इस्लाम इन हिन्दी: 9/1/09 - 10/1/09

टीपु सुलतान - tipu-sultan

book: इतिहास के साथ यह अन्याय!! प्रो. बी. एन. पाण्डेय--:भूतपूर्व राज्यपाल उडीसा एवं इतिहासकार उडीसा के भूतपूर्व राज्यपाल, राज्यसभा के सदस्य और इतिहासकार प्रो. विश्म्भरनाथ पाण्डेय ने अपने अभिभाषण और लेखन में उन ऐतिहासिक तथ्यों और वृतांतों को उजागर किया है, जिनसे भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि इतिहास को मनमाने ढंग से तोडा-मरोडा गया है।

‘‘अब में कुछ ऐसे उदाहरण पेश करतहा हूं, जिनसे यह स्पष्ट हो जायेगा कि ऐतिहासिक तथ्यों को कैसे विकृत किया जाता है।

जब में इलाहाबाद में 1928 ई. में टीपु सुलतान के सम्बन्ध में रिसर्च कर रहा था, तो ऐंग्लो-बंगाली कालेज के छात्र-संगठन के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और अपने ‘हिस्ट्री-ऐसोसिएशन‘ का उद्घाटन करने के लिए मुझको आमंत्रित किया। ये लोग कालेज से सीधे मेरे पास आए थे। उनके हाथों में कोर्स की किताबें भी थीं, संयोगवश मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पडी। मैंने टीपु सुलतान से संबंधित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत ज्यादा आश्चर्य में डाल दिया, वह यह थाः
‘‘तीन हज़ार ब्राहमणों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि टीपू उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था।’’
इस पाठ्य-पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय डा. परप्रसाद शास्त्री थे जो कलकत्‍ता विश्वविद्यालय में
संस्कृत के विभागा
घ्यक्ष थे। मैंने तुरन्त डा. शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टीपु सुल्तान के सम्बन्ध में उपरोक्त वाक्य किस आधार पर और किस हवाले से लिखा है। कई पत्र लिखने के बाद उनका यह जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना ‘मैसूर गज़ेटियर‘ (Mysore Gazetteer) से उद्धृत की है। मैसूर गज़टियर न तो इलाहाबाद में और न तो इम्पीरियल लाइबे्ररी, कलकत्‍ता में प्राप्त हो सका। तब मैंने मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर बृजेन्द्र नाथ सील को लिखा कि डा. शास्त्री ने जो बात कही है, उसके बारे में जानकारी दें। उन्होंने मेरा पत्र प्रोफेसर श्री मन्टइया के पास भेज दिया जो उस समय मैसूर गजे़टियर का नया संस्करण तैयार कर रहे थे।


प्रोफेसर श्री कन्टइया ने मुझे लिखा कि तीन हज़ार ब्राहम्णों की आत्महत्या की घटना ‘मैसूर गज़ेटियर’ में कहीं भी नहीं है और मैसूर के इतिहास के एक विद्यार्थी की हैसियत से उन्हें इस बात का पूरी यक़ीन है कि इस प्रकार की कोई घटना घटी ही नहीं है। उन्होंने मुझे सुचित किया कि टीपु सुल्तान के प्रधानमंत्री पुनैया नामक एक ब्राहम्ण थे और उनके सेनापति भी एक ब्राहम्ण कृष्णाराव थे। उन्होंने मुझको ऐसे 156 मंदिरों की सूची भी भेजी जिन्हें टीपू सुल्तान वार्षिक अनुदान दिया करते थे। उन्होंने टीपु सुल्तान के तीस पत्रों की फोटो कापियां भी भेजी जो उन्होंने श्रंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकराचार्य को लिखे थे और जिनके साथ सुल्तान के अति घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध थे। मैसूर के राजाओं की परम्परा के अनुसार टीपु सुल्तान प्रतिदिन नाश्ता करने के पहले रंगनाथ जी के मंदिर में जाते थे, जो श्रींरंगापटनम के क़िले में था। प्रोफेसर श्री कन्टइया के विचार में डा. शास्त्री ने यह घटना कर्नल माइल्स की किताब ‘हिस्ट्रªी आफ मैसूर‘ (मैसूर का इतिहास) से ली होगी। इसके लेखक का दावा था कि उसने अपनी किताब ‘टीपू सुल्तान का इतिहास‘ एक प्राचीन फ़ारसी पांडुलिपि से अनुदित किया है, जो महारानी विक्टोरिया के निजी लाइब्रेरी में थी। खोज-बीन से मालूम हुआ कि महारानी की लाइब्रेरी में ऐसी कोई पांडुलिपि थी ही नहीं और कर्नल माइल्स की किताब की बहुत-सी बातें बिल्कुल ग़लत एवं मनगढंत हैं।


डा. शास्त्री की किताब का पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उडीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में पाठयक्रम के लिये स्वीकृत थीं मैंने कलकत्‍ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर आशुतोष चैधरी को पत्र लिखा और इस सिलसिले में अपने सारे पत्र-व्यवहारों की नक़लें भेजीं और उनसे निवेदन किया कि इतिहास को इस पाठय-पुस्तक में टीपु सुल्तान से सम्बन्धित जो गलत और भ्रामक वाक्य आए हैं, उनके विरूदध समुचित कार्रवाई की जाए। सर आशुतोष चैधरी का शीघ्र ही जवाब आ गया कि डा. शास्त्री की उक्त पुस्तक को पाठयक्रम से निकाल दिया गया है। परन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या की वही घटना 1972 ई. में भी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाई स्कूल की कक्षाओं में इतिहास के पाठयक्रम की किताबों में उसी प्रकार मौजूद थी। इस सिलसिले में महात्मा गांधी की वह टिप्पणी भी पठनीय है जो उन्होंने अपने अखबार ‘यंग इंडिया‘ में 23 जनवरी 1930 ई. के अंक में पृष्ठ 31 पर की थी। उन्होंने लिखा था कि-


‘‘मैसूर के फ़तह अली (टीपू सुल्तान) को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया है कि मानो वह धर्मान्धता का शिकार था। इन इतिहासकारों ने लिखा है कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर जुल्म ढाए और उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाया, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी। हिन्दू प्रजा के साथ उसके बहुत अच्छे सम्बनध थे। ...... मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग (Archaeology Department) के पास ऐसे तीस पत्र हैं, जो टीपू सुल्तान ने श्रंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकराचार्य केा 1793 ई. में लिखे थे। इनमें से एक पत्र में टीपु सुल्तान ने शंकराचार्य के पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उनसे निवेदन किया है कि वे उसकी और सारी दुनिया की भलाई, कल्याण और खुशहाली के लिए तपस्या और प्रार्थना करें। अन्त में उसने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया है कि वे मैसूर लौट आएं, क्योंकि किसी देश में अच्छे लोगों के रहने से वर्षा होती है, फस्ल अच्छी होती हैं और खुशहाली आती हैं।’’
यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है। ‘यंग इण्डिया में आगे कहा गया है-

‘‘टीपू सुल्तान ने हिन्दू मन्दिरों विशेष रूप से श्री वेंकटरमण, श्री निवास और श्रीरंगनाथ मन्दिरों की ज़मीनें एवं अन्य वस्तुओं के रूप में बहुमूल्य उपहार दिए। कुछ मन्दिर उसके महलों के अहाते में थे यह उसके खुले जेहन, उदारता एवं सहिष्‍णुता का जीता-जागता प्रमाण है। इससे यह वास्तविकता उजागर होती है कि टीपु एक महान शहीद था। जो किसी भी दृष्टि से आजादी की राह का हकीकी शहीद माना जाएगा, उसे अपनी इबादत में हिन्दू मन्दिरों की घंटियों की आवाज़ से कोई परेशानी महसूस नहीं होती थी। टीपु ने आजादी के लिए लडते हुए जान देदी और दुश्मन की लाश उन अज्ञात फौजियों की लाशों में पाई गई तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी- वह तलवार जो आजादी हासिल करने का ज़रिया थी। उसके ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने के योग्य हैं : ‘शेर की एक दिन की ज़िंदगी लोमडी के सौ सालों की जिंगी से बेहतर है।‘ उसकी शान में कही गई एक कविता की वे पंक्तियां भी याद रखे जाने योग्य हैं, जिनमें कहा गया है : कि ‘खुदाया, जंग के खुन बरसाते बादलों के नीचे मर जाना, लज्जा और बदनामी की जिंदगी जीने से बेहतर है।
---
इसी किताब से पढें
औरंगज़ेब ने मन्दिर तोडा तो मस्जिद भी तोडी लेकिन क्यूं? aurangzeb

हिंदू मंदिरों और प्रतीकों के रखवाले थे टीपू सुल्तान

टीपू सुल्तान उन कुछेक भारतीय शासकों में से है जो कि अंग्रेजों से ना डरे, ना उनके सामने रुके बल्कि अंग्रेजों का सामना करते हुए युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए.... More 





Share/Bookmark

दारूल उलूम देवबन्द - महान इस्लामी विश्व विद्यालय-deoband-islamic-university-india

इस्लामी दुनिया में दारूल उलूम देवबन्द का एक विशेष स्थान है जिसने पूरे क्षेत्र को ही नहीं, पूरी दुनिया क मुसलमानों को प्रभावित किया है। दारूल उलूम देवबन्द केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं एक विचाराधारा है, जो अंधविश्वास, कूरीतियों व आडम्बरों के विरूध इस्लाम को अपने मूल और शुदध रूप में प्रसारित करता है। इसलिए मुसलमानों में इस विखराधारा से प्रभावित मुसलमानों को ‘‘देवबन्दी‘‘ कहा जाता है।
देवबन्द उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण नगरों में गिना जाता है जो आबादी के लिहाज़ से तो एक लाख से कुछ ज्यादा आबादी का एक छोटा सा नगर है। लेकिन दारूल उलूम ने इस नगर को बडे-बडे नगरों से भरी व सम्मानजनक बना दिया है, जो ना केवल अपने गर्भ में एतिहासिक पृष्ठ भूमि रखता है, अपितु आज भी साम्प्रदायिक सौहार्दद धर्मनिरपेक्षता एवं देश प्रेम का एक अजीब नमूना प्रस्तुत करता है। 40 photos deoband madarsa
देवबन्द इस्लामी शिक्षा व दर्शन के प्रचार के व प्रसार के लिए संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है। भारतीय संस्कृति व इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति में जो समन्वय आज हिन्दुस्तान में देखने को मिलता है उसका सीधा-साधा श्रेय देवबन्द दारूल उलूम को जाता है। यह मदरसा मुख्य रूप से उच्च अरबी व इस्लामी शिक्षा का केंद्र बिन्दु है। दारूल उलूम ने न केवल इस्लामिक शोध व साहित्य के संबंध में विशेष भूमिका निभायी है, बल्कि भारतीय पर्यावरण में इस्लामिक सोच व संस्कृति को नवीन आयाम तथा अनुकूलन दिया है।
दारूल उलूम देवबन्द की आधारशिला 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन व मौलाना कासिम नानोतवी द्वारा रखी गयी थी। वह समय भारतक के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल व तनाव का समय था, उस समय अंग्रेजों के विरूद्ध लडे गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई.) की असफलता के बादल छंट भी ना पाये थे और अंग्रजों का भारतीयों के प्रति दमनचक्र तेज कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मची थी। अंग्रजों ने अपने संपूर्ण शक्ति से स्वतंत्रता आंदोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था। अधिकांश आंदोलनकारी शहीद कर दिये गये थे, (देवबन्द जैसी छोटी बस्ती में 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था) और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानियों पर निराशाओं के पृहार होने लगे थे। चारों ओर खलबली मची हुई थी। एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जासे, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्ष जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्ष की जाये। उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज एस समय तक विशाल एवं जालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुकाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देश भक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये। इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवशयकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवशयकता थी जो धर्म व जाति से उपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें।
इन्हीं उददेश्यों की पूर्ति के लिए जिन महान स्वतंत्रता सेनानियों व संस्थानों ने धर्मनिरपेक्षता व देशभक्ति का पाठ पढाया उनमें दारूल उलूम देवब्नद के कार्यों व सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। स्वर्गीय मौलाना महमूद हसन (विख्यात अध्यापक व संरक्षक दारूल उलूम देवबन्द) उन सैनानियों में से एक थे जिनके कलम, ज्ञान, आचार व व्यवहार से एक बडा समुदाय प्रभावित था, इन्हीं विशेषताओं के कारण इन्हें शेखुल हिन्द (भारतीय विद्वान) की उपाधि से विभेषित किया गया था, उन्हों ने न केवल भारत में वरन विदेशों (अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की, सउदी अरब व मिश्र) में जाकर भारत व ब्रिटिश साम्राज्य की भ्रत्‍सना की और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध जी खोलकर अंग्रेजी शासक वर्ग की मुखालफत की। बल्कि शेखुल हिन्द ने अफगानिस्तान व ईरान की हकूमतों को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रमों में सहयोग देने के लिए तैयार करने में एक विशेष भूमिका निभाई। उदाहरणतयः यह कि उन्होंने अफगानिस्तान व ईरान को इस बात पर राजी कर लिया कि यदि तुर्की की सेना भारत में ब्रिटिश साम्राजय के विरूद्ध लडने पर तैयार हो तो जमीन के रास्ते तुर्की की सेना को आक्रमण के लिए आने देंगे।

शेखुल हिन्द ने अपने सुप्रिम शिष्यों व प्रभावित व्यक्तियों के माध्यम से अंग्रेज के विरूद्ध प्रचार आरंभ किया और हजारों मुस्लिम आंदोलनकारियों को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध चल रहे राष्टीय आंदोलन में शामिल कर दिया। इनके प्रमुख शिष्य मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उबैदुल्ला सिंधी थे जो जीवन पर्यन्त अपने गुरू की शिक्षाओं पर चलते रहे, और अपने देशप्रमी भावनाओं व नीतियों के कारण ही भारत के मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियों व आंदोलनकारियों में एक भारी स्तम्भ के रूप में जाने जाते हैं।
Darul_Uloom_Deoband

सन 1914 ई. में मौलाना उबैदुल्ला सिंधी ने अफगानिस्तात जाकर अंग्रजों के विरूद्ध अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की सर्वप्रथम स्वतंत्रत सरकार स्थापित की जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप को बना दिया। यहीं पर रहकर उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की एक शाखा कायम की जो बाद में (1922 ई.) में मूल कांग्रेस संगठन इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दी गयी। शेखुल हिन्द 1915 ई. में हिजाज (सउदी अरब का पहला नाम था) चले गये, उन्होंने वहां रहते हुए अपने साथियों द्वारा तुर्की से संपर्क बना कर सैनिक सहायता की मांग की।
सन 1916 ई. में इसी संबंध में शेखुल हिन्द इस्तम्बूल जाना चाहते थे। मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर ग़ालिब तैनात था शेखुल हिन्द को इस्तम्बूल के बजाये तुर्की जाने के लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्ध मंत्री अनवर पाशा हिजाज पहुंच गये। शेखुल हिन्द ने उनसे मुलाकात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया। अनवर पाशा ने भारतीयों के प्रति सहानुभूति प्रकट की और अंग्रेज साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की। हिजाज से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को अफगानिसतान भेजा, मौलाना सिंधी ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार रहा। यह गुप्त सिलसिला ‘‘तहरीक ए रेशमी रूमाल‘‘ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इसके सम्बंध में सर रोलेट ने लिखा है कि ‘‘ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्‍का थी‘‘।
Deoband Nazam urdu/hindi youtube

wikipedia article
सन 1916 ई. में अंगेजों ने किसी प्रकार शेखुल हिन्द को मदीने में गिरफ्तार कर लिया। हिजाज से उन्हें मिश्र लाया गया और फिर रोम सागर के एक टापू मालटा में उनके साथियों मौलान हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उजैर गुल हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद सहित जेल में डाल दिया था। इन सबको चार वर्ष की बामुशक्कत सजा दी गी। सन 1920 में इन महान सैनानियां की रिहाई हुई।
शेखुल हिन्द की अंगेजों के विरूद्ध तहरीके रेशमी रूमाल, मौलाना मदनी की सन 1936 से सन 1945 तक जेल यात्रा, मौलाना उजैरगुल, हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद का मालटा जेल की पीडा झेलना, मौलाना सिंधी की सेवायें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण हैं कि दारूल उलूम ने स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य भूमिका निभाई है। इस संस्था ने ऐसे अनमोल रत्न पैदा किये जिन्होंने अपनी मातृ भूमि को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा दिया। ए. डब्लयू मायर सियर पुलिस अधीक्षक (सी. आई. डी. राजनैतिक) पंजाब ने अपनी रिपोर्ट न. 122 में लिखा था जो आज भी इंडियन आफिस लंदन में सुरक्षित है कि ‘‘मौलाना महमूद हसन (शेखुल हिन्द) जिन्हें रेशमी रूमाल पर पत्र लिखे गये, सन 1915 ई. को हिजरत करके हिजाज चले गये थे, रेशमी खतूत की साजिश में जो मोलवी सम्मिलित हैं, यह लगभग सभी देवब्नद स्कूल से संबंधित हैं।‘‘
गुलाम रसूल मेहर ने अपने पुस्तक ‘‘सरगुजस्त ए मुजाहिदीन‘‘ (उर्दू) के पृष्‍ठ न. 552 पर लिखा है कि ‘‘मेरे अध्ययन और विचार का सारांश यह है कि हजरत शेखुल हिन्द अपनी जिन्दगी के प्रारंभ में एक रणनीति का खाका तैयार कर चुके थे और इसे कार्यान्वित करने की कोशिश उन्होंने उस समय आरंभ कर दी थी जब हिन्दुस्तान के अंदर राजनीतिक गतिविधियां केवल नाम मात्र थी‘‘।
उडीसा के गवर्नर श्री बिशम्भर नाथ पाण्डे ने एक लेख में लिखा है कि दारूल उलूम देवबन्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम में केंद्र बिन्दु जैसा ही था, जिसकी शाखायें दिल्ली, दीनापुर, अमरोहा, कारची, खेडा और चकवाल में स्थापित थी। भारत के बाहर उत्तर पश्चिमी सीमा पर छोटी सी सवतंत्र रियासत ‘‘यागिस्तान‘‘ भारत के स्वतंत्रता का केंद्र था, यह आंदोलन केवल मुसलमानों का ना था बल्कि पंजाब के सिक्खों व बंगाल की इंकलाबी पार्टी के सदस्यों को भी इसममें शामिल किया था।
इसी पकार असंख्यक तथ्य ऐसे हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि दारूल उलूम देवबन्द स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भी देश प्रेम का पाढ पढता रहा है जैसे सन 1947 ईं. में भारत को आजादी तो मिली, परन्तु साथ साथ नफरतें आबादियों का स्थानंतरण व बंटवारा जैसे कटु अनुभव का समय भी आया, परन्तु दारूल उलूम की विचारधारा टस से मस ना हुई। इसने डट कर सबका विरोध किया और इंडियन नेशनल कांग्रस के संविधन में ही अपना विश्वास व्यक्त कर पाकिस्तान का विरोध किया तथा अपने देशप्रेम व धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण दिया। आज भी दारूल उलूम अपने देशप्रेम की विचार धारा के लिए संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध है।
दारूल उलूम देवबन्द में पढने वाले विद्यार्थियों को मुफत शिक्षा, भोजन, आवास व पुस्तकों की सुविधा दी जाती है। दारूल उलूम देवब्नद ने अपनी स्थापतना से आज (हिजरी 1283 से 1424) सन 2002 तक लगभग 95 हजार महान विद्वान, लेखक आदि पैदा किये हैं। दारूल उलूम में इस्लामी दर्शन, अरबी, फारसी, उर्दू की शिक्षा के साथ साथ किताबत (हाथ से लिखने का कला), दर्जी का कार्य व किताबों पर जिल्दबन्दी, उर्दू, अरबी, अंगेजी, हिन्दी में कम्पयूटर तथा उर्दू पत्रकारिता का कोर्स भी कराया जाता है। दारूल उलूम में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा व साक्षात्कार से गुजरना पडता है। प्रवेश के बाद शिक्षा मुफत दी जाती है। दारूल उलूम देवबन्द ने अपने दार्शन व विचारधारा से मुसलमानों में एक नई चेतना पैदा की है जिस कारण देवबन्द स्कूल का प्रभाव भारतीय महाद्वीप पर गहरा है।
साभार http://www.darululoom-deoband.com/
visit for : fatwa online, magazine, urdu english books,donations, news, arabic

دارالعلوم دیوبند urdu wikipedia
musalman , islam, hindi, india, muslim, indian, hindustani, hindustan




Quran Shareef Hindi  क़ुरआन शरीफ हिन्दी तर्जुमा और लिपि अरबी मूलग्रंथ के साथ



Share/Bookmark

जन सेवा और इस्लाम jan-sewa-social-service-islam

इस्लाम का जन-सेवा से संबन्धित दावा है कि वह सम्पूर्ण मानव जाति और समस्त समाज के सारे मामलों में भरपूर रहनुमाई करता है, सिद्धांत देता है, सुनिश्चित नियम भी रखता है और नैतिक व भौतिक, हर स्तर पर समस्याओं का निवारण करता और जटिलताओं को सुलझाता है। उसका यह दावा, अपने पास निरी दार्शनिकता (Indialism) ही नहीं रखता, बल्कि व्यावहारिक स्थलों में अपने साथ मजबूत दलील व सबूत की शक्ति भी रखता है। मानव-अधिकार व कर्तव्य का एक सन्तुलित प्रावधान इस्लाम की बेमिसाल विशेषता है। मुसलिम समाज की बहुत-सी त्रुटियों, कमजोरियों और कोताहियों के बावजूद, उसपर इस्लाम की इस विशेषता का रंग सदा ही छाया रहा है। इतिहास भी इसका साक्षी रहा है और वर्तमान युग में समाजों का तुलनात्मक व निष्पक्ष अवलोकन भी इस बातत की गवाही देता है।
इस्लामीकरण jan-sewa-aur-islam, online hindi book
social service & islam
विषय सूची
दो शब्द, भूमिका,

विषय का परिचयः
सेवा एक नैसर्गिक भावना है
बच्चे की सहज प्रकृति
प्रकृति से विचलन का आरंभ होता है
इस्लाम की सुधारवादी भूमिका
अल्लाह से सम्बन्ध सेवा की भावना को सुदृढ करता है
अल्लाह के नेक बन्दे निस्सवार्थ सेवा करते हैं
सेवा के लिए भावनाओं की पवित्रता आवश्यक है
सत्ता सेवा के लिए है
सेवा में जोर-जबरदस्ती न हो
सेवा सम्मान दिलाती है

इस्लाम और मानव-जाति की सेवाः

पैगम्बरों की शिक्षा में जनसेवा
कुरआन और जनसेवा
अल्लाह के अनुग्रह के प्रति आभार
अल्लाह के बन्दों की सेवा अल्लाह की सेवा है
हर दशा में सेवा की भावना हो

सेवा भी इबादत हैः
नमाज और जकात का सम्बन्ध
रोजा का फिदया (अर्थदण्ड)
रोजा और सदक-ए-फित्र
हज में जब फिदया अनिवार्य (वाजिब) होता है
जिहार से रूजू का तरीका
सौगंध का प्रायश्चित (कसम का कफफारा)

सेवा सबकी की जाएः
स्वार्थी लोग
परिवारजनों के दास
समुदाय की (उम्मत) सेवा
उम्मत की कल्पना से राष्टीयता (कौमियत) की भावना नहीं उभरती
संपूर्ण मानजाति की सेवा

सेवा और अच्छे व्यवहार के अधिकारी ये हैं :
मां-बाप के साथ अच्छा व्यवहार
नानेदारों के साथ अच्छा व्यवहार
अनाथों (यतीमों) के साथ अच्छा व्वयवहार
मुहताजों के साथ अच्छा व्यवहार
गुलामों और आश्रितों के साथ अच्छा व्यवहार
नैतिक शिक्षा के साथ कानूनी सुरक्ष भी

जनसेवा के विभिन्न कामः
धन के द्वारा सेवा
ईमावालों के धन में वंचितों (महरूमों) का हक है
सद्व्यवहार
सेवा के कुछ अन्य तरीके
प्रत्येक सेवा दान (सदका) है
सामायिक सेवा का महत्व एवं श्रेष्ठता
खाना खिलाना
खाना खिलाने में सहयोग
पानी पिलाना
खाने की तैयारी में आंशिक सहायता करना
कपडे उपलब्ध कराना
मांगने वाले का हक पहचानना
बीमार से मुलाकात और सेवा करना

कठिनाइयों के स्थायी समाधान की आवश्यकताः
मुहताजों और विधवाओं की सेवा की व्यापक धारणा
अनाथ के भरण-पोषण का सही अर्थ
व्यवसाय एवं काम में लगाने की प्रेरणा
उद्योग व्यवसाय में सहयोग का महत्व

सेवा के कुछ निर्धारित कामः

आर्थिक सहयोग
कर्ज के द्वारा हायता करना
आवश्यक वस्तु तोहफे में देना
कोई चीज उधार देना
एक ही प्रकार की दो चीजें देना
कारोबार में साझेदारी
खेती-बाडी में साझेदार बनाना
मशविरा देना
पीडित की सहायता करना

जनकल्याण सम्बन्धी सेवाएं-
पवित्रता एवं स्वच्छता की शिक्षा एवं व्यवस्था
मार्ग से कष्ट दूर करना
सराय एवं होटल का निर्माण करना
पानी की व्यवस्था
जमीन का आबाद करना
वृक्षारोपण
मसजिदों की स्थापना
जनहित के कामों के लिए धर्मार्थदान(वक्फ) की श्रेष्ठता
सार्वजननिक सम्पति को हानि न पहुंचाई जाए
वे जीवन साधन जो सार्वजनिक सम्पति हैं
कौमी महत्व के साधन सबके लिए हैं
निजी जीवन-साधनों में भी अन्य लोगों का हक है

जन कल्याण की संस्थाएं एवं संगठनः

संस्थाओं की आवश्यकता एवं महत्व
संगठित प्रयास के लाभ
गैरमुस्लिमों से सहयोग
राज्य से सहयोग

गलत विचारों का सुधारः
इन्सान पर विभिन्न अधिकार लागू होते हैं
अधिकारों में एक स्वाभाविक क्रम है
नातेदारों का हक प्रमुख है
मुहताजों के अधिकार की उपेक्षा न हो
धनी और निर्धन का स्थाई विभाजन नहीं है
निजी और सामाजिक आवश्यकताओं के लिए सहायता मांगी जा सकती है
जनसेवा पूरा दीन (धर्म) नहीं है

निस्सवार्थता (इखलास) अनिवार्य है

निस्सवार्थ खर्च करने का प्रतिदान
पाखण्ड से प्रतिदान(अज्र) और पुण्य (सवाब) नष्ट हो जाता है
ख्याति के लिए सेवा
ख्चाति के लिए जनसेवा का परिणाम
निस्सवार्थ जनसेवा का असीम प्रतिदान
एहसान जताकर सवाब नष्ट न किया जाए
पारिभाषिक शब्दावली
इस्लामीकरण
आनलाइन पढने के लिये
jan-sewa-aur-islam-hindi-book-seva
झलक



social services and islam in hindi text
Use Comments Power
Share/Bookmark

amazon से किताबें जल्द और घर पर मंगायें

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...