मानवता को महाविनाश से बचाने के उद्देश्य से ही यह पुस्तक लिखी गई है। जगह-जगह मिलने वाले दयानन्दी बंधुओं के बर्ताव ने भी इस पुस्तक की ज़रूरत का अहसास दिलाया और स्वयं स्वामी जी का आग्रह भी था-
``इस को देख दिखला के मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करके मुझे वा सब महाशयों का मुख्य कर्तव्य काम है।´´ (भूमिका, सत्यार्थ प्रकाश, पृष्ठ-5)
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दयानन्द जी ने क्या खोजा क्या पाया? - डा. अनवर जमाल
मिल्लत उर्दू/हिन्दी एकेडमी
मौहल्ला सोत, रूड़की
In 2016
डा. अनवर जमाल की पुस्तक "स्वामी दयानंद जी ने क्या खोजा? क्या पाया?" परिवर्धित संस्करण इधर से डाउनलोड की जा सकती है --पुस्तक में108 प्रश्न नंबर ब्रेकिट में दिये गए हैं
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पुस्तक युनिकोड में चार पार्ट में इधर भी है
http://108sawal.blogspot.in/2015/04/swami-dayanand-ne-kiya-khoja-kiya-paya.html
First Edition Start
भूमिका
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भूमिका
इनसान का रास्ता नेकी और भलाई का रास्ता है। यह रास्ता सिर्फ़ उन्हीं को नसीब होता है जो धर्म और दर्शन (Philosophy) में अन्तर जानने की बुद्धि रखते हैं। धर्म ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है जो मूलत: न कभी बदलता है और न ही कभी बदला जा सकता है, अलबत्ता उससे हटने वाला अपने विनाश को न्यौता दे बैठता है और जब यह हटना व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो तो फिर विनाश की व्यापकता भी बढ़ जाती है।
दर्शन इनसानी दिमाग़ की उपज होते हैं। समय के साथ ये बनते और बदलते रहते हैं। धर्म सत्य होता है जबकि दर्शन इनसान की कल्पना पर आधारित होते हैं। जैसे सत्य का विकल्प कल्पना नहीं होता है। ऐसे ही धर्म की जगह दर्शन कभी नहीं ले सकता। धर्म की जगह दर्शन को देना धर्म से सामूहिक रूप से हटना है जिसका परिणाम कभी शुभ नहीं हो सकता।
भारत एक धर्म प्रधान देश है। समय के साथ नये दर्शन पनपे और बहुत से विकार भी जन्मे। सुधारकों ने उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया। लाखों गुरूओं के हज़ारों साल के प्रयास के बावज़ूद भारत की यह भूमि आज तक जुर्म, पाप और अन्याय से पवित्र न हो सकी। कारण, प्रत्येक सुधारक ने पिछले दर्शन की जगह अपने दर्शन को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया, धर्म को नहीं। स्वामी दयानन्द जी भी ऐसे ही एक सुधारक थे।
जिस भूमि के अन्न-जल से हमारी परवरिश हुई और जिस समाज ने हमपर उपकार किया उसका हित चाहना हमारा पहला कर्तव्य है। मानवता को महाविनाश से बचाने के उद्देश्य से ही यह पुस्तक लिखी गई है। जगह-जगह मिलने वाले दयानन्दी बंधुओं के बर्ताव ने भी इस पुस्तक की ज़रूरत का अहसास दिलाया और स्वयं स्वामी जी का आग्रह भी था-
``इस को देख दिखला के मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करके मुझे वा सब महाशयों का मुख्य कर्तव्य काम है।´´ (भूमिका, सत्यार्थ प्रकाश, पृष्ठ-5)
सो मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया। अब ज़िम्मेदारी आप की है। आपका फै़सला बहुत अहम है। अपना शुभ-अशुभ अब स्वयं आपके हाथ है।
विनीत,
डॉ0 अनवर जमाल, बुलन्दशहर
ishvani@yahoo.in
दिनांक - बुद्धवार, 29 जुलाई 2009
श्रावण, अश्टमी द्वितीया, सं0 2066
मैं कौन हँ? और मुझे क्या करना चाहिये?
एक इनसान जब होश संभालता है तो बहुत से प्रश्न उसके मन को बेचैन करते हैं। जब वह इस सृष्टि पर नज़र डालता है और पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं, फ़सलों और मौसमों को, धरती की सुंदरता और अंतरिक्ष की विशालता को, सूर्य से लेकर परमाणु तक को, उनकी संरचना, संतुलन और उपयोगिता को देखता है तो सहज ही कुछ प्रश्न पैदा होते हैं कि यह सब कुछ खुद से है या इसका कोई बनाने वाला और चलाने वाला है? अगर यह सब कुछ खुद से ही है तो इतना संतुलन और नियमबद्धता, इतनी व्यवस्था और उपयोगिता इन बुद्धि और चेतना से खाली निर्जीव पदार्थो में आई कैसे? और अगर कैसे भी इत्तेफ़ाक़ से आ गई तो फिर निरन्तर बनी हुई कैसे है? और अगर ऐसा नहीं है बल्कि किसी `ज्ञानवान हस्ती´ ने इस सृष्टि की रचना की है तो उसने ऐसा किस उद्देश्य से किया है? उसने मनुष्य को क्यों पैदा किया? और वह उससे क्या चाहता है? वह कौन सा मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी पैदाईश के उद्देश्य को पाने में सफल हो सकता है? आदि आदि।
इन सवालों का जवाब केवल ज्ञान द्वारा की संभव है। और ज्ञान के लिए ज्ञानी की, एक गुरू की ज़रूरत है। ज्ञान देने वाला एक गुरू वास्तव में ज़मीन और आसमान के सारे खज़ानों से भी बढ़कर है क्योंकि केवल उसी के द्वारा मुनश्य अपने जीवन का वास्तविक `लक्ष्य´ और उसे पाने का `मार्ग´ जान सकता है और अपने लक्ष्य को पाकर अपना जन्म सफल बना सकता है। इस तरह एक सच्चे और ज्ञानी गुरू की तलाश हरेक मनुश्य की बुनियादी और सबसे बड़ी ज़रूरत है। लेकिन जैसा कि इस दुनिया का क़ायदा है कि हर असली चीज़ की नक़ल भी यहाँ मौजूद है इसलिए जब कोई मनुश्य गुरू की खोज में निकलता है तो उसे ऐसे बहुत से नक़ली गुरु मिलते हैं जिन्हें खुली आँखों से नज़र आने वाली चीज़ों की भी सही जानकारी नहीं होती लेकिन ईश्वर और आत्मा जैसी हक़ीक़तों के बारे में अपने अनुमान को ज्ञान बताकर लोगों को भटका देते हैं।
ऐसे ही प्रश्नों के जवाब पाने के लिए बालक मूलशंकर ने अपना घर छोड़ा और एक ऐसे सच्चे योगी गुरू की खोज शुरू की जो उसे `सच्चे शिव´ के दर्शन करा सके। इसी खोज में वह `शुद्धचैतन्य´ और फिर `दयानन्द´ बन गये लेकिन उन्हें ऐसा कोई योगी गुरू नहीं मिल पाया जो उन्हें `सच्चे शिव´ के दर्शन करा देता। तब उन्होंने स्वामी बिरजानन्द जी से थोड़े समय वेदों को जानने-समझने का प्रयास किया। इस दौरान उन्होंने हिन्दू समाज में प्रत्येक स्तर पर व्याप्त पाखण्ड, भ्रष्टचार और अनाचार को खुद अपनी आंखों से देखा । तब उन्होंने अपनी सामर्थय भर इसके सुधार का बीड़ा उठाने का निश्चय किया। दयानन्द जी वास्तव में अपने निश्चय के पक्के और बड़े जीवट के स्वामी थे। उन्होंने अपने अध्ययन के मुताबिक अपना एक दृष्टिकोण बनाया और फिर उसी दृष्टिकोण के मुताबिक लोगों को उपदेश दिया और बहुत सा साहित्य रचा। यह साहित्य आज भी हमारे लिए उपलब्ध है ।
क्या दयानन्द जी का आचरण उनके दर्शन के अनुकूल था?
स्वामी जी की मान्यताएं सही हैं या गलत? और वह `संसार को मुक्ति´ दिलाने के अपने उद्देश्य में सफल रहे या असफल? और यह कि क्या वास्तव में उन्हें सत्य का बोध प्राप्त था? आदि बातें जानने के लिए स्वयं उनके आहवान पर उनके साहित्य का अध्ययन करना ज़रूरी है । सच्चाई जानने के लिए उनके जीवन को स्वयं उनकी ही मान्यताओं की कसौटी पर परख लेना काफ़ी है क्योंकि सच्चा ज्ञानी वही होता है जो न केवल दूसरों को उपदेश दे बल्कि स्वयं भी उस पर अमल करे ।
दयानन्द जी मानते थे कि अपराधी को क्षमा करना अपराध को बढ़ावा देना है -`क्या ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है? इसके उत्तर में वे कहते हैं -
`नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुश्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराधियों के अपराध क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेश्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत देना ही ईश्वर का काम है क्षमा करना नहीं। (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्ठ 127)
`न्याय और दया का नाम मात्र ही भेद है क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से...... क्योंकि जिसने जैसा जितना बुरा कर्म किया हो उसको उतना वैसा ही दण्ड देना चाहिये, उसी का नाम न्याय है। और जो अपराधी को दण्ड न दिया जाए तो दया का नाश हो जाए क्योंकि एक अपराधी डाकू को छोड़ देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरूषों को दुख देना है। जब एक के छोड़ने में सहस्त्रों मुनश्यों को दुख प्राप्त होता है, वह दया किस प्रकार को सकती है? (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम0, पृष्ठ 118)
अब दयानन्दजी के उपरोक्त दर्शन के आधार पर स्वयं उनके आचरण को परख कर देखिये कि दया और न्याय का जो सिद्धान्त उन्होंने ईश्वर, राजा और धार्मिक जनों के लिए प्रस्तुत किया है स्वयं उस पर कितना चलते थे?
स्वामी जी को पता लग गया कि जगन्नाथ ने यह कार्य किया है। उन्होंने उससे कहा ---- ''जगन्नाथ, तुमने मुझे विष देकर अच्छा नहीं किया। मेरा वेदभाष्य कार्य अधूरा रह गया। संसार के हित को तुमने भारी हानि पहुँचाई है। हो सकता है, विधाता के विधान में यही हो । ये रूपए रख लो। तुम्हारे काम आएंगे। यहाँ से नेपाल चले जाओ क्योंकि यहाँ तुम पकड़े जाओगे। मेरे भक्त तुम्हें छोड़ेंगे नहीं''। (युगप्रवर्तक0, पृष्ठ 151)
दयानन्द जी द्वारा अपने अपराधी को क्षमा कर देने की यह पहली घटना नहीं है बल्कि अनगिनत मौकों पर उन्होंने अपने सताने वालों और हत्या का प्रयास करने वालों को क्षमा किया है।
`फरूखाबाद में आर्यसमाज के एक सभासद की कुछ दुष्टों ने पिटाई कर दी। लोगों ने स्कॉट महोदय से उसे दण्ड दिलाया । पर स्वामीजी को रूचिकर न लगा। उन्होंने स्कॉट महोदय तथा सभासदों से कहा - ''चोट पहुंचाने वाले को इस तरह दण्डित करना आपकी मर्यादा के खिलाफ है। महात्मा किसी को पीड़ा नहीं देते, अपितु दूसरों की पीड़ा हरते हैं।'' (युगप्रवर्तक0, पृष्ठ 130)
सम्वत् 1924 में भी स्वामीजी को एक ब्राह्मण ने पान में जहर खिला दिया था। कर्तव्यनिशष्ठ तहसीलदार सय्यद मुहम्मद ने अपराधी को गिरफ्तार करके स्वामी जी के आगे ला खड़ा किया तो वे बोले -
''तहसीलदार साहब, मैं आपके कर्तव्यनिश्ठा से अत्यन्त प्रभावित हूँ। लेकिन आप इसे छोड़ दें। कारण, मैं संसार को कैद कराने नहीं, अपितु मुक्त कराने आया हूँ। यदि दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता, तो हम सन्यासी अपनी उदारता कैसे छोड़ सकते हैं।'' (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द, पृष्ठ 49)
(1) इस प्रकार अपराधियों को क्षमा करना और दण्ड से छुड़वाना क्या स्वयं अपनी दार्शनिक मान्यता का खण्डन करना नहीं है?
(2) क्या स्कॉट महोदय व तहसीलदार आदि दुष्टों को दण्ड देने वालों से दुष्टों को छोड़ने की सिफारिश करना उनको राजधर्म के पालन करने से रोकना नहीं है। जिसकी वजह से दुष्टों का उत्साह बढ़ा होगा और वे अधिक पाप करने में प्रवृत्त हुए होंगे?
(3) क्या दयानन्द जी ने न्याय और दया को नष्ट नहीं कर दिया?
(4) क्या इस पाप कर्म की वृद्धि का बोझ दयानन्द जी पर नहीं जाएगा?
(5) क्या इस बात की संभावना नहीं है कि इसी प्रकार के आचरण को देखकर जगन्नाथ पाचक ने सोचा होगा कि अव्वल तो मैं पकड़ा नहीं जाऊंगा और यदि पकड़ा भी गया तो कौन सा स्वामी जी दण्ड दिलाते हैं, ''हाथ जोड़ने आदि चेष्टा'' करके बच जाऊंगा और स्वामी जी की क्षमा करने की इसी आदत ने उस हत्यारे का उत्साह बढ़ाया हो?
(6) दयानन्द जी ने अपनी दार्शनिक मान्यता के विपरीत जाकर अपने हत्यारे को क्यों क्षमा कर दिया?
(7) क्या अपने आचरण से उन्होंने अपने विचारों को निरर्थक और महत्वहीन सिद्ध नहीं कर दिया?
(8) `संसार के हित को भारी हानि पहुंचाने वाले´ दुष्ट हत्यारे को क्षमा करने का अधिकार तो स्वयं संसार को भी नहीं है बल्कि यह अधिकार तो दयानन्द जी ईश्वर के लिए भी स्वीकार नहीं करते। फिर स्वयं किस अधिकार से एक दुष्ट हत्यारे को क्षमा करके रूपये देकर उसे भाग जाने का मशविरा दिया?
(9) क्या एक दुष्ट हत्यारे को समाज में खुला छोड़कर उन्होंने एक अपराधी के उत्साह को नहीं बढ़ाया और पूरे समाज को खतरे में नहीं डाला?
उनके इस प्रकार के स्वकथन विरूद्ध आचरण से उनकी अन्य दार्शनिक मान्यताएं भी संदिग्ध हो जाती हैं।
`नामस्मरण इस प्रकार करना चाहिए-जैसे `न्यायकारी´ ईश्वर का एक नाम है। इस नाम से जो इसका अर्थ है कि जैसे पक्षपात रहित होकर परमात्मा सबका यथावत न्याय करता है वैसे उसको ग्रहण कर न्याययुक्त व्यवहार सर्वदा करना, अन्याय कभी न करना। इस प्रकार एक नाम से भी मनुष्य का कल्याण हो सकता है।´ (सत्यार्थप्रकाश, एकादश., पृष्ठ 210)
`इससे फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना है। जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होवे। और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।´ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम., पृष्ठ 120)
(10) जब न्यायकारी ईश्वर दुष्टों को क्षमा न करके दण्ड देता है तो दयानन्दजी ने ईश्वर का गुण `न्यायकारी´ स्वयं क्यों ग्रहण नहीं किया?
(11) अगर ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव के विपरीत चलते हुए उसकी स्तुति आदि करना दयानन्द जी की दृष्टि में भांड के समान व्यर्थ चेष्टा है तो क्या दयानन्द जी की स्तुति व उपासना आदि भी व्यर्थ और निष्फल ही थी?
(12) यदि दयानन्दजी परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव जैसे अपने गुण, कर्म, स्वभाव नहीं बना पाये थे तो क्या वह परमेश्वर को प्राप्त हो पाए होंगे जबकि उनके पास `सीढ़ी´ भी नहीं थी?
अः सीढ़ी टूटी हो तो परमेश्वर नहीं मिलता
माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पुरुष के लिए पत्नी की अहमियत बताते हुए स्वामी जी कहते हैं- `ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से मनुष्यदेह की उत्पित्त, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश को प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त होने की सीढ़ियाँ हैं।´ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्ठ 216)
माता-पिता को छोड़कर तो वो खुद ही भागे थे। विवाह उन्होंने किया नहीं इसलिए पत्नी भी नहीं थी। वो खु़द दूसरों पर आश्रित थे और न ही कभी उन्होंने कुछ कमाया तो अतिथि सेवा का मौका भी उन्होंने खो दिया। सीढ़ी के चार पाएदान तो उन्होंने खुद अपने हाथों से ही तोड़ डाले। आचार्य की सेवा उन्होंने ज़रुर की, लेकिन कभी-कभी ऐसा कुछ कर जाते थे कि या तो आचार्य पाठशाला से उनका नाम ही काट देता था या जितना ज्यादा ज़ोर से हो सकता था उनके डण्डा जमा देता था, जिनके निशान उनके शारीर पर हमेशा के लिए छप जाते थे। इसी टूटी सीढ़ी के कारण उन्हें परमेश्वर तो मिला ही नहीं, कोई अच्छा शिष्य भी नहीं मिल पाया। वे स्वयं कहा करते थे-
मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्य नहीं मिलेगा। इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था´। (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ. 121)
भारत को विश्वगुरु के महान पद से गिराने में ऐसे जिज्ञासु परन्तु अज्ञानी लोगों का बहुत बड़ा हाथ है। जो पहले तो अपनी सीढ़ी तोड़ बैठे और फिर जीवन भर खु़द भी भटकते रहे और दूसरों को भी भटकाते रहे। स्वामी जी जैसे लोगों के जीवन से शिक्षा लेकर लोगों को अपनी सीढ़ी की रक्षा करनी चाहिए और अपनी सीढ़ी तोड़ चुके लोगों को अपना गुरु भी नहीं बनाना चाहिए।
क्या दयानन्द जी की अविद्या रूपी गाँठ कट गई थी?
भिद्यते हृदयग्रिन्थरिद्दद्यन्ते सर्वसंशया: ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तिस्मनदृष्टि परा·वरे ।।1।।मुण्डक।।
जब इस जीव के हृदय की अविद्या रूपी गांठ कट जाती, सब संशय छिन्न होते और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी उस परमात्मा जो कि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है, उसमें निवास करता है। (सत्यार्थ प्रकाश, नवम0, पृश्ठ 171)
ईश्वर का सामीप्य पाने के लिए यहां तीन बातों पर बल दिया गया है-
(1) जीव के हृदय की अविद्या रूपी गांठ कट जाती है।
(2) सब संशय छिन्न होते हैं।
(3) सब दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं।
(13) क्या हम कह सकते हैं कि दयानन्दजी ने दुष्टों को क्षमा करके और उन्हें तहसीलदार आदि अधिकारियों के दण्ड से छुड़वाकर दुष्टों का उत्साह वर्धन किया? यदि यह सही है तो दयानन्दजी में उपरोक्त तीसरे बिन्दु वाली विशेषता दृष्टि गोचर नहीं होती ।
(14) न ही उनके सब संशय छिन्न हो सके थे क्योंकि वह स्वयं ही तो एक सिद्धान्त निश्चित करते हैं और जब आर्य सभासद उसका पालन करते हैं तो स्वयं ही उन्हें दुष्टों को दण्ड न देने की बात कहते हैं। यह उनके संशयग्रस्त होने का स्पष्ट उदाहरण है या नहीं?
(15) क्या यह अविद्या की बात न कही जाएगी कि सारे जगत को एक आदमी उस बात का उपदेश करे जिस पर न तो स्वयं उस को विश्वास हो और न ही उस पर आचरण करे जैसे कि उपरोक्त दुष्टों को क्षमा न करने का उपदेश करना और स्वयं लगातार क्षमा करते रहना?
क्या दयानन्द जी वेदों का वास्तविक अर्थ जानते थे?
(16) यदि दयानन्द जी की अविद्या रूपी गांठ ही नहीं कट पायी थी और वह परमेश्वर के सामीप्य से वंचित ही रहकर चल बसे थे तो वह परमेश्वर की वाणी `वेद´ को भी सही ढंग से न समझ पाये होंगे? उदाहरणार्थ, दयानन्दजी एक वेदमन्त्र का अर्थ समझाते हुए कहते हैं-
`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्ठ 107)
(17) परमेश्वर ने चन्द्रमा को पृथ्वी के पास और नक्षत्रलोकों से बहुत दूर स्थापित किया है, यह बात परमेश्वर भी जानता है और आधुनिक मनुष्य भी। फिर परमेश्वर वेद में ऐसी सत्यविरूद्ध बात क्यों कहेगा?
इससे यह सिद्ध होता है कि या तो वेद ईश्वरीय वचन नहीं है या फिर इस वेदमन्त्र का अर्थ कुछ और रहा होगा और स्वामीजी ने अपनी कल्पना के अनुसार इसका यह अर्थ निकाल लिया । इसकी पुष्टि एक दूसरे प्रमाण से भी होती है, जहाँ दयानन्दजी ने यह तक कल्पना कर डाली कि सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रादि सब पर मनुष्यदि गुज़र बसर कर रहे हैं और वहाँ भी वेदों का पठन-पाठन और यज्ञ हवन, सब कुछ किया जा रहा है और अपनी कल्पना की पुष्टि में ऋग्वेद (मं0 10, सू0 190) का प्रमाण भी दिया है-
`जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुश्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे? (सत्यार्थ., अश्टम. पृ. 156)
(18) क्या यह मानना सही है कि ईश्वरोक्त वेद व सब विद्याओं को यथावत जानने वाले ऋषि द्वारा रचित साहित्य के अनुसार सूर्य व चन्द्रमा आदि पर मनुष्य आबाद हैं और वो घर-दुकान और खेत खलिहान में अपने-अपने काम धंधे अंजाम दे रहे हैं?
क्या परमेश्वर भी कभी असफल हो सकता है?
`परमेश्वर का कोई भी काम निष्प्रयोजन नहीं होता तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि न हो तो सफल कभी हो सकता है? (सत्यार्थ0, अश्टम0 पृ0 156)
(19) स्वामी जी ने परमेश्वर की सफलता को सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्रों पर मनुष्यादि के निवास पर निर्भर समझा है। इन लोकों में अभी तक तो किसी मनुष्यादि प्रजा का पता नहीं चला, तो क्या परमेश्वर को असफल और निष्प्रयोजन काम करने वाला समझ लिया जाये? या यह माना जाए कि स्वामी जी इन सब लोकों की उत्पत्ति से परमेश्वर के वास्तविक प्रयोजन को नहीं समझ पाए?
अत: ज्ञात हुआ कि स्वामी जी ईश्वर, जीव और प्रकृति के बारे में सही जानकारी नहीं रखते थे। एक ‘शोधकर्ता को यह शोभा नहीं देता कि वह वेदों के वास्तविक मन्तव्य को जानने समझने के बजाए उनके भावार्थ के नाम पर अपनी कल्पनाएं गढ़कर लोगों को गुमराह करे ।
स्वामी जी की कल्पना और सौर मण्डल ''इसलिए एक भूमि के पास एक चन्द्र और अनेक चन्द्र अनेक भूमियों के मध्य में एक सूर्य रहता है।'' (सत्यार्थप्रकाश, पृश्ठ 156)
यह बात भी पूरी तरह ग़लत है। स्वामी जी ने सोच लिया कि जैसे पृथ्वी का केवल एक उपग्रह `चन्द्रमा´ है। इसी तरह अन्य ग्रहों का उपग्रह भी एक-एक ही होगा। The Wordsworth Encylopedia, 1995 के अनुसार ही मंगल के 2, नेप्च्यून के 8, बृहस्पति के 16 व शानि के 20 उपग्रह खोजे जा चुके थे। आधुनिक खोजों से इनकी संख्या में और भी इज़ाफा हो गया ।
सन् 2004 में अन्तरिक्षयान वायेजर ने दिखाया कि शानि के उपग्रह 31 से ज्यादा हैं। (द टाइम्स ऑफ इण्डिया, अंक 2-07-04, मुखपृष्ठ) इसके बाद की खोज से इनकी संख्या में और भी बढ़ोतरी हुई है। अंतरिक्ष अनुसंधानकर्ताओं ने ऐसे तारों का पता लगाया है जिनका कोई ग्रह या उपग्रह नहीं है।
‘PSR 1913+16 नामक प्रणाली में एक दूसरे की परिक्रमा करते हुए दो न्यूट्रॉन तारे हैं।´ (समय का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ 96, ले. स्टीफेन हॉकिंग संस्करण 2004, प्रकाषक: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि0, नई दिल्ली-2)
`खगोलविदों ने ऐसी कई प्रणालियों का पता लगाया है, जिनमें दो तारे एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं। जैसे CYGNUS X-1सिग्नस एक्स-1´ (पुस्तक उपरोक्त, पृष्ठ 100)
(20) वेदों में विज्ञान सिद्ध करने के लिए स्वामी जी ने जो नीति अपनाई है उससे वेदों के प्रति संदेह और अविश्वास ही उत्पन्न होता है। क्या इससे खुद स्वामी जी का विश्वास भी ख़त्म नहीं हो जाता है?
आकाश में सर्दी-गर्मी होती है, सर्दी से परमाणु जम जाते हैं, भाप से मिलकर किरण बलवाली होती है ।
........ क्योंकि आकाश के जिस देश में सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी की छाया रोकती है, उस देश में शीत भी अधिक होती है। ...... फिर गर्मी के कम होने और शीतलता के अधिक होने से सब मूर्तिमान पदार्थो के परमाणु जम जाते हैं। उनको जमने से पुष्टि होती है और जब उनके बीच में सूर्य की तेजोरूप किरणें पड़ती हैं तो उनमें से भाप उठती है। उनके योग से किरण भी बलवाली होती है।´ (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ 145 व 146)
(21) सर्दी-गर्मी धरती पर होती है आकाश में नहीं और वह भी पृथ्वी द्वारा सूर्य के प्रकाश को रोकने की वजह से नहीं बल्कि सूर्य की परिक्रमा करते हुए पृथ्वी जब सूर्य से दूर होती है तो सर्दी होती है और जब अपेक्षाकृत निकट होती है तो गर्मी होती है।
(22) और न ही सर्दी से परमाणु जमते हैं। जब स्वयं बर्फ के ही परमाणु जमे हुए नहीं होते तो अन्य पदार्थो के क्या जमेंगे? पता नहीं परमाणु के सम्बन्ध में स्वामी जी की कल्पना क्या है?
(23) भाप से मिलकर प्रकाश को भला क्या बल मिलेगा? यह वेदों का कथन है या स्वयं स्वामी जी की कल्पना?
सृष्टि संरचना का वैदिक सिद्धान्त
... सबसे सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात जो काटा नहीं जाता उसका नाम परमाणु, साठ परमाणुओं से मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्वयणुक जो स्थूल वायु है तीन द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अर्थात तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उसका दूना होने से पृथ्वी आदि दृश्य पदार्थ होते हैं। इसी प्रकार क्रम से मिलाकर भूगोलादि परमात्मा ने बनाये हैं। (सत्यार्थ प्रकाश, अश्टम. पृ.152)
पहले माना जाता था कि परमाणु अविभाज्य है परन्तु अब परमाणु को तोड़ना संभव है। स्वयं भारत की ही धरती पर कई `परमाणु रिएक्टर´ इसी सिद्वान्त के अनुसार ऊर्जा उत्पादन करते हैं। अत: यह सृष्टि नियम के प्रतिकूल कल्पना मात्र है। दरअस्ल यह कोई वैदिक सिद्धान्त नहीं है बल्कि एक दार्शनिक मत है।
आग, पानी, हवा और पृथ्वी की संरचना का वर्णन भी विज्ञान विरूद्ध है। उदाहरणार्थ चार द्वयणुक मिलने से नहीं बल्कि हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन का एक अणु कुल 3 अणुओं के मिलने से जल बनता है। इसी तरह पृथ्वी भी पांच द्वयणुक से नहीं बनी है बल्कि कैल्शियम, कार्बन, मैग्नीज़ आदि बहुत से तत्वों से बनी है और हरेक तत्व की आण्विक संरचना अलग-अलग है। यही हाल वायु और अग्नि का भी है। यदि स्वामी जी के मत को मान लिया जाता तो देश की सारी उन्नति ठप्प हो जाती। उनके विचार आज प्रासंगिक नहीं रह गय हैं। समय ने उन्हें रद्द कर दिया है। जिन लोगों को म्लेच्छ कहकर हेय समझा गया, देश के वैज्ञानिकों ने उन्नति करने के लिए उन्हीं का अनुकरण किया। यदि प्रकृति के विषय में अभारतीयों का ज्ञान सत्य और श्रेष्ठ हो सकता है तो फिर ईश्वर और जीव के विषय में क्यों नहीं हो सकता? सत्य की प्राप्ति के लिए षाठवृत्ति, भेदभाव और अहंकार का त्याग ज़रूरी है। वैसे भी सब मनु की सन्तान हैं- `जनं मनुजातं´ (ऋग्वेद 1:45:1)
`वसुधैव कुटुम्बकम्´ अर्थात् धरती के सब मनुष्य एक परिवार हैं ।
मा भ्राता भ्रातारं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा ।
सम्यग्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया ।।
`भाई, भाई से और बहन, बहन से द्वेष न करे। एक मन और गति वाले होकर मंगलमय बात करें।´(अथर्ववेद 3:30:3)
वैमनस्य और नफरत फैलाना छोड़कर सद्भावना प्रेम, शांति, एकता, ज्ञान और उन्नति का माहौल बनाना चाहिए। अन्य देशवासी भाई बहनों के पास भी ईश्वरीय ज्ञान हो सकता है। उनसे ज्ञान प्राप्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए। यही सर्वहितकारी और मंगलमय बात है।
सूर्य किसी लोक या केन्द्र के चारों ओर नहीं घूमता
जो सविता अर्थात सूर्य ... अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता।
(यजुर्वेद, अ033:मं. 43/सत्यार्थ0, अष्टम. पृ. 155)
(24) यह बात भी सृष्टि नियम के विरूद्ध है। एक बच्चा भी आज यह जानता है कि सूर्य न केवल अपनी धुरी पर बल्कि किसी केन्द्र के चारों ओर भी पूरे सौर मण्डल सहित चक्कर लगा रहा है। तब सृष्टिकर्ता परमेश्वर अपनी वाणी वेद में असत्य बात क्यों कहेगा? देखिये - `सूर्य अपनी धुरी पर 27 दिन में एक चक्कर पूरा करता है।´
(हमारा भूमण्डल, कक्षा 6, भाग 1, पृष्ठ 9, बेसिक शिक्षा परिषद, उत्तर प्रदेश, लेखक: अंजु गौतम आदि)
`तुम्हें यह जानकर बड़ा आश्चर्य होगा कि हमारा सूर्य बड़ी तेज़ी से चक्कर लगाते हुए लगभग 25 करोड़ वर्ष में अपनी आकाशगंगा की एक परिक्रमा पूरी करता है।´ (पुस्तक उपरोक्त, पृष्ठ 6)
(25) स्वामी जी ने सायण, उव्वट और महीधर आदि विद्वानों को अशोभनीय शाब्द कहे और उनके वेदभाश्य को भ्रष्ट बताया और केवल अपने द्वारा रचित वेदार्थ को ही ठीक बताया है। स्वामी जी वेद को ईश्वरोक्त मानते थे न कि ऋषियों की रचना। ईश्वरकृत ग्रन्थ कैसा होता हैर्षो? इस सम्बन्ध में स्वामीजी ने कुछ पहचान बताई है। क्या स्वामी जी द्वारा बताये गए लक्षण वेद में पाए जाते हैं?
ईश्वरीय ग्रन्थ में झूठ नहीं होता
जैसा ईश्वर पवित्र, सर्वविद्यावित, ‘शुद्धगुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुण वाला है वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म स्वभाव के अनुकूल कथन हो, वह ईश्वरकृत, अन्य नहीं। और जिसमें सृष्टिक्रम प्रत्यक्षादि प्रमाण आप्तों के और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरूद्ध कथन न हो वह ईश्वरोक्त। जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन हो, वह ईश्वरोक्त । (सत्यार्थप्रकाश, सप्तमसमल्लास, पृष्ठ 135)
(26) क्या वाकई वेदों में सृष्टिक्रम प्रत्यक्षादि प्रमाण के अनुकूल निर्भ्रम ज्ञान है? जो कसौटी खुद स्वामीजी ने निश्चित की है, क्या वेद उस पर पूरे उतरते हैं?
पेड़-पौधों और सब्जि़यों में जीव नहीं होता?
`....हरित ‘शाक के खाने में जीव का मारना उनको पीड़ा पहुंचनी क्योंकर मानते हो? भला जब तुमको पीड़ा प्राप्त होती प्रत्यक्ष नहीं दिखती और जो दिखती तो हमको दिखलाओ।´ (सत्यार्थप्रकाश, दशमसमुल्लास, पृष्ठ 313)
(27) आज पहली क्लास का बच्चा भी जानता है कि पेड़-पौधों पर अनगिनत सूक्ष्म जीवाणु वास करते हैं और खुद पेड़-पौधे भी Living things (जीवित वस्तुओं) में आते हैं। ऐसी विज्ञान विरूद्ध मान्यतओं को ज्ञान कहा जायेगा अथवा अज्ञान?
क्या `नियोग´ की व्यवस्था ईश्वर ने दी है?
हालाँकि उन्होंने लोगों को दुर्गुणों से दूर रहने की नसीहत करके समाज का कुछ भला किया है लेकिन विधवा औरत और विधुर मर्द को अपने जीवन साथी की मौत के बाद पुनर्विवाह करने से वेदों के आधार पर रोक दिया है और बिना दोबारा विवाह किये ही दोनों को `नियोग´ द्वारा सन्तान उत्पन्न करने की व्यवस्था दी है। इस सम्बंध में सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थसमुल्लास में पृष्ठ संख्या 73 से 81 तक पूरे 9 पृष्ठों में वेदमन्त्रों सहित पूर्ण विवरण दिया गया है। स्वामीजी के अनुसार एक विधवा स्त्री बच्चे पैदा करने के लिए वेदानुसार दस पुरूषों के साथ `नियोग´ कर सकती है और ऐसे ही एक विधुर मर्द भी दस स्त्रियों के साथ `नियोग´ कर सकता है। बल्कि यदि पति बच्चा पैदा करने के लायक़ न हो तो पत्नि अपने पति की इजाज़त से उसके जीते जी भी अन्य पुरूष से `नियोग´ कर सकती है। स्वामी जी को इसमें कोई पाप नज़र नहीं आता।
(28) क्या वाक़ई ईश्वर ऐसी व्यवस्था देगा जिसे मानने के लिए खुद वेद प्रचारक ही तैयार नहीं हैं?
ऐसा लगता है कि या तो वेदों में क्षेपक हो गया है या फिर `नियोग´ की वैदिक व्यवस्था किसी विशेष काल के लिए थी, सदा के लिए नहीं थी । ईश्वर की ओर से सदा के लिए किसी अन्य व्यवस्था का भेजा जाना अभीष्ट था। कौन सी व्यवस्था? पुनर्विवाह की व्यवस्था।
जी हाँ, केवल पुनर्विवाह के द्वारा ही विधवा और विधुर दोनों की समस्या का सम्मानजनक हल संभव है। ईश्वर ने क़ुरआन में यही व्यवस्था दी है।
क्या कोई मूर्ख व्यक्ति चतुर और निपुण हो सकता है?
(29) इसी प्रकार हालाँकि स्वामी जी ने शूद्रों को भी थोड़ी बहुत राहत पहुंचाई है लेकिन फिर भी उन्हें अन्य वर्णों से नीच ही माना है। दयानन्द जी खुद भी `शूद्र´ और उसके कार्य को लेकर भ्रमित हैं। उदाहरणार्थ - सत्यार्थप्रकाश, पृष्ठ 50 पर `निर्बुद्धि और मूर्ख का नाम शूद्र´ बताते हैं और पृष्ठ 73 पर `शूद्र को सब सेवाओं में चतुर, पाक विद्या में निपुण´ भी बताते हैं। क्या कोई मूर्ख व्यक्ति, चतुर और निपुण हो सकता है? क्या बुद्धि और कला कौशल से युक्त होते ही उसका `वर्ण´ नहीं बदल जायेगा?
(30) क्या ऊंचनीच को मानते हुए भेदभाव रहित प्रेमपूर्ण, समरस और उन्नति के समान अवसर देने वाला समाज बना पाना संभव है?
बच्चों को शिक्षा देने में भेदभाव नहीं करना चाहिए
`ब्राह्मण तीनों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैष्य, क्षत्रिय क्षत्रिय और वैष्य तथा वैश्य एक वैश्य वर्ण को यज्ञोपवीत कराके पढ़ा सकता है और जो कुलीन शुभ लक्षण युक्त शूद्र हो तो उसको मन्त्रसंहिता छोड़के सब शास्त्र पढ़ावे, शूद्र पढे़ परन्तु उसका उपनयन न करे। (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय0 पृष्ठ 31)
(31) अगर बचपन में ही ऊंचनीच की दीवारें खड़ी कर दी जायेंगी तो बड़े होकर तो ये दीवारें और भी ज्यादा ऊंची हो जायेंगी, फिर समाज उन्नति कैसे करेगा?
मनु के नाम पर भेदभाव मत फैलाओ
स्त्रियों की साक्षी स्त्री, द्विजों के द्विज, शूद्रों के शूद्र और अन्त्यजों के अन्त्यज साक्षी हों ।।2।। जितने बलात्कार काम चोरी, व्याभिचार, कठोर वचन, दण्डनिपातन रूप अपराध हैं उनमें साक्षी की परीक्षा न करे और आवश्यक भी समझे क्योंकि ये काम सब गुप्त होते हैं ।। 3।।(सत्यार्थ प्रकाश, शश्ठम, 110)
गवाह की सच्चाई को परखे बिना ही आरोपी व्यक्ति को मृत्युदण्ड आदि कठोर सज़ा देना सरासर अन्याय है बल्कि इस तरह तो मामूली सज़ा देना भी उचित नहीं है। न्यायकारी व्यक्ति के लिए यह उचित नहीं है कि वह लिंग-भेद या वर्ण-भेद से काम ले। हरेक को आज़ादी होनी चाहिए कि वह अपनी सच्चाई का गवाह जिस वर्ग से लाना चाहे, ले आये ।
इस तरह की बातें जब वेद और महर्षि मनु के नाम पर फैलायी जाती हैं तो समाज मे असन्तोष और आक्रोश पैदा होता है और लोग उनकी निन्दा करके धर्म से दूर हो जाते हैं। महर्षि मनु तो मानव जाति के पिता हैं। क्या कोई पिता अपने बच्चों में ऊँचनीच की बातें पैदा करके उनका अहित करता है? बल्कि बाप की स्नेहदृष्टि अपने बच्चों में सबसे ज्यादा उस पर होती है जो सबसे ज्यादा कमज़ोर होता है।
पवित्र क़ुरआन भी उन पर लगने वाले इस आरोप का खण्डन करता है। क़ुरआन में जलप्लावन वाले मनु का वर्णन `नूह´ के नाम से मिलता है। कुरआन बताता है कि आदरणीय नूह (उन पर शांति हो) पर श्रद्धा रखने वाले ही वे लोग थे जिन्हें तत्कालीन समाज में नीच और तुच्छ समझा जाता था। समाज के तथाकथित उँचे लोगों ने आदरणीय नूह (उन पर शांति हो) पर इसी बात को लेकर ऐतराज़ भी किया लेकिन उन्होंने समाज के दलितों - वंचितों को खुद से दूर नहीं किया। देखिये -
`इस पर उसकी क़ौम के सरदार, जिन्होंने इनकार किया था, कहने लगे हमारी दृष्टि में तो तुम हमारे ही जैसे आदमी हो और हम देखते हैं कि बस कुछ लोग ही तुम्हारे अनुयायी हैं जो पहली दृष्टि में ही हमारे यहाँ के नीच हैं। हम अपने मु़क़ाबले में तुम में कोई बड़ाई नहीं देखते हैं बल्कि हम तो तुम्हें झूठा समझते हैं।´ (सूरा-ए-हूद, 27)
देखिए, पवित्र कुरआन का चमत्कार! पूरी धरती पर वह अकेली किताब है जो कहती है कि मनु ने जातिवाद नहीं फैलाया जबकि यह बात उनका कोई भी अनुयायी नहीं कहता। कोई नहीं कहता कि मनु ने सबको बराबरी का दर्जा दिया। जिनको तत्कालीन समाज ने नीच समझा, सत्य को अपना कर वही श्रेष्ठ बने, ईश्वर के दण्ड से बचे और बाद में मानव जाति के जनक भी मनु के साथ यही लोग हुए। जिस बात को कोई नहीं कहता, कोई नहीं जानता, उसकी चर्चा कुरआन मे कैसे है? और वह भी आज से लगभग 1430 वर्ष पहले।
क्या यह सोचने का विषय नहीं है कि पवित्र कुरआन की किसी भी सूरत का नाम महामना मुहम्मद (स.) के माँ- बाप, रिश्तेदारों और साथियों में से किसी के भी नाम पर नहीं है जबकि एक सूरत का नाम `नूह´ है?
पुरे कुरआन की हजारों आयतों में महामना मुहम्मद (स0) का नाम सिर्फ 4-5 बार आया है जबकि मनु का नाम `नूह´ लगभग 45 बार आया है। न तो मक्का में नूह के अनुयायी थे कि उनका नाम लेकर उनके मानने वालों से मदद पाना वांछित हो और न ही अरब के लोग बल्कि स्वयं महामना मुहम्मद (स0) ही कुरआन के अवतरण से पहले यह सब जानते थे। ईश्वर कहता है-
`ये परोक्ष की खबरें है जिनकी हम तुम्हारी ओर प्रकाशना कर रहे हैं। इससे पहले न तो तुम्हें इनकी खबर थी और न ही तुम्हारी क़ौम को।´ (सूरा-ए-हूद,49)
महर्षि मनु का विधान लोगों की स्मृति में था जिसे उनके बाद संकलित किया गया। संकलनकर्ता ने उसमें भृगु आदि दूसरों के विचार भी शामिल कर दिये। इस तरह `मनु स्मृति´ में मिलावट होकर उसकी शिक्षाएं बिगड़ गईं। आज कोई नहीं जानता कि उसमें किस काल में किस-किस ने किसके नाम से क्या बढ़ा दिया अथवा क्या कुछ घटा दिया? दूसरों के कर्म का जिम्मेदार मनु को ठहराना अपने पिता मनु के साथ ज़ुल्म करना है।
आज ज़मीन पर जितने लोग किसी ईश्वरीय ग्रन्थ में विश्वास का दावा करते हैं वो सभी लोग अपने नबियों और ऋषियों पर आस्था के बावजूद उन पर झूठे लांछन लगाते हैं, आदम से लेकर ईसा तक, हर एक ईशदूत पर। ईसा, मूसा, लूत, और मनु सबकी शिक्षाएं बिगाड़कर रख दीं। कुरआन बताता है कि ये सभी ईश्वर के दूत थे हरेक बुराई से पाक और मासूम थे और सबने मानव जाति को एक ही धर्म की शिक्षा दी।
`उस (ईश्वर) ने तुम्हारे लिए वही धर्म निर्धारित किया जिसका आदेश उसने नूह को दिया था।´ (पवित्र कुरआन, अश्शूरा, 13)
यदि वास्तव में कोई मनु का धर्म जानना चाहता है तो वह पवित्र कुरआन में उनका वृतान्त पढ़ ले और यदि वेद के गूढ़ अर्थों को समझना चाहता है तो उन्हें पवित्र कुरआन की स्पष्ट शिक्षाओं के आधार पर समझने का प्रयास करे। जो लोग अपने अहंकार के कारण पवित्र कुरआन की सत्यता को नहीं मानते वास्तव में वो वास्तविक वेदार्थ तक पहुंचने के एकमात्र प्रामाणिक साधन से स्वयं को वंचित करते हैं।
`बुद्धिहीन लोग ग्रन्थ देखते हुए नहीं देखते और सुनते हुए नहीं सुनते।´ (ऋग्वेद 10:71:4)
`और उनके पास आँखें हैं वे उनसे देखते नहीं और उनके पास कान हैं वे उनसे सुनते नहीं वे पशुओं की तरह हैं।´ (पवित्र कुरआन 7:179)
धरती का एकमात्र अजर अमर और अक्षय ग्रन्थ
पवित्र कुरआन अपनी सच्चाई का सबूत खुद ही है। हज़ारों साल में धरती के मनुष्यों ने करोड़ों किताबें लिखी हैं। जो समय गुज़रने के बाद या तो पूरी तरह मिट गईं या उनमें कुछ घटा-बढ़ा दिया गया है। आज भी जब कोई लेखक किसी विषय पर कोई किताब लिखता है तो उसके द्वितीय संस्करण में स्वयं ही फेरबदल करने पर मजबूर हो जाता है ।
सारी धरती पर मौजूद करोड़ों किताबों के बीच में पवित्र कुरआन ही एकमात्र ऐसी अक्षय और अजर अमर किताब है, जो आज भी उसी रूप में है जैसी कि वह बिल्कुल शुरू में थी उसका दूसरा एडीशन नहीं है। 1400 वर्ष से भी ज्यादा समय बीतने के बावजूद भी वह अपने मूल और शुद्ध रूप में सबको उपलब्ध है। उसमें न तो कुछ बढ़ाया जा सकता है और न ही घटाया जा सकता है। करोड़ों लोग उसे रोज़ाना पढ़ते हैं और लाखों लोगों ने उसे कण्ठस्थ कर रखा है। ऐसी अजर अमर किताब, एक अजर अमर ईश्वर की ओर से ही संभव है।
इसकी आयतों में मनुष्य के मन में उठने वाले सभी प्रश्नों और उसे पेश आने वाली सभी समस्याओं का हल तर्क और ज्ञान के आधार पर सरल रूप में पेश किया गया है। व्यक्ति और समाज को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में नैतिकता, अध्यात्म, राजनीति, अर्थव्यवस्था, मनोविज्ञान और प्रत्येक क्षेत्र में साफ़ और सीधे निर्देश दिए गए हैं, जिन्हें नज़रअन्दाज करके उन्नति और कल्याण संभव ही नहीं है। धरती, मौसम और मनुष्य के जन्म के सम्बन्ध में जितनी बातें बताई गई हैं, आज आधुनिक विज्ञान ने उनकी सत्यता को स्वीकार किया है। अर्थव्यवस्था पर पवित्र कुरआन के नियम आज दुनिया को मार्ग दिखा रहे हैं। दुनिया के अर्थशास्त्री मान रहे हैं कि विश्व की अर्थव्यवस्था को मन्दी से उबारने के लिए एकमात्र उपाय कुरआन की ब्याज रहित अर्थव्यवस्था को अपनाना है
`यह अनुस्मरण (कुरआन) निश्चय ही हमने अवतरित किया है और हम स्वयं इसके रक्षक है।´ (सूरा अल-हिज्र,9)
क़ुरआन दयालु पालनहार की ओर से एक Reminder है, जो अपने से पूर्व अवतरित `ज्ञान´ की पुष्टि करता है। जिसका रक्षक ईश्वर है। कुरआन में प्राचीन ऋषियों-नबियों का चरित्र और उनका धर्म सुरक्षित है। इस प्रकार ईश्वर ने मानवता के लिए अपने धर्म की पुनर्स्थापना
भी की है और अपने धर्मप्रचारक ऋषियों पर लगने वाले झूठे आरोपों का निराकरण भी कर दिया है। इसी के साथ उसने अपनी दया से धर्मज्ञान भुला चुके राष्ट्रों को फिर से एक मौक़ा दिया है जिसके ज़रिये वो अपने-अपने ऋषियों के सिद्धान्त और व्यवहार को जान सकते हैं और उन्हें अपनाकर अपने जन्म का उद्देश्य पूरा कर सकते हैं। ऐसा महान और सुरक्षित ज्ञान, पवित्र कुरआन जब मनु को निर्दोष निष्पाप और समाज में बराबरी देने वाला बताता है तो क़ुरआन के कथन को स्वीकारने में हिचकिचाहट क्यों?
आवागमन कैसे संभव है?
इन्सान के लिए यह जानना बेहद ज़रूरी है कि मरने के बाद जीवात्मा के साथ क्या होता है? यही बात इन्सान को बुरे कामों से बचकर नेक काम करने की प्रेरणा देती है। प्रत्येक को अपने ‘शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगना है लेकिन किस दशा में? वैदिक धर्म में स्वर्ग-नरक की मान्यता पाई जाती है। जिसका खण्डन करके बाद में आवगमन की कल्पना प्रचलित की गई। स्वामी जी ने स्वर्ग-नरक को अलंकार बताया और आवगमन की कल्पना का प्रचार किया। उन्होंने बताया कि मोक्ष प्राप्त आत्मा भी एक निश्चित अवधि तक मुक्ति-सुख भोगने के बाद जन्म लेती है और पापी मनुष्यों की आत्माएं भी कर्मानुसार अलग-अलग योनियों में जन्म लेती हैं।
आवागमन की कल्पना सिर्फ इस अटकल पर खड़ी है कि सब बच्चे बचपन में एक जैसे नहीं होते। कोई राजसी शासान से पलता है और कोई गरीबी, भूख और बीमारी का शिकार हो जाता है। ऐसा क्यों होता है? क्या ईश्वर अन्यायी है, जो बिना कारण ही किसी को आराम और किसी को कष्ट देता है? क्योंकि ईश्वर न्यायकारी है इसलिए इनके हालात में अन्तर का कारण भी इनके ही कर्मों को होना चाहिए और क्योंकि इनके वर्तमान जन्म में ऐसे कर्म दिखाई नहीं देते तो जरुर इस जन्म से पहले कोई जन्म रहा होगा। यह सिर्फ एक अटकल है हकीकत नहीं। एक मनुष्य जब कोई पाप या पुण्य का कर्म करता है तो उसके हरेक कर्म का प्रभाव अलग-अलग पड़ता है और उसके कर्म से प्रभावित होकर दूसरे बहुत से लोग भी पाप पुण्य करते हैं और फिर उनका प्रभाव भी दूसरों पर और भविष्य की नस्लों पर पड़ता है। यह सिलसिला प्रलय तक जारी रहेगा। इसलिये प्रलय से पहले किसी मनुष्य के कर्म के पूरे प्रभाव का आकलन संभव नहीं है। इसलिए किसी को प्रलय से पहले ही उसके कर्मों का बदला देना सम्भव नहीं है और यदि किसी को बदला दिया जाता है तो यह अन्याय कहलायेगा। फिर भी अगर मान लिया जाए कि एक पापी मनुष्य को उसके पापों की सज़ा भुगतने के लिए पशु-पक्षी आदि बना दिया जाता है तो जब उसकी सज़ा पूरी हो जायेगी तो उसे किस योनि में जन्म दिया जाएगा? क्योंकि मनुष्य योनि तो बड़े पुण्य के फलस्वरूप मिलती है। इसलिए मनुष्य योनि मे तो जन्म संभव नहीं है और पशु-पक्षी आदि की योनियों मे उसे भेजना भी न्यायोचित नहीं है क्योंकि अपने पापकर्मो की पूरी सज़ा वह भुगत चुका है।
(32) मोक्ष प्राप्त आत्मा के जन्म के विष्य में भी यही प्रश्न उठता है। एक निश्चित अवधि तक मुक्ति सुख भोगने के बाद मोक्ष प्राप्त आत्मा जन्म लेती है, लेकिन प्रश्न यह है कि किस योनि में लेती है?
(33) पाप तो उसने किया ही नहीं था और पुण्य का फल भी उसके पास अब शेष नहीं था। नियमानुसार ईश्वर उसे न तो पशु-पक्षी बना सकता है और न ही मनुष्य। क्या न्यायकारी परमेश्वर जीव को बिना किसी कर्म के पशु-पक्षी या मनुष्य की योनि में जन्म दे सकता है?
(34) यदि यह मान भी लिया जाये कि दोनों को नई शुरूआत मनुष्य योनि से कराई जाएगी तो फिर बचपन में जब वो भूख, प्यास और मौसम आदि के स्वाभाविक कष्ट झेलेंगे तो इन कष्टों के पीछे क्या कारण माना जाएगा, क्योंकि पाप तो दोनों के ही शून्य हैं।
इस तरह आवागमन की कल्पना से जिस समस्या का समाधान निकालने की कोशिश की गई। वह समस्या तो ज्यों की त्यों रही और मरने के बाद वास्तव में जो होता है, उससे अनजान रहने के कारण जीव को बहुत सा कष्ट उठाना पड़ता है।
आवागमन: अज्ञानी की मूल पहचान
`परलोक में स्वर्ग नरक है।´ यह सत्य है जिसे धार्मिक जन सदा से मानते आये हैं। आवागमन एक मिथ्या कल्पना है जिसे उपनिषद काल में दार्शनिकों ने अपने मन से गढ़ा था। `पुनर्जन्म´ का अर्थ है `दूसरी बार जन्म होना´ जोकि परलोक से सम्बन्धित है और सत्य है। जबकि आवागमन इसी दुनिया में बारम्बार जन्म लेने की वेदविरुद्ध और झूठी मान्यता का नाम है। इसके समर्थन में वेदों में कोई सूक्त अथवा अध्याय नहीं पाया जाता। धार्मिक और दार्शनिक, दोनों व्यक्तियों के बीच सच और झूठ का अन्तर स्पश्ट करने वाला यह प्रमुख लक्षण है।
किसी व्यक्ति को उसका जुर्म बताए बग़ैर और उसे अपनी सफाई का मौक़ा दिए बग़ैर सज़ा देना `प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त´ के खिलाफ़ है। ऐसा करना जु़ल्म है और ईश्वर ज़ालिम नहीं है। जो लोग ऐसा मानते हैं वो लोग अज्ञान के कारण ईश्वर पर आरोप लगाते हैं।
यह वेदों के साथ सरासर अन्याय है कि नाम तो वेदों का लिया जाता है लेकिन पेश दर्शन को किया जाता है। इस मामले में अद्वैतवादी सनातनी और त्रैतवादी आर्य दोनों समान हैं। दर्शन की ग़लतियां खुलने से लोगों का विश्वास धर्म से भी उठ जाता है। अत: यह रीति उचित नहीं है।
क्या मुक्ति संभव है?
यदि मुक्ति के लिए पूरे जीवन में पाप न करना अनिवार्य नियम है तो फिर किसी मनुष्य को मुक्ति मिलना संभव नहीं है। किसी और को तो मुक्ति क्या मिलेगी जबकि इस नियम की कल्पना करने वाले खुद स्वामी जी को ही मुक्ति मिलना संभव नहीं है हालांकि उनका दावा था कि मैं संसार को कैद कराने नहीं, कैद से छुड़ाने आया हूँ लेकिन जो खुद ही मुक्ति न पा सकता हो वह दूसरे को कैसे मुक्ति दिला सकता है? इससे पता चलता है कि उनके दावों में कोई सच्चाई नहीं थी।
(35) जब महर्षि के स्तर के आदमी को ही मुक्ति न मिल पाये तो क्या बेचारे साधारण जीवों को मुक्ति की उम्मीद करना व्यर्थ नहीं है?
लोगों को क्षमा और मुक्ति से निराश करने का परिणाम यह हुआ कि लोगों की दिलचस्पी दयानन्दी दर्शन में कम हो गई और आर्य समाज मन्दिर रविवार को भी सूने से रहने लगे। लोग इधर-उधर उम्मीद की किरण ढूंढने लगे। यहाँ तक कि खुद आर्य समाज के सभासदों की पित्नयाँ और बच्चे भी मूर्ति-पूजक, वेदान्ती और अन्य मत वाले हो गए।
अन्य धर्मग्रन्थों की समीक्षा की निरर्थक चेष्टा
(36) जिस ज्ञान को, वैदिक साहित्य को उन्होंने जीवन भर पठन पाठन में रखा और स्वयं को उसका विशेषज्ञ घोषित कर दिया, जब वो उसी को नहीं समझ पाए तो अन्य धर्मो के जिन ग्रन्थों की मूल भाषा का ज्ञान भी उन्हें नहीं था और जहाँ तहाँ से जैसे-तैसे अनुवाद देखकर जल्दबाज़ी में उनकी समीक्षा कर डाली तो क्या वह सारी समीक्षाएँ स्वयं ही व्यर्थ होकर निरस्त नहीं हो जातीं?
जो बात उन्होंने जैनियों आदि के साहित्य के विषय में कही है वह स्वयं उन पर भी सटीक बैठती है।
`इसलिये जैसे एक हण्डे में चुड़ते चावलों में से एक चावल की परीक्षा करने से कच्चे व पक्के हैं सब चावल विदित हो जाते हैं। ऐसे ही इस थोड़े से लेख से सज्जन लोग बहुत सी बातें समझ लेंगे। बुद्धिमानों के सामने बहुत लिखना आवश्यक नहीं।´ (सत्यार्थप्रकाष, द्वादश. पृष्ठ 319)
`जिनको विद्या नहीं होती वे पशु के समान यथा तथा बर्डाया करते हैं। जैसे सिन्नपात ज्वरयुक्त मनुष्य अण्ड बण्ड बकता है वैसे ही अविद्वानों के कहे वा लेख को व्यर्थ समझना चाहिये। (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम. पृष्ठ 134)
`जो अविश्वासी, अपवित्रात्मा, अधर्मी मनुष्यों का लेख होता है उस पर विश्वास करना कल्याण की इच्छा करने वाले मनुष्य का काम नहीं।´ (सत्यार्थप्रकाश, त्रयोदशसमुल्लास, पृष्ठ 345)
ऋषि कौन होता है?
`अर्थ-ऋषि कैसे होते हैं?, जो धर्म को साक्षात करने वाले आप्त पुरूष होते हैं, जो सब विद्याओं को यथावत् जानते हैं।´ (ऋग्वेदादिभाश्यभूमिका, पृष्ठ 10)
ज्ञान किसे कहते हैं?
`यथार्थदर्शनं ज्ञानमिति´ जिसका जैसा गुण, कर्म, स्वभाव हो उस पदार्थ को वैसा ही जानकर मानना ही ज्ञान और विज्ञान कहलाता है और उससे उल्टा अज्ञान। (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम., पृष्ठ 125)
(37) क्या ईश्वर, जीव, प्रकृति, परमाणु, ब्रह्माण्ड, किरण, मौसम, वेद, मनुस्मृति, शूद्र, नियोग, न्याय, शिक्षा, आवागमन और सूर्यादि पर मुनष्यों के बसे होने की कल्पनाओं को सामने रखते हुए यह कहा जा सकता है कि स्वामीजी को सब विद्याओं का यथावत ज्ञान था?
(38) यदि उन्हें सब विद्याओं का यथावत ज्ञान नहीं था तो क्या उन्हें ऋषि बल्कि महर्षि कहना उचित है?
ऐसा नहीं है कि दयानन्दजी अपनी वास्तविक स्थिति से अवगत नहीं थे। एक बार एक आदमी ने जब उन्हें ऋषि कहा तो उन्होंने उसे यह कहा था - वत्स, यदि मैं महर्षि कणाद, जैमिनी के समय में होता तो, मैं पंडित ही कहलाता। ऋषियों के अभाव में मुझे लोग महर्षि कहते हैं। (युगप्रवर्तक महर्षि, पृष्ठ, 128)
अ सत्य को स्वीकारना बड़े साहस का काम है
`मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोशों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है।´ (सत्यार्थप्रकाश, भूमिका, पृष्ठ 2)
कृपया अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ सुनें, अपनी आत्मा का हनन न करें अन्यथा ईश्वर की ओर से दण्डस्वरूप कठोर यातना भोगनी पड़ेगी । वेद आज्ञा स्पष्ट है- `स्वयं यजस्व स्वयं जुशस्व´ तू ही कर्म कर और तू ही उसका फल भोग। (यजुर्वेद 3:15)
`जो मनुष्य जीते हुए अपनी आत्मा का हनन करते हैं वे मरने के बाद अंधकारमय असुरों के लोक को जाते हैं।´ (यजुर्वेद 40:3)
सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का क्या करें?
`जो कोई इन मिथ्या ग्रन्थों से सत्य का ग्रहण करना चाहे तो मिथ्या भी उसके गले लिपट जावे। इसलिए `असत्यमिश्रं सत्यं दूरतस्याज्यमिति´ असत्य से युक्त ग्रन्थस्थ सत्य को भी वैसे छोड़ देना चाहिये जैसे विशयुक्त अन्न को। (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय0 पृष्ठ 48) जिन किताबों में सच के साथ झूठ भी मिला होता था उन्हें स्वामी बिरजानन्द जी नदी में फिकवा दिया करते थे। स्वयं दयानन्द जी का आचरण भी यही था और इसी की शिक्षा उन्होंने अपने मानने वालों को दी है। अब यही हाल उनके साहित्य का है तो अपने मानने वालों के लिए उनका आदेश है कि
`थोड़ा सत्य तो है परन्तु इसके साथ बहुत सा असत्य भी है इससे `विशसम्पृक्तान्नवत् त्याज्या:´ जैसे अत्युत्तम अन्न विष से युक्त होने से छोड़ने योग्य होता है वैसे ये ग्रन्थ हैं।´ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय0 पृष्ठ 48)
(39) क्या वेदमतानुयायी अपने गुरू के पद्चिन्हों पर चलते हुए दयानन्दकृत साहित्य के साथ भी ऐसा करना पसन्द करेंगे अथवा नहीं?
स्वामी जी को सफलता नहीं मिली
स्वामी जी ने समाज में जो बुराई देखी, अपनी जान को खतरे में डालकर उसका विरोध किया और यह कहने का साहस किया कि हिन्दू समाज धर्म के नाम पर पाखण्ड, भ्रष्टाचार और नैतिक पतन का शिकार हो गया है। वह ईश्वर के वास्तविक स्वरूप और धर्म के मर्म से वंचित हो गया है। लेकिन अगर समग्र दृष्टि से देखा जाये तो दयानन्द जी अपने कथन और उद्देश्य को पूरा करने में सफल नहीं हो पाए क्योंकि उनको न तो कोई `योगी गुरु´ मिला और न ही उन्हें `सच्चे शिव´ के दर्शन हुए, जिसके लिए वो घर से निकले थे। वेदों को भी वो समझ नहीं पाए और संसार के क़ैदखाने से भी किसी को मुक्ति न दिला सके बल्कि खुद ही मुक्ति न पा सके। अपने समाज के पाखण्डियों से उन्होंने संघर्ष किया। जिसके नतीजे में उन्हें अपने प्राण गंवाने पड़े। उनका वेदभाष्य भी अधूरा ही रह गया। दूसरा जन्म लेकर उसे पूरा करने की बात उन्होंने कही लेकिन दूसरा जन्म भी वो यहां नहीं ले पाए क्योंकि आवागमन होता नहीं है। उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की लेकिन वह भी अपनी स्थापना के उद्देश्य से भटक गया है- `किन्तु हमारी शिरोमणि सभा अभी तक हठतावश मयासुर के मार्ग पर चल रही है।´ (उपक्रमणिका, ऋग्वेदादिभाश्यभूमिका, पृष्ठ 8)
सच्चे गुरु की खोज : वर्तमान समाज की ज़िम्मेदारी
यदि कोई आदमी वह सत्य पाना चाहता है जो उसे प्राप्त नहीं है तो पहले उसे वह सत्य स्वीकारना पड़ेगा जो उसे उपलब्ध है। और यह सत्य स्पष्ट है कि वेदों को न तो `निरूक्त´ के आधार पर समझा जा सकता है और न ही परम्परा के आधार पर। वो एक ऐसी पहेली हैं जिन्हें केवल वही सुलझा सकता है जिसने उन्हें रचा है। यदि वेद ईश्वरोक्त हैं तो भी कोई मनुष्य उनके रहस्य को अपनी बुद्धि की अटकल के बल पर नहीं सुलझा सकता और यदि वह ऋषियों की रचना हैं तो भी उन्हें सुलझाने के लिए एक ऋषि चाहिये अर्थात् एक ऐसा व्यक्ति जो सब विद्याओं को यथावत जानता हो। ऋषि चाहे वेद के दृष्टा हों अथवा सृष्टा लेकिन यह सत्य है कि वेदों का प्रचार ऋषियों ने ही किया है। आज यदि वेदों के मन्तव्य में कहीं उलझाव और अस्पष्टता है तो उसे सुलझाने के लिए कोई दार्शनिक नहीं बल्कि एक ऋषि चाहिए। एक ऋषि की, एक गुरू की ज़रूरत मानव मात्र को हमेशा से रही है और आज भी है।
वह कौन हो सकता है? यह तो बहरहाल खोज का विषय है लेकिन यह प्रमाणित हो चुका है कि स्वामी दयानन्द जी इस ज़रूरत को पूरा नहीं कर सकते। उनके जीवन के कटु अनुभवों और वेदार्थ को समझ पाने में उनकी और उनसे पूर्व के भाश्यकारों की नाकामी से पता चलता है कि भारत भूमि काफी समय से वास्तविक और पूर्ण ज्ञानी गुरू से रिक्त है। यह दुखद है, लेकिन सच यही है।
इसके बावजूद हमें यक़ीन है कि भारत जल्द ही अपना खोया हुआ धर्म, सत्य और गौरव प्राप्त कर लेगा क्योंकि भारतवासी स्वभाव से ही ज्ञानाकांक्षी हैं। ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में अब जाति, भाषा और राष्ट्र की बेबुनियाद दीवारें भी ढहती जा रही हैं। मशहूर चीनी कहावत है कि
`जब विद्यार्थी तैयार हो जाता है तो गुरू उपस्थित हो जाता है।´
जो ढूंढता है वह पाता है लेकिन ...
गुरू की खोज का अभियान जारी रखिये क्योंकि जो ढूंढता है वही पाता है। उन जगहों पर भी तलाश कीजिए जहाँ अभी तक तलाश न किया हो। हो सकता है कि ऋषि उस रूप में और उस परिधि में मिले जिसकी कल्पना भी न की हो। ऋषि उस भेष-भाषा, देश और वंश में मिले जिसे स्वीकारना निजी अहंकार और राष्ट्रीय गर्व पर चोट करता हो। बहरहाल ऋषि ही सच्चा गुरू हो सकता है। अब वो जैसे भी मिले और जहाँ भी मिले, `धर्म को साक्षात करना और सब विद्याओं का यथावत जानना´ उसका मूल लक्षण है। आप उसे इस लक्षण से पहचान जाएंगे।
`सब विद्याओं के यथावत जानने´ को अरबी में `इल्म अस्मा कुल्लहा´ कहते हैं और इसे पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब (सल्ल. अर्थात उनपर शान्ति हो) की विशेषता बताई गई है। देखिये, जानिये, सोचिये, समझिये और फिर फैसला कीजिए क्योंकि आपके फैसले से ही आपका भविष्य निर्धारित होता है। आपके विचार से ही आपके कर्म फूटते हैं और अपने कर्मों का फल भी आपको स्वयं ही भोगना है। आप सत्य की खोज और स्वीकार के मार्ग पर आगे बढ़कर अपना जीवन स्वर्ग बनाना चाहते हैं, मुक्ति, आनंद और ईश्वर पाना चाहते हैं या फिर घृणा, तिरस्कार और अपने अंहकार की ऊंची दीवार से ही सर टकराते रहना चाहते हैं? पानी वहीं मिलेगा जहाँ कि वास्तव में वह मौजूद है। मृगमरीचिका´ से किसी को आज तक पानी नसीब नहीं हुआ तो आपको कैसे मिल जाएगा?
ढूंडिये लेकिन वहाँ, जहाँ कि वह सचमुच है।
40 `... सत्य असत्य के ग्रहण व त्याग करने में सदा उद्यत रहने वाले आर्य क्या दूसरों को ही उपदेश देते रहेंगे? क्या वे स्वयं सत्य पक्ष को ग्रहण करने में हठवश संकोच ही करते रहेंगे? (ऋग्वेदादिभाश्यभूमिका, पृष्ठ 7)
इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए उपयोगी ग्रन्थ :
हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश
आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें अध्याय का अनुक्रमिक तथा प्रत्यापक उत्तर. लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरीमुकददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल
1. कु़रआन मजीद : एक परिचय
लेखक : मौलाना सदरुद्दीन इसलाही
मधुर संदेश संगम, म्-20 अबुल फ़ज्ल इन्कलेव
जामिया नगर, नई दिल्ली - 110025
2. आवागमनीय पुनर्जन्म
लेखक : डॉ0 मुहम्मद अहमद
मिलने का पता उपरोक्त
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3. कितने दूर कितने पास
लेखक : सैय्यद अब्दुल्लाह तारिक
प्रकाशक : रौशनी पब्लिशिंग हाऊस
बाज़ार नसरुल्लाह खां, रामपुर (उ.प्र.)
online: quran-ved: kitne doosr kitne pas
4. नराशंस और अन्तिम ऋषि
लेखक : डॉ0 वेदप्रकाश उपाध्याय
प्रकाशक : जम्हूर बुक डिपो, निकट मुस्लिम फंड
देवबन्द (उ0प्र0) 247554
online: antimawtar.blogspot.com
5. इस्लाम : आतंक या आदर्श?
लेखक : श्री स्वामी लक्ष्मी‘ शंकराचार्य जी
।- 1601, आवास विकास कालोनी, हंसपुरम, नौबस्ता, कानपुर-201021
umarkairanvi's document ''सत्यार्थ प्रकाश'' पर डा. अनवर जमाल की रिसर्च Dayananad-Ne-Kiya-Khoja-Kiya-Paya--by:----Dr.-anwar-jamal---[hindi-book] has made it into the Scribd hotlist. Congratulations!
दयानन्द जी ने क्या खोजा क्या पाया? - डा. अनवर जमाल
कैरानवी साहब जमाल साहब की इस पुस्तक की इन्टरनेट में बहुत आवश्यकता थी, धन्यवाद
ReplyDeleteyeh dunya ajab ghazab he, yahan kiska yaqeen karen kiska nahin?
ReplyDeleteरोचक
ReplyDeletewoh uski bakwas-yeh teri bakwas
ReplyDeletedayanand mera bhai tha, tum bhi mere bhai ho, yeh duniya sari aapas men bhai bhai he.
ReplyDeleteभाई विवेकानन्द पर भी कुछ पढवाओ
ReplyDeleteउत्तम एवं सर्वश्रेष्ठ पोस्ट
ReplyDeleteतुम्हारा खालिद बाबा
good site
ReplyDeleteबहुत अच्छी कोशिश,अल्लाह आपको अच्छा और सुरक्षित रखे।
ReplyDeleteAuthor is recommended to refer a recently published Hindi book "Kuran - Satyarth Prakash ki chhaya men" (Kuran in the shadow of Satyarth Prakash), author : Prof Rajendra Jignasu.
ReplyDeleteब्राह्मण तीनों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैष्य, क्षत्रिय क्षत्रिय और वैष्य तथा वैश्य एक वैश्य वर्ण को यज्ञोपवीत कराके पढ़ा सकता है और जो कुलीन शुभ लक्षण युक्त शूद्र हो तो उसको मन्त्रसंहिता छोड़के सब शास्त्र पढ़ावे, शूद्र पढे़ परन्तु उसका उपनयन न करे। (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय0 पृष्ठ 31)
ReplyDeleteलेखक का सवाल
अगर बचपन में ही ऊंचनीच की दीवारें खड़ी कर दी जायेंगी तो बड़े होकर तो ये दीवारें और भी ज्यादा ऊंची हो जायेंगी, फिर समाज उन्नति कैसे करेगा?
At this place Swami Dayananda has just shown what is the opinion of other Acharyas as mentioned in the quoted statement of Sushut.
ReplyDeleteSwami Dayananda has very clearly mentioned in his books that the Shudra (NOT BASED ON BIRTH, BUT BASED ON GUN-KARMA-SWABHAV) is also entitled for the study of Vedas.
Before raising wrong points one should read Swami Dayananda's books very carefully.
क्या दयानन्द जी वेदों का वास्तविक अर्थ जानते थे?
ReplyDelete(16) यदि दयानन्द जी की अविद्या रूपी गांठ ही नहीं कट पायी थी और वह परमेश्वर के सामीप्य से वंचित ही रहकर चल बसे थे तो वह परमेश्वर की वाणी `वेद´ को भी सही ढंग से न समझ पाये होंगे? उदाहरणार्थ, दयानन्दजी एक वेदमन्त्र का अर्थ समझाते हुए कहते हैं-
`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्ठ 107)
(17) परमेश्वर ने चन्द्रमा को पृथ्वी के पास और नक्षत्रलोकों से बहुत दूर स्थापित किया है, यह बात परमेश्वर भी जानता है और आधुनिक मनुष्य भी। फिर परमेश्वर वेद में ऐसी सत्यविरूद्ध बात क्यों कहेगा?
इससे यह सिद्ध होता है कि या तो वेद ईश्वरीय वचन नहीं है या फिर इस वेदमन्त्र का अर्थ कुछ और रहा होगा और स्वामीजी ने अपनी कल्पना के अनुसार इसका यह अर्थ निकाल लिया । इसकी पुष्टि एक दूसरे प्रमाण से भी होती है, जहाँ दयानन्दजी ने यह तक कल्पना कर डाली कि सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रादि सब पर मनुष्यदि गुज़र बसर कर रहे हैं और वहाँ भी वेदों का पठन-पाठन और यज्ञ हवन, सब कुछ किया जा रहा है और अपनी कल्पना की पुष्टि में ऋग्वेद (मं0 10, सू0 190) का प्रमाण भी दिया है-
`जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुश्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे? (सत्यार्थ., अश्टम. पृ. 156)
(18) क्या यह मानना सही है कि ईश्वरोक्त वेद व सब विद्याओं को यथावत जानने वाले ऋषि द्वारा रचित साहित्य के अनुसार सूर्य व चन्द्रमा आदि पर मनुष्य आबाद हैं और वो घर-दुकान और खेत खलिहान में अपने-अपने काम धंधे अंजाम दे रहे हैं?
लाजवाब
ReplyDeleteSHREEMANJI ! SWAMIJI KI MAHANTA ISMEN NAHIN HAI KE UNHONE CHANDRAMA YA SOORYA PAR LOGON KA HONA BATAYA.UNKI MAHANTA YE HAI KE UNHONE HINDUON KO JAGAYA AUR BADLE MEN MURTY POOJAKON KE HAATHON JAHAR PIYA AUR PHIR APNE HATYARE KO CHHAMA KAR DIYA. KARM PRADHAN HAI ,BAKI SAB BAKWAS SE KYA PHAYDA?
ReplyDeleteIT IS INTERESTING.MAN ON THE SUN? WHAT A THOUGHT.IT IS POSSIBLE BCOZ MEN CAN GO INTO THE VOLCANO.IT MEANS ONEDAY MAN WILL ABLE TO GO TO THE SUN.IT IS A VEDIC SAYING AND IT WOULD BE CORRECT.HAVE PATIENCE AND WAIT.
ReplyDeleteaatrey chacha is docotor ne to apni dukan alag ( vedquran.blogspot.com ) lagali wahan udhar bhago wahan ek comments men aaj likha he jawab do
ReplyDeleteस्वामी दयानंद सरस्वती ने दाह संस्कार की जो विधि बताई है वह विधि दफ़नाने की अपेक्षा कहीं अधिक महंगी है। जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि मुर्दे के दाह संस्कार में “ारीर के वज़न के बराबर घी, उसमें एक सेर में रत्ती भर कस्तूरी, माषा भर केसर, कम से कम आधा मन चन्दन, अगर, तगर, कपूर आदि और पलाष आदि की लकड़ी प्रयोग करनी चाहिए। मृत दरिद्र भी हो तो भी बीस सेर से कम घी चिता में न डाले। (13-40,41,42)
स्वामी दयानंद सरस्वती के दाह संस्कार में जो सामग्री उपयोग में लाई गई वह इस प्रकार थी - घी 4 मन यानी 149 कि.ग्रा., चंदन 2 मन यानि 75 कि.ग्रा., कपूर 5 सेर यानी 4.67 कि.ग्रा., केसर 1 सेर यानि 933 ग्राम, कस्तूरी 2 तोला यानि 23.32 ग्राम, लकड़ी 10 मन यानि 373 कि.ग्रा. आदि। (आर्श साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा प्रकाषित पुस्तक, ‘‘महर्शि दयानंद का जीवन चरित्र’’ से) उक्त सामग्री से सिद्ध होता है कि दाह संस्कार की क्रिया कितनी महंगी है।
its very nice book thanks a lot
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ReplyDeleteअनवर जमाल जी स्वामी दयानंद जी ने उन लोगो को इसलिए माफ़ कर दिया क्योकि वो जानते है की दंड देने का काम उनका नही है यह काम तो ईश्वर का है
ReplyDeleteअनवर जमाल जी स्वामी दयानंद जी ने उन लोगो को इसलिए माफ़ कर दिया क्योकि वो जानते है की दंड देने का काम उनका नही है यह काम तो ईश्वर का है
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