भारतीय हिन्दुत्ववादी संगठन आर.एस.एस. के भूतपूर्व प्रचारक ‘‘बलराज मधोक’’ की पुस्तक ‘‘विश्वव्यापी मुस्लिम समस्याएं’’ पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ, पूरी किताब झूठ, बोहतान और मन घडन्त आरोपों पर आधारित है। मिसाल के तौर पर मधोक जी ने अपनी पुस्तक के पेज नं 15 पर कुछ इस्लामी इस्तलाहात मुजाहिद, शहीद व ‘गाजी’ की परिभाषा करते हुए अपनी ओर से ‘गाजी’ की मन घड़न्त ‘‘परिभाषा’’ इन शब्दों में की है -
देवताओं के साथ साथ भगवान के अवतार भी अनैतिक आचरण करते थे। कई स्थललों पर तो उन का आचरण अनैतिकता की हद से भी आगे अपराधपूर्ण लगता है। इस तरह के कृत्य यदि कोई आज करे तो कानून में उसे दंड देने की व्यवस्था है। भविष्यपुराण में उल्लेख आता है कि ब्रह्म्रा, विष्णु और महेश ने क्रमशः अपनी पुत्री, माता और बहन को पत्नी बना कर श्रेष्ठ पद प्राप्त किया ।
स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विश्णु देवो मातरम् !
भगिनीं भगवा´छंभु गृहीत्वा श्रेश्ठतामगात् !!
- प्रतिसर्ग खं. 4,18,27
अर्थात ब्रह्मा अपनी लड़की को, विष्णु देव अपनी माता को और शंभु अपनी बहन को ग्रहण कर के श्रेष्ठ पद को प्राप्त हुए ।
वेद में भी इस का उल्लेख हैः
पिता दुहितुर्गर्भंमाधात्
- अथर्व 9,10,12
अर्थात पिता ने बेटी में गर्भ धारण किया?
मातुर्दिधिषुमब्रवं स्वसुर्जारः
श्रृणोतु नः भातेंद्रस्य सखा मम.
- ऋग्वेद 6,55,5
अर्थात मैं मां के उपपति को कहता हूं. वह बहन का जार हमारी प्रार्थना को सुने, जो इंद्र का भ्राता है और मेरे मित्र है ।
‘‘भागवत’’ के तीसरे स्कंध में ब्रह्मा द्वारा पुत्री को चाहने का स्पष्ट उल्लेख आया है इस प्रसंग का अंश इस प्रकार हैः
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयंभूर्हरती मनः
अकामा चकमे क्षत्रः सकाम इति नः
श्रुतम् तमधरम्मे कृतमति विलोक्य पितरं सुताः
मरीचि मुख्या ऋषयो विश्रंभात्प्रत्यबोधयन् नैतत्पूर्वेः
कृतं त्पद्ये न करिष्यंति चापरे !
- 3,12,28,30
अर्थात काम से वशीभूत हो कर स्वंयभू ने वाक नाम पुत्री को चाहा, पिता की यह बुद्वि देख कर मरीचि आदि पुत्रों नें समझाया कि ऐसा कर्म न किसी ने किया है, न अब होगा न ही आगे करेंगे।
अथर्ववेद में तो पिता द्वारा पुत्री में गर्भस्थापित करने का उल्लेख है।
‘पिता दुहितुर्गर्भसमाधात्’
- 9,10,12,
अर्थात पिता ने पुत्री में गर्भ स्थापित किया.
धर्मग्रंथों में जिन पात्रों को आदर्श बताया गया है उन में कामुकता की पराकाष्ठा देखी जा सकती है। जहां भी सुंदर स्त्री दिखाई दी, उसे प्राप्त करने और भोगने के तानेबाने बुने जाने लगे. ब्रहा्रा के संबंध मे शिवपुराण में उल्लेख आता है कि पार्वती के विवाह में ब्रह्मा पुरोहित बने थे। उन्होंने पार्वती का पांव देखा और इस कदर कामातुर हो उठे कि कर्मकांड करातेकराते ही स्खलित हो गए।
भागवत में उल्लेख आता है कि शिव की रक्षा के लिए विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया तो शिव उसी रूप पर मुग्ध हो गए और उस के पीछे दीवाने होकर भागे।
भविष्यपुराण में आई एक कथा के अनुसार अत्रि ऋशि की पत्नी अनुपम सुंदरी थी। ब्रह्मा , विष्णु, महेश तीनों उस के पास गए। ब्रह्मा ने निर्लज्ज हो कर अनुसूया से रतिसुख मांगा और तीनों देवता अश्लील हरकतें करने लगे।
गौतम के वेश में इंद्र द्वारा अहल्या से व्यभिचार की कथा रामायण और ब्रहा वैवर्त पुराण में आती है। अनैतिकता की पराकाष्ठा देखिए कि इस का दंड बेचारी निर्दोष अहल्या को भोगना पड़ा था।
भागवत (9.14) और देवी भागवत में चंद्रमा द्वारा गुरू की पत्नी को अपने पास रखने की कथा आती है गुरू ने अपनी पत्नी बार-बार वापस मांगी तो भी चन्द्रमा ने उसे वापस नहीं लैटाया। लंबे अरसे तक साथ रहने के कारण चंद्रमा से तारा को एक पुत्र भी हुआ जो चन्द्रमा को ही दे दिया गया ।
देवताओं के गुरू बृहस्पति ने स्वयं अपने भाई की गर्भवती पत्नी से बलात्कार किया देवताओं ने ममता ( बृहस्पति की भावज ) को उस समय काफी बुराभला कहा जब उसने बृहस्पति की मनमानी का प्रतिरोध करना चाहा।
इन प्रसंगों के सही गलत होने का विवेचन करने की आवशयकता नहीं है। इन का उल्लेख इसी दृष्टि से किया जा रहा है धर्म ग्रन्थों में उल्लेखित पात्रों को किनं मानदडों पर आदर्श सिद्ध किया गया है । उन का समय दूसरों की पत्नी छीनने व व्यभिचार करने में बीतता था तो वे लोगों को नैतिकता का पाठ कब सिखाते थे और कैसे सिखाते थे ।
इंद्र का तो सारा समय ही स्त्रियों के साथ राग रंग में बीतता था वह जब असुरों से हार जाते तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश की सहायता से षड्यंत्र रच कर अपना राज्य वापस प्राप्त करते और फिर उन्ही रागरंगों में रम जाते। अप्सराओं के नाच देखना, शराब पीना, और दूसरा कोई व्यक्ति अच्छे काम करता तो उस में विध्न पैदा करना यही इंद्र की जीवनचर्या थी । इस की पुष्ठि करने वाले ढेरों प्रसंग धर्मषास्त्रों में भरे पडे़ हैं।
महाभारत के तो हर अघ्याय में झूठ, बेईमानी और धूर्तता की ढेरों कहानियां हैं। धर्मराज युधिष्ठिर, जिन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जीवन में कभी पाप नही किया, जुआ खेल कर राजपाट हार गए और पत्नी को भी दाव पर लगा बैठे, युधिष्ठिर के इस कृत्य की द्रौपदी और धृतराष्ट के ही एक पुत्र विकर्ण ने भर्त्सना की थी। ‘‘महाभारत’’ की लड़ाई के लिए कोई एक घटना मूल कारण है तो वह युधिष्ठिर का जुआ खेलना और द्रौपदी को दांव पर लगाना है। इतने बड़े युद्व का कारण धार्मिक भले ही हो, पर नैतिक कहां रह जाता है ?
दूसरे धर्मावतार भीष्म ने एक राजकुमारी अंबा का अपहरण किया तथा न खुद उससे विवाह किया और न ही दूसरी जगह होने दिया । अंबा को इस संताप के कारण आत्महत्या करनी पड़ी ।
कुंती के चारों पुत्र कर्ण, युघिष्ठिर , भीम और अर्जुन परपुरूषों से उत्पन्न हुए थे । कर्ण तो विवाह से पहले ही जन्म ले चुका था.
स्वयंवर में द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाली थी। किन्तु पांचों भाइयों ने उसके साथ संयुक्त विवाह का निश्चय किया। पांचाल नरेश ने इसका विरोध किया तो युधिष्ठिर ने ही जिद की और अपनी बात मनवाई ।
संपूर्ण धर्म वाड्.मय इस तरह की विसंगतियों से भरा हुआ है इसे कथित धार्मिक युग का प्रतिबिंब भी कह सकते हैं और धर्म का आदर्श भी कह सकते हैं । जिनमें नैतिक गुणों का कोई महत्व नहीं है ।
इन प्रसंगों से यही सिद्व होता है कि अनैतिकता को तब धर्मगुरूओं की स्वीकृति मिली हुई थी। दानदक्षिणा, पूजापाठ, कर्मकांड, यज्ञ, हवन आदि धार्मिक क्रियाकृत्य करते हुए कैसा भी आचरण किया जाता तो वह सभ्य था । जरूरी इतना भर था कि ब्राह्मणों के स्वार्थ पुरे किये जाते रहें-
नैतिक कौन?
असुर देवताओं और धार्मिक लोगों की तुलना में अधिक नैतिक थे । वे देवताओं से युद्ध जरूर लड़ते थे, लेकिन युद्ध में उन्होंने बेईमानी प्रायः नहीं की । देवताओं की स्त्रियों को भी उन्होंने परेशान नहीं किया अपमान का बदला लेने के लिए रावण सीता का हरण कर के ले तो गया था, पर उस ने सीता को लंका में बड़े ही आदर से रखा था ।
राम ने शूर्पनखा के प्रणय निवेदन को ठुकराया, वहाँ तक तो ठीक है, लेकिन उसे लक्ष्मण के पास प्रणय प्रस्ताव ले कर जाने और बाद में नाककान काट लेने का भद्दा मजाक और दुव्र्यवहार करने का क्या औचित्य था? रावण यदि इसी स्तर पर प्रतिशोध लेना चाहता तो सीता की शील रक्षा असंभव थी । इस स्थिति में कौन ज्यादा नैतिक था - राम या रावण ? -
‘‘कहाँ है धर्म कहाँ है न्याय’’, पृष्ठ 207,8,9,10, लेखकः राकेष नाथ
सरिता और हिन्दू समाजः रमाकान्त दूबे के लेख से, प्रकाशित सरिता-मुक्ता प्रिंट 1 ता 12, विश्व बुक दिल्ली ।
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उदाहरण के लिए आप अपने धर्मग्रन्थों को शुरू से देखते जाएं, सब से पहले तो ‘ऋग्वेद’ ही हमारा परम ग्रन्थ है। लेकिन इस में आर्य जाति द्वारा भारत के मूल निवासियों (दास, दस्यु आदि) के जातीय संहार का जैसा वर्णन किया गया है, तथा आर्यो के परम इष्टदेव (इंद्र) का जैसा चरित्र चित्रण हुआ है, क्या वह सब आज के युग में किसी सभ्य व समुन्नत राष्ट्र के आदर्श बन सकते हैं?
आर्यों कि हिंसावृत्ति तथा उन के परम देव इंद्र के कारनामों का यह लेखा जोखा देखिएः
‘‘हमारे चारों ओर दस्यु जाति है, यह यज्ञ नही करती, कुछ मानती नहीं, यह अन्यव्रत व अमानुष है, हे शत्रुहंता इंद्र, तुम इस का वध करने वाले हो, दास का भेदन करो’’ (ऋ-10-22, 8)
‘‘इंद्र, तुम यज्ञाभिलाषी हो, जो तुम्हारी निंदा करता है उस का धन अपहृत कर के तुम प्रसन्न होते हो, प्रचुरधन इंद्र, तुम हमें (अपनी) दोनों जाघों के बीच छिपाओ, शत्रुओं को मारो, अस्त्र से दास को मार डालो’’ (ऋ-8-59, 10)
‘‘हे इन्द्र, तुम ने पचास हजार काले लोगों को मारा’’ (ऋ-4-16, 13)
‘‘इंद्र, तुम समस्त अनार्यो को समाप्त करो....’’ (1-113, 5)
‘‘तुम ने पृथ्वी को दास की शय्या बना दिया है’’(ऋ-1-174, 7)
‘‘रक्षाशून्य दुर्गम स्थान से जाने वाले व्यक्ति को चोर मार डालता है, उसी तरह इंद्र ने बहुसहस्त्र सेनाओं का वध किया है’’ (4-28,3)
‘‘इंद्र ने असुरों (अनार्यो) के धन पर तुरन्त उसी तरह अधिकार कर लिया, जिस तरह सोए हुए मनुष् के धन पर अधिकार जमाया जाता है’’ (ऋ-1-53- 1)
‘‘इंद्र और अग्नि, तुम लोगों ने एक ही बार की चेष्टा से दासों के 90 नगरों को एक साथ कंपित किया था’’ (1-130, 7)
(इंद्र कहते है) ‘‘मैं ने सोमपान में मस्त हो कर शंबर (दास राजा) के 99 नगरो को एक काल में ही ध्वस्त किया था’’ (4-26, 3)
(इंद्र कहते है) ‘‘मेरे लिए इंद्राणी कं द्वारा प्रेरित्र याज्ञिक लोग 15-20 सांड या बैल पकाते हैं उन्हे खा कर मैं मोटा होता हूं, मेरी दोनों कुक्षियों को याज्ञिक लोग सोम से भरते हैं’’ (10-86, 14)
ये सब हमें क्या सीख देते हैं? यही कि जो लोग हमारी जाति के न हों, अथवा हमारे धर्म को ना मानते हों, उन का हमें संहार कर देना चहिए, हमें दूसरे देशों पर आक्रमण करना चाहिए और अगर वहां के लोग नतमस्तक हो कर हमारी सत्ता स्वीकार न करें तो हमें उनके नगरों की ईंट से ईंट बजा देनी चाहिए, और उन की स्त्रियों के पेट फाड़ डालने चाहिए, ताकि उन की जाति का नामनिशान ही मिट जाए
क्या आप इस बात को पसंद करेगें कि यदि हमें अपेक्षित शक्ति हो तो हमे आज भी इन्ही आदर्शों का पालन करना चहिए? हम जिस देश में जाएं, वहाँ के लोगों का धन हमें हड़प लेना चाहिए? हमें अपने एक-एक आराध्य देव को खुश करने के लिए दर्जनों सांड या बैल मार कर पकाने चाहिएं और नशा करने के लिए भंग (सोम) के कईकई घडे़ भर कर रखने चाहिएं?
वेदों मे क्या है?
‘ऋग्वेद’ में सिर्फ यही कुछ नहीं है, वहाँ एक-एक यज्ञ में सैकड़ों घोड़ों, गाय, बैलों, भेड-बकरियों व अन्य जानवरों की बलि चढ़ाने का विधान है यहाँ तक कि नरबलि का संकेत भी मौजूद है (देखिए ऋ. 10-91,14,15 व 1-24, 13-15) क्या आप के विचार में हमें यह सब करना चाहिए? और यदि हम करें अथवा कर सकें तो हम आज के युग में ‘‘साधारण मनुष्य कहलाने के भी अधिकारी रह जाएंगे?, चरित्रवान व नैतिकता सम्पन्न होने की तो बात ही क्या?
चलिए, वेदों को छोड़िए, उन की तो आज उतनी मान्यता भी नहीं रही, न उन में बताए गये विधिविधानों के अनुसार आचरण करने की आज कुछ अधिक गुंजाइश ही है, बाद के दर्शनशास्त्रों और ग्रन्थों को ही ले लीजिए, जिन के द्वारा स्थापित प्रायः सभी मापदंड व आदर्श आज के हिंदू समाज के भी आदर्श बने हुए है ? ये ही सब शास्त्र हमें क्या पाठ पढ़ाते हैं? और हमें हमारे निजी व पारिवारिक तथा सामाजिक व राष्ट्री जीवन में किस प्रकार के आचरण का उपदेश देते हैं?
उपनिशदों की अलग अलग दार्षनिक दुकानों में हमें वेदों का हर देवता और कुछ नए देवता, बारीबारी से परमात्मा बनते दिखाई देते हैं हर देवता अपने को श्रेष्ठ बताकर शेष्ा सब देवताओं को अपने से समाविष्ठ घोषित करता है ।
रामायण को ही लीजिए राजा दशरथ तीन विवाह करते हैं पर पुत्र उतपन्न नहीं कर पाते, इसलिए श्रृंगी ऋशि को पुत्रोष्टि यज्ञ के लिए बुलाया जाता है, यज्ञ के लिए पुराने और बूढे पंडितों की क्या कमी थी जो इस नवयुवक को बुलाया गया, लेकिन यह ‘‘यज्ञ’’ हवन न होकर नियोग द्वारा दशरथ की रानियों को गृभवति करना था । जो दशरथ करने में असमर्थ थे ।
फिर सीता के माता पिता का कोई ठोर ठिकाना नहीं मिलता कहा जाता है कि वे राजा जनक को खेतों में पड़ी मिली थी - जैसे आजकल अवैध बच्चे सड़कों पर पड़े मिल जाते हैं
अब महाभारत को ही लिजिए, इस में ऐसे-ऐसे महापुरूषों का चरित्रचित्रण है कि कहते हैं सम्राट अकबर ने जब अपने दरबारी विद्वान को इस का फारसी अनुवाद करने को कहा और कुछ दिनों के बाद पूछा कि उस ने इस ग्रन्थ में क्या पाया तो विद्वान को विवष होकर कहना पडा कि ‘‘जहाँपनाह, वैसे तो सब ठीक है मगर इस ग्रन्थ में उल्लेखित एक भी व्यक्ति हलालजादा (वैध संतान) नहीं है। सब के सब ऐसे ही पैदा हो गए हैं।’’
उस विद्वान की यह उक्ति काफी हद तब सही थी, क्योंकि महाभारत के अधिकतर पात्रों के जन्म लेने में या तो ‘नियोग प्रथा’ का खुला हाथ था अथवा स्वच्छंद व्यभिचार व बलात्कार का ।
धृतराष्ट्र , पांडु और विदुर तीनों भाई विचित्रवीर्य की स्त्री से व्यासजी द्वारा पैदा होते हैं। अंधे धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों का जन्म भी प्राकृतिक नहीं है, बल्कि वे सब रानी गांधारी के पेट से एक पिंड के रूप में ऐसे ही निकल पड़ते हैं। फिर पांडु के पांच पुत्र -युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव पांच अन्य व्यक्तियों के नाम से पैदा होते हैं । कुन्ती का पुत्र कर्ण बलात्कार की यादगार है। यही बात कई महापुरूषों पर भी लागू होती है। जो इस धार्मिक महाकाव्य में अपनी भूमिकाएं अदा करते हैं जैसे द्रोणाचार्य के बारे में कहा गया है कि वह एक दोने से पैदा हुए । जिस में किसी का वीर्य पड़ा हुआ था ।
सरिता-मुक्ता प्रिंट 1 ता 12,
लेखकः रमाकान्त दूबे , विश्व बुक दिल्ली ।
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हमारे आदर्शहीन आदर्श
डा0 राकेष नाथ के लेख से प्रकाशित बुक ‘‘कितने खरे हमारे आदर्श’’ पृष्ठ 16,17,18, विश्व बुक दिल्ली ।
मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाने वाले राम को जब यह पता चला कि उनके राज्य में एक शूद्र शंबूक तपस्या कर रहा है, तो उन्होंने उस का सिर काट डाला, श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन को जब पता चला कि एकलव्य नामक शूद्र उन्ही की तरह धनुर्विद्या में कुशल हो गया है तो उन्होंने गुरू से कहकर गुरू दक्षिणा के नाम पर उस का अंगूठा ही कटवाकर उसे सदा के लिऐ इस विद्या के उपयोग से वंचित कर दिया
सब से दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह रही कि हमारे आदर्श दूसरे देशों के आदर्शों की तुलना में चारित्रिक विसंगतियों के अधिक शिकार रहे। राम ने एक शूद्र शबरी को गले लगाया तो दूसरे शूद्र (शंबूक) का वध कर दिया, एक तरफ अपनी पत्नी को पवित्र भी माना तो दूसरी ओर उसकी अग्निपरीक्षा लेकर भी उसे गर्भावस्था में वनवास दिया।
काम का मर्दन करने वाले शिव विष्णु के मोहिनी रूप के पीछे कामासक्त हो कर पागल की तरह ऐसे भागे कि मार्ग में ही उनका वीर्य स्खलित हो गया, विष्णु ने जालंधर को मारने के बहाने उस की सतीसाधवी पत्नी के साथ छल कर के कुकर्म किया, ब्रह्मा जी की नीयत अपनी लड़की सरस्वती के प्रति भी साफ नहीं थी, श्री कृष्ण की रसलीलाओं ने हिंदूधर्म का जो नुकसान किया वह सर्वविदित है ही ।
यही हाल हमारे अन्य देवीदेवताओं व ऋषिमुनियों का रहा । इंद्र ने अपनी गुरूपत्नी अहिल्या के साथ, चंद्र ने देवगुरू बृहस्पति की पत्नी तारा के साथ, सूर्य ने कुमारी कुन्ती के साथ, पराशर ने धीवर कन्या सरस्वती के साथ, विश्वामित्र ने मेनका के साथ, भारद्वाज ने घृताची के साथ, तथा विशिष्ठ ने यक्षमाला के साथ जो अपने अनैतिक व्यवहार का प्रदर्शन किया वह किसी भी स्थिति में गर्व करने की बात नहीं है।
स्त्रियों में यद्यपि सीता और सावित्री को आदर्श माना गया है। और हिन्दू शास्त्रों में जिन पंचकन्याओं की महिमा गाने व स्मरण करने का विधान है वे हैं अहल्या, मंदोदरी, तारा, कुन्ती व द्रौपदी, संयोग से ये सभी एक से अधिक पतियों वाली थीं, समझ में नही आता कि हिंदू धर्म में आदर्शों का ऐसा स्वरूप क्यों रहा अगर ये इतिहासिक थे तो हम ने चारित्रिक विसंगतियों वाले आदर्श क्यों चुने? और अगर पोराणिक थे तो ऐसी विकृत चरित्रों की कल्पना क्यों की और उन को समाज पर क्यो थोपा? ऐसे आदर्शों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ सकता था, यह कहने की आवश्यकता नहीं ।
ये ही चारित्रिक विसंगतियां हमें विरासत में ज्यों की त्यों मिली। जब तक हम आध्यात्मिक व धार्मिक उपलब्घि में रहे तब तक हम आचरण से हीन रहे ।
‘‘कितने खरे हमारे आदर्श’’ पृष्ठ 16,17,18
लेखक: डा0 राकेष नाथ, विश्व बुक दिल्ली ।
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कुछ और अंश देखें
श्री कृष्ण ने अपनी सारी सेना तो कौरवों को दी और स्वयं निहत्थे पांडवों की ओर रहे ताकि जो जीते, उनका आभारी रहे । जिस देश समाज व धर्म में महान व आदर्श पुरूष भी अपने भाई से छल, कपट व कूटनीति द्वारा विजयी हों, वहां साधारण व्यक्ति के सदाचार की क्या आवश्यकता है? (सरिता मुक्ता (1) पृष्ठ 7
हमारे यहाँ धर्म शास्त्रों में विधान है कि वेद का एक शब्द भी शुद्र (और स्त्री और वैश्य) के कान में पड़ जाए तो उस के कान में गरम सीसा भर दिया जाए, इस के अतिरिकत हमारे सारे ग्रंथ संस्कृत में हैं और इस तथाकथित देवभाषा संस्कृत को (अंग्रेजों के आने से पहले) सिवाए कुछ ब्राह्मणों के किसी को भी पढ़ने का अधिकार तक ही नही था। - उक्त पृष्ठ नं0 8
हमारे पुराणों में ऐसी ऐसी बातें भरी पड़ी हैं कि किसी सभ्य समाज में बैठ कर उन्हें पढ़ना तक संभव नही है। लेकिन हिदू समाज न सिर्फ इन अनहोनी और ऊटपटांग बातों पर विष्वास करता है, बल्कि बड़ी श्रद्धा के साथ इन्हें भगवान की लीला मान कर आज के वैज्ञानिक आविष्कारों को उन के आगे तुच्छ हेय बताता है -उक्त पृष्ठ 14
हमारी स्मत्रियों गृह सूत्रों व धर्मशास्त्रों में वर्ण व्यवस्था की जैसी व्याख्या की गई है, क्या आज के युग में भी हम उसी के अनुसार आचरण करें ? क्या आज भी यदि वेद का एक शब्द किसी शुद्र के कान में पड़ जाये तो हम पिघला हुआ सीसा उसके कानों के भर दें ? क्या आज भी किसी कला में निपुण होनें वाल शुद्र का अंगूठा काट लिया जाए जैसा के द्रोण ने एकलव्वय के साथ किया था । अथवा तपस्या करने वाले शुद्र की गर्दन ही उडा दी जाए?, जैसा की स्वयं भगवान राम ने किया था । -उक्त पृष्ठ 14
लैला मजनू और शीरीं फरहाद की प्रेम कहानियां पश्चिम एशिया में भी हैं लेकिन वहां मजनू या फरहाद को देवता या परमात्मा नहीं बनाया गया । ये गौरव सिर्फ भारत को प्राप्त है कि यहां के अविवाहित आशिक माशूक (कृष्ण-राधा) परमात्मा हैं और राधे कृष्ण कह-कह कर बड़े बड़े वैरागी भी उनकी माला जपते हैं ।
हमारे देश में ऐसे मन्दिर भी हैं जहां (काम शास्त्र के) चैरासी आसन मूर्तियों के रूप में दिखाये गये हैं स्त्री पुरूष के विशेष चिन्हों (गुप्तांगों) को संभोग की अवस्था में मूर्ति मंत कर शिवालियों में विराजमान करके पूजा जाना यहां का परम धर्म है, फिर मिट्ट ट्टी मिटटी पत्थर की मूर्तियां (शिव लिंग व योनियां आदि) ही अश्लील नहीं है, दिगम्बर जैनियों के नग्न मुनि तो जीवित अश्लीलता है। वे शहरों में नंगे घूमते हैं । घरों में जाकर स्त्रीयों के हाथ से भोजन लेते हैं और खड़े खडे़ भोजन लेते हैं ताकि जीवित अश्लीलता एक क्षण को भी नज़रों से ओझल न हो सके। (उक्त पृष्ठ 13 )
यह थोथे हमारे आदर्श और सिद्धान्त
डा0 राकेष नाथ के लेख से
प्रकाशित बुक ‘‘कितने खरे हमारे आदर्ष ’’ पृष्ठ 8,9,10
ब्राह्मण महिमा
मानवता की दृष्टि से मानव मात्र एक समान है, उन में कोई ऊंचनीच नहीं है और कम से कम जन्म से तो कोई ऊंच या नीच नहीं माना जाना चाहिए। अच्छे और बुरे कर्मो के लिहाज़ से हम चाहें तो उन में विभेद कर सकते हैं, परन्तु न्याय की दृष्टि में तो सभी एक होने चाहिएं (यही इस्लामी सिद्धान्त भी है) लेकिन मनु महाराज अपनी स्मृति का प्रारम्भ करते हुए लिखते है-
भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीवनः
बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राहाणाः समृताः
- अध्याय 1, श्लोक 96 ।
(जीवों में प्राणधारी, प्राणधारियों में बुद्धिमान, बुद्धिमानों में मनुष्य एंव मनुष्यों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ कहे गये है )
सर्व स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किचिज्जगतो गतम्
श्रेष्ठ्येनाभिजनेनेदं सर्व वै ब्राह्मणोर्हति
(पृथ्वी पर जो कुछ धन है वह सब ब्रह्मण का है । उत्पत्ति के कारण श्रेष्ठ होने से यह सब ब्राह्मण के ही योग्य है)
उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट प्रकट होता है कि हमारे न्यायमूर्ति मनु महाराज ने मनुष्यों में एक वर्ग को सर्वश्रेष्ठ घोशित कर के सब कुछ उसे भोग करने की खुली छूट दे दी है। केवल इतने से ही उन्हे संतोष नहीं हो गया, ऊंच, नीच, घृणा की यह खाई और अधिक गहरी होती चली जाए, इस के लिए उन्होंने विधान किया:
मांगल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्
वैष्यस्य धनसंयुक्तं, शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् -अध्यया 2, ष्लोक 31
(ब्राह्मण का नाम मंगलयुक्त, क्षत्रिय का बलयुक्त, वैष्य का धनयुक्त एंव शूद्र का निंदायुक्त होना चहिए)
तात्पर्य यह कि शूद्र को पगपग पर भान होता रहे कि वह नीच है और जीवन में वह कभी उन्नति न कर सके, ताकि द्विजों के लिऐ सेवकों कि कमी ना हो जाए, और फिर यह सेवक कहीं शरीरिक दृष्टि से भी इतने स्वस्थ ना हो जाएं कि वे द्विजों की प्रतिस्पर्धा करें, अतः उन के लिए जहां एक ओर उच्छिष्ट भोजन आदि की व्यवस्था की गई, वहां दूसरी ओर ब्राह्मण के लिए याज्ञवल्क्य महाराज ने व्यवस्था कीः
ब्राह्मणः काममश्नीयाच्छाद्धे व्रतमपीडयनू
- याज्ञवल्क्यस्मृति, ब्रह्मचारी प्रकरण, श्लोक 32.
(ब्रह्मण श्राद्ध में चाहे कितना खाएं, उन का व्रत नहीं बिगड़ता) मनुस्मृति का भी निम्न उद्धरण देखने योग्य हैः
जातिमात्रोपजीवी वा कामं स्याद्ब्राह्मणब्रुवं
धर्मप्रवक्ता नृपतेर्नतु षूद्रः कंथचन, ---- अध्याय 8, श्लोक 20,
(केवल जाति में जीविका करने वाला कर्मरहित ब्राह्मण भी राजा की ओर से धर्मवक्ता हो सकता है परन्तु शूद्र नहीं हो सकता)
विद्वत्ता एवं योग्यता में भी मनु महाराज जाति को उच्च स्थान देते हैं, इतना ही नहीं जो संसार में किसी भी धर्म में उचित नहीं माना जाता सकता, उस असत्य भाषण को भी मनु महाराज धर्म का संरक्षण प्रदान करते हैः
कामिहेषु विवाहेषु गवां भक्ष्ये तथेंधने
ब्राह्मणाभयुपत्तौ च शपथे नास्ति पातकम् अध्याय 8, श्लोक 112,
( स्त्री संभोग, विवाह, गौओं के भक्ष्य, होम के ईंधन और ब्राह्मण की रक्षा करने में वृथा शपथ खाने से भी पाप नहीं होता)
ब्राह्मण न हुआ, कोई ऐसा पुरूष हो गया कि जिस के मर जाने से सृष्टि में भूकंप आ जाएगा और फिर साथ ही स्त्री संभोग में भी झूठ बोलने से पाप नहीं होता! फिर तो संसार के सारे न्यायालय एवं कानून व्यर्थ ही समझे जाने चाहिएं ।
वही दोष करने पर शुद्र के लिए कठोर से कठोर दंड विधान है. और ब्रह्मण के लिए कोई दंड नहीं । मनुस्मृति के अनुसार ‘‘कठोर वचन कहने का अपराध करने पर द्विजातियों को कुछ क्षण का दंड काफी है, परंन्तु शूद्र को जिहवोच्छेदन अथवा जलती हुई दस अंगुल की शलाका मुख में डालना तथा मुख, कान में तपा हुआ तेल डालने का विधान किया गया है’’ ( अध्याय 8, श्लोक 267 से 272)
मजेदार बात यह है कि दंड केवल तभी है जब कठोर वचन ब्राह्मण या क्षत्रिय के प्रति कहे गये हों यदि वैश्य को गाली दी जाए तो कुछ दंड ही काफी है और भी देखिए-
‘‘शूद्र यदि द्विजाति को मारे तो उस के हाथ, लात मारे तो पैर, यदि आसन पर बैठना चाहे तो चूतड़, ब्राह्मण पर थूके तो होठ, पेशाब करे तो लिंग और यदि अधोवायु करे तो गुदे की जगह कटवा दें ’’ अध्याय 8, ष्लोक 277 से 283)
‘‘शूद्र यादि रक्षित या अरक्षित जाति की स्त्री से भोग करे तो उसकी मूत्रेंद्रिय कटवा दे अथवा प्राणदंड दे, परन्तु अन्य जातियों के लिए धन दडं ही काफी है और ब्राह्मण के लिए सिर का मुंडन ही काफी है’’ (अध्याय 8, श्लोक 374 से 379)
इतना ही नही-
न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितम्
राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात्समग्रधनमक्षतम् (8, 380)
न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मो विद्यते भुवि
तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत् ( 8, 381 )
( सब पापों से लिप्त होने पर भी ब्राह्मण का वध कदापि न करें, उसे धन सहित अक्षत शरीर से राज्य से निकाल दे, ब्राह्मणवध के समान दूसरा कोई पाप पृथ्वी पर नही है, इसलिए राजा मन में भी ब्राह्मणवध का विचार न करे)
द्वितीय विधाननिर्माता याज्ञलव्क्य मुनि तो और भी आगे बढ़ जाते है।:
पादशौचं द्विजोच्छिष्टमार्ज्जनं गोप्रदानवत्
( श्लोक 9, दानधर्मप्रकरण)
( द्विजों के पांव एवं जूठन धोना गोदान के समान है)
अस्वन्नमकथं चैव प्रायष्चित्तैरदूषितम्
अग्ने: सकाशाद्विप्राग्नौ हुतं श्रेष्ठमिहोच्यते - श्लोक 16,राजधर्म प्रकरण
( अग्नि में यज्ञ करने की अपेक्षा ब्राह्मणरूपी अग्नि में हवन करना अधिक श्रेष्ठ है )
इस प्रकार इन स्मृतिकारों ने वेद द्वारा गाया हुआ अग्निहोत्र का सारा गुणगान ब्राह्मण के ऊपर न्यौछावर कर के वेदों और कर्मकांड को ही धता बता दी है ।
नारी निंदा
शूद्र की तरह नारी भी सदैव पुरूष की भोग्या गिनी जाती रही है । इसी लिए विवाह आदि के सम्बन्ध मे जहां एक ओर उसे विधवा हो जाने पर दूसरे विवाह तक की आज्ञा नहीं है, वहीं दूसरी ओर पुरूषों को कई-कई विवाहों का आदेश किया गया है वैसे ऊँच-नीच की उस खाई को यहाँ भी नहीं पाटा जाताः
शूद्रैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते
ते च स्वा चैव राज्ञश्य ताश्ख्च स्वा चाग्रजन्मनः - मनुस्मृति: अध्याय 3, श्लोक 13.
(शूद्र की स्त्री एक शूद्रा ही हो, वैश्य की स्त्री वैश्या एंव शूद्रा, क्षत्रिय की शूद्रा, वैश्य एवं क्षत्राणी तथा ब्राह्मण की ब्राह्मणी, क्षत्राणी वैश्य एवं शूद्रा कही गई हैं।)
तिस्रो वर्णानुपूर्वेण द्वे तथैका यथाक्रमम्
ब्राह्मणक्षत्रियविशां भार्या स्याच्छूद्रजन्मनः
- याज्ञवल्क्य स्मृति विवाह प्रकरण, श्लोक 59.
(वर्णानुक्रम में ब्राह्मण 3, क्षत्रिय 2 एंव वैश्य 1 स्त्री रख सकता है परन्तु शूद्र अपने ही वर्ण मे विवाह कर सकता है।)
एक ओर द्विजों के लिए यज्ञ, नियम और संयम की कठोरता है, तो दूसरी ओर स्वच्छंद भोगविलास की राह पर भी प्रशस्त कर दी गई है, ‘गरीब की जोरू सब की भाभी’ कहावत यहां पूर्णतः चरितार्थ होती है, स्त्री के लिए जहां एक ओर पतिव्रत ही जीवन कहा गया है। तथा छल से ठगी गई अहल्या एंव पतिव्रता सीता को बिना कारण वन में छोड देने के उदाहरण हैं, वहां दूसरी ओर याज्ञवल्क्य ऋषि विधान करते हैं
दत्तामपि हरेत्पूवां ज्यायांश्चेद्वर आव्रजेत्
- विवाह प्रकरण, श्लोक 65,
(पहले वर से अच्छा वर मिले तो दी हुई कन्या का भी हरण कर लें)
मनु महाराज की दृष्टि में तो नारी के सतीत्व एंव पवित्रता का मूल्य है वंशवृद्धि के लिए सन्तानप्राप्ति मात्र, इन के लिए वह नारी का सतीत्व बलिदान करने का आदेश देते हुए कहते हैं
देवराद्वा सपिंडाद्वा स्त्रिया सम्यड्नियुक्तया
प्रजेप्सिताधिगन्तव्या संतानस्य परिक्षये
विधवायां नियुक्तस्तु धृताक्तो वाग्यतो निशि
एकमुत्पादयेत्पुत्रं न द्धितीयं कथंचन ।
- अध्याय 9, ष्लोक 59-60.
( निज स्वामी से सन्तान न होने पर स्त्री पति की आज्ञा से अपने देवर अथवा अन्य सपिंड पुरूष से इच्छित पुत्र लाभ कर सकती है, रात्रि के समय चुपचाप गुरू के द्वारा नियुक्त पुरूष अपने शरीर में घी लगाकर विधवा से एक पुत्र उत्पन्न कर सकता है, परन्तु दूसरा पुत्र कदापि नहीं)
सोचने की बात है कि यदि एक बार उफनती नदी का बांध टूट जाए तो क्या वह प्रयास करने पर भी पुनः ठीक हो सकता है? विधवा नारी, जो पता नही कितने प्रयास से अपने यौवन एवं इच्छाओं को दबाय बैठी हो, एक बार पुरूष से संभोग होने पर किस प्रकार अपने को संयत कर सकती है ? दूसरे यदि एक बार मे गर्भाधान न हो तो क्या करे? अब यह विचाराधीन प्रश्न है कि वर्तमान हिंदू कोड बिल की तलाक एंव पुनर्विवाह धारा इस से भी गई बीती है?
श्राद्ध व्यवस्था
अपने को अहिंसक तथा गौपूजक कहने वाले इन विधायकों की श्राद्धव्यवस्था पर भी एक दृष्टि डाल लेना अनुचित न होगाः ‘‘मनुष्यों के पितर, तिल, चावल, जौ से एक मास, मछली से दो मास,हरिण के मांस से तीन मास, मेंढे के मांस से चार मास, पक्षियों के मांस से पांच मास, बकरी के मांस से छः मास, चित्रमृग के मांस से सात मास, काले मृग के मांस से आठ मास, पाठीन मछली तथा रूरू हरिण के मांस से नौ मास, सूअर और भैंसे के मांस से दस मास, कछुए और खरगोश के मांस से ग्यारह मास, तथा वार्ध्रीणस के मांस से बारह वर्ष तक तृप्त होते हैं। (मनु स्मृति अध्याय 3, श्लोक 267 से 271 तक.)
इसी विषय मे याज्ञवल्क्य स्मृति आदेश देती है ‘‘हविष्यान्न से महीने भर, पायस से एक वर्ष, मछली, हरिण, भेडा, पक्षी, बकरा, चित्रमृग, काला मृग, साबर, शूकर, और खरगोश के मांस से श्राद्ध करने से पितर लोग क्रमशः एकएक महीना अधिक तृप्त होते हैं गैडा, महाशलक, लाल बकरे का मांस, बूढें सफेद बकरे का मांस इन से अनंत काल तक पितरों को तृप्ति मिलती है। (श्राद्धप्रकरण, श्लोक 58 से 61 तक)
इतना ही नही, मनु महाराज ने तो भोज्याभोज्य का विचार करते हुए भक्ष्य पशुपक्षियों एवं मछलियों के नाम तक गिना डाले हैं। मजेदार बात यह है की अभक्ष्य पशुओं मे वह गाय को नहीं गिनाते । (अध्याय 5, श्लोक 11 से 22)
उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि यज्ञ के लिए मांसभक्षण अनुचित नहीं, साथ ही उन्होंने उसे मंत्रों से पवित्र कर लेने का आदेश भी कर दिया है। वह तो ब्रह्मचारी को भी दुपट्टे के स्थान पर काले मृग, रूरू मृग एवं बकरे का चर्म प्रयोग करने का आदेश देते हैं । (अध्याय 2, श्लोक 41)
ये हैं वे कुछ सिद्धान्त जिन पर हिंदू धर्म की यह अट्टालिका खड़ी की गई है। हम स्पष्ट देखते हैं कि ये सिद्धान्त पक्षपात और अन्याय से परिपूर्ण हैं और यहि कारण है कि समय समय पर इन का विरोध होता रहा है विशिष्ठ एंव विश्वामित्र का युद्ध, परशुराम एवं क्षत्रियों की लड़ाईयां, शंबूक का वध, बुद्ध एंव महावीर का मतप्रचार आदि इन सिद्धान्तों के विरूद्ध खुले विद्रोह कहे जा सकते हैं।
तथाकथित भगवान के अवतार
हम ने सिद्धान्तों पर एक दृष्टि डाली, अब हम उन आदेशों को भी देखें जिन के उदाहरण पग पग पर दिए जाते हैं। सर्वप्रथम भगवान के जो अवतार गिनाए जाते हैं उन में एक भी ऐसा नहीं जिसे हम छल रहित कह सकें, नारी रूप धारण कर राक्षस एवं देवताओं के सम्मिलित प्रयास द्वारा तैयार किया गया अमृत केवल देवताओं को पिला देना, वामन रूप धारण कर बलि को छलना आदि को ही यदि हम अपना आदर्श आज मानने लगें, तो मत्स्यन्याय के सिवा संसार में कुछ भी शेष ना रह जाएगा।
और ये सब छल जिन देवताओं को शक्तिशाली बनाने के लिए किये गये उन के चरित्र पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो हमें लगता है कि उन कायर और चरित्रहीन देवताओं से तो परिश्रमी राक्षस हजार गुना अच्छे थे। जितने भी युद्ध देवताओं और राक्षसों के बीच हुए, सब में इन देवताओं ने पीठ ही दिखाई कोई भी तो ऐसा युद्ध नहीं जिस में देवता छल से न जीते हों ।
देवताओं के राजा इन्द्र ने अहल्या का सतीत्व नष्ट किया तथा उसके बाद भी राजा बना रहा जब कि सामाजिक दंड अहल्या को ही भोगना पड़ा, मेनका आदि वेश्याओं के द्धारा तपस्वियों का तप भंग करना तो इन्द्र का एक साधारण सा कार्य था ।
इंद्र के अलावा ब्रह्मा का कामातुर होकर अपनी लड़की सरस्वती के पीछे भागना, चन्द्रमा द्वारा गुरू की पत्नी का हरण, शिव का सती की लाश कंधे पर डाल कर पागलों की तरह घूमते फिरना आदि उदाहरण हमें यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं यदि राक्षस लोग भी ईमानदारी का आदर्श अपने सामने ना रखकर छल से काम लेते तो क्या इतिहास इसी प्रकार लिखा गया होता ?
राम और कृष्ण के बारे में तो इतना अधिक बार लिखा जा चुका है कि यहां उसे दोहराना ठीक ना होगा फिर भी इतना लिख देना आवश्यक है कि ‘रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन ना जाई’ का आदर्श कैकयी के सामने रखने वाले महाराज दशरथ ने कैकेयी के विवाह के समय उसके पिता को दिया यह वचन कि कैकेयी का पुत्र ही राजा होगा, स्वयं ही तोड़ दिया, इतना ही नहीं उन्होंने राम को भी उकसाया कि वह पिता के वचन का ध्यान ना करें बल्कि आयोध्या में ही रहें।
महाभारतकालीन आदर्षों में हम भीष्म को बड़ा ऊंचा स्थान देते हैं परन्तु क्या अपने नपुंसक भाईयों के लिए अंबा आदि नारियों का हरण तथा उसके पश्चात एक बहन का जीवन बरबाद कर देना एवं शेष दो बहनों का जबरदस्ती व्यास से नियोग कराना ही आदर्श है? यदि भीष्म चाहते तो महाभारत का संग्राम रूक सकता था, परन्तु बैठे बिठाए जुआ एवं द्रौपदी की बेइज़्ज़ती का तमाशा देखना ही उनका आदर्श था, द्रोणाचार्य का अकेले अभिमन्यु को घेरकर मार डालना, कृष्ण द्वारा कर्ण को मरवाना एवं दुर्योधन की जांघ तुड़वाना कौन सा आदर्श कहा जाएगा?
राजा शांनतनु का मत्स्यगंधा से विवाह करना एवं दुष्यंत का शकुंतला को धोखा देना ही क्या आदर्श है? एक ओर हम कुन्ती एवं द्रौपदी को आदर्श नारी मानते हैं तो आज किसी अविवाहित लड़की के सन्तान हो जाती है तो क्यों समाज उसे स्वीकार नहीं करता? यदि नारी किसी परिस्थिति से मजबूर होकर दूसरा विवाह कर लेती है तो क्यों नहीं उसे द्रौपदी के समकक्ष मान लिया जाता?
‘‘कितने खरे हमारे आदर्श ’’ पृष्ठ 8,9,10
लेखकः डा0 राकेश नाथ
विश्व बुक दिल्ली
यह थी एक झलक उसकी जो हिन्दुत्व का स्रोत है। जिस की आख्या भी हिन्दू लेखकों के कलम से प्रस्तुत की गई है, इस के हवाले से हम ‘‘बलराज मधोक’’ जी से कहना चाहेंगे कि अगर यह ही हिन्दुत्व है तो हमारा तो इसे दूर से ही सलाम है, स्वयं आप भी इस पर खुले आम अमल नहीं कर सकते यह केवल पुराने समय की बात थी, जो समय के साथ इतिहास का हिस्सा बन चुकी, अब जो चलने वाली व्यवस्था है वह केवल और केवल इस्लामी व्यवस्था है। स्वंय आप उसी व्यवस्था में जी रहे हैं। उदाहरण के बतोर भारतीय कानून की नजर मे ब्राह्मण और शूद्र एक समान हैं आज विधवा को सति नहीं किया जा सकता, या तो उस की दूसरी शादी कर दी जाए वरन राज्य उसे विधवा पेंशन दे । नियोग से बच्चा पैदा नहीं किया जा सकता (यह राज्य की दृष्टि मे चाहे अपराध न हो अपितु समाज की दृष्टि में अवश्य अपराध है) ऐसे ही शिक्षा केवल ब्राह्मण के लिए नहीं है बल्कि सब के लिए है ।अब कोई शम्बूक (शूद्र) शिक्षा प्राप्ति और जप-तप करने के कारण मारा नहीं जा सकता, भूर्ण हत्या पर, प्रतिबन्ध जन्म से पहले लिंग पता करने पर प्रतिबन्ध, दहेज लेने देने पर प्रतिबन्ध, यह सब इस्लामी कानून हैं । खास बात यह भी है कि इन में से अधिक तर हिन्दू धर्म के विपरीत हैं, इन चीजों के विपरीत हिन्दू धर्म में स्पष्ट आदेश है, जैसा कि वर्ण व्यवस्था, सती या नियोग आदि, और हिदू धर्म के पर्वतक उसका नमूना पेश करते हैं, दहेज को ही लीजिए, चाहे उसका स्पष्ट आदेश न हो परन्तु मर्यादा पुरूषोत्तम राम के विवाह में देखये, राजा जनक ने उन्हें किस कदर भारी संख्या मे दहेज दिया था ।
यह एक नमूना था उन आदेशों/आदर्शों का जिनका सम्बन्ध कानून से है, इस के अतिरिक्त कुछ बातें वह है जिन का सम्बन्ध नैतिकता से है, इस्लाम क्यों कि मुकम्मल निजाम-ए-हयात (जीवन जीने कि सम्पूर्ण पद्धति) है अतः इस्लाम ने नैतिकता के आधार पर भी बहुत से नियम पेश किये हैं। उदाहरण के तौर पर एक मशहूर हदीस है कि अगर तुम कहीं जुल्म (अन्याय) होता देखो और तुम उसे रोकने की शक्ति रखते हो तो शक्ति का प्रदर्शन करके उसे रोक दो । और अगर अपने अन्दर उसे रोकने की शक्ति नहीं पाते बल्कि ज़ुबान से अन्याय को अन्याय कह सकते हो। तो जुबान से जुल्म को जुल्म कहो इस समय तुम्हारा चुप रहना पाप है। और अगर इतनी भी शक्ति नहीं है तो दिल से बुराई को बुराई समझो, और उससे अलग हो जाओ, यह ईमान का आखिरी दर्जा है अर्थात किसी भी स्थिति में अन्याय का समर्थन जायज़ नहीं है।
इसकी तुलना महाभारत के युद्ध में भगवान श्री कृष्ण के किरदार से किजिए, जिस युद्ध में वह अर्जुन के सार्थी बनकर उन्हें अधर्म के विरूद्ध युद्ध करने के उपदेश दे रहे थे उसी युद्ध में उन्होंने अपनी सम्पूर्ण सैनिक शक्ति दूसरे पक्ष को दे रखी थी ।
एक दूसरा उदाहरण देखिये, राजा दशरथ ने अपनी एक पत्नी को दिये गये दो वचनों के कारण अपने पुत्र श्री राम को घर से निकाल दिया था, ऐसी स्थिति में इस्लामी कानून यह है कि वह वचन जिस में किसी की हकतलफी होती है वह सिरे से खारीज है उस पर अमल नहीं किया जाएगा यहां तक कि अगर कोई भूल-चूक में भी किसी ऐसे कार्य के करने की कसम खा बैठे तो इस्लामी नियम के अनुसार वह कार्य नहीं किया जाएगा साथ ही कसम के झूठा होने के कारण कसम का कफ्फारा (एक प्रकार का दंड ) देना अनिवार्य होगा । ख्याल रहे कि भारतीय कानून भी कुछ ऐसा ही है, यही कारण है कि अगर कोई अपने बेटे को इसलिए घर से निकाल दे कि उस ने किसी को यह वचन दिया था तो उसका वचन जाए भाड़ में, भारतीय न्यायालय और सरकार उसे ऐसा करने की अनुमति नही दे सकती ।
अतः श्री बलराज मधोक जी से निवेदन है कि इस्लामी व्यवस्था का अधिकांश हिस्सा समय चक्र के आहनी पंजे ने बलपूर्वक आप से मनवा दिया है अब आप ज़िद छोडें, और सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए निष्पक्ष होकर इस्लामी व्यवस्था के बाकी बचे हिस्से का अघ्ययन करें
अब जो कुछ बचा है वह कुछ अधिक नहीं, अपितु बहुत मामूली सा है और वह क्या है, उसे पवित्र कुरआन कि भाषा में मुलाहिज़ा फरमाइये
‘‘हे ईशवरीय ग्रन्थ रखने वालों आओ एक ऐसी बात की ओर जिसे हमारे और तुम्हारे बीच समान मान्यता हासिल है वह यह कि हम एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को न पूजें और ना ही उसके साथ किसी को सा़झी ठहराएं और न परस्पर हममें से कोई एक दूसरे को एक ईश्वर से हटकर पालनहार बनाये ’’। (सूरत आल-ए-इमरान 64)
‘‘जिस ने अपने हाथ से कम से कम एक काफिर को खत्म किया है, ऐसे मुसलमान को गाजी कहा जाता है।’’ - पृष्ठ न. 15
ख्याल रहे कि यह निराधार परिभाषा मधोक जी की है। इस्लाम या मुसलमान से इसका कोई सम्बन्ध नहीं ।
ख्याल रहे कि यह निराधार परिभाषा मधोक जी की है। इस्लाम या मुसलमान से इसका कोई सम्बन्ध नहीं ।
online book: "ek patr balraj madhok ke nam"
मधोक जी ने अपनी पुस्तक में अनेक स्थानों पर लिखा है कि जहाँ भी इस्लामी राज्य स्थापित हुआ वहाँ की गैर मुस्लिम जनता के सामने दो में से एक विकल्प चुनना अनिवार्य था, इस्लाम या मौत - पृष्ठ न. 16,22
अफसोस कि मधोक जी ने यह लिखते हुए इतना न सोचा कि भारत में कई शताब्दियों तक इस्लामी राज्य कायम रहा । परन्तु मधोक जी फिर भी बच गये, बल्कि दो में से एक विकल्प देने वाले अल्प संख्यक रह गये और मधोक जी ....
बलराज मधोक जी को इतिहास का कितना ज्ञान है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वह अपनी पुस्तक के पृष्ठ नं 34 पर लिखते हैं कि सोमनाथ के मन्दिर पर मुसलमान आकर्मणकारियों द्वारा बनाई गई मस्जिद को हटा कर सरदार पटेल ने पुनः मन्दिर बनवाया ।
सब जानते है कि सोमनाथ के मन्दिर पर कभी मस्जिद नहीं रही, परन्तु नफरत के पुजारी नफरत का करोबार करने के लिए इतिहास को बदलने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं।
मधोक जी कितने बड़े ज्ञानी हैं, और वह अपने समय के हालात से कितनी वाकफियत रखते हैं इस का अन्दाज़ा इस बात से कीजिए कि सन 2003 में वह अपनी उक्त पुस्तक में लिखते हैं कि इस समय संसार में छोटे बडे़ चालीस इस्लामी देश हैं - पृष्ठ 39
ज़ाहिर है कि या तो उन्हें गिनती नहीं आती या उनका भौगोलिक ज्ञान कमज़ोर है, अगर वह संसार का मानचित्र उठा कर इस्लामी देशों की गिनती करते तो यह संख्या उनकी बताई संख्या से दस /पन्द्रह अंक ऊपर जाती ।
जिस व्यक्ति के ज्ञान की यह स्थिति हो उसकी कृति को महत्व देना उस पर विचार व्यक्त करना अपना समय नष्ट करने के सिवा कुछ नहीं, परन्तु मधोक जी ने मुसलमानों के भारतीयकरण करने के सम्बन्ध में लिखा है -
‘‘उसके लिए एक रास्ता तो यह है कि इस्लाम का भूत उतार कर उन्हें पुनः अपने मूल हिन्दू परिवार में लौटने के लिए प्रेरित किया जाये।’’- पृष्ठ 49
इस प्रकार के आग्रह मधोक जैसे विचार रखने वाले कुछ अन्य लोगों की ओर से भी समय समय पर आते रहते हैं, आर.एस.एस. के ही एक अन्य प्रचारक हरिद्वार के डा. अनुप गौड ने अपने द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘‘क्या हिन्दुत्व का सूर्य डूब जायेगा’’ प्रकाशित 2006 में मुसलमानों का आहवान करते हुए लिखा है कि
‘‘ इस पुस्तक के माध्यम से मैं आहवान करता हूँ कि वह अपने स्वधर्म में लौट आयें ’’ पृश्ठ-78 ।
उक्त विद्वानगण के इस प्रकार के विचार, सोचने वाला दिमाग रखने वाले मनुष्य को मजबूर करते हैं कि मुस्लमानों को जिस धर्म में लौटाने के लिये उक्त विद्वानगण इतने बेताब दिखाई पड़ते हैं, उसको समझा जाए और इस्लाम का भूत उतार कर मधोक जी जिस धर्म का भूत चढ़ाना चाहते हैं इस्लाम से उसका तुलनात्मक अध्ययन किया जाए। तो आइये इस परीपेक्ष में इस्लाम और हिन्दू धर्म का एक सरसरी तुलनात्मक अध्ययन करते हैं।
धर्मों का आधार पूजनीय ईश्वर होता है, इसी कारण जिन समाजों में ईश्वर की कल्पना नहीं, उन्हें नास्तिक कहा जाता है। इसलिए बेहतर होगा कि बात ‘पूजनीय ईश्वर’ से ही शुरू की जाय, यहाँ यह पुष्टि करना भी अनिवार्य है कि हमने ज्ञान का आधार धर्म ग्रन्थों को बनाया है, क्योंकि व्यक्ति विशेष, क्या कह रहा है इसका कोई महत्व नहीं, महत्व धर्म ग्रन्थों का होता है क्योंकि व्यक्ति विशेष की करनी, कथनी में अन्तर हो सकता है या वह बात कह कर बदल भी सकता है जबकि ग्रन्थ बदला नहीं करते ।
इस्लाम में पूजनीय केवल एक ईश्वर की ज़ात है, जो कि सर्वशक्तिमान है, सब का पालनहार और सब का स्वामी है, जिसका न कोई साझी है, नही कोई उस जैसा है, इस सम्बन्ध में जब हम हिन्दू धर्मग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो कहीं एक ईश्वर की बात मिलती है, कही तीन की, तो कहीं तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की और कहीं यह भी कि दुनिया की हर वस्तु ईश्वर है।
मधोक जी ने अपनी पुस्तक में अनेक स्थानों पर लिखा है कि जहाँ भी इस्लामी राज्य स्थापित हुआ वहाँ की गैर मुस्लिम जनता के सामने दो में से एक विकल्प चुनना अनिवार्य था, इस्लाम या मौत - पृष्ठ न. 16,22
अफसोस कि मधोक जी ने यह लिखते हुए इतना न सोचा कि भारत में कई शताब्दियों तक इस्लामी राज्य कायम रहा । परन्तु मधोक जी फिर भी बच गये, बल्कि दो में से एक विकल्प देने वाले अल्प संख्यक रह गये और मधोक जी ....
बलराज मधोक जी को इतिहास का कितना ज्ञान है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वह अपनी पुस्तक के पृष्ठ नं 34 पर लिखते हैं कि सोमनाथ के मन्दिर पर मुसलमान आकर्मणकारियों द्वारा बनाई गई मस्जिद को हटा कर सरदार पटेल ने पुनः मन्दिर बनवाया ।
सब जानते है कि सोमनाथ के मन्दिर पर कभी मस्जिद नहीं रही, परन्तु नफरत के पुजारी नफरत का करोबार करने के लिए इतिहास को बदलने की नाकाम कोशिश करते रहते हैं।
मधोक जी कितने बड़े ज्ञानी हैं, और वह अपने समय के हालात से कितनी वाकफियत रखते हैं इस का अन्दाज़ा इस बात से कीजिए कि सन 2003 में वह अपनी उक्त पुस्तक में लिखते हैं कि इस समय संसार में छोटे बडे़ चालीस इस्लामी देश हैं - पृष्ठ 39
ज़ाहिर है कि या तो उन्हें गिनती नहीं आती या उनका भौगोलिक ज्ञान कमज़ोर है, अगर वह संसार का मानचित्र उठा कर इस्लामी देशों की गिनती करते तो यह संख्या उनकी बताई संख्या से दस /पन्द्रह अंक ऊपर जाती ।
जिस व्यक्ति के ज्ञान की यह स्थिति हो उसकी कृति को महत्व देना उस पर विचार व्यक्त करना अपना समय नष्ट करने के सिवा कुछ नहीं, परन्तु मधोक जी ने मुसलमानों के भारतीयकरण करने के सम्बन्ध में लिखा है -
‘‘उसके लिए एक रास्ता तो यह है कि इस्लाम का भूत उतार कर उन्हें पुनः अपने मूल हिन्दू परिवार में लौटने के लिए प्रेरित किया जाये।’’- पृष्ठ 49
इस प्रकार के आग्रह मधोक जैसे विचार रखने वाले कुछ अन्य लोगों की ओर से भी समय समय पर आते रहते हैं, आर.एस.एस. के ही एक अन्य प्रचारक हरिद्वार के डा. अनुप गौड ने अपने द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘‘क्या हिन्दुत्व का सूर्य डूब जायेगा’’ प्रकाशित 2006 में मुसलमानों का आहवान करते हुए लिखा है कि
‘‘ इस पुस्तक के माध्यम से मैं आहवान करता हूँ कि वह अपने स्वधर्म में लौट आयें ’’ पृश्ठ-78 ।
उक्त विद्वानगण के इस प्रकार के विचार, सोचने वाला दिमाग रखने वाले मनुष्य को मजबूर करते हैं कि मुस्लमानों को जिस धर्म में लौटाने के लिये उक्त विद्वानगण इतने बेताब दिखाई पड़ते हैं, उसको समझा जाए और इस्लाम का भूत उतार कर मधोक जी जिस धर्म का भूत चढ़ाना चाहते हैं इस्लाम से उसका तुलनात्मक अध्ययन किया जाए। तो आइये इस परीपेक्ष में इस्लाम और हिन्दू धर्म का एक सरसरी तुलनात्मक अध्ययन करते हैं।
धर्मों का आधार पूजनीय ईश्वर होता है, इसी कारण जिन समाजों में ईश्वर की कल्पना नहीं, उन्हें नास्तिक कहा जाता है। इसलिए बेहतर होगा कि बात ‘पूजनीय ईश्वर’ से ही शुरू की जाय, यहाँ यह पुष्टि करना भी अनिवार्य है कि हमने ज्ञान का आधार धर्म ग्रन्थों को बनाया है, क्योंकि व्यक्ति विशेष, क्या कह रहा है इसका कोई महत्व नहीं, महत्व धर्म ग्रन्थों का होता है क्योंकि व्यक्ति विशेष की करनी, कथनी में अन्तर हो सकता है या वह बात कह कर बदल भी सकता है जबकि ग्रन्थ बदला नहीं करते ।
इस्लाम में पूजनीय केवल एक ईश्वर की ज़ात है, जो कि सर्वशक्तिमान है, सब का पालनहार और सब का स्वामी है, जिसका न कोई साझी है, नही कोई उस जैसा है, इस सम्बन्ध में जब हम हिन्दू धर्मग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो कहीं एक ईश्वर की बात मिलती है, कही तीन की, तो कहीं तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की और कहीं यह भी कि दुनिया की हर वस्तु ईश्वर है।
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डा. मुहम्मद असलम कासमी,
मौहल्ला सोत, रुड़की
Email: dr_aslam.qasmi@yahoo.in
मुख्य सलाहकारः
1. मौ0 साजिद कमाल (एम.ए.एल.एल.बी.)
2. हैदर ज़मा खाँ (एम.ए.एल.एल.बी.)
492, पश्चिमी अम्बर तालाब, रूड़की ।
मुख्य सलाहकारः
1. मौ0 साजिद कमाल (एम.ए.एल.एल.बी.)
2. हैदर ज़मा खाँ (एम.ए.एल.एल.बी.)
492, पश्चिमी अम्बर तालाब, रूड़की ।
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हिन्दू धर्म में ईश्वर के हवाले से जो यह विरोधाभास है आईये इसको पवित्र कुरआन के एक पैमाने से मापते हैं, कुरआन में है-
‘‘यह (अर्थात कुरआन) अगर ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की ओर से होता तो इसमें विरोधाभास बहुत होता’’, निसा-82
जैसा कि हिन्दू धर्म में है ।
जैसा कि ऊपर लिखा गया है कि हिन्दू धर्म में तीन खुदाओं का उल्लेख भी मिलता है और इसे हिन्दुओं का एक बड़ा तबक़ा मान्यता भी देता है अतः इस पर चर्चा करते हैं।
उपरोक्त तीन खुदा बृह्मा, विष्णु और महादेव हैं। बृह्मा पैदा करते हैं, विष्णु पालनहार हैं, और महादेव का कार्य मारना है, इन में से अधिकतर पूजा महादेव की होती है, वह भी उन के लिंग के रूप में, शिव पुराण में इस का विस्तार से वर्णन है। इसके अतिरिक्त इन तीनों के हवाले से शिव पुराणादि ग्रंथों में जो कुछ कहा गया है, उसे अंकित करने से कलम असमर्थ दिखाई पड़ता है, क्योंकि उसे पढ़ते हुए एक शरीफ व्यक्ति कानों पर हाथ रख लेता है। मधोक जी और अनूप जी स्वयं उक्तादि ग्रंथो का अध्ययन करलें और बृह्मा, विष्णु व महादेव के किरदारों की अपेक्षा पवित्र कुरआन की निम्न आयतों को भी देखें ।
1. कह दीजिए कि वह अल्लाह यक्ता है। वह बेनियाज (निः सपृह, निष्काम, लालसा रहित, निरपेक्ष व सर्वधार) हैं न वह किसी को जनता है न ही किसी से जना गया है, और उसके जैसा कोई नहीं है - सूरह इख्लास 1-4
2. वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई पूज्य-प्रभु नहीं, परोक्ष और प्रत्यक्ष को जानता है, वह बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है ।
वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई पूज्य नहीं, वह बादशाद है। अत्यन्त पवित्र, सर्वथा सलामती, निश्चिन्तता प्रदान करने वाला, संरक्षक, प्रभुत्वशाली, प्रभावशाली (जोडने वाला) अपनी बड़ाई प्रकट करने वाला, महान और उच्च है उस साझेदारी से जो वे (अनजान लोग उसके बारे में) कहा करते हैं
वही अल्लाह है जो संरचना का प्रारूपक है, अस्तित्व प्रदान करने वाला, रूप देने वाला है, उसी के अच्छे अच्छे नाम हैं, जो कुछ भी आकाशों में एवं पृथ्वी में है उसी का गुणगान कर रहा है, और प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है । सूरह अल-हश्र, 22, 23, 24
अगर आपने महाभारत (वन पर्व) कार्तिक महातमं, पदम पुराण, व शिव पुराण में इन्द्र महादेव बृह्मा और विष्णु आदि का अध्ययन किया होगा तो यकीनन आप पवित्र कुरआन की आयतें पढ़कर यहीं कहेंगे कि
चे निसबत-ए-खा़क रा ब आसमान-ए-पाक
फिर आप कैसे इसलाम वादियों के सर से इस्लाम व कुरआन का भूत उतारकर उनके सर पर पुराणों आदि का भूत चढ़ापायेंगे यह आपके लिए विचारणीय है ।
जहाँ तक हिन्दू धर्म की बात है तो क्योंकि उसमें कोई ऐसी बात नहीं जो आकर्षण का कारण बन सके, इसलिए अधिकांश हिन्दुत्ववादी धर्म की बात कम और संस्कृति की अधिक करते हैं, और वह भोले भाले हिन्दू देशवासियों को इस हवाले से भड़काते हैं कि हमारी संस्कृति नष्ठ हो रही है, जबकि संस्कृति का धर्म से कोई लेना देना नहीं, संस्कृति का सम्बन्ध वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन एवं क्षेत्रीय तौर तरीकों से है जो हर क्षेत्र के अलग होते हैं, उदाहरण के तौर पर अरबों की संस्कृति भारतीयों से अलग है अतः अरब जिनकी अधिकतर आबादी मुस्लिम है इस के बावजूद कोई भारतीय मुसलमान अगर अरबों कें बीच जाकर रहने लगे तो वह वहां की संस्कृति में नहीं समा पाता और उसकी पहचान एक भारतीय के तौर पर ही रहती है और वहां पर धर्म, संस्कृति की खाइयों को पाट नहीं पाता, इसका मतलब यह है कि संस्कृति और धर्म दो अलग-अलग वस्तुए हैं। इन दोनों में एक फर्क यह भी है कि धर्म के नियम अटूट होते हैं। जो बदलते नहीं , जबकि संस्कृति गतिशील होती है। अपितु यह कहा जाए कि संस्कृति को गतिशील होना चाहिये क्योंकि जो संस्कृति गतिशील नहीं होती वह स्वंय अपनी मौत मर जाती है। ‘मधोक’ जैसे हिन्दू कौम परस्त चिन्तकों की समस्या यह है कि वह धर्म को संस्कृति की चादर मे लपेट कर अपने हिन्दुत्व के नारे को लुभावना बनाने का नाकाम प्रयास करते है।
हिन्दुत्व के झंडा वाहक संगठन आर.एस.एस. के एक चोटी के नेता जो अपने संगठन के मुस्लिम विंग (जिसे राष्ट्रवादी मुस्लिम विचार मंच कहा जाता है) की निगरानी करते हैं। मुसलमानों के बीच उनके कई भाषण सुनने का अवसर प्राप्त हुआ, वह अपने अधिकतर भाषणों में विषेश रूप से जो मुद्दा उठाते हैं वह यह है-
उनका मानना है कि माता तीन हैं एक जननी माता, एक धर्ती माता और एक गव माता, वह हज़रत मुहम्मद साहब सल्ल0 की एक हदीस का हवाला देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार माँ के पैरों तले जन्नत है। ऐसे ही धर्ती माता भी स्वर्ग के समान है। अतः हमें उसकी वन्दना करने में कोई संकोच नही होना चाहिए, इसी प्रकार हमें गव माता का भी आदर और सम्मान करना चाहिये। क्योंकि हमें उस से दूध और मूत्र मिलता है। दूध हम पीते हैं तो उसके मूत्र से औषधियाँ बनायी जाती हैं।
ऐसे ही एक भाषण के बाद मैने भाषण करता से पूछ लिया कि आज आप जिस धर्ती माता की वन्दना करने को कह रहे हैं। आपकी आस्था के अनुसार कल मरनोपरान्त आप का पुनः जन्म अगर पाकिस्तान के तालिबान में हो गया तो आप हमारी इसी धर्ती के विरूद्व आतंकवादी घटनाओं में तो सम्मिलित न होंगे। अपने उत्तर मे उन्होंने मुझसे पलट कर प्रश्न किया कि अगर आप अमेरिका में पैदा हो गये तो? मेरा जवाब था कि मेरे धर्म के अनुसार, मैं अगर अपने देश में ही मरता हूं तो कल कयामत में यहीं से दोबारा उठाया जाऊंगा ।
प्रश्न यह है कि आप अपने धर्म या संस्कृति में इस्लाम से अधिक देश भक्ति तो पैदा कीजिये ।
मेरा दूसरा प्रश्न यह था कि गव माता के आदर व सम्मान का क्या यह मतलब है कि उसके मूत्र का सेवन किया जाये, उन्होंने कहा कि मैडिकली साइन्टीफिक शेध में यह बात सिद्ध हो गयी है कि उसका मूत्र कई बीमारियों में लाभकारी है। मैं ने कहा कि अगर मूत्र में ही लाभ तलाश करना है तो जन्नी माता जिस ने नौ महीने आप को अपनी कोख में रखकर पाला है इस बात की ज्यादा पात्र है कि उस के मूत्र के लाभ तलाश किये जायें। मगर अफसोस कि इन अन्याइयों ने कभी अपनी जन्मदाई माता के मूत्र पर साइन्टीफिक शोद्ध की आवशयकता न समझी, दूसरी ओर उन्हे गाय के मूत्र का साइन्टीफिक लाभ तो दिखाई दिया परन्तु मैडिकल साइन्स का यह निश्कर्ष नज़र न आया कि मूत्र में किसी भी जानदार के बदन की तमाम गन्दगियाँ सम्मिलित होती हैं। हर उचित मस्तिष्क का व्यक्ति पेशाब करने के बाद अपने हाथों को धोना चहता है और कभी किसी ने अपने पेशाब को टेस्ट न कराया कि शायद उसमे भी कुछ लाभकारी तत्व विराजमान हों।
मधोक जी अगर यही आपकी संस्कृति है और इस के बदले आप हमारे सर से इस्लाम का भूत उतारना चाहते हैं। तो यकीन जानये कि इस में आपको कामयाबी नहीं मिलेगी, क्योंकि कहाँ एक जानवर के मूत्र का सेवन और कहाँ मुहम्मद सल्ल. की हदीस के यह शब्द, कि पेशाब की छीटों से बचो क्योंकि आम तौर पर कब्र का अज़ाब उसी के कारण होता है।
हिन्दू धर्म के कुछ अन्य मूल सिद्धान्त
मधोक जी ने अपनी पुस्तक में पवित्र कुरआन की युद्ध सम्बन्धि मशहूर चैबीस आयतों पर जो कुछ टिप्पणी की है हमें उसके सम्बन्ध से कुछ नहीं कहना क्योंकि उनकी इन आपत्तियों का अनेक बार जवाब दिया जा चुका, स्वयं एक हिन्दू धर्माचार्य स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य ने ‘‘इस्लाम आतंकवाद या आदर्श’’ नामी किताब लिखकर उक्त आयतों पर आपत्तियों का भली भांति उत्तर दिया है (यह पुस्तक स्वयं स्वामी जी के निवास A 1601, आवास विकास कालोनी हंसपुरम, नोबस्ता कानपुर के पते से छापी गई है।) इस के अतिरिक्त हम ने अपनी पुस्तक ‘‘जिहाद या फसाद’’ में भी इसका उत्तर दिया है। अतः इस विषय को यही छोड़ते हुए हमें जो कुछ कहना है वह यह है कि मधोक जी ने अपनी पुस्तक मे कुरआन, इस्लाम ओर मुस्लमानों के सम्बन्ध में जो आपत्तिजनक और अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग किया है वह तो उन्ही का हिस्सा है। मुस्लमानों को वह मुसलमान न लिखकर मुहम्मदी लिखते हैं। और हज़रत मुहम्मद सल्ल. के नाम के साथ साहब तक के शब्द का प्रयोग नहीं करते, यहाँ तक कि अपनी परम्परा और संस्कृति को त्यागते हुये हज़रत मुहम्मद साहब सल्ल. के नाम पर बहुवचन क्रियाओं का प्रयोग न करते हुये एक वचन क्रियाओं का प्रयोग करते हैं। उनका यह लब-व-लहजा तो उन्हें ही मुबारक हो परन्तु हम से ऐसी गलती ना हो पाए इस लिए हिन्दू धर्म की, मान्यताओं, ग्रन्थों एवं प्रवर्तकों को समझने के लिये हम अपनी ओर से कुछ न कहते हुए, केवल हिन्दू कलमकारों के लेखों के कुछ अंश प्रस्तुत करते हैं। इस स्थान पर वेदों से कुछ मंत्र भी आ गये हैं जिन्हें पढ़कर शायद मधोक जी की समझ में आ जाये कि कुरआन की आयत तो केवल अपने ऊपर हमला करने वाले का उचित उत्तर देनें की ही शिक्षा देता है। परन्तु वेद के मंत्र ..................... ?
हिन्दू धर्म के कुछ मूल सिद्धांन्त, शिक्षाऐं और प्रवर्तक हिन्दू लेखकों के कलम से-
...........................
धार्मिकता से नैतिकता की ओरः लेखक राकेश नाथ
प्रकाशितत पुस्तक ‘‘कहां है धर्म कहां है न्याय’’ पृष्ठ 207,8,9,10
विश्व बुक, दिल्ली,
धर्म ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर देवासुर संग्राम का उल्लेख आता है। देवता स्वर्ग में विलासी जीवन बिताते थे और असुरों को छलबल से पराभूत करने के शड्यंत्र रचते रहते थे। असुरों को दुष्चरित्र सिद्ध करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। जगह-जगह उनकी निंदा की गई, केवल निंदा करने वाले उदाहरणों पर ध्यान नहीं दें तो पता चलेगा कि देवताओं और असुरों के चित्रण में कोई मौलिक अंतर नहीं था देवता भी वह सब कुकर्म करते थे जिन का आरोप असुरों पर लगाया जाता है।
असुर देवताओं से अधिक परिश्रमी और जुझारू थे, इसलिए उन्हें सफलता भी मिलती थी देवताओं को कोई अधिक श्रम वाला काम करना होता तो धर्म ग्रन्थों से मिलने वाले विवरणों के अनुसार उन के लिए उन्हें असुरों का ही सहयोग लेना पड़ता था। समुद्रमंथन की घटना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। ‘‘भागवत’’ के आठवें स्कंध में आईं इस कथा के अनुसार इंद्र के प्रस्ताव पर असुरों ने देवताओं के साथ मिलकर समुद्रमंथन शुरू किया था । समुद्र में जब अमृत निकला तो विष्णु ने स्त्री का रूप धारण करके असुरों को मोहित किया और आपस में लड़ा दिया ।
स्त्री रूप धारी विष्णु ने चालाकी से असुरों को अमृत के भाग से वंचित कर दिया और सारा अमृत देवताओं को ही बांट दिया । यह कथा सच है या गलत, यह सोचना बेकार है, लेकिन कहानी यह तो बताती है कि भगवान और देवता किस तरह छल करते थे और अधिक परिश्रम करने वालों का हिस्सा भी हड़प जाते थे।
राजा बलि का लाभ उठाकर उस का पूरा राज्य हड़प लेने और देवताओं को दे देने की कथा भी भागवत में आती है । बलि स्वभाव से उदार और दानशील था । भागवत के अनुसार उसने तीनों लोकों में अपना राज्य स्थापित कर लिया था। विष्णु ने पहले तो उस से दान मांगा और वचन लिया कि जो भी मांगा जाएगा वह बलि दे देगा। वचन लेने के बाद विष्णु ने बलि का पूरा राज्य ही ले लिया और देवताओं को दे दिया । बलि असुरों का राजा था और भागवत में आए प्रसंग के अनुसार ही वह उदार था । उस की उदारता का अनुचित लाभ उठाना नैतिक है या अनैतिक?
‘‘भागवत’’ के एक और कथा प्रसंग में देवताओं द्वारा संकट के समय साथ देने वाले विश्वरूप की हत्या का उल्लेख आता है । छठे स्कंध में आई इस कथा के अनुसार इंद्र ने देवता त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप से वैष्णवी विद्या सीखी और असुरों को जीत कर अपना राज्य वापस ले लिया। विश्वरूप की माता असुरकुल की थी।
एक यज्ञ में वह अपनी माता के वंश की भी आहुति देता है तो इन्द्र ने उस का सिर काट लिया इंद्र वहां विश्वरूप द्वारा किय गये उपकार को भूल गया और असुरों के नाम से इतना चिढ़ गया कि उपकार करने वाले की ही हत्या कर दी । उपकार करने वालों के साथ इस व्यवहार क्या नैतिक कहा जाएगा?
और स्वार्थीपने की हद देखिए कि देवता अपने एक शत्रु को मारने के लिए दघीचि के पास उन की हड्डियां मांगने पहँच गए। वृत्र नामक असुर का संहार करने के लिए जो आयुध चाहिए था वह हड्डियों से बन सकता था हड्डियां भी ऐसे व्यक्ति कि जो तपस्वी हो, देवताओं में ऐसा कोई तपस्वी था नहीं, सभी विलासी थे।
इसलिए वे दधीचि ऋषि के पास गए और उन से अपनी हड्डियां देने के लिए कहने लगे। जीवन रक्षा के लिए खून चढाने की जरूरत हो तो अति आत्मीय व्यक्ति से भी रक्तदान करने के लिए कहने में संकोच होता है। रक्तदान में यद्यपि मरने का डर नहीं रहता, लेकिन देवता जीवित व्यक्ति के पास उस की हड्डियां मांगने पहँच गये और मांग लाए, स्वार्थपरता की यह अति देवताओं के चरित्र में ही दिखाई देती है, जिन्हें हम अपना आदर्श मानते हैं।
इस तरह के कथा प्रसंग अविश्वसणीय और अस्वाभाविक हैं, लेकिन ये इस बात के द्योतक तो हैं कि धर्म ग्रन्थों में किस प्रकार की नैतिकता सिखाई गई है। छलकपट करने, दूसरों की उदारता का अनुचित लाभ उठाने और स्वार्थ में अन्धे हो जाने वाले चरित्रों को आदर्श बना कर प्रस्तुत किया गया है। तो इस से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि कथित धार्मिक युग के लोग कितने नैतिक रहे होंगे ----
‘‘यह (अर्थात कुरआन) अगर ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की ओर से होता तो इसमें विरोधाभास बहुत होता’’, निसा-82
जैसा कि हिन्दू धर्म में है ।
जैसा कि ऊपर लिखा गया है कि हिन्दू धर्म में तीन खुदाओं का उल्लेख भी मिलता है और इसे हिन्दुओं का एक बड़ा तबक़ा मान्यता भी देता है अतः इस पर चर्चा करते हैं।
उपरोक्त तीन खुदा बृह्मा, विष्णु और महादेव हैं। बृह्मा पैदा करते हैं, विष्णु पालनहार हैं, और महादेव का कार्य मारना है, इन में से अधिकतर पूजा महादेव की होती है, वह भी उन के लिंग के रूप में, शिव पुराण में इस का विस्तार से वर्णन है। इसके अतिरिक्त इन तीनों के हवाले से शिव पुराणादि ग्रंथों में जो कुछ कहा गया है, उसे अंकित करने से कलम असमर्थ दिखाई पड़ता है, क्योंकि उसे पढ़ते हुए एक शरीफ व्यक्ति कानों पर हाथ रख लेता है। मधोक जी और अनूप जी स्वयं उक्तादि ग्रंथो का अध्ययन करलें और बृह्मा, विष्णु व महादेव के किरदारों की अपेक्षा पवित्र कुरआन की निम्न आयतों को भी देखें ।
1. कह दीजिए कि वह अल्लाह यक्ता है। वह बेनियाज (निः सपृह, निष्काम, लालसा रहित, निरपेक्ष व सर्वधार) हैं न वह किसी को जनता है न ही किसी से जना गया है, और उसके जैसा कोई नहीं है - सूरह इख्लास 1-4
2. वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई पूज्य-प्रभु नहीं, परोक्ष और प्रत्यक्ष को जानता है, वह बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है ।
वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई पूज्य नहीं, वह बादशाद है। अत्यन्त पवित्र, सर्वथा सलामती, निश्चिन्तता प्रदान करने वाला, संरक्षक, प्रभुत्वशाली, प्रभावशाली (जोडने वाला) अपनी बड़ाई प्रकट करने वाला, महान और उच्च है उस साझेदारी से जो वे (अनजान लोग उसके बारे में) कहा करते हैं
वही अल्लाह है जो संरचना का प्रारूपक है, अस्तित्व प्रदान करने वाला, रूप देने वाला है, उसी के अच्छे अच्छे नाम हैं, जो कुछ भी आकाशों में एवं पृथ्वी में है उसी का गुणगान कर रहा है, और प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी है । सूरह अल-हश्र, 22, 23, 24
अगर आपने महाभारत (वन पर्व) कार्तिक महातमं, पदम पुराण, व शिव पुराण में इन्द्र महादेव बृह्मा और विष्णु आदि का अध्ययन किया होगा तो यकीनन आप पवित्र कुरआन की आयतें पढ़कर यहीं कहेंगे कि
चे निसबत-ए-खा़क रा ब आसमान-ए-पाक
फिर आप कैसे इसलाम वादियों के सर से इस्लाम व कुरआन का भूत उतारकर उनके सर पर पुराणों आदि का भूत चढ़ापायेंगे यह आपके लिए विचारणीय है ।
जहाँ तक हिन्दू धर्म की बात है तो क्योंकि उसमें कोई ऐसी बात नहीं जो आकर्षण का कारण बन सके, इसलिए अधिकांश हिन्दुत्ववादी धर्म की बात कम और संस्कृति की अधिक करते हैं, और वह भोले भाले हिन्दू देशवासियों को इस हवाले से भड़काते हैं कि हमारी संस्कृति नष्ठ हो रही है, जबकि संस्कृति का धर्म से कोई लेना देना नहीं, संस्कृति का सम्बन्ध वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन एवं क्षेत्रीय तौर तरीकों से है जो हर क्षेत्र के अलग होते हैं, उदाहरण के तौर पर अरबों की संस्कृति भारतीयों से अलग है अतः अरब जिनकी अधिकतर आबादी मुस्लिम है इस के बावजूद कोई भारतीय मुसलमान अगर अरबों कें बीच जाकर रहने लगे तो वह वहां की संस्कृति में नहीं समा पाता और उसकी पहचान एक भारतीय के तौर पर ही रहती है और वहां पर धर्म, संस्कृति की खाइयों को पाट नहीं पाता, इसका मतलब यह है कि संस्कृति और धर्म दो अलग-अलग वस्तुए हैं। इन दोनों में एक फर्क यह भी है कि धर्म के नियम अटूट होते हैं। जो बदलते नहीं , जबकि संस्कृति गतिशील होती है। अपितु यह कहा जाए कि संस्कृति को गतिशील होना चाहिये क्योंकि जो संस्कृति गतिशील नहीं होती वह स्वंय अपनी मौत मर जाती है। ‘मधोक’ जैसे हिन्दू कौम परस्त चिन्तकों की समस्या यह है कि वह धर्म को संस्कृति की चादर मे लपेट कर अपने हिन्दुत्व के नारे को लुभावना बनाने का नाकाम प्रयास करते है।
हिन्दुत्व के झंडा वाहक संगठन आर.एस.एस. के एक चोटी के नेता जो अपने संगठन के मुस्लिम विंग (जिसे राष्ट्रवादी मुस्लिम विचार मंच कहा जाता है) की निगरानी करते हैं। मुसलमानों के बीच उनके कई भाषण सुनने का अवसर प्राप्त हुआ, वह अपने अधिकतर भाषणों में विषेश रूप से जो मुद्दा उठाते हैं वह यह है-
उनका मानना है कि माता तीन हैं एक जननी माता, एक धर्ती माता और एक गव माता, वह हज़रत मुहम्मद साहब सल्ल0 की एक हदीस का हवाला देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार माँ के पैरों तले जन्नत है। ऐसे ही धर्ती माता भी स्वर्ग के समान है। अतः हमें उसकी वन्दना करने में कोई संकोच नही होना चाहिए, इसी प्रकार हमें गव माता का भी आदर और सम्मान करना चाहिये। क्योंकि हमें उस से दूध और मूत्र मिलता है। दूध हम पीते हैं तो उसके मूत्र से औषधियाँ बनायी जाती हैं।
ऐसे ही एक भाषण के बाद मैने भाषण करता से पूछ लिया कि आज आप जिस धर्ती माता की वन्दना करने को कह रहे हैं। आपकी आस्था के अनुसार कल मरनोपरान्त आप का पुनः जन्म अगर पाकिस्तान के तालिबान में हो गया तो आप हमारी इसी धर्ती के विरूद्व आतंकवादी घटनाओं में तो सम्मिलित न होंगे। अपने उत्तर मे उन्होंने मुझसे पलट कर प्रश्न किया कि अगर आप अमेरिका में पैदा हो गये तो? मेरा जवाब था कि मेरे धर्म के अनुसार, मैं अगर अपने देश में ही मरता हूं तो कल कयामत में यहीं से दोबारा उठाया जाऊंगा ।
प्रश्न यह है कि आप अपने धर्म या संस्कृति में इस्लाम से अधिक देश भक्ति तो पैदा कीजिये ।
मेरा दूसरा प्रश्न यह था कि गव माता के आदर व सम्मान का क्या यह मतलब है कि उसके मूत्र का सेवन किया जाये, उन्होंने कहा कि मैडिकली साइन्टीफिक शेध में यह बात सिद्ध हो गयी है कि उसका मूत्र कई बीमारियों में लाभकारी है। मैं ने कहा कि अगर मूत्र में ही लाभ तलाश करना है तो जन्नी माता जिस ने नौ महीने आप को अपनी कोख में रखकर पाला है इस बात की ज्यादा पात्र है कि उस के मूत्र के लाभ तलाश किये जायें। मगर अफसोस कि इन अन्याइयों ने कभी अपनी जन्मदाई माता के मूत्र पर साइन्टीफिक शोद्ध की आवशयकता न समझी, दूसरी ओर उन्हे गाय के मूत्र का साइन्टीफिक लाभ तो दिखाई दिया परन्तु मैडिकल साइन्स का यह निश्कर्ष नज़र न आया कि मूत्र में किसी भी जानदार के बदन की तमाम गन्दगियाँ सम्मिलित होती हैं। हर उचित मस्तिष्क का व्यक्ति पेशाब करने के बाद अपने हाथों को धोना चहता है और कभी किसी ने अपने पेशाब को टेस्ट न कराया कि शायद उसमे भी कुछ लाभकारी तत्व विराजमान हों।
मधोक जी अगर यही आपकी संस्कृति है और इस के बदले आप हमारे सर से इस्लाम का भूत उतारना चाहते हैं। तो यकीन जानये कि इस में आपको कामयाबी नहीं मिलेगी, क्योंकि कहाँ एक जानवर के मूत्र का सेवन और कहाँ मुहम्मद सल्ल. की हदीस के यह शब्द, कि पेशाब की छीटों से बचो क्योंकि आम तौर पर कब्र का अज़ाब उसी के कारण होता है।
हिन्दू धर्म के कुछ अन्य मूल सिद्धान्त
मधोक जी ने अपनी पुस्तक में पवित्र कुरआन की युद्ध सम्बन्धि मशहूर चैबीस आयतों पर जो कुछ टिप्पणी की है हमें उसके सम्बन्ध से कुछ नहीं कहना क्योंकि उनकी इन आपत्तियों का अनेक बार जवाब दिया जा चुका, स्वयं एक हिन्दू धर्माचार्य स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य ने ‘‘इस्लाम आतंकवाद या आदर्श’’ नामी किताब लिखकर उक्त आयतों पर आपत्तियों का भली भांति उत्तर दिया है (यह पुस्तक स्वयं स्वामी जी के निवास A 1601, आवास विकास कालोनी हंसपुरम, नोबस्ता कानपुर के पते से छापी गई है।) इस के अतिरिक्त हम ने अपनी पुस्तक ‘‘जिहाद या फसाद’’ में भी इसका उत्तर दिया है। अतः इस विषय को यही छोड़ते हुए हमें जो कुछ कहना है वह यह है कि मधोक जी ने अपनी पुस्तक मे कुरआन, इस्लाम ओर मुस्लमानों के सम्बन्ध में जो आपत्तिजनक और अपमान सूचक शब्दों का प्रयोग किया है वह तो उन्ही का हिस्सा है। मुस्लमानों को वह मुसलमान न लिखकर मुहम्मदी लिखते हैं। और हज़रत मुहम्मद सल्ल. के नाम के साथ साहब तक के शब्द का प्रयोग नहीं करते, यहाँ तक कि अपनी परम्परा और संस्कृति को त्यागते हुये हज़रत मुहम्मद साहब सल्ल. के नाम पर बहुवचन क्रियाओं का प्रयोग न करते हुये एक वचन क्रियाओं का प्रयोग करते हैं। उनका यह लब-व-लहजा तो उन्हें ही मुबारक हो परन्तु हम से ऐसी गलती ना हो पाए इस लिए हिन्दू धर्म की, मान्यताओं, ग्रन्थों एवं प्रवर्तकों को समझने के लिये हम अपनी ओर से कुछ न कहते हुए, केवल हिन्दू कलमकारों के लेखों के कुछ अंश प्रस्तुत करते हैं। इस स्थान पर वेदों से कुछ मंत्र भी आ गये हैं जिन्हें पढ़कर शायद मधोक जी की समझ में आ जाये कि कुरआन की आयत तो केवल अपने ऊपर हमला करने वाले का उचित उत्तर देनें की ही शिक्षा देता है। परन्तु वेद के मंत्र ..................... ?
हिन्दू धर्म के कुछ मूल सिद्धांन्त, शिक्षाऐं और प्रवर्तक हिन्दू लेखकों के कलम से-
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धार्मिकता से नैतिकता की ओरः लेखक राकेश नाथ
प्रकाशितत पुस्तक ‘‘कहां है धर्म कहां है न्याय’’ पृष्ठ 207,8,9,10
विश्व बुक, दिल्ली,
धर्म ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर देवासुर संग्राम का उल्लेख आता है। देवता स्वर्ग में विलासी जीवन बिताते थे और असुरों को छलबल से पराभूत करने के शड्यंत्र रचते रहते थे। असुरों को दुष्चरित्र सिद्ध करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। जगह-जगह उनकी निंदा की गई, केवल निंदा करने वाले उदाहरणों पर ध्यान नहीं दें तो पता चलेगा कि देवताओं और असुरों के चित्रण में कोई मौलिक अंतर नहीं था देवता भी वह सब कुकर्म करते थे जिन का आरोप असुरों पर लगाया जाता है।
असुर देवताओं से अधिक परिश्रमी और जुझारू थे, इसलिए उन्हें सफलता भी मिलती थी देवताओं को कोई अधिक श्रम वाला काम करना होता तो धर्म ग्रन्थों से मिलने वाले विवरणों के अनुसार उन के लिए उन्हें असुरों का ही सहयोग लेना पड़ता था। समुद्रमंथन की घटना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। ‘‘भागवत’’ के आठवें स्कंध में आईं इस कथा के अनुसार इंद्र के प्रस्ताव पर असुरों ने देवताओं के साथ मिलकर समुद्रमंथन शुरू किया था । समुद्र में जब अमृत निकला तो विष्णु ने स्त्री का रूप धारण करके असुरों को मोहित किया और आपस में लड़ा दिया ।
स्त्री रूप धारी विष्णु ने चालाकी से असुरों को अमृत के भाग से वंचित कर दिया और सारा अमृत देवताओं को ही बांट दिया । यह कथा सच है या गलत, यह सोचना बेकार है, लेकिन कहानी यह तो बताती है कि भगवान और देवता किस तरह छल करते थे और अधिक परिश्रम करने वालों का हिस्सा भी हड़प जाते थे।
राजा बलि का लाभ उठाकर उस का पूरा राज्य हड़प लेने और देवताओं को दे देने की कथा भी भागवत में आती है । बलि स्वभाव से उदार और दानशील था । भागवत के अनुसार उसने तीनों लोकों में अपना राज्य स्थापित कर लिया था। विष्णु ने पहले तो उस से दान मांगा और वचन लिया कि जो भी मांगा जाएगा वह बलि दे देगा। वचन लेने के बाद विष्णु ने बलि का पूरा राज्य ही ले लिया और देवताओं को दे दिया । बलि असुरों का राजा था और भागवत में आए प्रसंग के अनुसार ही वह उदार था । उस की उदारता का अनुचित लाभ उठाना नैतिक है या अनैतिक?
‘‘भागवत’’ के एक और कथा प्रसंग में देवताओं द्वारा संकट के समय साथ देने वाले विश्वरूप की हत्या का उल्लेख आता है । छठे स्कंध में आई इस कथा के अनुसार इंद्र ने देवता त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप से वैष्णवी विद्या सीखी और असुरों को जीत कर अपना राज्य वापस ले लिया। विश्वरूप की माता असुरकुल की थी।
एक यज्ञ में वह अपनी माता के वंश की भी आहुति देता है तो इन्द्र ने उस का सिर काट लिया इंद्र वहां विश्वरूप द्वारा किय गये उपकार को भूल गया और असुरों के नाम से इतना चिढ़ गया कि उपकार करने वाले की ही हत्या कर दी । उपकार करने वालों के साथ इस व्यवहार क्या नैतिक कहा जाएगा?
और स्वार्थीपने की हद देखिए कि देवता अपने एक शत्रु को मारने के लिए दघीचि के पास उन की हड्डियां मांगने पहँच गए। वृत्र नामक असुर का संहार करने के लिए जो आयुध चाहिए था वह हड्डियों से बन सकता था हड्डियां भी ऐसे व्यक्ति कि जो तपस्वी हो, देवताओं में ऐसा कोई तपस्वी था नहीं, सभी विलासी थे।
इसलिए वे दधीचि ऋषि के पास गए और उन से अपनी हड्डियां देने के लिए कहने लगे। जीवन रक्षा के लिए खून चढाने की जरूरत हो तो अति आत्मीय व्यक्ति से भी रक्तदान करने के लिए कहने में संकोच होता है। रक्तदान में यद्यपि मरने का डर नहीं रहता, लेकिन देवता जीवित व्यक्ति के पास उस की हड्डियां मांगने पहँच गये और मांग लाए, स्वार्थपरता की यह अति देवताओं के चरित्र में ही दिखाई देती है, जिन्हें हम अपना आदर्श मानते हैं।
इस तरह के कथा प्रसंग अविश्वसणीय और अस्वाभाविक हैं, लेकिन ये इस बात के द्योतक तो हैं कि धर्म ग्रन्थों में किस प्रकार की नैतिकता सिखाई गई है। छलकपट करने, दूसरों की उदारता का अनुचित लाभ उठाने और स्वार्थ में अन्धे हो जाने वाले चरित्रों को आदर्श बना कर प्रस्तुत किया गया है। तो इस से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि कथित धार्मिक युग के लोग कितने नैतिक रहे होंगे ----
देवताओं के साथ साथ भगवान के अवतार भी अनैतिक आचरण करते थे। कई स्थललों पर तो उन का आचरण अनैतिकता की हद से भी आगे अपराधपूर्ण लगता है। इस तरह के कृत्य यदि कोई आज करे तो कानून में उसे दंड देने की व्यवस्था है। भविष्यपुराण में उल्लेख आता है कि ब्रह्म्रा, विष्णु और महेश ने क्रमशः अपनी पुत्री, माता और बहन को पत्नी बना कर श्रेष्ठ पद प्राप्त किया ।
स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विश्णु देवो मातरम् !
भगिनीं भगवा´छंभु गृहीत्वा श्रेश्ठतामगात् !!
- प्रतिसर्ग खं. 4,18,27
अर्थात ब्रह्मा अपनी लड़की को, विष्णु देव अपनी माता को और शंभु अपनी बहन को ग्रहण कर के श्रेष्ठ पद को प्राप्त हुए ।
वेद में भी इस का उल्लेख हैः
पिता दुहितुर्गर्भंमाधात्
- अथर्व 9,10,12
अर्थात पिता ने बेटी में गर्भ धारण किया?
मातुर्दिधिषुमब्रवं स्वसुर्जारः
श्रृणोतु नः भातेंद्रस्य सखा मम.
- ऋग्वेद 6,55,5
अर्थात मैं मां के उपपति को कहता हूं. वह बहन का जार हमारी प्रार्थना को सुने, जो इंद्र का भ्राता है और मेरे मित्र है ।
‘‘भागवत’’ के तीसरे स्कंध में ब्रह्मा द्वारा पुत्री को चाहने का स्पष्ट उल्लेख आया है इस प्रसंग का अंश इस प्रकार हैः
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयंभूर्हरती मनः
अकामा चकमे क्षत्रः सकाम इति नः
श्रुतम् तमधरम्मे कृतमति विलोक्य पितरं सुताः
मरीचि मुख्या ऋषयो विश्रंभात्प्रत्यबोधयन् नैतत्पूर्वेः
कृतं त्पद्ये न करिष्यंति चापरे !
- 3,12,28,30
अर्थात काम से वशीभूत हो कर स्वंयभू ने वाक नाम पुत्री को चाहा, पिता की यह बुद्वि देख कर मरीचि आदि पुत्रों नें समझाया कि ऐसा कर्म न किसी ने किया है, न अब होगा न ही आगे करेंगे।
अथर्ववेद में तो पिता द्वारा पुत्री में गर्भस्थापित करने का उल्लेख है।
‘पिता दुहितुर्गर्भसमाधात्’
- 9,10,12,
अर्थात पिता ने पुत्री में गर्भ स्थापित किया.
धर्मग्रंथों में जिन पात्रों को आदर्श बताया गया है उन में कामुकता की पराकाष्ठा देखी जा सकती है। जहां भी सुंदर स्त्री दिखाई दी, उसे प्राप्त करने और भोगने के तानेबाने बुने जाने लगे. ब्रहा्रा के संबंध मे शिवपुराण में उल्लेख आता है कि पार्वती के विवाह में ब्रह्मा पुरोहित बने थे। उन्होंने पार्वती का पांव देखा और इस कदर कामातुर हो उठे कि कर्मकांड करातेकराते ही स्खलित हो गए।
भागवत में उल्लेख आता है कि शिव की रक्षा के लिए विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया तो शिव उसी रूप पर मुग्ध हो गए और उस के पीछे दीवाने होकर भागे।
भविष्यपुराण में आई एक कथा के अनुसार अत्रि ऋशि की पत्नी अनुपम सुंदरी थी। ब्रह्मा , विष्णु, महेश तीनों उस के पास गए। ब्रह्मा ने निर्लज्ज हो कर अनुसूया से रतिसुख मांगा और तीनों देवता अश्लील हरकतें करने लगे।
गौतम के वेश में इंद्र द्वारा अहल्या से व्यभिचार की कथा रामायण और ब्रहा वैवर्त पुराण में आती है। अनैतिकता की पराकाष्ठा देखिए कि इस का दंड बेचारी निर्दोष अहल्या को भोगना पड़ा था।
भागवत (9.14) और देवी भागवत में चंद्रमा द्वारा गुरू की पत्नी को अपने पास रखने की कथा आती है गुरू ने अपनी पत्नी बार-बार वापस मांगी तो भी चन्द्रमा ने उसे वापस नहीं लैटाया। लंबे अरसे तक साथ रहने के कारण चंद्रमा से तारा को एक पुत्र भी हुआ जो चन्द्रमा को ही दे दिया गया ।
देवताओं के गुरू बृहस्पति ने स्वयं अपने भाई की गर्भवती पत्नी से बलात्कार किया देवताओं ने ममता ( बृहस्पति की भावज ) को उस समय काफी बुराभला कहा जब उसने बृहस्पति की मनमानी का प्रतिरोध करना चाहा।
इन प्रसंगों के सही गलत होने का विवेचन करने की आवशयकता नहीं है। इन का उल्लेख इसी दृष्टि से किया जा रहा है धर्म ग्रन्थों में उल्लेखित पात्रों को किनं मानदडों पर आदर्श सिद्ध किया गया है । उन का समय दूसरों की पत्नी छीनने व व्यभिचार करने में बीतता था तो वे लोगों को नैतिकता का पाठ कब सिखाते थे और कैसे सिखाते थे ।
इंद्र का तो सारा समय ही स्त्रियों के साथ राग रंग में बीतता था वह जब असुरों से हार जाते तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश की सहायता से षड्यंत्र रच कर अपना राज्य वापस प्राप्त करते और फिर उन्ही रागरंगों में रम जाते। अप्सराओं के नाच देखना, शराब पीना, और दूसरा कोई व्यक्ति अच्छे काम करता तो उस में विध्न पैदा करना यही इंद्र की जीवनचर्या थी । इस की पुष्ठि करने वाले ढेरों प्रसंग धर्मषास्त्रों में भरे पडे़ हैं।
महाभारत के तो हर अघ्याय में झूठ, बेईमानी और धूर्तता की ढेरों कहानियां हैं। धर्मराज युधिष्ठिर, जिन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जीवन में कभी पाप नही किया, जुआ खेल कर राजपाट हार गए और पत्नी को भी दाव पर लगा बैठे, युधिष्ठिर के इस कृत्य की द्रौपदी और धृतराष्ट के ही एक पुत्र विकर्ण ने भर्त्सना की थी। ‘‘महाभारत’’ की लड़ाई के लिए कोई एक घटना मूल कारण है तो वह युधिष्ठिर का जुआ खेलना और द्रौपदी को दांव पर लगाना है। इतने बड़े युद्व का कारण धार्मिक भले ही हो, पर नैतिक कहां रह जाता है ?
दूसरे धर्मावतार भीष्म ने एक राजकुमारी अंबा का अपहरण किया तथा न खुद उससे विवाह किया और न ही दूसरी जगह होने दिया । अंबा को इस संताप के कारण आत्महत्या करनी पड़ी ।
कुंती के चारों पुत्र कर्ण, युघिष्ठिर , भीम और अर्जुन परपुरूषों से उत्पन्न हुए थे । कर्ण तो विवाह से पहले ही जन्म ले चुका था.
स्वयंवर में द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाली थी। किन्तु पांचों भाइयों ने उसके साथ संयुक्त विवाह का निश्चय किया। पांचाल नरेश ने इसका विरोध किया तो युधिष्ठिर ने ही जिद की और अपनी बात मनवाई ।
संपूर्ण धर्म वाड्.मय इस तरह की विसंगतियों से भरा हुआ है इसे कथित धार्मिक युग का प्रतिबिंब भी कह सकते हैं और धर्म का आदर्श भी कह सकते हैं । जिनमें नैतिक गुणों का कोई महत्व नहीं है ।
इन प्रसंगों से यही सिद्व होता है कि अनैतिकता को तब धर्मगुरूओं की स्वीकृति मिली हुई थी। दानदक्षिणा, पूजापाठ, कर्मकांड, यज्ञ, हवन आदि धार्मिक क्रियाकृत्य करते हुए कैसा भी आचरण किया जाता तो वह सभ्य था । जरूरी इतना भर था कि ब्राह्मणों के स्वार्थ पुरे किये जाते रहें-
नैतिक कौन?
असुर देवताओं और धार्मिक लोगों की तुलना में अधिक नैतिक थे । वे देवताओं से युद्ध जरूर लड़ते थे, लेकिन युद्ध में उन्होंने बेईमानी प्रायः नहीं की । देवताओं की स्त्रियों को भी उन्होंने परेशान नहीं किया अपमान का बदला लेने के लिए रावण सीता का हरण कर के ले तो गया था, पर उस ने सीता को लंका में बड़े ही आदर से रखा था ।
राम ने शूर्पनखा के प्रणय निवेदन को ठुकराया, वहाँ तक तो ठीक है, लेकिन उसे लक्ष्मण के पास प्रणय प्रस्ताव ले कर जाने और बाद में नाककान काट लेने का भद्दा मजाक और दुव्र्यवहार करने का क्या औचित्य था? रावण यदि इसी स्तर पर प्रतिशोध लेना चाहता तो सीता की शील रक्षा असंभव थी । इस स्थिति में कौन ज्यादा नैतिक था - राम या रावण ? -
‘‘कहाँ है धर्म कहाँ है न्याय’’, पृष्ठ 207,8,9,10, लेखकः राकेष नाथ
सरिता और हिन्दू समाजः रमाकान्त दूबे के लेख से, प्रकाशित सरिता-मुक्ता प्रिंट 1 ता 12, विश्व बुक दिल्ली ।
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उदाहरण के लिए आप अपने धर्मग्रन्थों को शुरू से देखते जाएं, सब से पहले तो ‘ऋग्वेद’ ही हमारा परम ग्रन्थ है। लेकिन इस में आर्य जाति द्वारा भारत के मूल निवासियों (दास, दस्यु आदि) के जातीय संहार का जैसा वर्णन किया गया है, तथा आर्यो के परम इष्टदेव (इंद्र) का जैसा चरित्र चित्रण हुआ है, क्या वह सब आज के युग में किसी सभ्य व समुन्नत राष्ट्र के आदर्श बन सकते हैं?
आर्यों कि हिंसावृत्ति तथा उन के परम देव इंद्र के कारनामों का यह लेखा जोखा देखिएः
‘‘हमारे चारों ओर दस्यु जाति है, यह यज्ञ नही करती, कुछ मानती नहीं, यह अन्यव्रत व अमानुष है, हे शत्रुहंता इंद्र, तुम इस का वध करने वाले हो, दास का भेदन करो’’ (ऋ-10-22, 8)
‘‘इंद्र, तुम यज्ञाभिलाषी हो, जो तुम्हारी निंदा करता है उस का धन अपहृत कर के तुम प्रसन्न होते हो, प्रचुरधन इंद्र, तुम हमें (अपनी) दोनों जाघों के बीच छिपाओ, शत्रुओं को मारो, अस्त्र से दास को मार डालो’’ (ऋ-8-59, 10)
‘‘हे इन्द्र, तुम ने पचास हजार काले लोगों को मारा’’ (ऋ-4-16, 13)
‘‘इंद्र, तुम समस्त अनार्यो को समाप्त करो....’’ (1-113, 5)
‘‘तुम ने पृथ्वी को दास की शय्या बना दिया है’’(ऋ-1-174, 7)
‘‘रक्षाशून्य दुर्गम स्थान से जाने वाले व्यक्ति को चोर मार डालता है, उसी तरह इंद्र ने बहुसहस्त्र सेनाओं का वध किया है’’ (4-28,3)
‘‘इंद्र ने असुरों (अनार्यो) के धन पर तुरन्त उसी तरह अधिकार कर लिया, जिस तरह सोए हुए मनुष् के धन पर अधिकार जमाया जाता है’’ (ऋ-1-53- 1)
‘‘इंद्र और अग्नि, तुम लोगों ने एक ही बार की चेष्टा से दासों के 90 नगरों को एक साथ कंपित किया था’’ (1-130, 7)
(इंद्र कहते है) ‘‘मैं ने सोमपान में मस्त हो कर शंबर (दास राजा) के 99 नगरो को एक काल में ही ध्वस्त किया था’’ (4-26, 3)
(इंद्र कहते है) ‘‘मेरे लिए इंद्राणी कं द्वारा प्रेरित्र याज्ञिक लोग 15-20 सांड या बैल पकाते हैं उन्हे खा कर मैं मोटा होता हूं, मेरी दोनों कुक्षियों को याज्ञिक लोग सोम से भरते हैं’’ (10-86, 14)
ये सब हमें क्या सीख देते हैं? यही कि जो लोग हमारी जाति के न हों, अथवा हमारे धर्म को ना मानते हों, उन का हमें संहार कर देना चहिए, हमें दूसरे देशों पर आक्रमण करना चाहिए और अगर वहां के लोग नतमस्तक हो कर हमारी सत्ता स्वीकार न करें तो हमें उनके नगरों की ईंट से ईंट बजा देनी चाहिए, और उन की स्त्रियों के पेट फाड़ डालने चाहिए, ताकि उन की जाति का नामनिशान ही मिट जाए
क्या आप इस बात को पसंद करेगें कि यदि हमें अपेक्षित शक्ति हो तो हमे आज भी इन्ही आदर्शों का पालन करना चहिए? हम जिस देश में जाएं, वहाँ के लोगों का धन हमें हड़प लेना चाहिए? हमें अपने एक-एक आराध्य देव को खुश करने के लिए दर्जनों सांड या बैल मार कर पकाने चाहिएं और नशा करने के लिए भंग (सोम) के कईकई घडे़ भर कर रखने चाहिएं?
वेदों मे क्या है?
‘ऋग्वेद’ में सिर्फ यही कुछ नहीं है, वहाँ एक-एक यज्ञ में सैकड़ों घोड़ों, गाय, बैलों, भेड-बकरियों व अन्य जानवरों की बलि चढ़ाने का विधान है यहाँ तक कि नरबलि का संकेत भी मौजूद है (देखिए ऋ. 10-91,14,15 व 1-24, 13-15) क्या आप के विचार में हमें यह सब करना चाहिए? और यदि हम करें अथवा कर सकें तो हम आज के युग में ‘‘साधारण मनुष्य कहलाने के भी अधिकारी रह जाएंगे?, चरित्रवान व नैतिकता सम्पन्न होने की तो बात ही क्या?
चलिए, वेदों को छोड़िए, उन की तो आज उतनी मान्यता भी नहीं रही, न उन में बताए गये विधिविधानों के अनुसार आचरण करने की आज कुछ अधिक गुंजाइश ही है, बाद के दर्शनशास्त्रों और ग्रन्थों को ही ले लीजिए, जिन के द्वारा स्थापित प्रायः सभी मापदंड व आदर्श आज के हिंदू समाज के भी आदर्श बने हुए है ? ये ही सब शास्त्र हमें क्या पाठ पढ़ाते हैं? और हमें हमारे निजी व पारिवारिक तथा सामाजिक व राष्ट्री जीवन में किस प्रकार के आचरण का उपदेश देते हैं?
उपनिशदों की अलग अलग दार्षनिक दुकानों में हमें वेदों का हर देवता और कुछ नए देवता, बारीबारी से परमात्मा बनते दिखाई देते हैं हर देवता अपने को श्रेष्ठ बताकर शेष्ा सब देवताओं को अपने से समाविष्ठ घोषित करता है ।
रामायण को ही लीजिए राजा दशरथ तीन विवाह करते हैं पर पुत्र उतपन्न नहीं कर पाते, इसलिए श्रृंगी ऋशि को पुत्रोष्टि यज्ञ के लिए बुलाया जाता है, यज्ञ के लिए पुराने और बूढे पंडितों की क्या कमी थी जो इस नवयुवक को बुलाया गया, लेकिन यह ‘‘यज्ञ’’ हवन न होकर नियोग द्वारा दशरथ की रानियों को गृभवति करना था । जो दशरथ करने में असमर्थ थे ।
फिर सीता के माता पिता का कोई ठोर ठिकाना नहीं मिलता कहा जाता है कि वे राजा जनक को खेतों में पड़ी मिली थी - जैसे आजकल अवैध बच्चे सड़कों पर पड़े मिल जाते हैं
अब महाभारत को ही लिजिए, इस में ऐसे-ऐसे महापुरूषों का चरित्रचित्रण है कि कहते हैं सम्राट अकबर ने जब अपने दरबारी विद्वान को इस का फारसी अनुवाद करने को कहा और कुछ दिनों के बाद पूछा कि उस ने इस ग्रन्थ में क्या पाया तो विद्वान को विवष होकर कहना पडा कि ‘‘जहाँपनाह, वैसे तो सब ठीक है मगर इस ग्रन्थ में उल्लेखित एक भी व्यक्ति हलालजादा (वैध संतान) नहीं है। सब के सब ऐसे ही पैदा हो गए हैं।’’
उस विद्वान की यह उक्ति काफी हद तब सही थी, क्योंकि महाभारत के अधिकतर पात्रों के जन्म लेने में या तो ‘नियोग प्रथा’ का खुला हाथ था अथवा स्वच्छंद व्यभिचार व बलात्कार का ।
धृतराष्ट्र , पांडु और विदुर तीनों भाई विचित्रवीर्य की स्त्री से व्यासजी द्वारा पैदा होते हैं। अंधे धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों का जन्म भी प्राकृतिक नहीं है, बल्कि वे सब रानी गांधारी के पेट से एक पिंड के रूप में ऐसे ही निकल पड़ते हैं। फिर पांडु के पांच पुत्र -युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव पांच अन्य व्यक्तियों के नाम से पैदा होते हैं । कुन्ती का पुत्र कर्ण बलात्कार की यादगार है। यही बात कई महापुरूषों पर भी लागू होती है। जो इस धार्मिक महाकाव्य में अपनी भूमिकाएं अदा करते हैं जैसे द्रोणाचार्य के बारे में कहा गया है कि वह एक दोने से पैदा हुए । जिस में किसी का वीर्य पड़ा हुआ था ।
सरिता-मुक्ता प्रिंट 1 ता 12,
लेखकः रमाकान्त दूबे , विश्व बुक दिल्ली ।
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हमारे आदर्शहीन आदर्श
डा0 राकेष नाथ के लेख से प्रकाशित बुक ‘‘कितने खरे हमारे आदर्श’’ पृष्ठ 16,17,18, विश्व बुक दिल्ली ।
मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाने वाले राम को जब यह पता चला कि उनके राज्य में एक शूद्र शंबूक तपस्या कर रहा है, तो उन्होंने उस का सिर काट डाला, श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन को जब पता चला कि एकलव्य नामक शूद्र उन्ही की तरह धनुर्विद्या में कुशल हो गया है तो उन्होंने गुरू से कहकर गुरू दक्षिणा के नाम पर उस का अंगूठा ही कटवाकर उसे सदा के लिऐ इस विद्या के उपयोग से वंचित कर दिया
सब से दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह रही कि हमारे आदर्श दूसरे देशों के आदर्शों की तुलना में चारित्रिक विसंगतियों के अधिक शिकार रहे। राम ने एक शूद्र शबरी को गले लगाया तो दूसरे शूद्र (शंबूक) का वध कर दिया, एक तरफ अपनी पत्नी को पवित्र भी माना तो दूसरी ओर उसकी अग्निपरीक्षा लेकर भी उसे गर्भावस्था में वनवास दिया।
काम का मर्दन करने वाले शिव विष्णु के मोहिनी रूप के पीछे कामासक्त हो कर पागल की तरह ऐसे भागे कि मार्ग में ही उनका वीर्य स्खलित हो गया, विष्णु ने जालंधर को मारने के बहाने उस की सतीसाधवी पत्नी के साथ छल कर के कुकर्म किया, ब्रह्मा जी की नीयत अपनी लड़की सरस्वती के प्रति भी साफ नहीं थी, श्री कृष्ण की रसलीलाओं ने हिंदूधर्म का जो नुकसान किया वह सर्वविदित है ही ।
यही हाल हमारे अन्य देवीदेवताओं व ऋषिमुनियों का रहा । इंद्र ने अपनी गुरूपत्नी अहिल्या के साथ, चंद्र ने देवगुरू बृहस्पति की पत्नी तारा के साथ, सूर्य ने कुमारी कुन्ती के साथ, पराशर ने धीवर कन्या सरस्वती के साथ, विश्वामित्र ने मेनका के साथ, भारद्वाज ने घृताची के साथ, तथा विशिष्ठ ने यक्षमाला के साथ जो अपने अनैतिक व्यवहार का प्रदर्शन किया वह किसी भी स्थिति में गर्व करने की बात नहीं है।
स्त्रियों में यद्यपि सीता और सावित्री को आदर्श माना गया है। और हिन्दू शास्त्रों में जिन पंचकन्याओं की महिमा गाने व स्मरण करने का विधान है वे हैं अहल्या, मंदोदरी, तारा, कुन्ती व द्रौपदी, संयोग से ये सभी एक से अधिक पतियों वाली थीं, समझ में नही आता कि हिंदू धर्म में आदर्शों का ऐसा स्वरूप क्यों रहा अगर ये इतिहासिक थे तो हम ने चारित्रिक विसंगतियों वाले आदर्श क्यों चुने? और अगर पोराणिक थे तो ऐसी विकृत चरित्रों की कल्पना क्यों की और उन को समाज पर क्यो थोपा? ऐसे आदर्शों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ सकता था, यह कहने की आवश्यकता नहीं ।
ये ही चारित्रिक विसंगतियां हमें विरासत में ज्यों की त्यों मिली। जब तक हम आध्यात्मिक व धार्मिक उपलब्घि में रहे तब तक हम आचरण से हीन रहे ।
‘‘कितने खरे हमारे आदर्श’’ पृष्ठ 16,17,18
लेखक: डा0 राकेष नाथ, विश्व बुक दिल्ली ।
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कुछ और अंश देखें
श्री कृष्ण ने अपनी सारी सेना तो कौरवों को दी और स्वयं निहत्थे पांडवों की ओर रहे ताकि जो जीते, उनका आभारी रहे । जिस देश समाज व धर्म में महान व आदर्श पुरूष भी अपने भाई से छल, कपट व कूटनीति द्वारा विजयी हों, वहां साधारण व्यक्ति के सदाचार की क्या आवश्यकता है? (सरिता मुक्ता (1) पृष्ठ 7
हमारे यहाँ धर्म शास्त्रों में विधान है कि वेद का एक शब्द भी शुद्र (और स्त्री और वैश्य) के कान में पड़ जाए तो उस के कान में गरम सीसा भर दिया जाए, इस के अतिरिकत हमारे सारे ग्रंथ संस्कृत में हैं और इस तथाकथित देवभाषा संस्कृत को (अंग्रेजों के आने से पहले) सिवाए कुछ ब्राह्मणों के किसी को भी पढ़ने का अधिकार तक ही नही था। - उक्त पृष्ठ नं0 8
हमारे पुराणों में ऐसी ऐसी बातें भरी पड़ी हैं कि किसी सभ्य समाज में बैठ कर उन्हें पढ़ना तक संभव नही है। लेकिन हिदू समाज न सिर्फ इन अनहोनी और ऊटपटांग बातों पर विष्वास करता है, बल्कि बड़ी श्रद्धा के साथ इन्हें भगवान की लीला मान कर आज के वैज्ञानिक आविष्कारों को उन के आगे तुच्छ हेय बताता है -उक्त पृष्ठ 14
हमारी स्मत्रियों गृह सूत्रों व धर्मशास्त्रों में वर्ण व्यवस्था की जैसी व्याख्या की गई है, क्या आज के युग में भी हम उसी के अनुसार आचरण करें ? क्या आज भी यदि वेद का एक शब्द किसी शुद्र के कान में पड़ जाये तो हम पिघला हुआ सीसा उसके कानों के भर दें ? क्या आज भी किसी कला में निपुण होनें वाल शुद्र का अंगूठा काट लिया जाए जैसा के द्रोण ने एकलव्वय के साथ किया था । अथवा तपस्या करने वाले शुद्र की गर्दन ही उडा दी जाए?, जैसा की स्वयं भगवान राम ने किया था । -उक्त पृष्ठ 14
लैला मजनू और शीरीं फरहाद की प्रेम कहानियां पश्चिम एशिया में भी हैं लेकिन वहां मजनू या फरहाद को देवता या परमात्मा नहीं बनाया गया । ये गौरव सिर्फ भारत को प्राप्त है कि यहां के अविवाहित आशिक माशूक (कृष्ण-राधा) परमात्मा हैं और राधे कृष्ण कह-कह कर बड़े बड़े वैरागी भी उनकी माला जपते हैं ।
हमारे देश में ऐसे मन्दिर भी हैं जहां (काम शास्त्र के) चैरासी आसन मूर्तियों के रूप में दिखाये गये हैं स्त्री पुरूष के विशेष चिन्हों (गुप्तांगों) को संभोग की अवस्था में मूर्ति मंत कर शिवालियों में विराजमान करके पूजा जाना यहां का परम धर्म है, फिर मिट्ट ट्टी मिटटी पत्थर की मूर्तियां (शिव लिंग व योनियां आदि) ही अश्लील नहीं है, दिगम्बर जैनियों के नग्न मुनि तो जीवित अश्लीलता है। वे शहरों में नंगे घूमते हैं । घरों में जाकर स्त्रीयों के हाथ से भोजन लेते हैं और खड़े खडे़ भोजन लेते हैं ताकि जीवित अश्लीलता एक क्षण को भी नज़रों से ओझल न हो सके। (उक्त पृष्ठ 13 )
यह थोथे हमारे आदर्श और सिद्धान्त
डा0 राकेष नाथ के लेख से
प्रकाशित बुक ‘‘कितने खरे हमारे आदर्ष ’’ पृष्ठ 8,9,10
ब्राह्मण महिमा
मानवता की दृष्टि से मानव मात्र एक समान है, उन में कोई ऊंचनीच नहीं है और कम से कम जन्म से तो कोई ऊंच या नीच नहीं माना जाना चाहिए। अच्छे और बुरे कर्मो के लिहाज़ से हम चाहें तो उन में विभेद कर सकते हैं, परन्तु न्याय की दृष्टि में तो सभी एक होने चाहिएं (यही इस्लामी सिद्धान्त भी है) लेकिन मनु महाराज अपनी स्मृति का प्रारम्भ करते हुए लिखते है-
भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीवनः
बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राहाणाः समृताः
- अध्याय 1, श्लोक 96 ।
(जीवों में प्राणधारी, प्राणधारियों में बुद्धिमान, बुद्धिमानों में मनुष्य एंव मनुष्यों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ कहे गये है )
सर्व स्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किचिज्जगतो गतम्
श्रेष्ठ्येनाभिजनेनेदं सर्व वै ब्राह्मणोर्हति
(पृथ्वी पर जो कुछ धन है वह सब ब्रह्मण का है । उत्पत्ति के कारण श्रेष्ठ होने से यह सब ब्राह्मण के ही योग्य है)
उपर्युक्त श्लोकों से स्पष्ट प्रकट होता है कि हमारे न्यायमूर्ति मनु महाराज ने मनुष्यों में एक वर्ग को सर्वश्रेष्ठ घोशित कर के सब कुछ उसे भोग करने की खुली छूट दे दी है। केवल इतने से ही उन्हे संतोष नहीं हो गया, ऊंच, नीच, घृणा की यह खाई और अधिक गहरी होती चली जाए, इस के लिए उन्होंने विधान किया:
मांगल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्
वैष्यस्य धनसंयुक्तं, शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् -अध्यया 2, ष्लोक 31
(ब्राह्मण का नाम मंगलयुक्त, क्षत्रिय का बलयुक्त, वैष्य का धनयुक्त एंव शूद्र का निंदायुक्त होना चहिए)
तात्पर्य यह कि शूद्र को पगपग पर भान होता रहे कि वह नीच है और जीवन में वह कभी उन्नति न कर सके, ताकि द्विजों के लिऐ सेवकों कि कमी ना हो जाए, और फिर यह सेवक कहीं शरीरिक दृष्टि से भी इतने स्वस्थ ना हो जाएं कि वे द्विजों की प्रतिस्पर्धा करें, अतः उन के लिए जहां एक ओर उच्छिष्ट भोजन आदि की व्यवस्था की गई, वहां दूसरी ओर ब्राह्मण के लिए याज्ञवल्क्य महाराज ने व्यवस्था कीः
ब्राह्मणः काममश्नीयाच्छाद्धे व्रतमपीडयनू
- याज्ञवल्क्यस्मृति, ब्रह्मचारी प्रकरण, श्लोक 32.
(ब्रह्मण श्राद्ध में चाहे कितना खाएं, उन का व्रत नहीं बिगड़ता) मनुस्मृति का भी निम्न उद्धरण देखने योग्य हैः
जातिमात्रोपजीवी वा कामं स्याद्ब्राह्मणब्रुवं
धर्मप्रवक्ता नृपतेर्नतु षूद्रः कंथचन, ---- अध्याय 8, श्लोक 20,
(केवल जाति में जीविका करने वाला कर्मरहित ब्राह्मण भी राजा की ओर से धर्मवक्ता हो सकता है परन्तु शूद्र नहीं हो सकता)
विद्वत्ता एवं योग्यता में भी मनु महाराज जाति को उच्च स्थान देते हैं, इतना ही नहीं जो संसार में किसी भी धर्म में उचित नहीं माना जाता सकता, उस असत्य भाषण को भी मनु महाराज धर्म का संरक्षण प्रदान करते हैः
कामिहेषु विवाहेषु गवां भक्ष्ये तथेंधने
ब्राह्मणाभयुपत्तौ च शपथे नास्ति पातकम् अध्याय 8, श्लोक 112,
( स्त्री संभोग, विवाह, गौओं के भक्ष्य, होम के ईंधन और ब्राह्मण की रक्षा करने में वृथा शपथ खाने से भी पाप नहीं होता)
ब्राह्मण न हुआ, कोई ऐसा पुरूष हो गया कि जिस के मर जाने से सृष्टि में भूकंप आ जाएगा और फिर साथ ही स्त्री संभोग में भी झूठ बोलने से पाप नहीं होता! फिर तो संसार के सारे न्यायालय एवं कानून व्यर्थ ही समझे जाने चाहिएं ।
वही दोष करने पर शुद्र के लिए कठोर से कठोर दंड विधान है. और ब्रह्मण के लिए कोई दंड नहीं । मनुस्मृति के अनुसार ‘‘कठोर वचन कहने का अपराध करने पर द्विजातियों को कुछ क्षण का दंड काफी है, परंन्तु शूद्र को जिहवोच्छेदन अथवा जलती हुई दस अंगुल की शलाका मुख में डालना तथा मुख, कान में तपा हुआ तेल डालने का विधान किया गया है’’ ( अध्याय 8, श्लोक 267 से 272)
मजेदार बात यह है कि दंड केवल तभी है जब कठोर वचन ब्राह्मण या क्षत्रिय के प्रति कहे गये हों यदि वैश्य को गाली दी जाए तो कुछ दंड ही काफी है और भी देखिए-
‘‘शूद्र यदि द्विजाति को मारे तो उस के हाथ, लात मारे तो पैर, यदि आसन पर बैठना चाहे तो चूतड़, ब्राह्मण पर थूके तो होठ, पेशाब करे तो लिंग और यदि अधोवायु करे तो गुदे की जगह कटवा दें ’’ अध्याय 8, ष्लोक 277 से 283)
‘‘शूद्र यादि रक्षित या अरक्षित जाति की स्त्री से भोग करे तो उसकी मूत्रेंद्रिय कटवा दे अथवा प्राणदंड दे, परन्तु अन्य जातियों के लिए धन दडं ही काफी है और ब्राह्मण के लिए सिर का मुंडन ही काफी है’’ (अध्याय 8, श्लोक 374 से 379)
इतना ही नही-
न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितम्
राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात्समग्रधनमक्षतम् (8, 380)
न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मो विद्यते भुवि
तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत् ( 8, 381 )
( सब पापों से लिप्त होने पर भी ब्राह्मण का वध कदापि न करें, उसे धन सहित अक्षत शरीर से राज्य से निकाल दे, ब्राह्मणवध के समान दूसरा कोई पाप पृथ्वी पर नही है, इसलिए राजा मन में भी ब्राह्मणवध का विचार न करे)
द्वितीय विधाननिर्माता याज्ञलव्क्य मुनि तो और भी आगे बढ़ जाते है।:
पादशौचं द्विजोच्छिष्टमार्ज्जनं गोप्रदानवत्
( श्लोक 9, दानधर्मप्रकरण)
( द्विजों के पांव एवं जूठन धोना गोदान के समान है)
अस्वन्नमकथं चैव प्रायष्चित्तैरदूषितम्
अग्ने: सकाशाद्विप्राग्नौ हुतं श्रेष्ठमिहोच्यते - श्लोक 16,राजधर्म प्रकरण
( अग्नि में यज्ञ करने की अपेक्षा ब्राह्मणरूपी अग्नि में हवन करना अधिक श्रेष्ठ है )
इस प्रकार इन स्मृतिकारों ने वेद द्वारा गाया हुआ अग्निहोत्र का सारा गुणगान ब्राह्मण के ऊपर न्यौछावर कर के वेदों और कर्मकांड को ही धता बता दी है ।
नारी निंदा
शूद्र की तरह नारी भी सदैव पुरूष की भोग्या गिनी जाती रही है । इसी लिए विवाह आदि के सम्बन्ध मे जहां एक ओर उसे विधवा हो जाने पर दूसरे विवाह तक की आज्ञा नहीं है, वहीं दूसरी ओर पुरूषों को कई-कई विवाहों का आदेश किया गया है वैसे ऊँच-नीच की उस खाई को यहाँ भी नहीं पाटा जाताः
शूद्रैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते
ते च स्वा चैव राज्ञश्य ताश्ख्च स्वा चाग्रजन्मनः - मनुस्मृति: अध्याय 3, श्लोक 13.
(शूद्र की स्त्री एक शूद्रा ही हो, वैश्य की स्त्री वैश्या एंव शूद्रा, क्षत्रिय की शूद्रा, वैश्य एवं क्षत्राणी तथा ब्राह्मण की ब्राह्मणी, क्षत्राणी वैश्य एवं शूद्रा कही गई हैं।)
तिस्रो वर्णानुपूर्वेण द्वे तथैका यथाक्रमम्
ब्राह्मणक्षत्रियविशां भार्या स्याच्छूद्रजन्मनः
- याज्ञवल्क्य स्मृति विवाह प्रकरण, श्लोक 59.
(वर्णानुक्रम में ब्राह्मण 3, क्षत्रिय 2 एंव वैश्य 1 स्त्री रख सकता है परन्तु शूद्र अपने ही वर्ण मे विवाह कर सकता है।)
एक ओर द्विजों के लिए यज्ञ, नियम और संयम की कठोरता है, तो दूसरी ओर स्वच्छंद भोगविलास की राह पर भी प्रशस्त कर दी गई है, ‘गरीब की जोरू सब की भाभी’ कहावत यहां पूर्णतः चरितार्थ होती है, स्त्री के लिए जहां एक ओर पतिव्रत ही जीवन कहा गया है। तथा छल से ठगी गई अहल्या एंव पतिव्रता सीता को बिना कारण वन में छोड देने के उदाहरण हैं, वहां दूसरी ओर याज्ञवल्क्य ऋषि विधान करते हैं
दत्तामपि हरेत्पूवां ज्यायांश्चेद्वर आव्रजेत्
- विवाह प्रकरण, श्लोक 65,
(पहले वर से अच्छा वर मिले तो दी हुई कन्या का भी हरण कर लें)
मनु महाराज की दृष्टि में तो नारी के सतीत्व एंव पवित्रता का मूल्य है वंशवृद्धि के लिए सन्तानप्राप्ति मात्र, इन के लिए वह नारी का सतीत्व बलिदान करने का आदेश देते हुए कहते हैं
देवराद्वा सपिंडाद्वा स्त्रिया सम्यड्नियुक्तया
प्रजेप्सिताधिगन्तव्या संतानस्य परिक्षये
विधवायां नियुक्तस्तु धृताक्तो वाग्यतो निशि
एकमुत्पादयेत्पुत्रं न द्धितीयं कथंचन ।
- अध्याय 9, ष्लोक 59-60.
( निज स्वामी से सन्तान न होने पर स्त्री पति की आज्ञा से अपने देवर अथवा अन्य सपिंड पुरूष से इच्छित पुत्र लाभ कर सकती है, रात्रि के समय चुपचाप गुरू के द्वारा नियुक्त पुरूष अपने शरीर में घी लगाकर विधवा से एक पुत्र उत्पन्न कर सकता है, परन्तु दूसरा पुत्र कदापि नहीं)
सोचने की बात है कि यदि एक बार उफनती नदी का बांध टूट जाए तो क्या वह प्रयास करने पर भी पुनः ठीक हो सकता है? विधवा नारी, जो पता नही कितने प्रयास से अपने यौवन एवं इच्छाओं को दबाय बैठी हो, एक बार पुरूष से संभोग होने पर किस प्रकार अपने को संयत कर सकती है ? दूसरे यदि एक बार मे गर्भाधान न हो तो क्या करे? अब यह विचाराधीन प्रश्न है कि वर्तमान हिंदू कोड बिल की तलाक एंव पुनर्विवाह धारा इस से भी गई बीती है?
श्राद्ध व्यवस्था
अपने को अहिंसक तथा गौपूजक कहने वाले इन विधायकों की श्राद्धव्यवस्था पर भी एक दृष्टि डाल लेना अनुचित न होगाः ‘‘मनुष्यों के पितर, तिल, चावल, जौ से एक मास, मछली से दो मास,हरिण के मांस से तीन मास, मेंढे के मांस से चार मास, पक्षियों के मांस से पांच मास, बकरी के मांस से छः मास, चित्रमृग के मांस से सात मास, काले मृग के मांस से आठ मास, पाठीन मछली तथा रूरू हरिण के मांस से नौ मास, सूअर और भैंसे के मांस से दस मास, कछुए और खरगोश के मांस से ग्यारह मास, तथा वार्ध्रीणस के मांस से बारह वर्ष तक तृप्त होते हैं। (मनु स्मृति अध्याय 3, श्लोक 267 से 271 तक.)
इसी विषय मे याज्ञवल्क्य स्मृति आदेश देती है ‘‘हविष्यान्न से महीने भर, पायस से एक वर्ष, मछली, हरिण, भेडा, पक्षी, बकरा, चित्रमृग, काला मृग, साबर, शूकर, और खरगोश के मांस से श्राद्ध करने से पितर लोग क्रमशः एकएक महीना अधिक तृप्त होते हैं गैडा, महाशलक, लाल बकरे का मांस, बूढें सफेद बकरे का मांस इन से अनंत काल तक पितरों को तृप्ति मिलती है। (श्राद्धप्रकरण, श्लोक 58 से 61 तक)
इतना ही नही, मनु महाराज ने तो भोज्याभोज्य का विचार करते हुए भक्ष्य पशुपक्षियों एवं मछलियों के नाम तक गिना डाले हैं। मजेदार बात यह है की अभक्ष्य पशुओं मे वह गाय को नहीं गिनाते । (अध्याय 5, श्लोक 11 से 22)
उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि यज्ञ के लिए मांसभक्षण अनुचित नहीं, साथ ही उन्होंने उसे मंत्रों से पवित्र कर लेने का आदेश भी कर दिया है। वह तो ब्रह्मचारी को भी दुपट्टे के स्थान पर काले मृग, रूरू मृग एवं बकरे का चर्म प्रयोग करने का आदेश देते हैं । (अध्याय 2, श्लोक 41)
ये हैं वे कुछ सिद्धान्त जिन पर हिंदू धर्म की यह अट्टालिका खड़ी की गई है। हम स्पष्ट देखते हैं कि ये सिद्धान्त पक्षपात और अन्याय से परिपूर्ण हैं और यहि कारण है कि समय समय पर इन का विरोध होता रहा है विशिष्ठ एंव विश्वामित्र का युद्ध, परशुराम एवं क्षत्रियों की लड़ाईयां, शंबूक का वध, बुद्ध एंव महावीर का मतप्रचार आदि इन सिद्धान्तों के विरूद्ध खुले विद्रोह कहे जा सकते हैं।
तथाकथित भगवान के अवतार
हम ने सिद्धान्तों पर एक दृष्टि डाली, अब हम उन आदेशों को भी देखें जिन के उदाहरण पग पग पर दिए जाते हैं। सर्वप्रथम भगवान के जो अवतार गिनाए जाते हैं उन में एक भी ऐसा नहीं जिसे हम छल रहित कह सकें, नारी रूप धारण कर राक्षस एवं देवताओं के सम्मिलित प्रयास द्वारा तैयार किया गया अमृत केवल देवताओं को पिला देना, वामन रूप धारण कर बलि को छलना आदि को ही यदि हम अपना आदर्श आज मानने लगें, तो मत्स्यन्याय के सिवा संसार में कुछ भी शेष ना रह जाएगा।
और ये सब छल जिन देवताओं को शक्तिशाली बनाने के लिए किये गये उन के चरित्र पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो हमें लगता है कि उन कायर और चरित्रहीन देवताओं से तो परिश्रमी राक्षस हजार गुना अच्छे थे। जितने भी युद्ध देवताओं और राक्षसों के बीच हुए, सब में इन देवताओं ने पीठ ही दिखाई कोई भी तो ऐसा युद्ध नहीं जिस में देवता छल से न जीते हों ।
देवताओं के राजा इन्द्र ने अहल्या का सतीत्व नष्ट किया तथा उसके बाद भी राजा बना रहा जब कि सामाजिक दंड अहल्या को ही भोगना पड़ा, मेनका आदि वेश्याओं के द्धारा तपस्वियों का तप भंग करना तो इन्द्र का एक साधारण सा कार्य था ।
इंद्र के अलावा ब्रह्मा का कामातुर होकर अपनी लड़की सरस्वती के पीछे भागना, चन्द्रमा द्वारा गुरू की पत्नी का हरण, शिव का सती की लाश कंधे पर डाल कर पागलों की तरह घूमते फिरना आदि उदाहरण हमें यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं यदि राक्षस लोग भी ईमानदारी का आदर्श अपने सामने ना रखकर छल से काम लेते तो क्या इतिहास इसी प्रकार लिखा गया होता ?
राम और कृष्ण के बारे में तो इतना अधिक बार लिखा जा चुका है कि यहां उसे दोहराना ठीक ना होगा फिर भी इतना लिख देना आवश्यक है कि ‘रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन ना जाई’ का आदर्श कैकयी के सामने रखने वाले महाराज दशरथ ने कैकेयी के विवाह के समय उसके पिता को दिया यह वचन कि कैकेयी का पुत्र ही राजा होगा, स्वयं ही तोड़ दिया, इतना ही नहीं उन्होंने राम को भी उकसाया कि वह पिता के वचन का ध्यान ना करें बल्कि आयोध्या में ही रहें।
महाभारतकालीन आदर्षों में हम भीष्म को बड़ा ऊंचा स्थान देते हैं परन्तु क्या अपने नपुंसक भाईयों के लिए अंबा आदि नारियों का हरण तथा उसके पश्चात एक बहन का जीवन बरबाद कर देना एवं शेष दो बहनों का जबरदस्ती व्यास से नियोग कराना ही आदर्श है? यदि भीष्म चाहते तो महाभारत का संग्राम रूक सकता था, परन्तु बैठे बिठाए जुआ एवं द्रौपदी की बेइज़्ज़ती का तमाशा देखना ही उनका आदर्श था, द्रोणाचार्य का अकेले अभिमन्यु को घेरकर मार डालना, कृष्ण द्वारा कर्ण को मरवाना एवं दुर्योधन की जांघ तुड़वाना कौन सा आदर्श कहा जाएगा?
राजा शांनतनु का मत्स्यगंधा से विवाह करना एवं दुष्यंत का शकुंतला को धोखा देना ही क्या आदर्श है? एक ओर हम कुन्ती एवं द्रौपदी को आदर्श नारी मानते हैं तो आज किसी अविवाहित लड़की के सन्तान हो जाती है तो क्यों समाज उसे स्वीकार नहीं करता? यदि नारी किसी परिस्थिति से मजबूर होकर दूसरा विवाह कर लेती है तो क्यों नहीं उसे द्रौपदी के समकक्ष मान लिया जाता?
‘‘कितने खरे हमारे आदर्श ’’ पृष्ठ 8,9,10
लेखकः डा0 राकेश नाथ
विश्व बुक दिल्ली
यह थी एक झलक उसकी जो हिन्दुत्व का स्रोत है। जिस की आख्या भी हिन्दू लेखकों के कलम से प्रस्तुत की गई है, इस के हवाले से हम ‘‘बलराज मधोक’’ जी से कहना चाहेंगे कि अगर यह ही हिन्दुत्व है तो हमारा तो इसे दूर से ही सलाम है, स्वयं आप भी इस पर खुले आम अमल नहीं कर सकते यह केवल पुराने समय की बात थी, जो समय के साथ इतिहास का हिस्सा बन चुकी, अब जो चलने वाली व्यवस्था है वह केवल और केवल इस्लामी व्यवस्था है। स्वंय आप उसी व्यवस्था में जी रहे हैं। उदाहरण के बतोर भारतीय कानून की नजर मे ब्राह्मण और शूद्र एक समान हैं आज विधवा को सति नहीं किया जा सकता, या तो उस की दूसरी शादी कर दी जाए वरन राज्य उसे विधवा पेंशन दे । नियोग से बच्चा पैदा नहीं किया जा सकता (यह राज्य की दृष्टि मे चाहे अपराध न हो अपितु समाज की दृष्टि में अवश्य अपराध है) ऐसे ही शिक्षा केवल ब्राह्मण के लिए नहीं है बल्कि सब के लिए है ।अब कोई शम्बूक (शूद्र) शिक्षा प्राप्ति और जप-तप करने के कारण मारा नहीं जा सकता, भूर्ण हत्या पर, प्रतिबन्ध जन्म से पहले लिंग पता करने पर प्रतिबन्ध, दहेज लेने देने पर प्रतिबन्ध, यह सब इस्लामी कानून हैं । खास बात यह भी है कि इन में से अधिक तर हिन्दू धर्म के विपरीत हैं, इन चीजों के विपरीत हिन्दू धर्म में स्पष्ट आदेश है, जैसा कि वर्ण व्यवस्था, सती या नियोग आदि, और हिदू धर्म के पर्वतक उसका नमूना पेश करते हैं, दहेज को ही लीजिए, चाहे उसका स्पष्ट आदेश न हो परन्तु मर्यादा पुरूषोत्तम राम के विवाह में देखये, राजा जनक ने उन्हें किस कदर भारी संख्या मे दहेज दिया था ।
यह एक नमूना था उन आदेशों/आदर्शों का जिनका सम्बन्ध कानून से है, इस के अतिरिक्त कुछ बातें वह है जिन का सम्बन्ध नैतिकता से है, इस्लाम क्यों कि मुकम्मल निजाम-ए-हयात (जीवन जीने कि सम्पूर्ण पद्धति) है अतः इस्लाम ने नैतिकता के आधार पर भी बहुत से नियम पेश किये हैं। उदाहरण के तौर पर एक मशहूर हदीस है कि अगर तुम कहीं जुल्म (अन्याय) होता देखो और तुम उसे रोकने की शक्ति रखते हो तो शक्ति का प्रदर्शन करके उसे रोक दो । और अगर अपने अन्दर उसे रोकने की शक्ति नहीं पाते बल्कि ज़ुबान से अन्याय को अन्याय कह सकते हो। तो जुबान से जुल्म को जुल्म कहो इस समय तुम्हारा चुप रहना पाप है। और अगर इतनी भी शक्ति नहीं है तो दिल से बुराई को बुराई समझो, और उससे अलग हो जाओ, यह ईमान का आखिरी दर्जा है अर्थात किसी भी स्थिति में अन्याय का समर्थन जायज़ नहीं है।
इसकी तुलना महाभारत के युद्ध में भगवान श्री कृष्ण के किरदार से किजिए, जिस युद्ध में वह अर्जुन के सार्थी बनकर उन्हें अधर्म के विरूद्ध युद्ध करने के उपदेश दे रहे थे उसी युद्ध में उन्होंने अपनी सम्पूर्ण सैनिक शक्ति दूसरे पक्ष को दे रखी थी ।
एक दूसरा उदाहरण देखिये, राजा दशरथ ने अपनी एक पत्नी को दिये गये दो वचनों के कारण अपने पुत्र श्री राम को घर से निकाल दिया था, ऐसी स्थिति में इस्लामी कानून यह है कि वह वचन जिस में किसी की हकतलफी होती है वह सिरे से खारीज है उस पर अमल नहीं किया जाएगा यहां तक कि अगर कोई भूल-चूक में भी किसी ऐसे कार्य के करने की कसम खा बैठे तो इस्लामी नियम के अनुसार वह कार्य नहीं किया जाएगा साथ ही कसम के झूठा होने के कारण कसम का कफ्फारा (एक प्रकार का दंड ) देना अनिवार्य होगा । ख्याल रहे कि भारतीय कानून भी कुछ ऐसा ही है, यही कारण है कि अगर कोई अपने बेटे को इसलिए घर से निकाल दे कि उस ने किसी को यह वचन दिया था तो उसका वचन जाए भाड़ में, भारतीय न्यायालय और सरकार उसे ऐसा करने की अनुमति नही दे सकती ।
अतः श्री बलराज मधोक जी से निवेदन है कि इस्लामी व्यवस्था का अधिकांश हिस्सा समय चक्र के आहनी पंजे ने बलपूर्वक आप से मनवा दिया है अब आप ज़िद छोडें, और सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए निष्पक्ष होकर इस्लामी व्यवस्था के बाकी बचे हिस्से का अघ्ययन करें
अब जो कुछ बचा है वह कुछ अधिक नहीं, अपितु बहुत मामूली सा है और वह क्या है, उसे पवित्र कुरआन कि भाषा में मुलाहिज़ा फरमाइये
‘‘हे ईशवरीय ग्रन्थ रखने वालों आओ एक ऐसी बात की ओर जिसे हमारे और तुम्हारे बीच समान मान्यता हासिल है वह यह कि हम एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को न पूजें और ना ही उसके साथ किसी को सा़झी ठहराएं और न परस्पर हममें से कोई एक दूसरे को एक ईश्वर से हटकर पालनहार बनाये ’’। (सूरत आल-ए-इमरान 64)
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intrested post
ReplyDeletepadhke dekhte hen
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट है। ऐसी ही सामग्रियाँ डालते रहें।
ReplyDeleteभाई साहब , आपने जो बातें जिन महानुभाव और उनकी किताब के बारे मैं बताई , वो गौर करने वाली हैं , वो भी उन लोगों मैं हैं जो लोगों में ग़लत बात फैलाकर द्वेष फैलाने की है , ये बात मुस्लिम अवं इसाई संप्रदाय के लोग भी करते हैं , मसलन भगवान् ,अल्लाह या इसाईओं के इश्वर के बारे में जो किताबें लिखी गयीं हैं उनका सन्दर्भ लेकर लोगों में द्वेष फैलाने का व्यापार बहुत दिनों से चालू है , लेकिन ये कोई नही सोचता की ये किताबें किसी इंसान ने ही लिखी हैं , और वो ग़लत भी हो सकती हैं , और रही बात इंसान की चाहे वो किसी भी धर्म का हो उसका काम ही है अपना दिमाग लगना , वो ग़लत और सही दोनों दिशाओं में होता है , इश्वर एक ही है , हिन्दुओं ,मुसलमानों और इसाईओं के लिए अलग नही है , पर दिकत ये है , इंसान किताबों , विचारों की लडाई में इतना रम गया है की वो इश्वर को भूल गया है , और सच बताऊँ भाई इश्वर को ऐसे लोगों पर हसी आती है क्योंकि अब इंसान के लिए मन्दिर , मस्जिद , चर्च को ही इश्वर समझ लिया है , इश्वर को तो वो कब का भूल चुका है .
ReplyDeleteबहुत सही भाई क्या मैं सप्लिमेंटरी लेख के बतौर आपका यह उद्वरण ले सकता हूँ
ReplyDeleteबहुत सही भाई क्या मैं सप्लिमेंटरी लेख के बतौर आपका यह उद्वरण ले सकता हूँ
ReplyDeleteबहुत सही भाई क्या मैं सप्लिमेंटरी लेख के बतौर आपका यह उद्वरण ले सकता हूँ
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ReplyDeleteAAPKE ITNE SARE UDHAREN DEKH KR MEN VICHLIT HO GYA. KYA INSAAN ITNA BHI GIR SEKTA HE WO BHI DHREM KE NAAM PR.PHIR LOGO KI ANKHE KYON NHAI KULTI HE? SMEJH ME NHAI ATA DHRM KO PEDNE OR SMEJHNE WALE KO GYANI KYO KHETE HE? JIN BAATO KO EK AAM ADMI GRENA KI NEZAR SE DHKTA HO UNHI BAATO KO SMEJHNE WALE OR AGE BDANE WALO KO PENDIT G KHTE HE???????????????????
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