते हैं, यहाँ तक कि वे अभद्र हरकतें भी कर गुज़रते हैं।
व्यभिचार, बलात्कार, वासनावृत्ति की घटनाएं शराबियों में अधिक होती हैं। अमरीकी प्रतिरक्षा मंत्रालय के ‘‘राष्ट्रीय अपराध प्रभावितों हेतु सर्वेक्षण एंव न्याय संस्थान’’ के अनुसार 1996 के दौरान अमरीका में बलात्कार की प्रतिदिन घटनाएं 20,713 थीं। यह तथ्य भी सामने आया कि अधिकांश बलात्कारियों ने यह कुकृत्य नशे की अवस्था में किया। छेड़छाड़ के मामलों का कारण भी अधिकतर नशा ही है।
आंकड़ों के अनुसार 8 प्रतिशत अमरीकी इनसेस्ट ;प्दबमेजद्ध से ग्रसित हैं। इसका मतलाब यह हुआ कि प्रत्येक 12 अथवा 13 में से एक अमरीकी इस रोग से प्रभावित है। इन्सेस्ट की अधिकांश घटनाएं मदिरा सेवन के कारण घटित होती हैं जिनमें एक या दो लोग लिप्त हो जाते हैं।
(अंग्रेज़ी शब्द प्दबमेज का अनुवाद किसी शब्दकोक्ष में नहीं मिलता। परन्तु इसकी व्याख्या से इस कृत्य के घिनौनेपन का अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसे निकट रिश्ते जिनके बीच धर्म, समाज और कानून के अनुसार विवाह वार्जित है, उनसे शरीरिक सम्बन्ध को प्दबमेज कहा जाता है।’’) अनुवादक
इसी प्रकार एड्स के विनाशकारी रोग के फैलाव के कारणों में एक प्रमुख कारण मदिरा सेवन ही है।
प्रत्येक शराब पीने वाला ‘‘सामाजिक’’ रूप से ही पीना आरंभ करता है
बहुत से लोग ऐसे हैं जो मदिरापान के पक्ष में तर्क देते हुए स्वयं को ‘‘सामाजिक पीने वाला’’ ;ैवबपंस क्तपदामतद्ध बताते हैं और यह दावा करते हैं कि वे एक या दो पैग ही लिया करते हैं और उन्हें स्वयं पर पूर्ण नियंत्रण रहता है और वे कभी पीकर उन्मत्त नहीं होते। खोज से पता चला है कि अधिकांश घोर पियक्कड़ों ने आरंभ इसी ‘‘सामाजिक’’ रूप से किया था। वास्तव में कोई पियक्कड़ ऐसा नहीं है जिसने शराब पीने का आंरभ इस इरादे से किया हो कि आगे चलकर वह इस लत में फंस जाएगा। इसी प्रकार कोई ‘‘सामाजिक पीने वाला’’ यह दावा नहीं कर सकता कि वह वर्षों से पीता आ रहा है और यह कि उसे स्वयं पर इतना अधिक नियंत्रण है कि वह पीकर एक बार भी मदहोश नहीं हुआ।
यदि कोई व्यक्ति नशे में एकबार कोई शर्मनाक हरकत कर बैठे तो वह सारी ज़िन्दगी उस के साथ रहेगी
माल लीजिए एक ‘‘सामाजिक पियक्कड़’’ अपने जीवन में केवल एक बार (नशे की स्थिति में) अपना नियंत्रण खो देता है और उस स्थिति में प्दबमेज का अपराध कर बैठता है तो पश्ताचाप जीवन पर्यन्त उसका साथ नहीं छोड़ता और वह अपराध बोध की भावना से ग्रस्त रहेगा। अर्थात अपराधी और उसका शिकार दोनों ही का जीवन इस ग्लानि से नष्टप्राय होकर रह जाएगा।
पवित्र हदीसों में शराब की मनाही
हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः
(क) ‘‘शराब तमाम बुराईयों की माँ है और तमाम बुराईयों में सबसे ज़्यादा शर्मनाक है।’’ (सुनन इब्ने माजह, जिल्द 3, किताबुल ख़म्र, अध्याय 30, हदीस 3371)
(ख) ‘‘प्रत्येक वस्तु जिसकी अधिक मात्रा नशा करती हो, उसकी थोड़ी मात्रा भी हराम है।’’ (सुनन इब्ने माजह, किताबुल ख़म्र, हदीस 3392)
इस हदीस से अभिप्राय यह सामने आता है कि एक घूंट अथवा कुछ बूंदों की भी गुंजाईश नहीं है।
(ग) केवल शराब पीने वालों पर ही लानत नहीं की गई, बल्कि अल्लाह तआला के नज़दीक वे लोग भी तिरस्कृत हैं जो शराब पीने वालों के साथ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संमबन्ध रखें। सुनन इब्ने माजह में किताबुल ख़म्र की हदीस 3380 के अनुसार हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः
‘‘अल्लाह की लानत नाज़िल होती है उन 10 प्रकार के समूहों पर जो शराब से सम्बंधित हैं। एक वह समूह जो शराब बनाए, और दूसरा वह जिसके लिए शराब बनाई जाए। एक वह जो उसे पिये और दूसरा वह जिस तक शराब पहुंचाई जाए, एक वह जो उसे परोसे। एक वह जो उसको बेचे, एक वह जो इसके द्वारा अर्जित धन का उपयोग करे। एक वह जो इसे ख़रीदे। और एक वह जो इसे किसी दूसरे के लिये ख़रीदे।’’
शराब पीने से जुड़ी बीमारियाँ
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो शराब से दूर रहने के अनेक बौद्धिक कारण मिलेंगे। यदि विश्व में मृत्यु का कोई बड़ा कारण तलाश किया जाए तो पता चलेगा कि शराब एक प्रमुख कारण है। प्रत्येक वर्ष लाखों लोग शराब की लत के कारण मृत्यु को प्राप्त हैं। मुझे इस जगह शराब के बुरे प्रभावों के विषय में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं क्योंकि इन बातों से सम्भवतः सभी परिचित हैं। फिर भी शराब के सेवन से उत्पन्न रोगों की संक्षिप्त सूची अवश्य दी जा रही है।
1. जिगर (लीवर) की सिकुड़न की बीमारी, शराब पीने के द्वारा अधिक होती है, यह सर्वमान्य हैं।
2. शराब पीने से आहार नलिका का कैंसर, सिर और गर्दन का कैंसर, तथा पाकाशय (मेदा) का कैंसर इत्यादि होना आम बात है।
3. आहार नलिका की जलन और सूजन, मेदे पर सूजन, पित्ते की ख़राबी तथा हेपिटाईटिस का सम्बन्ध भी शराब के सेवन से है।
4. हृदय से सम्बंधित समस्त रोगों, और हृदयघात से भी शराब का
सीधा सम्बन्ध है।
5. स्ट्रोक, एपोप्लेक्सी, हाईपर टेंशन, फ़िट्स तथा अन्य प्रकार के पक्षाघात का सम्बन्ध भी शराब से है।
6. पेरीफ़ेरल न्यूरोपैथी, कोर्टिकल एटरोफ़ी और सिरबेलर एटरोफ़ी जैसे लक्षण भी मदिरा सेवन से ही उत्पन्न होते हैं।
7. स्मरण शक्ति का क्षीण हो जाना, बोलचाल और स्मृति में केवल पूर्व की घटनाओं के ही शेष रह जाने का कारण थाईमिन की कमी से होता है जो शराब के अत्याधिक सेवन से उत्पन्न होती है।
8. बेरी-बेरी और अन्य विकार भी शाराबियों में पाए जाते हैं, यहाँ तक कि उन्हें प्लाजरा भी हो जाता है।
9. डीलेरियम टर्मिनस एक गम्भीर रोग है जो किसी विकार के उभरने के दौरान आप्रेशन के पश्चात लग सकता है। यह शराब पीना छोड़ने के एक प्रभाव के रूप में भी प्रकट हो सकता है। यह स्थिति बहुत जटिल है और प्रायः मृत्यु का कारण भी बन सकती है।
10. मूत्र तथा गुर्दों की अनेक समस्याएं भी मदिरा सेवन से सम्बद्ध हैं जिनमें मिक्सोडीमिया से लेकर हाईपर थाईराडिज़्म और फ़्लोर डिक्शिंग सिंडरोम तक शामिल हैं।
11. रक्त पर मदिरा सेवन के नकरात्मक प्रभावों की सूची बहुत लम्बी है किन्तु फ़ोलिक एसिड में कमी एक ऐसा प्रतीक है जो अधिक मदिरा सेवन का सामान्य परिणाम है और जो माईक्रो साइटिक एनेमिया के रूप में प्रकट होता है। ज़्युज़ सिंडरोम तीन रोगों का संग्रह है जो पियक्कड़ों की ताक में रहते हैं जो कि हेमोलेटिक एनेमया, जानडिस (पीलिया) और हाईपर लाइपेडीमिया का संग्रह हैं।
12. थ्रम्बो साइटोपीनिया और प्लेटलिट्स के अन्य विकार पीने वालों में सामान्य हैं।
13. सामान्य रूप से उपयोग की जाने वाली औषधि अर्थात ‘फ़्लेजल’ (मेट्रोनेडाज़ोल) भी शराब के साथ बुरे प्रभाव डालती है।
14. किसी रोग का बार-बार आक्रमण करना, शराबियों में बहुत आम है। कारण यह है कि अधिक मदिरा सेवन से उनके शरीर की बीमारियों के विरुद्ध अवरोधक क्षमता क्षीण हो जाती है।
15. छाती के विभिन्न विकार भी पीने वालों में बहुतायत से पाए जाते हैं। निमोनिया, फेफड़ों की ख़राबी तथा क्षयरोग शराबियों में सामान्य रूप से पाए जाते हैं।
16. अधिक शराब पीकर अधिकांश शराबी वमन कर दते हैं, खाँसी की शारीरिक प्रतिक्रिया जो सुरक्षा व्यवस्था का कार्य करती है उस दौरान असफल हो जाती है अतः उल्टी से निकलने वाला द्रव्य सहज में फेफड़ों तक जा पहुंचता है और निमोनिया या फेफड़ों के विकार का कारण बनता है। कई बार इसका परिणाम दम घुटने तथा मृत्यु के रूप में भी प्रकट होता है।
17. महिलाओं में मदिरा सेवन के हानिकारक प्रभावों की चर्चा विशेष रूप से की जानी आवश्यक है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को मदिरा सेवन से अधिक हानि की आशंका होती है। गर्भावस्था में मदिरा सेवन से गर्भाशय पर घातक प्रभाव पड़ता है। मेडिकल साइंस में ‘‘फ़ैटल अलकोहल सिंडरोम’’ से सम्बद्ध शंकाएं दिनो-दिन बढ़ती जा रही है।
18. मदिरा सेवन से त्वचा रोगों की पूरी सम्भावना है।
19. एगज़ीमा, एलोपेशिया, नाख़ुनों की बनावट बिगड़ना, पेरोनेशिया अर्थात नाख़ुनों के किनारों का विकार, एंगुलर स्टोमाटाईटिस (मुँह के जोड़ों में जलन) वह सामान्य बीमारियाँ हैं जो शराबियों में पाई जाती हैं।
मदिरा सेवन एक ‘‘बीमारी’’ है
चिकित्सा शास्त्री अब शराब पीने वालों के विषय में खुलकर विचार व्यक्त करते हैं। उनका कहना है कि मदिरा सेवन कोई आदत या नशा नहीं बल्कि एक बीमारी है। इस्लामिक रिसर्च फ़ाउण्डेशन नामक संस्था ने एक पुस्तिका प्रकाशित की है जिसमें कहा गया है कि शराब एक बीमारी है जोः
त बातलों में बेची हाती है।
त जिसका प्रचार समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो और टी.वी. पर किया जाता है।
त जिसे फैलाने के लिए दुकानों को लायसेंस दिये जाते हैं।
त सरकार के राजस्व आय का साधन है
त सड़कों पर भयंकर दुर्घटनाओं का कारण बनती हैं
त पारिवारिक जीवन को नष्ट करती है तथा अपराधों में बढ़ौतरी करती है।
त इसका कारण कोई रोगााणु अथवा वायरस नहीं है।
त मदिरा सेवन कोई रोग नहीं...यह तो शैतान की कारीगरी है।
अल्लाह तआला ने हमें इस शैतानी कुचक्र से सावधान किया है। इस्लाम ‘‘दीन-ए-फ़ितरत’’ (प्राकृतिक धर्म) कहलाता है। अर्थात ऐसा
धर्म जो मानव के प्रकृति के अनुसार है। इस्लाम के समस्त प्रावधानों का उद्देश्य यह है कि मानव की प्रकृति की सुरक्षा की जाए। शराब और मादक द्रव्यों का सेवन प्रकृति के विपरीत कृत्य है जो व्यक्ति और समाज में बिगाड़ का कारण बन सकता है। शराब मनुष्य को उसकी व्यक्तिगत मानवीय प्रतिष्ठा और आत्म सम्मान से वंचित कर उसे पाश्विक स्तर तक ले जाती है। इसीलिए इस्लाम में शराब पीने की घोर मनाही है और इसे महापाप ठहराया गया है।

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गवाहों की समानता
प्रश्नः क्या कारण है कि इस्लाम में दो स्त्रियों की गवाही एक पुरुष के समान ठहराई जाती है?
उत्तरः दो स्त्रियों की गवाही एक पुरुष की गवाही के बराबर हमेशा नहीं ठहराई जाती।
(क) जब विरासत की वसीयत का मामला हो तो दो न्यायप्रिय (योग्य) व्यक्तियों की गवाही आवश्यक है।
पवित्र क़ुरआन की कम से कम 3 आयतें हैं जिनमें गवाहों की चर्चा स्त्री अथवा पुरुष की व्याख्या के बिना की गई है। जैसेः
‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो, जब तुम में से किसी की मृत्यु का समय आ जाए और वह वसीयत कर रहा हो तो उसके लिए साक्ष्य का नियम यह है कि तुम्हारी जमाअत (समूह) में से दो न्यायप्रिय व्यक्ति गवाह बनाए जाएं। या यदि तुम यात्रा की स्थिति में हो और वहाँ मृत्यु की मुसीबत पेश आए तो ग़ैर (बेगाने) लोगों में से दो गवाह बनाए जाएं।’’ (सूरह अल-मायदा, आयत 106)
(ख) तलाकष् के मामले में दो न्यायप्रिय लोगों की बात की गई हैः
‘‘फिर जब वे अपनी (इद्दत) की अवधि की समाप्ति पर पहुंचें तो या तो भले तरीके से (अपने निकाह) में रोक रखो, या भले तरीके से उनसे जुदा हो जाओ और दो ऐसे लोगों को गवाह बना लो जो तुम में न्यायप्रिय हों और (हे गवाह बनने वालो!) गवाही ठीक-ठीक और अल्लाह के लिए अदा करो।’’ (पवित्र क़ुरआन 65ः2)
(इस जगह इद्दत की अवधि की व्याख्या ग़ैर मुस्लिम पाठकों के लिए करना आवश्यक जान पड़ता है। इद्दत का प्रावधान इस्लामी शरीअत में इस प्रकार है कि यदि पति तलाकष् दे दे तो पत्नी 3 माह 10 दिन तक अपने घर में परिजनों की देखरेख में सीमित रहे, इस बीच यदि तलाकष् देने वाले पति से वह गर्भवती है तो उसका पता चल जाएगा। यदि पति की मृत्यु हो जाती है तो इद्दत की अवधि 4 माह है। यह इस्लाम की विशेष सामाजिक व्यवस्था है। इन अवधियों में स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर सकती।) अनुवादक
(ग) स्त्रियों के विरूद्ध बदचलनी के आरोप लगाने के सम्बन्ध में चार गवाहों का प्रावधान किया गया हैः
‘‘और जो लोग पाकदामन औरतों पर तोहमत लगाएं और फिर 4 गवाह लेकर न आएं, उनको उसी कोड़े से मारो और उनकी गवाही न स्वीकार करो और वे स्वयं ही झूठे हैं।’’ (पवित्र क़ुरआन 24ः4)
पैसे के लेन-देन में दो स्त्रियों की गवाही
एक पुरुष की गवाही के बराबर होती है
यह सच नहीं है कि दो गवाह स्त्रियाँ हमेशा एक पुरुष के बराबर समझी जाती हैं। यह बात केवल कुछ मामलों की हद तक ठीक है, पवित्र क़ुरआन में ऐसी लगभग पाँच आयतेें हैं जिनमें गवाहों की स्त्री-पुरुष के भेद के बिना चर्चा की गई है। इसके विपरीत पवित्र क़ुरआन की केवल एक आयत है जो यह बताती है कि दो गवाह स्त्रियाँ एक पुरुष के बराबर हैं। यह पवित्र क़ुरआन की सबसे लम्बी आयत भी है जो व्यापारिक लेन-देन के विषय में समीक्षा करती है। इस पवित्र आयत में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः
‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो, जब किसी निर्धारित अवधि के लिये तुम आपस में कष्र्ज़ का लेन-देन करो तो उसे लिख लिया करो। दोनों पक्षों के बीच न्याय के साथ एक व्यक्ति दस्तावेज़ लिखे, जिसे अल्लाह ने लिखने पढ़ने की योग्यता प्रदान की हो उसे लिखने से इंकार नहीं करना चाहिए, वह लिखे और वह व्यक्ति इमला कराए (बोलकर लिखवाए) जिस पर हकष् आता है (अर्थात कष्र्ज़ लेने वाला) और उसे अल्लाह से, अपने रब से डरना चाहिए, जो मामला तय हुआ हो उसमें कोई कमी-बेशी न करे, लेकिर यदि कष्र्ज़ लेने वाला अज्ञान या कमज़ोर हो या इमला न करा सकता हो तो उसका वली (संरक्षक अथवा प्रतिनिधि) न्याय के साथ इमला कराए। फिर अपने पुरूषों में से दो की गवाही करा लो। ओर यदि दो पुरुष न हों तो एक पुरुष और दो स्त्रियाँ हों ताकि एक भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे।’’ (पवित्र क़ुरआन , सूरह बकष्रह आयत 282)
ध्यान रहे कि पवित्र क़ुरआन की यह आयत केवल और केवल व्यापारिक कारोबारी (रूपये पैसे के) लेन-देन से सम्बंधित है। ऐसे मामलों में यह सलाह दी गई है कि दो पक्ष आपस में लिखित अनुबंध करें और दो गवाह भी साथ लें जो दोनों (वरीयता में) पुरुष हों। यदि आप को दो पुरुष न मिल सकें तो फिर एक पुरुष और दो स्त्रियों की गवाही से भी काम चल जाएगा।
मान लें कि एक व्यक्ति किसी बीमारी के इलाज के लिए आप्रेशन करवाना चाहता है। इस इलाज की पुष्टि के लिए वह चाहेगा कि दो विशेषज्ञ सर्जनों से परामर्श करे, मान लें कि यदि उसे दूसरा सर्जन न मिले तो दूसरा चयन एक सर्जन और दो सामान्य डाक्टरों (जनरल प्रैक्टिशनर्स) की राय होगी (जो सामान्य एम.बी.बी.एस) हों।
इसी प्रकार आर्थिक लेन-देन में भी दो पुरुषों को तरजीह (प्रमुखता) दी जाती है। इस्लाम पुरुष मुसलमानों से अपेक्षा करता है कि वे अपने परिवारजनों का कफ़ील (ज़िम्मेदार) हो। और यह दायित्व पूरा करने के लिए रुपया पैसा कमाने की ज़िम्मेदारी पुरुष के कंधों पर है। अतः उसे स्त्रियों की अपेक्षा आर्थिक लेन-देन के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। दूसरे साधन के रुप में एक पुरुष और दो स्त्रियों को गवाह के रुप में लिया जा सकता है ताकि यदि उन स्त्रियों में से कोई एक भूल करे तो दूसरी उसे याद दिला दे। पवित्र क़ुरआन में अरबी शब्द ‘‘तनज़ील’’ का उपयोग किया गया है जिसका अर्थ ‘कन्फ़यूज़ हो जाना’ या ‘ग़लती करना’ के लिए किया जाता है। बहुत से लोगों ने इसका ग़लत अनुवाद करके इसे ‘‘भूल जाना’’ बना दिया है, अतः आर्थिक लेन-देन में (इस्लाम में) ऐसा केवल एक उदाहरण है जिसमें दो स्त्रियों की गवाही को एक पुरुष के बराबर कष्रार दिया गया है।
हत्या के मामलों में भी दो गवाह स्त्रियाँ
एक पुरुष गवाह के बराबर हैं
तथपि कुछ उलेमा की राय में नारी का विशेष और स्वाभाविक रवैया किसी हत्या के मामले में भी गवाही पर प्रभावित हो सकता है। ऐसी स्थिति में कोई स्त्री पुरुष की अपेक्षा अधिक भयभीत हो सकती है। अतः कुछ व्याख्याकारों की दृष्टि में हत्या के मामलों में भी दो साक्षी स्त्रियाँ एक पुरुष साक्षी के बराबर मानी जाती हैं। अन्य सभी मामलों में एक स्त्री की गवाही एक पुरुष के बराबर कष्रार दी जाती है।
पवित्र क़ुरआन स्पष्ट रूप से बताता है कि
एक गवाह स्त्री एक गवाह पुरुष के बराबर है
कुछ उलेमा ऐसे भी हैं जो यह आग्रह करते हैं कि दो गवाह स्त्रियों के एक गवाह पुरुष के बराबर होने का नियम सभी मामलों पर लागू होना चाहिए। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता क्योंकि पवित्र क़ुरआन ने सूरह नूर की आयत नम्बर 6 में स्पष्ट रूप से एक गवाह औरत को एक पुरुष गवाह के बराबर कष्रार दिया हैः
‘‘और जो लोग अपनी पत्नियों पर लांच्छन लगाएं, और उनके पास सिवाय स्वयं के दूसरे कोई गवाह न हों उनमें से एक व्यक्ति की गवाही (यह है कि) चार बार अल्लाह की सौगन्ध खाकर गवाही दे कि वह (अपने आरोप में) सच्चा है और पाँचवी बार कहे कि उस पर अल्लाह की लानत हो, अगर वह (अपने आरोप में) झूठा हो। और स्त्री से सज़ा इस तरह टल सकती है कि वह चार बार अल्लाह की सौगन्ध खाकर गवाही दे कि यह व्यक्ति (अपने आरोप में) झूठा है, और पाँचवी बार कहे कि इस बन्दी पर अल्लाह का ग़ज़ब (प्रकोप) टूटे अगर वह (अपने आरोप में) सच्चा हो।’’ (सूरह नूर 6 से 9)
हदीस को स्वीकारने हेतु हज़रत आयशा
(रज़ियल्लाहु अन्हा) की अकेली गवाही पर्याप्त है
उम्मुल मोमिनीन (समस्त मुसलमानों की माता) हज़रत आयशा रजि़. (हमारे महान पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पत्नी) के माध्यम से कम से कम 12,220 हदीसें बताई गई हैं। जिन्हें केवल हज़रत आयशा रजि़. एकमात्र गवाही के आधार पर प्रामाणिक माना जाता है।
(इस जगह यह जान लेना अनिवार्य है कि यह बात उस स्थिति में सही है कि जब कोई पवित्र हदीस (पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के कथन अथवा कार्य की चर्चा अर्थात हदीस के उसूलों पर खरी उतरती हो (अर्थात किसने किस प्रकार क्या बताया) के नियम के अनुसार हो, अन्यथा वह हदीस चाहे कितने ही बड़े सहाबी (वे लोग जिन्होंने सरकार सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को देखा सुना है) के द्वारा बताई गई हो, उसे अप्रामाणिक अथवा कमज़ोर हदीसों में माना जाता है।) अनुवादक
यह इस बात का स्पष्ट सबूत है कि एक स्त्री की गवाही भी स्वीकार की जा सकती है।
अनेक उलेमा तथा इस्लामी विद्वान इस पर एकमत हैं कि नया चाँद दिखाई देने के मामले में एक (मस्लिम) स्त्री की साक्षी पर्याप्त है। कृपया ध्यान दें कि एक स्त्री की साक्षी (रमज़ान की स्थिति में) जो कि इस्लाम का एक स्तम्भ है, के लिये पर्याप्त ठहराई जा रही है। अर्थात वह मुबारक और पवित्र महीना जिसमें मुसलमान रोज़े रखते हैं, गोया रमज़ान शरीफ़ के आगमन जैसे महत्वपूर्ण मामले में स्त्री-पुरुष उसे स्वीकार कर रहे हैं। इसी प्रकार कुछ फुकहा (इस्लाम के धर्माचार्यों) का कहना है कि रमज़ान का प्रारम्भ (रमज़ान का चाँद दिखाई देने) के लिए एक गवाह, जबकि रमज़ान के समापन (ईदुलफ़ित्र का चाँद दिखाई देने) के लिये दो गवाहों का होना ज़रूरी है। यहाँ भी उन गवाहों के स्त्री अथवा पुरुष होने की कोई भी शर्त नहीं है।
कुछ मुसलमानों में स्त्री की गवाही को
अधिक तरजीह दी जाती है
कुछ घटनाओं में केवल और केवल एक ही स्त्री की गवाही चाहिए होती है जबकि पुरुष को गवाह के रूप में नहीं माना जाता। जैसे स्त्रियों की विशेष समस्याओं के मामले में, अथवा किसी मृतक स्त्री के नहलाने और कफ़नाने आदि में एक स्त्री का गवाह होना आवश्यक है।
अंत में इतना बताना पर्याप्त है कि आर्थिक लेन-देन में स्त्री और पुरुष की गवाही के बीच समानता का अंतर केवल इसलिए नहीं कि इस्लाम में पुरुषों और स्त्रियों के बीच समता नहीं है, इसके विपरीत यह अंतर केवल उनकी प्राकृतिक प्रवृत्तियों के कारण है। और इन्हीं कारणों से इस्लाम ने समाज में पुरूषों और स्त्रियों के लिये विभिन्न दायित्वों को सुनिश्चित किया है।

14
विरासत
प्रश्नः इस्लामी कानून के अनुसार विरासत की धन-सम्पत्ति में स्त्री का हिस्सा पुरूष की अपेक्षा आधा क्यों है?
उत्तरः
पवित्र क़ुरआन में विरासत की चर्चा
पवित्र क़ुरआन में धन (चल-अचल सम्पत्ति सहित) के हकष्दार उत्तराधिकारियों के बीच बंटवारे के विषय पर बहुत स्पष्ट और विस्तृत मार्गदर्शन किया गया है। विरासत के सम्बन्ध में मार्गदर्शक नियम निम्न वर्णित पवित्र आयतों में बताए गए हैंः
‘‘तुम पर फ़र्ज़ (अनिवार्य कर्तव्य) किया गया है कि जब तुम में से किसी की मृत्यु का समय आए और अपने पीछे माल छोड़ रहा हो, माता पिता और सगे सम्बंधियों के लिए सामान्य ढंग से वसीयत करे। यह कर्तव्य है मुत्‍तकी लोगों (अल्लाह से डरने वालों) पर।’’ (पवित्र क़ुरआन , सूरह बकष्रह आयत 180)
‘‘तुम में से जो लोग मृत्यु को प्राप्त हों और अपने पीछे पत्नियाँ छोड़ रहे हों, उनको चाहिए कि अपनी पत्नियों के हकष् में वसीयत कर जाएं कि एक साल तक उन्हें नान-व- नफ़कष्ः (रोटी, कपड़ा इत्यादि) दिया जाए और वे घर से निकाली न जाएं। फिर यदि वे स्वयं ही निकल जाएं तो अपनी ज़ात (व्यक्तिगत रुप में) के मामले में सामान्य ढंग से वे जो कुछ भी करें, इसकी कोई ज़िम्मेदारी तुम पर नहीं है। अल्लाह सब पर ग़ालिब (वर्चस्व प्राप्त) सत्ताधारी हकीम (ज्ञानी) और बुद्धिमान है।’’ (सूरह अल बकष्रह, आयत 240)
‘‘पुरुषों के लिए उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और निकटवर्ती रिश्तेदारों ने छोड़ा हो और औरतों के लिए भी उस माल में हिस्सा है जो माँ-बाप और निकटवर्ती रिश्तेदारों ने छोड़ा हो। चाहे थोड़ा हो या बहुत। और यह हिस्सा (अल्लाह की तरफ़ से) मुकष्र्रर है। और जब बंटवारे के अवसर पर परिवार के लोग यतीम (अनाथ) और मिस्कीन (दरिद्र, दीन-हीन) आएं तो उस माल से उन्हें भी कुछ दो और उनके साथ भलेमानुसों की सी बात करो। लोगों को इस बात का ख़याल करके डरना चाहिए कि यदि वे स्वयं अपने पीछे बेबस संतान छोड़ते तो मारते समय उन्हें अपने बच्चों के हकष् में कैसी कुछ आशंकाएं होतीं, अतः चाहिए कि वे अल्लाह से डरें और सत्यता की बात करें।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 7 से 9)
‘‘हे लोगो जो ईमान लाए हो, तुम्हारे लिए यह हलाल नहीं है कि ज़बरदस्ती औरतों के वारिस बन बैठो, और न यह हलाल है कि उन्हें तंग करके उस मेहर का कुछ हिस्सा उड़ा लेने का प्रयास करो जो तुम उन्हें दे चुके हो। हाँ यदि वह कोई स्पष्ट बदचलनी करें (तो अवश्य तुम्हें तंग करने का हकष् है) उनके साथ भले तरीकष्े से ज़िन्दगी बसर करो। अगर वह तुम्हें नापसन्द हों तो हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द न हो मगर अल्लाह ने उसी में बहुत कुछ भलाई रख दी हो।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 19)
‘‘और हमने उस तरके (छोड़ी हुई धन-सम्पत्ति) के हकष्दार मुकष्र्रर कर दिये हैं जो माता-पिता और कष्रीबी रिश्तेदार छोड़ें। अब रहे वे लोग जिनसे तुम्हारी वचनबद्धता हो तो उनका हिस्सा उन्हें दो। निश्चय ही अल्लाह हर वस्तु पर निगहबान है।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 33)
विरासत में निकटतम रिश्तेदारों का विशेष हिस्सा
पवित्र क़ुरआन में तीन आयतें ऐसी हैं जो बड़े सम्पूर्ण ढंग से विरासत में निकटतम सम्बंधियों के हिस्से पर रौशनी डालती हैंः
‘‘तुम्हारी संतान के बारे में अल्लाह तुम्हें निर्देश देता है कि पुरुष का हिस्सा दो स्त्रियों के बराबर है। यदि (मृतक के उत्तराधिकारी) दो से अधिक लड़कियाँ हों तो उन्हें तरके का दो तिहाई दिया जाए और अगर एक ही लड़की उत्तराधिकारी हो तो आधा तरका उसका है। यदि मृतक संतान वाला हो तो उसके माता-पिता में से प्रत्येक को तरके का छठवाँ भाग मिलना चाहिए। यदि वह संतानहीन हो और माता-पिता ही उसके वारिस हों तो माता को तीसरा भाग दिया जाए। और यदि मृतक के भाई-बहन भी हों तो माँ छठे भाग की हकष्दार होगी (यह सब हिस्से उस समय निकाले जाएंगे) जबकि वसीयत जो मृतक ने की हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो उस पर हो अदा कर दिया जाए। तुम नहीं जानते कि तुम्हारे माँ-बाप और तुम्हारी संतान में से कौन लाभ की दृष्टि से तुम्हें अत्याधिक निकटतम है, यह हिस्से अल्लाह ने निधार्रित कर दिये हैं और अल्लाह सारी मस्लेहतों को जानने वाला है। और तुम्हारी पत्नियों ने जो कुछ छोड़ा हो उसका
आधा तुम्हें मिलेगा। यदि वह संतानहीन हों, अन्यथा संतान होने की स्थिति में तरके का एक चैथाई हिस्सा तुम्हारा है, जबकि वसीयत जो उन्होंने की हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो उन्होंने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए। और वह तुम्हारे तरके में से चैथाई की हकष्दार होंगी। यदि तुम संताीहीन हो, अन्यथा संतान होने की स्थिति में उनका हिस्सा आठवाँ होगा। इसके पश्चात कि जो वसीयत तुमने की हो पूरी कर दी जाए और वह क़र्ज़ जो तुमने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए।
और अगर वह पुरुष अथवा स्त्री (जिसके द्वारा छोड़ी गई
धन-सम्पति का वितरण होना है) संतानहीन हो और उसके माता-पिता जीवित न हों परन्तु उसका एक भाई अथवा एक बहन मौजूद हो तो भाई और बहन प्रत्येक को छठा भाग मिलेगा और भाई बहन एक से ज़्यादा हों तो कुछ तरके के एक तिहाई में सभी भागीदार होंगे। जबकि वसीयत जो की गई हो पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो मृतक ने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए। बशर्ते कि वह हानिकारक न हो। यह आदेश है अल्लाह की ओर से और अल्लाह ज्ञानवान, दृष्टिवान एवं विनम्र है।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 11 से 12 )
‘‘हे नबी! लोग तुम से कलालः (वह मृतक जिसका पिता हो न पुत्र) के बारे में में फ़तवा पूछते हैं, कहो अल्लाह तुम्हें फ़तवा देता है। यदि कोई व्यक्ति संतानहीन मर जए और उसकी एक बहन हो तो वह उसके तरके में से आधा पाएगी और यदि बहन संतानहीन मरे तो भाई उसका उत्तराधिकारी होगा। यदि मृतक की उत्तराधिकारी दो बहनें हों तो वे तरके में दो तिहाई की हक़दार होंगी और अगर कई बहन भाई हों तो स्त्रियों का इकहरा और पुरुषों का दोहरा हिस्सा होगा तुम्हारे लिये अल्लाह आदेशों की व्याख्या करता है ताकि तुम भटकते न फिरो और अल्लाह हर चीज़ का ज्ञान रखता है।’’ (सूरह अन्-निसा, आयत 176)
कुछ अवसरों पर तरके में स्त्री का हिस्सा अपने समकक्ष पुरुष से अधिक होता है
अधिकांक्ष परिस्थतियों में एक स्त्री को विरासत में पुरुष की अपेक्षा आधा भाग मिलता है। किन्तु हमेशा ऐसा नहीं होता। यदि मृतक कोई सगा बुजष्ुर्ग (माता-पिता इत्यादि अथवा सगे उत्ताराधिकारी पुत्र, पुत्री आदि) न हों परन्तु उसके ऐसे सौतेले भाई-बहन हों, माता की ओर से सगे और पिता की ओर से सौतेले हों तो ऐसे दो बहन-भाई में से प्रत्येक को तरके का छठा भाग मिलेगा।
यदि मृतक के बच्चें न हों तो उसके माँ-बाप अर्थात माँ और बाप में से प्रत्येक को तरके का छठा भाग मिलेगा। कुछ स्थितियों में स्त्री को तरके में पुरुष से दोगुना हिस्सा मिलता है। यदि मृतक कोई स्त्री हो जिससे बच्चे न हों और उसका कोई भाई बहन भी न हो जबकि उसके निकटतम सम्बंधियों में उसका पति, माँ और बाप रह गए हों (ऐसी स्थिति में) उस स्त्री के पति को स्त्री के तरके में आधा भाग मिलेगा) माता को एक तिहाई, जबकि पिता को शेष का छठा भाग मिलेगा। देखिए कि इस मामले में स्त्री की माता का हिस्सा उसके पिता से दोगुना होगा।
तरके में स्त्री का सामान्य हिस्सा अपने
समकक्ष पुरुष से आधा होता है
एक सामान्य नियम के रूप में यह सच है कि अधिकांश मामलों में स्त्री का तरके में हिस्सा पुरुष से आधा होता है, जैसेः
1. विरासत में पुत्री का हिस्सा पुत्र से आधा होता है।
2. यदि मृतक की संतान हो तो पत्नी को आठवाँ और पति को चैथाई हिस्सा मिलेगा।
3. यदि मृतक संतानहीन हो तो पत्नी को चैथाई और पति को
आधा हिस्सा मिलेगा।
4. यदि मृतक का कोई (सगा) बुजष्ुर्ग अथवा उत्तराधिकारी न हो तो उसकी बहन को (उसके) भाई के मुकषबले में आधा हिस्सा मिलेगा।
पति को विरासत में दोगुना हिस्सा इसलिए मिलता है कि वह परिवार के भरण पोषण का ज़िम्मेदार है
इस्लाम में स्त्री पर जीवनोपार्जन की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। जबकि परिवार की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ती का दायित्व पुरुष पर डाला गया है। विवाह से पूर्व कन्या के रहने सहने, आवागमन, भोजन वस्त्र तथा समस्त आर्थिक आवश्यकताओं का पूरा करना उसके पिता अथवा भाई (या भाईयों) का कर्तव्य है। विवाहोपरांत स्त्री की यह समस्त आवश्यकताएं पूरी करने का दायित्व उसके पति अथवा पुत्र (पुत्रों) पर लागू होता है। अपने परिवार की समस्त आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इस्लाम ने पूरी तरह पुरुष को ज़िम्मेदार ठहराया है। इस दायित्व के निर्वाह के कारण से इस्लाम में विरासत में पुरुष का हिस्सा स्त्री से दोगुना निश्चित किया गया है। उदाहरणतः यदि कोई पुरुष तरके में डेढ़ लाख रुपए छोड़ता है और उसके एक बेटी और एक बेटा है तो उसमें से 50 हज़ार बेटी को और एक लाख रुपए बेटे को मिलेंगे।
देखने में यह हिस्सा ज़्यादा लगता है परन्तु बेटे पर घर-परिवार की ज़िम्मेदारी भी है जिन्हें पूरा करने के लिए (स्वाभाविक रूप से) एक लाख में से 80 हज़ार रूपए ख़र्च करने पड़ सकते हैं। अर्थात विरासत में उसका हिस्सा वास्तव में 20 हज़ार के लगभग ही रहेगा। दूसरी ओर यदि लड़की को 50 हज़ार रूपए मिले हैं लेकिन उसपर किसी प्रकार की ज़िम्मेदारी नहीं है अतः वह समस्त राशि उसके पास बची रहेेगी। आपके विचार में क्या चीज़ बेहतर है। तरके में एक लाख लेकर 80 हज़ार ख़र्च कर देना या 50 हज़ार लेकर पूरी राशि बचा लेना?

15
क्या पवित्र क़ुरआन अल्लाह का कलाम (ईष वाक्य) है?
निश्चय ही विश्व के प्रत्येक मुसलमान का इस पर पूर्ण विश्वास है परन्तु यह प्रश्न एक सम्पूर्ण पुस्तक की मांग करता है। इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर एक पुस्तक के रूप में डा. ज़ाकिर नायक दे चुके, अफसोस उस पुस्‍तक की हिन्‍दी नही होसकी,
Now online book: "IS THE QURAN GOD'S WORD? (Hindi)" किया कुरआन ईश्वरीय ग्रन्थ है?
16
आख़िरत, मृत्योपरांत जीवन
प्रश्नः आप आख़िरत अथवा मृत्योपरांत जीवन की सत्यता कैसे सिद्ध करेंगे?
उत्तरः आख़िरत पर विश्वास का आधार अंधी आस्था नहीं है।
बहुत से लोग इस बात पर हैरान होते हैं कि एक ऐसा व्यक्ति जो बौद्धिक और वैज्ञानिक प्रवृत्ति का स्वामी हो, वह किस प्रकार मृत्यु के उपरांत जीवन पर विश्वास धारण कर सकता है? लोग यह विचार करते हैं कि आख़िरत पर किसी का विश्वास अंधी आस्था पर स्थापित होता है। परन्तु आख़िरत पर मेरा विश्वास बौद्धिक तर्क के आधार पर है।
आख़िरत एक बौद्धिक आस्था
पवित्र क़ुरआन में एक हज़ार से अधिक आयतें ऐसी हैं जिनमें वैज्ञानिक तथ्यों का वर्णन किया गया है। (इसके लिए मेरी पुस्तक ‘‘क़ुरआन और आधुनिक विज्ञान, समन्वय अथवा विरोध’’ देखें) विगत शताब्दियों के दौरान पवित्र क़ुरआन मे वर्णित 80 प्रतिशत तथ्य 100 प्रतिशत सही सिद्ध हो चुके हैं। शेष 20 प्रतिशत तथ्यों के विषय में विज्ञान ने कोई स्पष्ट निष्कर्ष नहीं घोषित किया है क्योंकि विज्ञान अभी तक इतनी उन्नति नहीं कर सका है कि पवित्र क़ुरआन में वर्णित शेष तथ्यों को सही अथवा ग़लत सिद्ध कर सके। इस सीमित ज्ञान के साथ जो हमारे पास है, हम पूरे विश्वास के साथ कदापि नहीं कह सकते कि इस 20 प्रतिशत का भी केवल एक प्रतिशत भाग अथवा कोई एक आयत ही ग़लत है। अतः जब पवित्र क़ुरआन का 80 प्रतिशत भाग (बौद्धिक आधार पर) शत प्रतिशत सही सिद्ध हो चुका है और शेष 20 प्रतिशत ग़लत सिद्ध नहीं किया जा सका तो विवेक यही कहता है कि शेष 20 प्रतिशत भाग भी सही है।
आख़िरत का अस्तित्व जो पवित्र क़ुरआन ने बयान किया है उसी 20 प्रतिशत समझ में न आने वाले भाग में शामिल है जो बौद्धिक रूप से सही है।
शांति और मानवीय मूल्यों की कल्पना, आख़िरत के विश्वास के बिना व्यर्थ है
डकैती अच्छा काम है या बुरा? इस प्रश्न के उत्तर में कोई भी नार्मल और स्वस्थ बुद्धि वाला व्यक्ति यही कहेगा कि यह बुरा काम है। किन्तु इस से भी महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कोई ऐसा व्यक्ति जो आख़िरत पर विश्वास न रखता हो वह किसी शक्तिशाली और प्रभावशाली पहुंच रखने वाले व्यक्ति को कैसे कषइल करेगा कि डाके डालना एक बुराई, एक पाप है?
यदि कोई मेरे सामने इस बात के पक्ष में एक बौद्धिक तर्क प्रस्तुत कर दे (जो मेरे लिए भी समान रूप से स्वीकार्य हो) कि डाका डालना बुरा है तो मैं तुरन्त यह काम छोड़ दूंगा। इसके जवाब में लोग आम तौर से निम्नलिखित तर्क देते हैं।
(क) लुटने वाले व्यक्ति को कठिनाईयों का सामना होगा
कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि लुटने वाले व्यक्ति को कठिनाईयों का सामना होगा। निश्चय ही, मैं इस बात पर सहमत होऊंगा कि लुटनेवाले के लिए डाकाज़नी का काम बहुत बुरा है। परन्तु मेरे लिए तो यह अच्छा है। यदि मैं 20 हज़ार डालर की डकैती मारूं तो किसी पाँच तारा होटल में मज़े से खाना खा सकता हूँ।
(ख) कोई अन्य आप को भी लूट सकता है
कुछ लोग यह कह सकते हैं कि किसी दिन कोई अन्य डाकू आप को भी लूट सकता है। परन्तु मैं तो बड़ी ऊँची पहुंच वाला प्रभावशाली अपराधी हूँ, और मेरे सैकड़ों अंगरक्षक हैं तो भला कोई मुझे कैसे लूट सकता है? अर्थात मैं तो किसी को भी लूट सकता हूँ परन्तु मुझे कोई नहीं लूट सकता। डकैती किसी साधारण व्यक्ति के लिये ख़तरनाक पेशा हो सकता है पर मुझ जैसे शक्तिशाली और प्रभावशाली व्यक्ति के लिए नहीं।
(ग) आपको पुलिस गिरफ़्तार कर सकती है
एक तर्क यह भी सामने आ सकता है कि किसी न किसी दिन पुलिस आपको गिरफ़्तार कर लेगी। अरे भई! पुलिस तो मुझे पकड़ ही नहीं सकती, पुलिस के छोटे से बड़े अधिकारियों और ऊपर मंत्रियों तक मेरा नमक खाने वाले हैं। हाँ, यह मैं मानता हूँ कि यदि कोई साधारण व्यक्ति डाका डाले तो वह गिरफ़्तार कर लिया जाएगा और डकैती उसके लिये बुरी सिद्ध होगी, परन्तु मैं तो आसाधारण रूप से प्रभावशाली और ताकष्तवर अपराधी हूँ, मुझे कोई बौद्धिक तर्क दीजिए कि यह कृत्य बुरा है, मैं डाके मारना छोड़ दूंगा।
(घ) यह बिना परिश्रम की कमाई है
यह एक तर्क दिया जा सकता है कि यह बिना परिश्रम अथवा कम परिश्रम से कमाई गई आमदनी है जिसकी प्राप्ति हेतु कोई अधिक मेहनत नहीं की गई है। मैं मानता हूँ कि डाका मारने में कुछ खास परिश्रम किये बिना अच्छी खासी रकष्म हाथ लग जाती है। और यही मेरे डाका मारने का बड़ा कारण भी है। यदि किसी के सामने अधिक धन कमाने का सहज और सुविधाजनक रास्ता हो तथा वह रास्ता भी हो जिससे धन कमाने में उसे बहुत ज़्यादा परिश्रम करना पड़े तो एक बुद्धिमान व्यक्ति स्वाभाविक रूप से सरल रास्ते को ही अपनाएगा।
(ङ) यह मानवता के विरूद्ध है
कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि डाके मारना अमानवीय कृत्य है और यह कि एक व्यक्ति को दूसरे मनुष्यों के बारे में सोचना चाहिए। इस बात को नकारते हुए मैं यह प्रश्न करूंगा कि ‘‘मानवता कहलाने वाला यह कानून किसने लिखा है, मैं इस का पालन किस ख़ुशी में करूँ?’’
यह कानून किसी भावुक और संवेदनशील व्यक्ति के लिए तो ठीक हो सकता है किन्तु मैं बुद्धिमान व्यक्ति हूँ, मुझे दूसरे लोगों की चिंता करने में कोई लाभ दिखाई नहीं देता।
(च) यह स्वार्थी कृत्य है
कुछ लोग डाकाज़नी को स्वार्थी कृत्य कह सकते हैं, यह बिल्कुल सच है कि डाके मारना स्वार्थी कृत्य है किन्तु मैं स्वार्थी क्यों न बनूँ। इसी से तो मुझे जीवन का आनन्द उठाने में मदद मिलती है।
डाकाज़नी को बुरा काम सिद्ध करने के लिए
कोई बौद्धिक तर्क नहीं
अतः डाका मारने को बुरा काम सिद्ध करने हेतु दिये गए समस्त तर्क व्यर्थ रहते हैं। इस प्रकार के तर्कों से एक साधारण कमज़ोर व्यक्ति को तो प्रभावित किया जा सकता है। किन्तु मुझ जैसे शक्तिशाली और असरदार व्यक्ति को नहीं। इनमें से किसी एक तर्क का बचाव भी बुद्धि और विवेक के बल पर नहीं किया जा सकता, अतः इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि संसार में बहुत अपराधी प्रवृति के लोग पाए जाते हैं। इसी प्रकार धोखाधड़ी और बलात्कार जैसे अपराध मुझ जैसे किसी व्यक्ति के लिए अच्छे होने का औचित्य प्राप्त कर सकते हैं। और कोई बौद्धिक तर्क मुझ से इनके बुरे होने की बात नहीं मनवा सकता।
एक मुसलमान किसी भी शक्तिशाली अपराधी को लज्जित होने पर विवश कर सकता है
चलिए, अब हम स्थान बदल लेते हैं। मान लीजिए कि आप दुनिया के शक्तिशाली अपराधी हैं जिसका प्रभाव पुलिस से लेकर सरकार के बड़े- बड़े मंत्रियों आदि पर भरपूर है। आपके पास अपने गिरोह के बदमाशों की पूरी सेना है। मैं एक मुसलमान हूँ जो आपको समझाने का प्रयत्न कर रहा है कि बलात्कार, लूटमार और धोखाधड़ी इत्यादि बुरे काम हैं। यदि मैं वैसे ही तर्क (जो पहले दिये जा चुके हैं) अपराधों को बुरा सिद्ध करने के लिए दूँ तो अपराधी भी वही जवाब देगा जो उसने पहले दिये थे।
मैं मानता हूँ कि अपराधी चतुर बुद्धि का व्यक्ति हैं, और उसके समस्त तर्क उसी समय सटीक होंगे जब वह संसार का बलशाली अपराधी हो।
प्रत्येक मनुष्य न्याय चाहता है
प्रत्येक मनुष्य की यह कामना होती है कि उसे न्याय मिले। यहाँ तक कि यदि वह दूसरों के लिए न्याय का इच्छुक न भी हो तो भी वह अपने लिए न्याय चाहता है। कुछ लोग शक्ति और अपने असर-रसूख़ के नशे में इतने उन्मत्त होते हैं कि दूसरे लोगों के लिए कठिनाईयाँ और विपत्तियाँ खड़ी करते रहते हैं परन्तु यही लोग उस समय कड़ी आपत्ति करते हैं जब स्वयं उनके साथ अन्याय हो। दूसरों की ओर से असंवेदनशील और भावहीन होने का कारण यह है कि वे अपनी शक्ति की पूजा करते हैं और यह सोचते हैं कि उनकी शक्ति ही उन्हें दूसरों के साथ अन्याय करने के योग्य बनाती है और दूसरों को उनके विरुद्ध अन्याय करने से रोकने का साधन है।
अल्लाह तआला सबसे शक्तिशाली और
न्याय करने वाला है
एक मुसलमान की हैसियत से मैं अपराधी को सबसे पहले अल्लाह के अस्तित्व को मानने पर बाध्य करूंगा, (इस बारे में तर्क अलग हैं) अल्लाह आपसे कहीं अधिक ताकष्तवर है और साथ ही साथ वह अत्यंत न्यायप्रिय भी है। पवित्र क़ुरआन में कहा गया हैः
‘‘अल्लाह किसी पर ज़र्रा बराबर भी अत्चायार नहीं करता। यदि कोई एक नेकी करे तो अल्लाह उसको दोगुना करता है और अपनी ओर से बड़ा प्रतिफल प्रदान करता है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 4ः40)
अल्लाह मुझे दण्ड क्यों नहीं देता?
और बुद्धिमान तथा वैज्ञानिक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति होने के नाते जब उसके समक्ष पवित्र क़ुरआन से तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं तो वह उन्हें स्वीकार करके अल्लाह तआला के अस्तित्व को मान लेता है। वह प्रश्न कर सकता है कि जब अल्लाह तआला सबसे ताकष्तवर और सबसे
अधिक न्याय करने वाला है तो मुझे दण्ड क्यों नहीं मिलता?
अन्याय करने वाले को दण्ड मिलना चाहिए
प्रत्येक वह व्यक्ति, जिसके साथ अन्याय हुआ हो, निश्चय ही यह चाहेगा कि अन्यायी को उसके धन, शक्ति और सामाजिक रुतबे का
ध्यान किये बिना दण्ड दिया जाना चाहिए। प्रत्येक सामान्य व्यक्ति यह चाहेगा कि डाकू और बदकार को सबकष् सिखाया जाए। यद्यपि बहुतेरे अपराधियों को दण्ड मिलता है किन्तु फिर भी उनकी बड़ी तादाद कानून से बच जाने में सफल रहती है।। ये लोग बड़ा आन्दमय एवं विलासितापूर्ण जीवन बिताते हैं और अधिकांश आनन्दपूर्वक रहते हैं। यदि किसी शक्तिशाली और असरदार व्यक्ति के साथ उससे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति अन्याय करे तो भी वह चाहेगा कि उससे अधिक शक्तिशाली और असरदार व्यक्ति को उसके अन्याय का दण्डा दिया जाए।
यह जीवन आख़िरत का परीक्षा स्थल है
दुनिया की यह ज़िन्दगी आख़िरत के लिए परीक्षा स्थल है। पवित्र क़ुरआन का फ़रमान हैः
‘‘जिसने मृत्यु और जीवन का अविष्कार किया ताकि तुम लोगों को आज़मा कर देखे कि तुम में से कौन सद्कर्म करने वाला है, और वह ज़बदस्त भी है और दरगुज़र (क्षमा) करने वाला भी।’’ (पवित्र क़ुरआन 67ः2)
किष्यामत के दिन पूर्ण और निश्चित न्याय होगा
पवित्र क़ुरआन में कहा गया हैः
‘‘अंततः प्रत्येक व्यक्ति को मृत्यु का स्वाद चखना है। और तुम जब अपने पूरे-पूरे अज्र (प्रतिफल) पाने वाले हो, सफल वास्तव में वह है जो दोज़ख़ की आग से बच जाए और जन्नत में दाख़िल कर दिया जाए, रही यह दुनिया तो यह एक प्रत्यक्ष धोखा (माया) है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 3ः185)
पूर्ण न्याय किष्यामत के दिन किया जाएगा। मरने के बाद हर व्यक्ति को हिसाब के दिन (कियामत के दिन) एक बार फिर दूसरे तमाम मनुष्यों के साथ ज़िन्दा किया जाएगा। यह संभव है कि एक व्यक्ति अपनी सज़ा का एक हिस्सा दुनिया ही में भुगत ले, किन्तु दण्ड और पुरुस्कार का पूरा फ़ैसला आख़िरत में ही किया जाएगा। संभव है अल्लाह तआला किसी अपराधी को इस दुनिया में सज़ा न दे लेकिन किष्यामत के दिन उसे अपने एक-एक कृत्य का हिसाब चुकाना पड़ेगा। और वह आख़िरत अर्थात मृत्योपरांत जीवन में अपने एक-एक अपराध की सज़ा पाएगा।
मानवीय कानून हिटलर को क्या सज़ा दे सकता है?
महायुद्ध में हिटलर ने लगभग 60 लाख यहूदियों को जीवित आग में जलवाया था। मान लें कि पुलिस उसे गिरफ़्तार भी कर लेती तो कानून के अनुसार उसे अधिक से अधि क्या सज़ा दी जाती? बहुत से बहुत यह होता कि उसे किसी गैस चैम्बर में डालकर मार दिया जाता, किन्तु यह तो केवल एक यहूदी की हत्या का दण्ड होता, शेष 59 लाख, 99 हज़ार, 999 यहूदियों की हत्या का दण्ड उसे किस प्रकार दिया जा सकता था? उसे एक बार ही (स्वाभाविक रुप से) मृत्युदण्ड दिया जा सकता था।
अल्लाह के अधिकार में है कि वह हिटलर को जहन्नम की आग में 60 लाख से अधिक बार जला दे
पवित्र क़ुरआन में अल्लाह तआला फ़रमाता हैः
‘‘जिन लोगों ने हमारी आयतों को मानने से इंकार कर दिया है उन्हें हम निश्चिय ही आग में फेंकेंगे और जब उनके शरीर की खाल गल जाएगी तो उसकी जगह दूसरी खाल पैदा कर देंगे ताकि वह ख़ूब अज़ाब (यातना) का मज़ा चखें, अल्लाह बड़ी क्षमता रखता है और अपने फ़ैसलों के क्रियानवयन की हिकमत ख़ूब जानता है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 4ः56)
अर्थात अल्लाह चाहे तो हिटलर को जहन्नम की आग में केवल 60 लाख बार नहीं बल्कि असंख्य बार जला सकता है।
आख़िरत की परिकल्पना के बिना मानवीय मूल्यों
और अच्छाई बुराई की कोई कल्पना नहीं
यह स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति को आख़िरत की कल्पना अथवा मृत्यु के पश्चात जीवन के विश्वास पर कषयल किये बिना उसे मानवीय मूल्यों और अच्छे-बुरे कर्मों की कल्पना पर कषयल करना भी संभव नहीं। विशेष रूप से जब मामला शक्तिशाली और बड़े अधिकार रखने वालों का हो जो अन्याय में लिप्त हों।

17
प्रश्नः क्या कारण है कि मुसलमान विभिन्न समुदायों और विचाधाराओं में विभाजित हैं?
उत्तरः मुसलमानों को एकजुट होना चाहिए।
यह सत्य है कि आज के मुसलमान आपस में ही बंटे हुए हैं। दुख की बात यह है कि इस प्रकार के अलगाव की इस्लाम में कोई अनुमति नहीं है। इस्लाम इस बात पर ज़ोर देता है कि उसके अनुयायियों में परस्पर एकता को बरक़रार रखा जाए।
‘‘सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मज़बूत पकड़ लो और अलगाव में न पड़ो।’’ (पवित्र क़ुरआन , 3ः103)
वह कौन सी रस्सी है जिसकी ओर इस पवित्र आयत में अल्लाह तआला ने इशारा किया है। पवित्र क़ुरआन ही वह रस्सी है, यही अल्लाह की वह रस्सी है जिसे समस्त मुसलमानों को मज़बूती से थामे रहना चाहि। इस पवित्र आयत में दोहरा आग्रह है, एक ओर यह आदेश दिया गया है कि अल्लाह की रस्सी को ‘‘मज़बूती से थामे रखें’’ तो दूसरी ओर यह आदेश भी है कि अलगाव में न पड़ो (एकजुट रहो)।
पवित्र क़ुरआन का स्पष्ट आदेश हैः
‘‘हे लोगो! जो ईमान लाए हो, आज्ञापालन करो अल्लाह का, और आज्ञापालन करो रसूल (सल्लॉ) का, और उन लोगों का जो तुम में साहिब-ए-अम्र (अधिकारिक) हों फिर तुम्हारे बीच किसी मामले में विवाद हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की ओर फेर दो, यदि तुम वास्तव में अल्लाह और अंतिम दिन (किष्यामत) पर ईमान रखते हो। यही एक सीधा तरीकष है और परिणाम की दृष्टि से भी उत्तम है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 4ः59)
सभी मुसलमानों को पवित्र क़ुरआन और प्रामाणिक हदीसों का ही अनुकरण करना चाहिए और आपस में फूट नहीं डालनी चाहिए।
इस्लाम में समुदायों और अलगाव की मनाही है
पवित्र क़ुरआन का आदेश हैः
‘‘जिन लोगों ने अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और गिरोह-गिरोह बन गए, निश्चय ही तुम्हारा उनसे कोई वास्ता नहीं, उनका मामला तो अल्लाह के सुपुर्द है और वही उनको बताएगा कि उन्होंने क्या कुछ किया है।’’ (पवित्र क़ुरआन , 6ः159)
इस पवित्र आयत से यह स्पष्ट होता है कि अल्लाह तआला ने हमें उन लोगों से अलग रहने का आदेश दिया है जो दीन में विभाजन करते हों और समुदायों में बाँटते हों। किन्तु आज जब किसी मुसलमान से पूछा जाए कि ‘‘तुम कौन हो?’’ तो सामान्य रूप से कुछ ऐसे उत्तर मिलते हैं, ‘‘मैं सुन्नी हूँ, मैं शिया हूँ, ’’इत्यादि। कुछ लोग स्वयं को हनफ़ी, शाफ़ई, मालिकी और हम्बली भी कहते हैं, कुछ लोग कहते हैं ‘‘मैं देवबन्दी, या बरेलवी हूँ।’’
हमारे निकट पैग़म्बर
(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मुस्लिम थे
ऐसे मुसलमान से कोई पूछे कि हमारे प्यारे पैग़म्बर (सल्लॉ) कौन थे? क्या वह हन्फ़ी या शाफ़ई थे। क्या मालिकी या हम्बली थे? नहीं, वह मुसलमान थे। दूसरे सभी पैग़म्बरों की तरह जिन्हें अल्लाह तआला ने उनसे पहले मार्गदर्शन हेतु भेजा था।
पवित्र क़ुरआन की सूरह 3, आयत 25 में स्पष्ट किया गया है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम भी मुसलमान ही थे। इसी पवित्र सूरह की 67वीं आयत में पवित्र क़ुरआन बताता है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम कोई यहूदी या ईसाई नहीं थे बल्कि वह ‘‘मुस्लिम’’ थे।
पवित्र क़ुरआन हमे स्वयं को ‘‘मुस्लिम’’
कहने का आदेश देता है
यदि कोई व्यक्ति एक मुसलमान से प्रश्न करे कि वह कौन है तो उत्तर में उसे कहना चाहिए कि वह मुसलमान है, हनफ़ी अथवा शाफ़ई नहीं। पवित्र क़ुरआन में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः
‘‘और उस व्यक्ति से अच्छी बात और किसकी होगी जिसने अल्लाह की तरफ़ बुलाया और नेक अमल (सद्कर्म) किया और कहा कि मैं मुसलमान हूँ।’’ (पवित्र क़ुरआन , 41ः33)
ज्ञातव्य है कि यहाँ पवित्र क़ुरआन कह रहा है कि ‘‘कहो, मैं उनमें से हूँ जो इस्लाम में झुकते हैं,’’ दूसरे शब्दों में ‘‘कहो, मैं एक मुसलमान हूँ।’’
हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब ग़ैर मुस्लिम बादशाहों को इस्लाम का निमंत्रण देने के लिए पत्र लिखवाते थे तो उन पत्रों में सूरह आल इमरान की 64वीं आयत भी लिखवाते थेः
‘‘हे नबी! कहो, हे किताब वालो, आओ एक ऐसी बात की ओर जो हमारे और तुम्हारे बीच समान है। यह कि हम अल्लाह के सिवाए किसी की बन्दगी न करें, उसके साथ किसी को शरीक न ठहराएं, और हममें से कोई अल्लाह के सिवाए किसी को अपना रब (उपास्य) न बना ले। इस दावत को स्वीकार करने से यदि वे मुँह मोड़ें तो साफ़ कह दो, कि गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (केवल अल्लाह की बन्दगी करने वाले) हैं।’’
इस्लाम के सभी महान उलेमा का सम्मान कीजिए
हमें इस्लाम के समस्त उलेमा का, चारों इमामों सहित अनिवार्य रूप से सम्मान करना चाहिए। इमाम अबू हनीफ़ा (रहमतुल्लाहि अलैहि), इमाम शफ़ई (रहॉ), इमाम हम्बल (रहॉ) और ईमाम मालिक (रहॉ), ये सभी हमारे लिए समान रूप से आदर के पात्र हैं। ये सभी महान उलेमा और विद्वान थे और अल्लाह तआला उन्हें उनकी दीनी सेवाओं का महान प्रतिफल प्रदान करे (आमीन) इस बात पर कोई आपत्ति नहीं कि अगर कोई व्यक्ति इन इमामों में से किसी एक की विचारधारा से सहमत हो। किन्तु जब पूछा जाए कि तुम कौन हो? तो जवाब केवल ‘‘मैं मुसलमान हूँ’’ ही होना चाहिए।
कुछ लोग फ़िरकषें (समुदायों) के तर्क में हुजूर (सल्ल.) की एक हदीस पेश करते हैं जो सुनन अबू दाऊद में (हदीस नॉ 4879) बयान की गई है जिसमें आप (सल्लॉ) का यह कथन बताया गया है कि ‘‘मेरी उम्मत 73 फ़िरकषें में बंट जाएगी।’’
इस हदीस से स्पष्ट होता है कि रसूल अल्लाह (सल्लॉ) ने मुसलमानों में 73 फ़िरकष्े बनने की भाविष्यवाणी फ़रमाई थी। लेकिन आप (सल्लॉ) ने यह कदापि नहीं फ़रमाया कि मुसलमानों को फ़िरकषें में बंट जाने में संलग्न हो जाना चाहिए। पवित्र क़ुरआन हमें यह आदेश देता है कि हम फ़िरकषें में विभाजित न हों। वे लोग जो पवित्र क़ुरआन और सच्ची हदीसों की शिक्षा में विश्वास रखते हों और फ़िरकष्े और गुट न बनाएं वही सीधे रास्ते पर हैं।
तिर्मिज़ी शरीफ़ की 171वीं हदीस के अनुसार हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि ‘‘मेरी उम्मत 73 फ़िरकषें में बंट जाएगी, और वे सब जहन्नम की आग में जलेंगे, सिवाए एक फिरके के...।’’
सहाबा किराम (रज़ि.) ने इस पर रसूल अल्लाह (सल्लॉ) से प्रश्न किया कि वह कौन सा समूह होगा (जो जन्नत में जाएगा) तो आप (सल्लॉ) ने जवाब दिय ‘‘केवल वह जो मेरे और मेरे सहाबा का अनुकरण करेगा।’’
पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में अल्लाह और अल्लाह के रसूल के आज्ञा पालन का आदेश दिया गया है। अतः एक सच्चे मुसलमान को पवित्र क़ुरआन और हदीस शरीफ़ का ही अनुकरण करना चाहिए। वह किसी भी आलिम (धार्मिक विद्वान) के दृष्टिकोण से सहमत भी हो सकता है जब कि उसका दृष्टिकोण पवित्र क़ुरआन और हदीस शरीफ़ के अनुसार हो। यदि उस आलिम के विचार पवित्र क़ुरआन और हदीस के विपरीत हों तो उनका कोई अर्थ और महत्व नहीं, चाहे उन विचारों का प्रस्तुतकर्ता कितना ही बड़ा विद्वान क्यों न हो।
यदि तमाम मुसलमान पवित्र क़ुरआन का अध्ययन पूरी तरह समझकर ही कर लें और मुस्तनद (प्रामाणिक) हदीसों का अनुकरण करें तो अल्लाह ने चाहा तो सभी परस्पर विरोधाभास समाप्त हो जाएंगे और एक बार फिर मुस्लिम समाज एक संयुक्त संगठित उम्मत बन जाएगा।

18
सभी धर्म मनुष्यों को सच्चाई की शिक्षा देते हैं तो फिर इस्लाम ही का अनुकरण क्यों किया जाए?प्रश्नः सभी धर्म अपने अनुयायियों को अच्छे कामों की शिक्षा देते हैं तो फिर किसी व्यक्ति को इस्लाम का ही अनुकरण क्यों करना चाहिए? क्या वह किसी अन्य धर्म का अनुकरण नहीं कर सकता?
उत्तरः
इस्लाम और अन्य धर्मों में विशेष अंतर
यह ठीक है कि सभी धर्म मानवता को सच्चाई और सद्कर्म की शिक्षा देते हें और बुराई से रोकते हैं किन्तु इस्लाम इससे भी आगे तक जाता है। यह नेकी और सत्य की प्राप्ति और व्यक्तिगत एवं सामुहिक जीवन से बुराईयों को दूर करने की दिशा में वास्तविक मार्गदर्शक भी है। इस्लाम न केवल मानव प्रकृति को महत्व देता है वरन् मानव जगत की पेचीदगियों की ओर भी सजग रहता है। इस्लाम एक ऐसा निर्देश है जो अल्लाह तआला की ओर से आया है, यही कारण है कि इस्लाम को ‘‘दीन-ए-फ़ितरत’’ अर्थात ‘प्राकृतिक धर्म’ भी कहा जाता है।
उदाहरण
इस्लाम केवल चोरी-चकारी, डाकाज़नी को रोकने का ही आदेश नहीं देता बल्कि इसे समूल समाप्त करने के व्यावहारिक तरीके भी स्पष्ट करता है।
(क) इस्लाम चोरी, डाका इत्यादि अपराध समाप्त करने के व्यावहारिक तरीके सपष्ट करता है
सभी प्रमुख धर्मों में चोरी चकारी और लूट आदि को बुरा बताया जाता है। इस्लाम भी यही शिक्षा देता है तो फिर अन्य धर्मों और इस्लाम की शिक्षा में क्या अंतर हुआ? अंतर इस तथ्य में निहित है कि इस्लाम चोरी, डाके आदि अपराधों की केवल निन्दा करने पर ही सीमित नहीं है, वह एक ऐसा मार्ग भी प्रशस्त करता है जिस पर चलकर ऐसा समाज विकसित किया जाए, जिस में लोग ऐसे अपराध करें ही नहीं।
(ख) इस्लाम में ज़कात का प्रावधान है
इस्लाम ने ज़कात देने की एक विस्तृत व्यवस्था स्थापित की है। इस्लामी कानून के अनुसार प्रत्येक वह व्यक्ति जिसके पास बचत की मालियत (निसाब) अर्थात् 85 ग्राम सोना अथवा इतने मूल्य की सम्पत्ति के बराबर अथवा अधिक हो, वह साहिब-ए-निसाब है, उसे प्रतिवर्ष अपनी बचत का ढाई प्रतिशत भाग ग़रीबों को देना चाहिए। यदि संसार का प्रत्येक सम्पन्न व्यक्ति ईमानदारी से ज़कात अदा करने लगे तो संसार से दरिद्रता समाप्त हो जाएगी और कोई भी मनुष्य भूखा नहीं मरेगा।
(ग) चोर, डकैत को हाथ काटने की सज़ा
इस्लाम का स्पष्ट कानून है कि यदि किसी पर चोरी या डाके का अपराध सिद्ध हो तो उसके हाथ काट दिया जाएंगे। पवित्र क़ुरआन में आदेश हैः
‘‘और चारे, चाहे स्त्री हो अथवा पुरुष, दोनों के हाथ काट दो, यह उनकी कमाई का बदला है, और अल्लाह की तरफ़ से शिक्षाप्रद सज़ा, अल्लाह की क़ुदरत सब पर विजयी है और वह ज्ञानवान एवं दृष्टा है।’’ (पवित्र क़ुरआन , सूरह अल-मायदा, आयत 38)
ग़ैर मुस्लिम कहते हैं ‘‘इक्कीसवीं शताब्दी में हाथ काटने का दण्ड? इस्लाम तो निर्दयता और क्रूरता का धर्म है।
(घ) परिणाम तभी मिलते हैं जब इस्लामी शरीअत लागू की जाए
अमरीका को विश्व का सबसे उन्नत देश कहा जाता है, दुर्भाग्य से यही देश है जहाँ चोरी और डकैती जैसे अपराधों का अनुपात विश्व में सबसे अधिक है। अब ज़रा थोड़ी देर को मान लें कि अमरीका में इस्लामी शरीअत कानून लागू हो जाता है अर्थात प्रत्येक धनाढ्य व्यक्ति जो साहिब-ए-निसाब हो पाबन्दी से अपने धन की ज़कात अदा करे (चाँद के वर्ष के हिसाब से) और चोरी-डकैती का अपराध सिद्ध हो जाने के पश्चात अपराधी के हाथ काट दिये जाएं, ऐसी अवस्था में क्या अमरीका में
अपराधों की दर बढ़ेगी या उसमें कमी आएगी या कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा? स्वाभाविक सी बात है कि अपराध दर में कमी आएगी। यह भी होगा कि ऐसे कड़े कानून के होने से वे लोग भी अपराध करने से डरेंगे जो अपराधी प्रवृति के हों।
मैं यह सवीकार करता हूँ कि आज विश्व में चोरी-डकैती की घटनाएं इतनी अधिक होती हैं कि यदि तमाम चारों के हाथ काट दिये जाएं तो ऐसे लाखों लोग होंगे जिनके हाथ कटेंगे। परन्तु ध्यान देने योग्य यह तथ्य है कि जिस समय आप यह कानून लागू करेंगे, उसके साथ ही चोरी और डकैटी की दर में कमी आ जाएगी। ऐसे अपराध करने वाला यह कृत्य करने से पहले कई बार सोचेगा क्योंकि उसे अपने हाथ गँवा देने का भय भी होगा। केवल सज़ा की कल्पना मात्र से चोर डाकू हतोत्साहित होंगे और बहुत कम अपराधी अपराध का साहस जुटा पाएंगे। अतः केवल कुछ लोगों के हाथ काटे जाने से लाखों करोड़ो लोग चोरी-डकैती से भयमुक्त होकर शांति का जीवन जी सकेंगे। इस प्रकार सिद्ध हुआ कि इस्लामी शरीअत व्यावहारिक है और उससे सकारात्मक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
उदाहरण
इस्लाम में महिलाओं का अपमान और बलात्कार हराम है। इस्लाम में स्त्रियों के लिये हिजाब (पर्दे) का आदेश है और व्यभिचार (अवैध शारीरिक सम्बन्ध) का अपराध सिद्ध हो जाने पर व्याभिचारी के लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान है
(क) इस्लाम में महिलाओं के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती और बलात्कार को रोकने का व्यावहारिक तरीकष स्पष्ट किया गया है
सभी प्रमुख धर्मों में स्त्री के साथ बलात्कार और ज़ोर-ज़बरदस्ती को अत्यंत घिनौना अपराध माना गया है। इस्लाम में भी ऐसा ही है। तो फिर इस्लाम और अन्य धर्मों की शिक्षा में क्या अंतर है?
यह अंतर इस यर्थाथ में निहित है कि इस्लाम केवल नारी के सम्मान की प्ररेणा भर को पर्याप्त नहीं समझता, इस्लाम ज़ोर ज़बरदस्ती और बलात्कार को अत्यंत घृणित अपराध कष्रार देकर ही संतुष्ट नहीं हो जाता बल्कि वह इसके साथ ही प्रत्यक्ष मार्गदर्शन भी उपलब्ध कराता है कि समाज से इन अपराधों को कैसे मिटाया जाए।
(ख) पुरुषों के लिए हिजाब
इस्लाम में हिजाब की व्यवस्था है। पवित्र क़ुरआन में पहले पुरुषों के लिए हिजाब की चर्चा की गई है उसके बाद स्त्रियों के हिजाब पर बात की गई है। पुरुषों के लिए हिजाब का निम्नलिखित आयत में आदेश दिया गया हैः
‘‘हे नबी! (सल्लॉ) मोमिन पुरुषों से कहो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें और अपनी शर्मगाहों (गुप्तांगों) की हिफ़ाज़त करें। यह उनके लिए पाकीज़ा तरीकष है। जो कुछ वे करते हैं अल्लाह उस से बाख़बर रहता है। (पवित्र क़ुरआन , 24ः30)
जिस क्षण किसी पुरुष की दृष्टि (नामहरम) स्त्री पर पड़े और कोई विकार या बुरा विचार मन में उत्पन्न हो तो उसे तुरन्त नज़र नीची कर लेनी चाहिए।
(ग) स्त्रियों के लिए हिजाब
स्त्रियों के लिए हिजाब की चर्चा निम्नलिखित आयत में की गई है।
‘‘हे नबी! (सल्लॉ) मोमिन औरतों से कह दो कि अपनी नज़रें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें, अपना बनाव सिंघार न दिखाएं, केवल उसके जो ज़ाहिर हो जाए और अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियों का आँचल डाले रहें।’’ (पवित्र क़ुरआन , 24ः31)
स्त्रियों के लिए हिजाब की व्याख्या यह है कि उनका शरीर पूरी तरह ढका होना चाहिए। केवल चेहरा और कलाईयों तक। हाथ वह भाग हैं जो ज़ाहिर किए जा सकते हैं फिर भी यदि कोई महिला उन्हें भी छिपाना चाहे तो वह शरीर के इन भागों को भी छिपा सकती है परन्त कुछ उलेमा-ए-दीन का आग्रह है कि चेहरा भी ढका होना चाहिए।
(घ) छेड़छाड़ से सुरक्षा, हिजाब
अल्लाह तआला ने हिजाब का आदेश क्यों दिया है? इसका उत्तर पवित्र क़ुरआन ने सूरह अहज़ाब की इस आयत में उपलब्ध कराया हैः
‘‘हे नबी! (सल्लॉ) अपनी पत्नियों और पुत्रियों और ईमान वालों की स्त्रियों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें। यह उचित तरीकष है ताकि वह पहचान ली जाएं और सताई न जाएं। अल्लाह क्षमा करने वाला और दयावान है।’’ (पवित्र क़ुरआन , सूरह अहज़ाब, आयत 59)
पवित्र क़ुरआन कहता है कि स्त्रियों को हिजाब करना इसलिए ज़रूरी है ताकि वे सम्मानपूर्वक पहचानी जा सकें और यह कि हिजाब उन्हें छेड़-छाड़ से भी बचाता है।
(ङ) जुड़वाँ बहनों का उदाहरण
जैसा कि हम पीछे भी बयान कर चुके हैं, मान लीजिए कि दो जुड़वाँ बहनें हैं जो समान रूप से सुन्दर भी हैं। एक दिन वे दोनों एक साथ घर से निकलती हैं। एक बहन ने इस्लामी हिजाब कर रक्खा है अर्थात उसका पूरा शरीर ढंका हुआ है। इसके विपरीत दूसरी बहन ने पश्चिमी ढंग का मिनी स्कर्ट पहना हुआ है अर्थात उसके शरीर का पर्याप्त भाग स्पष्ट दिखाई दे रहा है। गली के नुक्कड़ पर एक लफ़ंगा बैठा है जो इस प्रतीक्षा में है कि कोई लड़की वहाँ से गुज़रे अैर वह उसके साथ छेड़छाड़ और शरारत करे। सवाल यह है कि जब वे दोनों बहनें वहाँ पहुचेगी तो वह लफ़ंगा किसको पहले छेड़ेगा। इस्लामी हिजाब वाली को अथवा मिनी स्कर्ट वाली को? इस प्रकार के परिधान जो शरीर को छिपाने की अपेक्षा अधिक प्रकट करें एक प्रकार से छेड़-छाड़ का निमंत्रण देते हैं। पवित्र क़ुरआन ने बिल्कुल सही फ़रमाया है कि हिजाब स्त्री को छेड़-छाड़ से बचाता है।
(च) ज़ानी (कुकर्मी) के लिए मृत्युदण्ड
यदि किसी (विवाहित) व्यक्ति के विरुद्ध ज़िना (अवैध शारीरिक सम्बन्ध) का अपराध सिद्ध हो जाए तो इस्लामी शरीअत के अनुसार उसके लिए मृत्युदण्ड है, आज के युग में इतनी कठोर सज़ा देने पर शायद ग़ैर मुस्लिम बुरी तरह भयभीत हो जाएं। बहुत से लोग इस्लाम पर निर्दयता और क्रूरता का आरोप लगाते हैं। मैंने सैंकड़ो ग़ैर मुस्लिम पुरुषों से एक साधारण सा प्रश्न किया। मैंने पूछा कि ख़ुदा न करे, कोई आपकी पत्नी या माँ, बहन के साथ बलात्कार करे और आप को उस अपराधी को सज़ा देने के लिए जज नियुक्त किया जाए और अपराधी आपके सामने लाया जाए तो आप उसे क्या सज़ा देंगे? उन सभी ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा कि ‘‘हम उसे मौत की सज़ा देंगे।’’ कुछ लोग तो इससे आगे बढ़कर बोले, ‘‘हम उसको इतनी यातनाएं देंगे कि वह मर जाए।’’
इसका मतलब यह हुआ कि यदि कोई आपकी माँ, बहन या पत्नि के साथ बलात्कार का अपराधी हो तो आप उस कुकर्मी को मार डालना चाहते हैं। परन्तु यदि किसी दूसरे की पत्नी, माँ, बहन की इज़्ज़त लूटी गई तो मौत की सज़ा क्रूर और अमानवीय हो गई। यह दोहरा मानदण्ड क्यों है?
(छ) अमरीका में बलात्कार की दर सब देशों से अधिक है
अब मैं एक बार फिर विश्व के सबसे अधिक आधुनिक देश अमरीका का उदाहरण देना चाहूँगा। एफ़.बी.आई की रिपोर्ट के अनुसार 1995 के दौरान अमरीका में 10,255 (एक लाख दो सौ पचपन) बलात्कार के मामले दर्ज हुए। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बलात्कार की समस्त घटनाओं में से केवल 16 प्रतिशत की ही रिपोर्ट्स दर्ज कराई गईं। अतः 1995 में अमरीका में बलात्कार की घटनाओं की सही संख्या जानने के लिए दर्ज मामलों की संख्या को 6.25 से गुणा करना होगा। इस प्रकार पता चलता है कि बलात्कार की वास्तविक संख्या 640,968 (छः लाख, चालीस हज़ार, नौ सौ अड़सठ) है।
एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया कि अमरीका में प्रतिदिन बलात्कार की 1900 घटनाएं होती हैं। अमरीकी प्रतिरक्षा विभाग के एक उप संस्थान ‘‘नैशनल क्राइ्रम एण्ड कस्टमाईज़ेशन सर्वे, ब्यूरो आफ़ जस्टिस’’ द्वारा जारी किए गए आँकड़ों के अनुसार केवल 1996 के दौरान अमरीका में दर्ज किये गए बलात्कार के मामलों की तादाद तीन लाख, सात हज़ार थी जबकि यह संख्या वास्तविक घटनाओं की केवल 31 प्रतिशत थी। अर्थात सही संख्या जानने के लिए हमें इस तादाद को 3226 से गुणा करना होगा। गुणान फल से पता चलता है कि 1996 में अमरीका में बलात्कारों की वास्तविक संख्या 990,332 (नौ लाख, नब्बे हज़ार, तीन सौ बत्तीस) थी। अर्थात् उस वर्ष अमरीका में प्रतिदिन 2713 बलात्कार की वारदातें हुईं अर्थात् प्रति 32 सेकेण्ड एक बलात्कार की घटना घटी। कदाचित् अमरीका के बलात्कारी काफ़ी साहसी हो गए हैं। एफ.बी.आई की 1990 वाली रिपोर्ट में तो ये भी बताया गया था कि केवल 10 प्रतिशत बलात्कारी ही गिरफ़्तार हुए। यानी वास्तविक वारदातों के केवल 16 प्रतिशत अपराधी ही कानून के शिकंजे में फंसे। जिनमें से 50 प्रतिशत को मुकदमा चलाए बिना ही छोड़ दिया गया। इसका मतलब यह हुआ कि केवल 8 प्रतिशत बलात्कारियों पर मुकष्दमे चले। दूसरे शब्दों में यही बात इस प्रकार भी कह सकते हैं कि यदि अमरीका में कोई व्यक्ति 125 बार बलात्कार का अपराध करे तो संभावना यही है कि उसे केवल एक बार ही उसको सज़ा मिल पाएगी। बहुत-से अपराधी इसे एक अच्छा ‘‘जुआ’’ समझते हैं।
यही रिपोर्ट बताती है कि मुक़दमे का सामना करने वालों में 50 प्रतिशत अपराधियों को एक वर्ष से कम कारावास की सज़ा सुनाई गई। यद्यपि अमरीकी कानून में बलात्कार के अपराध में 7 वर्ष सश्रम कारावास का प्रावधान है। यह देखा गया है कि अमरीकी जज साहबान पहली बार बलात्कार के आरोप में गिरफ़्तार लोगों के प्रति सहानुभूति की भावना रखते हैं। अतः उन्हें कम सज़ा सुनाते हैं। ज़रा सोचिए! एक अपराधी 125 बार बलात्कार का अपराध करता है और पकड़ा भी जाता है तब भी उसे 50 प्रतिशत संतोष होता है कि उसे एक वर्ष से कम की सज़ा मिलेगी।
(ज) इस्लामी शरीअत कानून लागू कर दिया जाए तो परिणाम प्राप्त
होते हैं
अब मान लीजिए कि अमरीका में इस्लामी शरीअत कानून लागू कर दिया जाता है। जब भी कोई पुरुष किसी नामहरम महिला पर निगाह डालता है और उसके मन में कोई बुरा विचार उत्पन्न होता है तो वह तुरन्त अपनी नज़र नीची कर लेता है। प्रत्ेयक स्त्री इस्लामी कानून के अनुसार हिजाब करती है अर्थात अपना सारा शरीर ढाँपकर रखती है। इसके बाद यदि कोई बलात्कार का अपराध करता है तो उसे मृत्यु दण्ड दिया जाए।
प्रश्न यह है कि यह कानून अमरीका में लागू हो जाने पर बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि होगी अथवा कमी आएगी या स्थिति जस की तस रहेगी?
स्वाभाविक रूप से इस प्रश्न का उत्तर होगा कि इस प्रकार का कानून लागू होने से बलात्कार घटेंगे। इस प्रकार इस्लामी शरीअत के लागू होने पर तुरन्त परिणाम प्राप्त होंगे।
मानव समाज की समस्त समस्याओं का व्यावहारिक समाधान इस्लाम में मौजूद है
जीवन बिताने का श्रेष्ठ उपाय यही है कि इस्लामी शिक्षा का अनुपालन किया जाए क्योंकि इस्लाम केवल ईश्वरीय उपदेशों का संग्रह मात्र नहीं है वरन् यह मानव समाज की समस्त समस्याओं का सकारात्मक समाधान प्रस्तुत करता है। इस्लाम व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों स्तरों पर सकारात्मक ओर व्यावहारिक मार्गदर्शन करता है। इस्लाम विश्व की श्रेष्ठतम जीवन पद्धति है क्योंकि यह एक स्वाभाविक विश्वधर्म है जो किसी विशेष जाति, रंग अथवा क्षेत्र के लोगों तक सीमित नहीं है।

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इस्लाम की शिक्षा और मुसलमानों के वास्तविक आचरण में अत्यधिक अंतर है
प्रश्नः यदि इस्लाम विश्व का श्रेष्ठ धर्म है तो फिर क्या कारण है कि बहुत से मुसलमान बेईमान और विश्वासघाती होते हैं। धोखेबाज़ी, घूसख़ोरी और नशीले पदार्थों के व्यापार जैसे घृणित कामों में लिप्त होते हैं।
उत्तरः
संचार माध्यमों ने इस्लाम का चेहरा बिगाड़ दिया है
(क) निसन्देह, इस्लाम ही श्रेष्ठतम धर्म है किन्तु विश्व संचार माध्यम ;डमकपंद्ध पश्चिम के हाथ में है जो इस्लाम से भयभीत है। यह मीडिया ही है जो इस्लाम के विरुद्ध दुराग्रह पूर्ण प्रचार-प्रसार में व्यस्त रहता है। यह संचार माध्यम इस्लाम के विषय में ग़लत जानकारी फैलाते हैं। ग़लत ढंग से इस्लाम का संदर्भ देते हैं। अथवा इस्लामी दृष्टिकोण को उसके वास्तविक अर्थ से अलग करके प्रस्तुत करते हैं।
(ख) जहाँ कहीं कोई बम विस्फोट होता है और जिन लोगों को सर्वप्रथम आरोपित किया जाता है वे मुसलमान ही होते हैं। यही बात अख़बारी सुर्ख़ियों में आ जाती है परन्तु यदि बाद में उस घटना का अपराधी कोई ग़ैर मुस्लिम सिद्ध हो जाए तो उस बात को महत्वहीन ख़बर मानकर टाल दिया जाता है।
(ग) यदि कोई 50 वर्षीय मुसलमान पुरुष एक 15 वर्षीय युवती से उसकी सहमति से विवाह कर ले तो यह ख़बर अख़बार के पहले पृष्ठ का समाचार बन जाती है। परन्तु यदि कोई 50 वर्षिय ग़ैर मुस्लिम पुरुष छः वर्षीया बालिका से बलत्कार करता पकड़ा जाए तो उस ख़बर को अख़बार के अन्दरूनी पेजों में संक्षिप्त ख़बरों में डाल दिया जाता है। अमरीका में प्रतिदिन बलात्कार की लगभग 2,713 घटनाएं होेती हैं परन्तु यह बातें ख़बरों में इसलिए नहीं आतीं कि यह सब अमरीकी समाज का सामान्य चलन ही बन चुका है।
प्रत्येक समाज में काली भेड़ें होती हैं
मैं कुछ ऐसे मुसलमानों से परिचित हूँ जो बेईमान हैं, धोखेबाज़ हैं, भरोसे के योग्य नहीं हैं। परन्तु मीडिया इस प्रकार मुस्लिम समाज का चित्रण करता है जैसे केवल मुसलमान ही बुराईयों में लिप्त हैं। काली भेड़ें अर्थात् कुकर्मी प्रत्येक समाज में होते हैं। मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो स्वयं को मुसलमान कहते हैं और खुलेआम अथवा छिपकर शराब भी पी लेते हैं।
कुल मिलाकर मुसलमान श्रेष्ठतम हैं मुस्लिम समाज में इन काली भेड़ों के बावजूद यदि मुसलमानों का कुल मिलाकर आकलन किया जाए तो वह विश्व का सबसे अच्छा समाज सिद्ध होंगे। जैसे मुसलमान ही विश्व की सबसे बड़ी जमाअत है जो शराब से परहेज़ करते हैं। इसी प्रकार मुसलमान ही हैं जो विश्व में सर्वाधिक दान देते हैं। विश्व का कोई समाज ऐसा नहीं जो मानवीय आदर्शों (सहिष्णुता, सदाचार और नैतिकता) के संदर्भ में मुस्लिम समाज से बढ़कर कोई उदाहरण प्रस्तुत कर सकें।
कार का फ़ैसला ड्राईवर से न कीजिए मान लीजिए कि आपने एक नए माॅडल की मर्सडीज़ कार के गुण-दोष जानने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को थमा देते हैं जो गाड़ी ड्राइव करना नहीं जानता। ज़ाहिर है कि व्यक्ति या तो गाड़ी चला ही नहीं सकेगा या एक्सीडेंट कर देगा। प्रश्न यह उठता है कि क्या ड्राईवर की अयोग्यता में उस गाड़ी का कोई दोष है? क्या यह ठीक होगा कि ऐसी दुर्घटना की स्थिति में हम उस अनाड़ी ड्राईवर को दोष देने के बजाए यह कहने लगें कि वह गाड़ी ही ठीक नहीं है? अतः किसी कार की अच्छाईयाँ जानने के लिए किसी व्यक्ति को चाहिए कि उसके ड्राईवर को न देखे बल्कि यह जायज़ा ले कि स्वयं उस कार की बनावट और कारकर्दगी इत्यादी कैसी है। जैसे वह कितनी गति से चल सकती है। औसतन कितना ईंधन लेती है। उसमें सुरक्षा के प्रबन्ध कैसे हैं, इत्यादि।
यदि मैं केवल तर्क के रूप में यह मान भी लूँ कि सारे मुसलमान बुरे हैं तब भी इस्लाम का उसके अनुयायियों के आधार पर फ़ैसला नहीं कर सकते। यदि आप वास्तव में इस्लाम का विश्लेषण करना चाहते हैं और उसके बारे में ईमानदाराना राय बनाना चाहते हैं तो आप इस्लाम के विषय में केवल पवित्र क़ुरआन और प्रामाणिक हदीसों के आधार पर ही कोई राय स्थापित कर सकते हैं।
इस्लाम का विश्लेषण उसके श्रेष्ठतम पैरोकार अर्थात हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के द्वारा कीजिए
यदि आप पूर्ण रूप से जानना चाहते हैं कि कोई कार कितनी अच्छी है तो उसका सही तरीकष यह होगा कि वह कार किसी कुशल ड्राईवर के हवाले करें। इसी प्रकार इस्लाम के श्रेष्ठतम पैरोकार और इस्लाम की अच्छाईयों को जाँचने का सबसे अच्छी कसौटी केवल एक ही हस्ती है जो अल्लाह के आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अतिरिक्त कोई और नहीं है। मुसलमानों के अतिरिक्त ऐसे ईमानदार और निष्पक्ष इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को श्रेष्ठतम महापुरुष स्वीकार किया है। ‘‘इतिहास के 100 महापुरुष’’ नामक पुस्तक के लेखक माईकल हार्ट ने अपनी पुस्तक में आप (सल्लॉ) को मानव इतिहास की महानतम विभूति मानते हुए पहले नम्बर पर दर्ज किया है। (पुस्तक अंग्रेज़ी वर्णमाला के अनुसार है परन्तु लेखक ने हुजूष्र (सल्लॉ) की महानता दर्शाने के लिए वर्णमाला के क्रम से अलग रखकर सबसे पहले बयान किया है) लेखक ने इस विषय में लिखा है कि ‘‘हज़रत मुहम्मद (सल्लॉ) का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली और महान है कि उनका स्थान शेष सभी विभूतियों से बहुत ऊँचा है इसलिए मैं वर्णमाला के क्रम को नज़रअंदाज़ करके उनकी चर्चा पहले कर रहा हूँ।’’
इसी प्रकार अनेक ग़ैर मुस्लिम इतिहासकारों ने हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की प्रशंसा की है इन में थामस कारलायल और लामर्टिन इत्यादि के नाम शामिल हैं।

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प्रश्नः मुसलमान ग़ैर मुस्लिमों का अपमान करते हुए उन्हें ‘‘काफ़िर’’ क्यों कहते हैं?उत्तरः शब्द ‘‘काफ़िर’’ वास्तव में अरबी शब्द ‘‘कुफ्ऱ’’ से बना है। इसका अर्थ है ‘‘छिपाना, नकारना या रद्द करना’’। इस्लामी शब्दावली में ‘‘काफ़िर’’ से आश्य ऐसे व्यक्ति से है जो इस्लाम की सत्यता को छिपाए (अर्थात लोगों को न बताए) या फिर इस्लाम की सच्चाई से इंकार करे। ऐसा कोई व्यक्ति जो इस्लाम को नकारता हो उसे उर्दू में ग़ैर मुस्लिम और अंग्रेज़ी में Non-Muslim कहते हैं।
यदि कोई ग़ैर-मुस्लिम स्वयं को ग़ैर मुस्लिम या काफ़िर कहलाना पसन्द नहीं करता जो वास्तव में एक ही बात है तो उसके अपमान के आभास का कारण इस्लाम के विषय में ग़लतफ़हमी या अज्ञानता है। उसे इस्लामी शब्दावली को समझने के लिए सही साधनों तक पहुँचना चाहिए। उसके पश्चात न केवल अपमान का आभास समाप्त हो जाएगा बल्कि वह इस्लाम के दृष्टिकोण को भी सही तौर पर समझ जाएगा।
(इति)
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ज़ाकिर नायक इंग्‍लिश में वह जवाब जो हिन्‍दू करते हैं

3 comments:

  1. आपने बहूत मेंहनत कर के इसलाम परिचय सम्बन्धी सामग्री तैयार किया है . इसके लिए में आपको दिल की गहराई से बधाई देता हूँ . धन्यवाद

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  2. mashallah kya baat hai
    aapne bahut mehnat krke itne achche se itne sawalo ka jawab diya shubhan allah

    aap bahut jada intelligent hai allah pak aapko bahut tarakki de aur aap bahut acha mukam paye duniya me aur akhirat me inshallahh

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  3. Jazakallahu khairan bhai,,

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