अहमदी धर्म के आरम्भ करने वाले मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी जो कभी कृष्णजी बने और यहूदियों और ईसाइयों को अपने जाल में फंसाने के लिए मूसा और ईसा भी बने। आज मुसलमानों के लिए सिर दर्द बने हुये हैं, यह पुस्तक qadiyaniyat (ahmadiyat) ki haqeeqat उन नाम के मुसलमानों जिनको 56 इस्लामिक देशों ने इसलाम धर्म से निकाल रखा है, जो हज के लिए मक्का नहीं जा सकते, पंजाब के कादियान कस्बे में अपना हज कर लेते हैं की हक़ीक़त बयान करती है, यह किताब हिन्दी में उनके प्रचार को खत्म करेगी। इन्शा अल्लाह।
क़ादियानियत की हक़ीकत PDF on scribd.com
लेखक: मुहम्मद अब्दुर्रऊफ - अनुवादक: एस. कौसर लईक़-साहित्य सौरभ,1781, हौज़ सुईवालान, नई दिल्ली -110002 .
विषय सूची
भूमिका, परिचय :
मिर्ज़ा साहब का संक्षिप्त जीवन-परिचय
नुबूवत का समापन और मिर्ज़ा गुलाम अहमद के अक़ीदे:नुबूवत के खत्म होने का इनकारी- काफ़िर और झूठा ,मुजददिद व वली होने की तरफ पेशक़दमी ,हदीस की विदूता से नुबूवत की ओर तरक्क़ी, अल्लाह का नबी, मसीह के सदृश बनने की कोशिश, हक़ीक़त खुल गई ,नुबूवत का एलान ,मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्ल.) हैं, ऐन मुहम्मद हैं- का दावा ,एक ग़लती का रिवारण,मिर्ज़ाईयों का मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) से श्रेष्ठ बताना
इमाम मेहदी और हज़रम ईसा (अलै.) दो अलग-अलग शख्सियतें
मिर्ज़ा गुलाम अहमद न मेहदी, न मसीह मौऊद
कुरआन व हदीस में फेर बदल तथा इलहामात, तावीलें और दावे :कुरआन मजीद में फेर-बदल, कलमा के शब्दों और अर्थ में परिवर्तन, मिर्ज़ा के इलहाम
गुप्त इलहाम, मिर्ज़ा जी की तावीलें, मिर्ज़ा साहब के दावे, मिर्ज़ा जी गर्भवती हो गए
मिर्ज़ा जी की भविष्यवाणियाँ :मिर्ज़ा जी के निकट भविष्यवाणियों की हैसियत, अब्दुल्लाह आथम की मौत की भविष्यवाणी
मौऊद के बेटे की भविष्यवाणी ,मुबारक अहमद के बारे में भविष्यवाणी, क़ादियान में प्लेग
मिर्ज़ा साहब की हसरत जो दिल ही दिल मे रह गई, मिर्ज़ा जी की आखिरी दुआ और मौलाना सनाउल्लह अमृतसरी से आख़िरी फै़सला
क़ादियानी लोग मुसलमानों को क्या समझते हैं? :गै़र क़ादियानियों के बारे में मिर्ज्रा जी का बयान, रंडियों की औलाद
हरामज़ादे, मर्द सुअर और औरत कुतियाँ, ग़ैर मिर्ज़ाई के पीछे नमाज़ जाइज़ नहीं, ग़ैर मिर्ज़ाई की जनाज़े की नमाज़ पढ़नी और उससे रिश्तेदारी का निषेध, दुआ मत करो, पूरी तरह बाइकाट
मिर्ज़ा साहब और बैतुल्लाह (काबा) का हज
मिर्ज़ा जी और अल्लाह की राह में जिहाद :
स्पष्टीकरण
अंतिम बात
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(अल्लाह के नाम से बड़ा मेहरबान, निहायत रहीम है)
भूमिका
देश-विभाजन को आधी सदी से अधिक समय गुज़र चुका है, किन्तु इसके नापसन्दीदा असरात अभी तक मोजूद हैं। पंजाब , हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाक़ों में अब भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो हालात से मजबूर होकर सत्य-धर्म ( अर्थात इस्लाम ) से दूर हो गए थे। हालाँकि सुधार व प्रचार का काम देश-विभाजन के तुरंत बाद ही शुरू हो गया था, किन्तु सही बात यह है कि उसका हक़ अदा न हो सका। क़ादियानी, जो एक योजना के तहत अपने केन्द्र क़ादियान ( पंजाब ) में जमा व सुरक्षित रह गए थे, हालात अनुकूल पाकर अपना जाल बिछाने में लग गए और ‘दीन’ से नावाक़िफ़ बचे-खुचे लोगों को अपना शिकार बनाने लगे। उनकी सरगर्मियों का असल केन्द्र तो पाकिस्तान था, लेकिन वहाँ उन्हें बड़ी मुसीबतों और रूसवाइयों का सामना करना पड़ा, क्योंकि वहाँ का पूरा मुसलिम समुदाय अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के बाद किसी भी व्यक्ति को अललाह का रसूल और नबी स्वीकार नहीं करता। अतः सन् 1974 ई. में सरकारी तौर पर उन्हें पाकिस्तान में ग़ैर मुसलिम ठहरा दिया गया, और आज पूरा मुसलिम-जगत दीनी और धार्मिक रूप से उन्हें इस्लाम से बाहर समझता है। चूँकि पाकिस्तान में काम करना उनके लिए संभव न रहा, इसलिए उन्होंने अपनी कोशिशों और सरगर्मियों का रूख हिन्दुस्तान और खास तौर से पंजाब की ओर फेर दिया। पूर्वीय पंजाब के भूले-भटके व कम इल्मवाले लोग जो उनकी असलियत से नावाक़िफ़ थे, उन्हें मुसलमान समझकर बहुत जल्द उनके झाँसे में आ गए। क़ादियानी लोग मुसलिम समाज के अन्दर घुसकर अपने आपको एक सच्चे मुसलमान के रूप में पेश करते हैं और अपने इरादों को छिपाए रखते हैं। उन्हें पहचान लेना हर एक के बस की बात नहीं।
जनाब मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ साहब, डाक्टर ताबिश मेहदी, जनाब नसीम ग़ाज़ी साहब और भाई अज़ीज़ ख़ालिद किफ़ायत ने अपने क़ीमती मशविरों से नवाज़ा और हर मुमकिन सहयोग दिया, जिसके लिए इन लोगों का शुक्रिया अदा करना में अपना फ़र्ज़ समझता हूँ । इनके अलावा बहुत से अन्य दोसत् भी हैं जो मुझे बराबर इसके लिए उत्साहित करते रहे, मैं उनका भी शुक्रिया अदा करता हूँ।
आखिर में अल्लाह से दुआ है कि जिस जज़बे और एहसास के साथ यह किताब तैयार की गई है, उसमें कामियाबी दे और मुसलिम उम्मद ( समुदाय ) को क़ादियानियत जैसे एक बड़े फ़ितने से महमफूज़ व सुरक्षित रखे।
‘‘ऐ हमारे रब! हमारे ओर से इसे क़बूल कर ले, बेश तू सुनता, जानता है।’’ -कुरआन, 2:127
आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की शिफ़ाअत का उम्मीदवार-
-मुहम्मद अब्दुर्रऊफ, इस्लामाबाद, मालेर कोटला, ( पंजाब )
6 सितम्बर , 1999
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परिचय
यह किताब मोहतरम मौलाना मुहम्मद मुहम्मद अब्दुर्रऊफ की अध्ययन-रूचि और गवेषणात्मक चिंतन ( तहक़ीक़ी फिक्र ) और ज्ञान-प्रियत का प्रमाण तो है ही, किन्तु इससे भी बढ़कार यह खत्म नुबूवत अर्थात नुबूवत का समापन के अक़ीदे के संबंध में उनकी संलग्नता का प्रदर्शन भी है। इस रचना की ज्ञानात्मक (इल्मी) व तथ्यान्वेषणात्मक (तहक़ीक़ी) हैसियत चाहे कुछ भी हो, इसके ज्ञानात्मक लाभ से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि आज हर व्यक्ति को ऐसे संसाधन उपलब्ध नहीं हैं कि इस सबसे बड़े फ़ितने से संबंधित साहित्य का पूरी तरह अध्ययन कर सके। इस लिहाज़ से यह किताब एक कम्पैक्ट की हैसियत रखती है जिसके आईने में क़ादियानियत की वास्तविा वस्तुस्थिति, उसके तमाम अवयवों के साथ देखी जा सकती है।
इस नश्वर संसार में सत्य और असत्य का संघर्स आदिकाल से मौजूद रहा है और यह भी वास्तविकता है कि आखिरकार असत्य का पराजय ही हाथ लगी है।
सतीज़ाकार रहा है अज़ल से ता इमरोज़।
चिराग़े मुस्तफ़ा से शरारे बूलहबी।।
(अर्थात आदि से आज तक सत्य के प्रतीक हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्ल.) के चिराग़ और असत्य का साकार रूप अबू लहब की चिनगारी की जंग चही आ रही है।)
यही अबू लहब की चिनगारी विभिनन ज़मानों में अलग-अलग अन्दाज़ से और अलग-अलग शक्लों में नूरे मुहम्मदी से संघर्षरत रही है। मगर खुदा का शुक्र है कि हर बार ज़िल्लत व रूसवाई उसको प्राप्त हुई है और सत्य व न्याय को हमेशा जीत हासि हुई है।
हिन्दुस्तान में क़ादियानियत के फ़ितने ने सिर उठाया तो हमारे पूर्वजों और दीन के बुजाुर्गों व विद्वानों ने अपनी-अपनी प्रतिभा और हिम्मद व संसाधनों के मुताबिक उसको कुचलने और मिटाने की पूरी कोशिश की, और आज भी मुहम्मद (सल्ल.) के आशिक़ों व हक़ पर जान न्योछावर करनेवालों का क़ादियानियत से मुक़ाबला होता चला आ रहा है। वर्तमान समय में क़ादियानियत की तहरीक जिस ढंग से एक बार फिर अपने पाँव पसार रही है, उसका पीछा करने क लिए भाई मोहतरम जनाब मुहम्मद अब्दुर्रऊफ साहब ने रात-दिन मेहनत करके क़ादियानी किताबों और पत्रिकाओं से ही लेखांशों ( इक़तिबासों )को नक़ल करके उसका असली चेहरा दिखने की कोशिश की है खुदा उनकी इस कोशिश को क़बूल करे और जिस मक़सद के लिए यह किताब पेश की जा रही है उसमें कामियाबी दे। (आमीन!)
- ख़ालिद किफ़ायत
इस्मत मंज़िल, मालेर कोटला, (पंजाब)
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मिर्ज़ा साहब का संक्षिप्त जीवन-परिचय
जन्म तथा वंश
मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी का जन्म सन् 1839 ई. या सन् 1840 ई. में ज़िला गुरूदासपुर (पंजाब) के क़स्बा क़ादियान में हुआ। (सन 1891 ई.) में मसीह मौैऊद होने का और सन 1901 ई. में नुबूवत का दावा किया। सन् 1908 ई. में लाहौर में मृत्यु हुई और क़ादियान में दफ़न हुए।) उनके वालिद का नाम गुलाम मुर्तज़ा और वालिदा का नाम चिराग़ बीबी था। उनका संबंध मुग़ल क़ौम बिरलास से था।
शिक्षा (तालीम)
मिर्ज़ा साहब की इबतिदाई तालीम घर पर हुई। उन्होंने कुरआन मजीद और थोडी-सी फ़ारसी की तालीम अपने घर पर ही मौलवी फज़ले इलाही से हासिल की और अपनी सियालकोट की नौकरी के दौरान वहाँ आफिस के मुंशियों से कुछ अंग्रज़ी भी सीखी। (सीरतुल मेहदी, भाग-1ए पृ. 137) मिर्ज़ा ने मिसमेरिज़्म की तालीम भी हासिल की और उसमें महारत हासिल करने की कोशिश की, किन्तु बाद में उसको छोड़ दिया।
जवानी की बात
‘‘बयान किया मुझसे हज़रत वालिदा साहिबा ने कि एक बार अपनी जवानी के ज़माने में हज़रत मसीह (मौऊद) अलै. तुम्हारे दादा की पेंशन वसूल करने गए तो पीछे-पीछे मिर्ज़ा इमामुद्दीन भी चले गए। जब आपने पेंशन वसूल कर ली तो वह आपको फुसलाकर और धोखा देकर बजाए क़ादियान लाने के बाहर ले गया और इधर-उधर फिराता रहा। फिर जब आने रूपया उड़ाकार खत्म कर दिया तो आपको छोडकर कहीं और चला गया। हज़रत मसीह मौऊद इस शर्म से वापस घर नहीं आए और चूँकि तुम्हारे दादा का मंशा रहता था कि आप कहीं मुलाज़िम हो जाएँ, इसलिए आप सियालकोट शहर में डिप्टी कमिश्नर की कचेहरी में थोड़ी-सी तनख्वाह पर मुलाज़िम हो गए।’’
-सीरतुल मेहदी, भाग-1, पृ. 24, अंक-54, लेखक: साहबज़ादा बशीर अहमद
लिबास
मिर्ज़ा सहब आम तौर पर गर्म कपडे पहनते थे जिसमें ओवरकोट शामिल था। गर्मियों में भी पायजामा और सदरी (सीनाबंद जाकेट) गर्म रखते थे। सिर पर अमामा (पगड़ी) बाँधते थे और यह सब कुद बीमारी की वजह से था।
पसंदीदा खुराक
उनको मिठाई और मीठे खाने बहुत पसंद थे।
जेब की ढेले
हालाँकि शुगर की बीमारी भी आपको लगी हुई थी और बार-बार पेशाब के भी आप रोगी थे, उसी ज़माने में आप मिट्टी के ढेले कभी-कभी जेब में रखते थे और उसी जेब में गुड़ के ढेले भी रख लिया करते थे। इसी प्रकार की और बहुत-सी बातें हैं जो इस बात की गवाह हैं कि आपको अपने शाश्वत यार के प्यार में ऐसी तल्लीनता थी कि जिसके सबब इस दुनिया से बिलकुल बेखबर हो रहे थे।
- मिर्ज़ा साहब के हालात, संकलनकर्ता: मेराजुद्दीन उमर साहब, परिशिष्ट बराहीने अहमदिया, भाग-1, पृ. 87
जिस्मानी हालत
बचपन में चोट लग जाने के सबब से आपका दाहिना हाथ कमज़ोर था। आप निवाल मुँह तक तो ले जाते थे, लेकिन पानी का बरतन मुँह तक न ले जा सकते थे। नमाज़ में भी आपको दाहिना हाथ बाएँ हाथ से संभालना पड़ता था।
-हयातुल मेहदी, पृ. 198
मिर्ज़ा साहब की आँखें
मिर्ज़ा साहब की आँखें अध-खुली रहती थीं और एक आँख दूसरी के मुक़ाबले में छोटी थी। एक बार मिर्ज़ा साहब अपने कुछ ख़ादिमों के साथ फ़ोटो खिंचवाने गए तो फोटोग्राफर ने आपसे अर्ज़ किया कि हुज़ूर ज़रा आँखें खोलकर रखें, वरना तसवीर अच्छी नहीं आएगी और आपने उसके कहने पर एक बार तक़लीफ़ के साथ आँखों को कुछ अधिक खोला भी किन्तु वे फिर उसी तरह आधी बंद हो गई।
-सीरतुल मेहदी, पृ. 77, भाग-2, रिवायत 403-404, लेखक: साहबज़ादा बशीर अहमद
स्नायविक (आसाबी) दुर्बलता
मिर्ज़ा साहब स्नायविक कमज़ोरी के सिलसिले में खुद भी लिखते हैं जो इस प्रकार है-
‘‘मेरे मोहतरम भाई (मौलवी नूरूद्दीन साहब) अस्सलामु अलैकुम
यह आजिज़ पीर (सोमवार) के दिन 9 मार्च, सन् 1891 ई. को अपने परिवार के साथ लुधियाना की ओर जाएगा और चूँकि सर्दी और दूसरे-तीसरे दिन बारिश भी हो जाती है और इस आजिज़ को स्नायविक (आसाबी) बीमारी है, ठंडी हवा और बारिश से बहुत नुक़सान पहुँचता है। इस कारण से यह आजिज़ किसी सूरत से इतनी तकलीफ़ उठा नहीं सकता कि इस हालत में लुधियाना पहुँचकर फिर जल्दी लाहौर में आवे। तबीअत बीमार है, लाचार हूँ। इसलिए मुनाबि है कि अप्रैल के महीने में कोई तारीख तय की जाए। अस्सलाम,विनीत गुलाम अहमद
-मक्तूबाते अहमदिया, भाग-5, अंक-2, पृ. 90,
लेखः याकूब अली उर्फ़ानी क़ादियानी
क़ुरआनी पौधे वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से - Hindi Version of "Plants of the Quran"
याददाश्त की खराबी
मिर्ज़ा साहब फ़रमाते हैं-
‘‘मेरी याददाश्त बहुत खराब है, अगर कई बार किसी से मुलाक़ात हो तब भी भूल जाता हूँ। याद दिलाना सबसे अच्छा तरीक़ा है। याददाश्त इतनी खराब है कि बयान नहीं कर सकता।’’- मक्तूबाते अहमदिया, भाग-5, पृ. 21, अंक 2
मिर्ज़ा साहब के दाँत
मिर्ज़ा साहब के दाँत आखिरी उम्र में बहुत खराब हो गए थे, यानी कुछ दाँतों को कीड़ा लग गया था जिससे कभी-कभी बहुत तकलीफ़ हो जाती थी। चुनाँचे एक बार एक दाढ़ का सिरा ऐसा नोकदार हो गया था कि उससे उनके ज़बान में ज़ख़्म पड गया तो रेती के साथ घिसवाकर बराबर भी कराया था, मगर कभी कोई दाँत निकलवाया नहीं। -सीरतुल मेहदी, भाग.2, पृ. 135
जूते का तोहफ़ा
एक बार एक व्यक्ति ने जूते तोहफ़े में पेश किए। मिर्ज़ा साहब ने उसे क़बूल कर पहन लिया, किन्तु उसके दाँए-बाँए की पहचान न कर सकते थे। दायाँ पैर बाईं ओर के जूते में और बायाँ पैर दाईं ओर के जूते में डालकर पहन लिया। आ़िखरकार इस ग़लती से बचने के लिए एक ओर के जूते पर सियाही से निशान लगाना पड़ा। -सीरतुल मेहदी, भाग-1, पृ. 67
बार-बार पेशाब आने की बीमारी
मिर्ज़ा साहब खुद ज़िक्र करते हैं-
‘‘मुझे किसी दिन कभी-कभी सौ बार से भी अधिक पेशाब आता है, जिससे कमज़ोरी बढ़ जाती है।’’ -सीरतुल मेहदी, भाग-2
फिर तो मिर्ज़ा साहब बेचारे पेशाब ही में लगे रहते होंगे। हर पन्द्रह मिनट बाद पेशाब, फिर पेशाब में 5-6 मिनट भी लगते होंगे।
स्थाई रोग
‘‘मैं एक स्थाई मर्ज़ में ग्रस्त आदमी हूँ। हमेशा सिर के दर्द, सिर चकराने, अनिद्रा (नींद न आना) और दिल की ऐंठन की बीमारी दौरे के साथ आती है। वह बीमारी मधुमेह (शूगर) है कि एक मुद्दत से लगी है और कभी-कभी सौ-सौ बार रात को या दिन को पेशाब आता है। इस बार-बार पेशाब आने से जितनी बीमारियों की कमज़ोरी होतही है वे सब मेरी हालत में शामिल हैं।’’ -ज़मीमा अरबईन, पृ. 403, रूहानी खज़ाइन. पृ. 471, भाग-17
अफ़ीम
मिर्ज़ा साहब कहते हैं-
‘‘एक बार मुझे एक दोस्त ने सलाह दी कि मधुमेह के लिए अफ़ीम लाभदायक होती है। अतः इलाज के मक़सद से, हरज नही कि अफ़ीम शुरू कर दी जाए। मैंने जवाब दिया कि यह आपने बड़ी मेहरबानी की कि हमदर्दी दिखाई।’’ -नसीमे दावत, पृ. 67
मियाँ महमूद खलीफ-ए-क़ादियान लिखते हैं कि हज़रत मसीह मौऊद (अलै.) ने ‘‘तिर्याक़े इलाही’’ दवा अल्लाह तआला की हिदायत व मार्गदर्शन के तहत बनाई और उसका एक ब़ा हिस्सा अफ़ीम थी और यह दवा किसी क़द्र और अफ़ीम की अधिकता के बाद हज़रत खलीफ़ा प्रथम (नूरूद्दीन साहब) को (हुजूर मिर्ज़ा साहब) छः माह से अधिक दिनों तक देते रहे और खुद भी समय-समय पर अनेकों बीमारियों के दौरों के वक़्त वक़्त इस्तेमाल करते रहे।
-अखबार अल-फ़ज़ल, भाग.17, अंग-6, प्र. 2, तारीख 19 जुलाई, सन् 1929 ई. ब्राण्डी
ब्राण्डी, जो मशहूर शराब है, मिर्ज़ा साहब अपने दोस्तों के लिए मँगवाकर देते थे। एक बार अपने खास सेवक मेहदी हसन से कहा-
‘‘दो बोतल ब्राण्डी पीर मंजूर मुहम्मद के लिए लेते आना। जब तक तुम बोतलें ब्राण्डी की न ले लो लाहौर से रवाना न होना।’’
मैं समझ गया कि अब मेरे लिए लाना ज़रूरी ह। मैंने प्ल्यूमर की दुकान से दो बोतलें खरीदकर ला दीं। (सेवक का उत्तर)
-अखबार अल-हकम क़ादियान, भाग.39, अंक-25, तारीख 7 नवम्बर,सन् 1936 ई. टाँक वाइन
टाँक वाइन, जो बहुत ही उम्दा और उत्तम विदेशी शराब है, मिर्ज़ा साहब ने अपने खाने के सामानों के साथ मियाँ यार महमूद साहब के ज़रीए लाहौर से मँगवाइ।
-अखबार अल-हकम, क़ादियान, भाग-39ए अंक-25, तारीख 7 नवम्बर, सन 1936 ई.
खुतुत बनामे गुलाम, पृ. 5, संग्रह: मक्तूबात मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी साहब, बनामे हकीम मुहम्मद हुसैन कुरैशी साहब क़ादियानी ..... रफ़ीकुस्सेहत, लाहौर।
टाँक वाइन का फ़तवा
अतः इन हालात में अगर मसीह मौऊद ब्राण्डी और रम का इस्तेमाल भी अपने मरीज़ों से करवाते या खुद भी मज़ की हालत में कर लेते हों तो वह शरीअत के खिलाफ़ न था। जबकि ‘‘टाँक वाइन’’ एक दवा है। अगर अपने खानदान के किसी सदस्य या दोस्त के लिए जो किसी लम्बे मर्ज़ से उठा हो और कमज़ोर हो गया या मान लिया जाए कि अपने लिए भी मंगवाई हो और इस्तेमाल भी की हो तो इसमें कया हरज हो गया। आपको कमज़ोरी के दौरे इतने सख़्त पडते थे कि हाथ-पाँॅव ठंडे पड जाते थे। नाडियाँ डूब जाती थीं। मैंने खुद ऐसी हालत में आपको देखा है। नाड़ी (नब्ज़) का पता नहीं चलता था, तो वैद्यों या डाॅक्टरों के मशविरे से आपने ‘‘टाँक वाइन’’ का इस्तेमाल ऐसी सूरत में किया हो तो बिलकुल शरीअत के मुताबिक़ है।
-डॉक्टर बशारत अहमद क़ादियानी फ़रीक़ लाहौरी, प्रकाशितः अखबारे पैग़ामे सुलह, भाग-23, पृ. 15, तारीख 4 मार्च, सन् 1935 ई.
पढ़नेवाले लोग ऊपर लिखी इबारतों को ज़ेहन में खें और ग़ौर करें कि शराब के बारे में क़ादियानियों का नज़रिया कहाँ तक सही है और यह कहाँ तक इस्लाम के अहकाम के मुताबिक़ है।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया- ‘‘हर नशा लानेवाली चीज़ खुम्र (शराब) है और हर ख़म्र (शराब) हराम है।’’ -मुसलिम
अल्लाह के आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया- ‘‘शराब दवा नहीं, बीमारी है।’’ अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने शराब के सिलसिले में 10 आदमियों पर लानत भेजी हैः (1) शराब निचोडनेवाला (2) निचुड़वानेवाला (3) पीनवाला (4) उठानेवाला (5) वह जिसके लिए उठाकर ले जाई जाए (6) पिलानेवाला (7) बेचनेवाला (8) उसकी क़ीमत खानेवाला (9) खरीदनेवाला (10) और जिसके लिए खरीदी जाए।
नुबूवत और सुचरित्र
अल्लाह तआला ने अपने आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को जो रूप और चरित्र प्रदान किया था, कितने ही लोग जनाब नबी करीम (सल्ल.) के नूरानी रूप को देखकर आप (सल्ल.) की नुबूवत पर ईमान ले आए और कितने ही लोग आप (सल्ल.) के चरित्र और अच्छे सुलूक से प्रभावित होकर ईमान ले आए और कितने ही लोगों के लिए आप (सल्ल.) का कलाम (वाणी) ईमान लाने का सबब बन गया।
खुशक़िस्मत बेटे का जनाज़ा
मिर्ज़ा अफ़ज़ल अहमद साहब, मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी के बहुत ही नेक बेटे थे। मिर्ज़ा साहब अपने इस बेटे के फरमाँबरदार और खिदमतगुज़ार होने को तसलीम करते हैं, लेकिन उन्होंने अपने बेटे की नमाज़े जनाज़ा इसलिए नहीं पढ़ी कि वह अपने बाप मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी की तुबूवत का इनकारी था और आखिरी वक़्त तक सरवरे कायना रमतुललिल आलमी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की नुबूवत से जुड़ा रहा।
इससे बढ़कर और क्या संगदिली हो सकती है। क्या कोई ऐसा पत्थर-दिल व ज़ालिम इन्सान नबी हो सकता है?
खुला हुआ जुलम
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी ने अपने बड़े बेटे सुलतान अहमद को उसके सारे अधिकारों से सिर्फ इसलिए महरूम कर दिया कि उसने मुहम्मदी बेग से मिर्ज़ा साहब का रिश्ता कराने में उनकी मदद नहीं की, बल्कि उनके विरोधियों का साथ दिया और अपने दूसरे बेटे मिर्ज़ा फ़ज़्ल अहमद साहब की बीवी को इस अपराध पर तलाक़ दिलवाया कि उनकी बीवी मिर्ज़ा अहमद बेग मुहम्मदी बेगम के वालिद की भांजी थी। इस्लामी शरीअत में तलाक़ हलाल कामों में सबसे बुरा काम है। क्या इस बुरा काम तलाक़ दिलवाने का अपराध करनेवाला (और इसपर यह कि वह बदले की भावना से हो) नबी हो सकता है?
नुबूवत का समापत और मिर्ज़ा गुलाम अहमद के अ़कीदे
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी शुरू में खत्म नुबूवत (नुबवूत के समापन) के उसी तरह क़ायल थे जिस तरह आम मुसलमान क़ायल है तथा खत्मे नुबूवत के वही मतलब लेते थे जिसपर पूरी उम्मत एकमत है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर नुबूवत का सिलसिला खत्म हो गया। अब आप(सल्ल.) के बाद कोई नबी आनेवाला नहीं है। अर्थात आप (सल्ल.) ने नुबूवत के दरवाज़े को हमेशा के लिए बन्द कर दिया। अतः मिर्ज़ा साहब लिखते हैं-
‘‘कुरआन करीम खतिमुन्नबीईन (अर्थात् नबियों के समापक) के बाद किसी रसूल का आना जाइज़ नहीं रखता, चाहे वह नया रसूल हो या पुराना हो, क्योंकि रसूल को इल्म जिबरील (अलै.) के ज़रिए से मिलता है और रिसालत की वह्य लेकर जिबरईल (अलै.) के नाज़िल होने का दरवाज़ा बन्द है और यह बात खुद रोक है कि रसूल तो आए, किन्तु रिसालत की वह्य का सिलसिला न हो।’’ -इज़ाला औहाम, पृ. 761, रूहानी ख़जाइन, पृ. 511, भाग-3, मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी मतबूआ, सन 1891 ई.
‘‘हर समझदार व्यक्ति समझ सकता है कि अगर अल्लाह तआला अपने वादे का सच्चा है, और जो वादा कुरआन की आयत ‘खातिमुन्नबीईन’ में किया गया है और जो हदीसों में तफ़सील से बयान किया गया है कि जिबरील (अलै.) को रसूल (सल्ल.) की वफ़ात के बाद हमेशा के लिए नुबूवत की वह्य लाने से मना किया गया है- ये सारी बातें सच और सही हैं- तो फिर कोई व्यक्ति रसूल की हैसियत से हमारे नबी (सल्ल.) के बाद हरगिज़ नहीं आ सकता।’’ - इज़ाला औहाम, पृ. 577, रूहानी ख़जाइन, पृ. 412, भाग-3, लेखकः मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी मतबूआ, सन् 1891 ई.
‘‘क्या तू नहीं जानता कि परवरदिगार, रहीम, फज़्लवाले ने हमारे नबी (सल्ल.) का बिना किसी अपवाद के खातिमुन्नबीईन (अर्थात नुबूवत के समापक) नाम रखा और हमारे नबी (सल्ल.) ने चाहनेवालों के लिए इसी की व्याख्या अपने कथन-ला नबी-य-बहदी (अर्थात मेरे बाद कोई नबी नहीं) में साफ़ तौर से कर दी और अगर हम अपने नबी (सल्ल.) के बाद किसी नबी का आना सही मानें तो मानो कि हम वह्य का दरवाज़ा बन्द हो जाने के बाद उसका खुलना जाइज़ ठहरा दें और यह सही नहीं है। जैसा कि मुसलमानों पर स्पष्ट है और हमारे नबी (सल्ल.) के बाद नबी कैसे आ सकता है, जबकि आप (सल्ल.) की वफ़ात के बाद वह्य का सिलसिला खत्म हो गया और अल्लाह तआला ने आप (सल्ल.) पर नबियां (के लिससिले) को खत्म कर दिया।’’ -हमामतुल बुशरा, पृ. 24, रूहानी खज़ाइन, पृ. 200, मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी मतबूआ, सन् 1894 ई.
‘‘हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने बार-बार फरमाया था कि मेरे बाद कोई नबी नहीं आएगा और हदीस ‘ला नबी-य-बअदी’ ऐसी मशहूर थी कि किसी को इसके सही होने में शुबह नहीं था और कुरआन शरीफ़ जिसका शब्द, निर्णायक शब्द है पाक आयत ‘व लाकिर्रसूलल्लाहि व खातिमुन्नबीईन’ (अर्थात लेकिन अल्लाह का रसूल और नबियां के समापक हैं) से भी साबित होता है कि वास्तव में हमारे नबी (सल्ल.) पर नुबूवत खत्म हो चुकी है।’’ -किताबल बरिया, पृ. 184, रूहानी ख्ज़ाइन, पृ. 217-18, भाग-13ए मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी, मतबूआ, सन् 1897 ई.
नुबूवत के खत्म होने का इनकारी- काफ़िर और झूठा
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी उस व्यक्ति के क़ाफ़िर (इन्कार करने वाला) व झूठा मानते हैं जो नुबूवत के खत्म होने का क़ायल नहीं है। इस सिलसिले में हम उनके ये कथन नक़ल करते हैं-
‘‘मैं उन सभी बातों का क़ायल हूँ जो इस्लामी अक़ीदों में दाखिल हैं और जैसा कि ‘अहले सुन्नत वल-जमाअत’ का अक़ीदा है। उन सब बातों को मानता हूँ जो कुरआन व हदीस से पूरी तरह साबित हैं और सैयदना व मौलाना हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) व रसूलों के समापक (सल्ल.) के बाद किसी दूसरे नुबूवत के रिसालत के दावेदार को झूठा व काफ़िर जानता हूँ। मेरा यक़ीन है कि रिसालत की वह्य हज़रत आदम सफ़ीउल्लाह से शुरू हुई और जनाब मुहम्मद रसूल (सल्ल.) पर खत्म हो गई।’’ -मजमूआ इश्तेहात, पृ. 230, भाग-1,12 अक्तूबर, सन् 1891 ई., लेखकः मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी
‘‘उन तमाम बातों में मेरा वही मज़हब है जो दूसरे ‘अहले सुन्नत वल-जमाअत’ का मज़हब है। अब मैं तफ़सील से नीचे लिखी बातों को मुसलमानों के सामने इस खुदा के घर (जामा मसजिद दिल्ली) में साफ़-साफ़ तसलीम करता हूँ कि मैं जनाब खतमुल अंबिया सल्ल. (नबियों के क्रम-समापक अर्थात् हज़रत मुहम्मद सल्ल.) की खत्म नुबूवत का क़ायल हूँ और जो व्यक्ति नुबूवत के खत्म होने का इनकारी हो उसको बेदीन (विधर्मी) और इस्लाम के दायरे से खारिज समझा हूँ।’’
-मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी का तहरीरी बयान जो तारीख 23 अक्तूबर, सन् 1891 ई. को जामा मसजिद, दिल्ली के जलसे में दिया गया।
-मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 255, अंकित तबलीग़े रिसालत, भाग-2, पृ. 44
‘‘क्या ऐसा बदक़िस्मत झूठा जो खुद रिसालत का दावा करता है कुरआन शरीफ़ पर ईमान रख सकता है और क्या ऐसा वह व्यक्ति जो कुरआन शरीफ़ पर ईमान रखता है और आयत‘व लाकिर्रसूलल्लाहि व खातमन्नबिय्यीन’ (अर्थात अल्लाह के रसूल और नबियों के क्रम-समापक हैं) को खुदा का कलाम यक़ीन करता है, वह कह सकता है कि में भी आप (सल्ल.) के बाद रसूल और नबी हूँ?’’
-अंजामे आतिहम, पृ. 27, रूहानी खज़ाइन, हाशिया न. 27, भाग-11, प्रकाशित सन् 194 ई.
‘‘मैं जानता हूँ कि हर वह चीज़ जो कुरआन के मुखालिफ है वह झूठ नास्तिकता व बेदीनी है। फिर में किस प्रकार नुबूवत का दावा करूँ , जबकि मैं मुसलमानों में से हूँ।’ -हमामतुल बुशरा, पृ. 96, रूहानी खज़ाइन, पृ. 297, भाग-7, लेखक मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी, प्रकाशित सन् 1894 ई.
‘‘मैं न नुबूवत का दावेदार हूँ और न मोजज़ात (नबियोंवाला चमत्कार दिखानेवाला कर्म) और फ़िरिश्तों, लैलतुल कद्र आदि से इनकार करने वाला, और सैयदना मौलाना हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) खतमुल मुर्सलीन के बाद किसी दूसरे नुबूवत और रिसालत के दावेदार को झूठा और काफ़िर जानता हूँ।’’ -तबलीग़े रिसालत, भाग-2, पृ. 22, मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 230, तारीख 22 अक्तूबर, सन 1891 ई.
‘‘मुझे कब जाइज़ है कि मैं नुबूवत का दावा करके इस्लाम से खारिज हो जाऊँ और काफिरों की जमाअत से जा मिलूँ।’’ -हमामतुल बुशरा, पृ. 96, प्रकाशित सन् 1894 ई.
‘‘ऐ लोगों! कुरआन के दुश्मन न बनो और खातमुन्नबीय्यीन के बाद नुबूवत की वह्य का नया सिलसिला जारी न करो। उस खुदा से शर्म करो जिसके सामने हाज़िर किए जाओगे।’’ - आसमानी फैसला , पृ. 25, प्रकाशित सन् 1891 ई.
मुजददिद व वली होने की तरफ पेशक़दमी
उपरोक्त हवालों से मिर्ज़ा गुलाम अहमद ने स्पष्ट और खुले शब्दों में नबी करीम (सल्ल.) को खातमुल अम्बिया यानी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को आखिरी नबी तसलीम करते हुए उस व्यक्ति को झूठा और खुदा का विरोधी बताया है जो नबी करीम हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के बाद किसी को नबी या रसूल मानता है, और वह बार-बार इस बात को दुहराते हैं कि ‘‘मेरा बक़ीदा वही है जो सारे मुसलमानों का अक़ीदा है कि अब अल्लाह के आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के बाद कोई नबी और रसूल नहीं आएगा। इसके विरूदध आप (सल्ल.) के बाद मैं किसी को नबी और रसूल मानकार कैसे इस्लाम से खारिज हो सकता हूँ?’’ इस खुले इकरार के बाद ग़ौर कीजिए कि मिर्ज़ा साहब किस प्रकार नुबूवत के अक़ीदे से दूर होते चले गए। आखिरकार उन्होंने एक ‘‘ज़िल्ली नबी(वह नबी जो खुद शरीअतवाला न हो यानी जिसे अल्लाह की ओर से शरीअत‘संविधान न दी गई हो, बल्कि वह किसी दूसरे नबी की शरीअत का अनुपालक हो।--अनुवादक)’’, फिर स्थायी नबी व रसूल (यानी वास्तविक नबी, जैसे दूसरे नबी थे।) होने का दावा कर दिया, बल्कि आखिर में अपने आपको तमाम नबियां से बड़ा साबित करने की नाकाम कोशिश की। चुनाँॅचे मिर्ज़ा साहब एक जगह लिखते हैं-
‘‘उन पर स्पष्ट रहे कि हम भी नुबूवत के दावेदार पर लानत भेजते हैं और ‘ला इला-ह इल्लल्लाह और मुहम्मदुर्रसूलुल्लह’ के कायल हैं और आप (सल्ल.) पर नुबूवत खत्म होने पर ईमान लाते हैं और नुबूवत की वह्य (वह्य-नुबूवत) नहीं बल्कि वली होने की वह्य (वह्य-विलायत) जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की नुबूवत के अधीन और आप (सल्ल.) की पैरवी व पद्चिन्हों पर चलने से अल्लाह के वलियों को मिली है, इसके हम क़ायल हैं और इससे ज़्यादा जो व्यक्ति मुझपर इलज़ाम लगाए वह तक़वा और ईमानदारी को छोडता है। अतः नुबूवत का दावा नहीं, बल्कि सिर्फ़ विलायत (वली होने) और मुजददिद होने का दावा है। -इश्तेहार मिर्ज़ा, तारीख़ 20 शाबान, सन् 1314 हिजरी, तबलीग़ रिसालत, भाग-6, पृ. 372, मजमूआ इश्तेहारात, पृ. 297 से 298, भाग-2
‘‘और खुदा कलाम व खिताब करता है उस उम्मत के वलियों के साथ और उनको नबियों का रंग दिया जाता है, लेकिन वे हक़ीक़त में नबी नहीं होते, क्योंकि कुरआन करीम में शरीअत की तमाम ज़रूरतों को पूरा कर दिया है।’’ -मुवाहिबुर्रहमान, पृ. 66, सन् 1903 ई.
‘‘मेरा नुबूवत का कोई दावा नहंी, यह आपकी ग़लती है या आप किसी खयाल से कह रहे हैं। क्या यह ज़रूरी है कि जो इलहाम (ईश-प्रेरणा) का दावा करता है वह नबी भी हो जाए। मैं तो मुहम्मदी और पूरे तौर पर अल्लाह और रसूल का पैरोकार हूँ और इन निशानियों कानाम माजज़ा! रखना नहीं चाहता, बल्कि हमारे मज़हब के अनुसार इन निशानियों का नाम करामात है जो अल्लाह और रसूल की पैरवी से दिए जाते हैं। -जंगे मुक़द्दस, पृ. 67, प्रकाशित सन् 1893 ई.
‘‘पहले तो इस आज़िज (विनीत) की बात को याद रखें कि हम लोग मोजज़ा का शब्द उसी अवसर पर बोला करते हैं जो कोई ग़ैर-मामूली चमत्कार किसी नबी या रसूल की तरफ मंसूब हो। लेकिन यह आज़ि न नबी है न रसूल है, केवल मासूम नबी मुहम्मद (सल्ल.) का एक मामूल सेवक और अनुयायी है और प्यारे नबी (सल्ल.) की बरकत और आज्ञानुपालन से ये रौशनियाँ और बरकतें ज़ाहिर हो रही हैं, इसलिए इस जगह करामत का शब्द मुनासिब है, न कि मोजज़े का।’’ -अखबार अलहकम, क़ादियान, पृ. 23, भाग-5, प्रतिलिखित द्वाराः क़मरूल हुदा, पृ. 58, ले.: क़मरूद्दीन जुहलमी क़ादियानी
‘‘इनसाफ़ चाहनेवाले को याद रखना चाहिए कि इस आजिज़ ने कभी और किसी वक़्त हक़ीक़त में नुबूवत या रिसालत का दावा नहीं किया और अवास्तविक रूप में किसी शब्द का प्रयोग करना और शब्दकोश के सामान्य अर्थों के लिहाज़ से उसी को बोलचाल में लाना कुफ्र को जाज़िम नहीं करता है, मगर मैं इसको भी पसन्द नहीं करता कि इसमें आम मुसलमानों को धोखा लग जाने का अन्देशा है।’’ -अंजाम आथम, पृ. 27, प्रकाशित सन् 1896 ई.
‘‘यह सच है कि वह इलहाम (ईश-प्रेरणा) जो अल्लाह ने इस बन्दे पर उतारा है, उसमें इस बन्दे के बारे में ‘नबी’ और ‘रसूल’ ‘मुर्सल’ के शब्द अधिकता से मौजूद है। इसलिए यह वास्तविक अर्थों पर आधारित नहीं है- व लाकिन अय्यस्तलह- सो खुदा की यह इस्तिलाह (पारिभाषा) है जो उसने ऐसे शब्द प्रयोग किए। हम इस बात के क़ायल और माननेवाले हैं कि नुबूवत के वास्तविक अर्थों के अनुसार हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के बाद न कोई नया नबी आ सकता है और न पुराना। कुरआन ऐसे नबियों के प्रकट होने से मना करता है, किन्तु मजाज़ी (लाक्षणिक) अर्थों की मदद से अल्लाह को यह सामथ्र्य प्राप्त है कि किसी मुलहम को नबी के शब्दों या रसूल के शब्दों ये याद करें।’’ -सीराजे मुनीर, पृ. 302, प्रकाशित सन् 1897 ई.
‘‘हाल यह है कि हालाँकि बीस साल से लगातार इस आजिज़ को इलहाम हुआ है। अधिकतर उसमें नबी या रसूल का शब्द आ गया है लेकिन वह व्यक्ति ग़लत कहता है जो ऐसा समझता है। इस नुबूवत व रिसलत से मुराद हक़ीक़ी नुबूवत और रिसालत है। चूँकि ऐसे शब्दों से जो व्यक्ति इस्तिआरा (रूपक) के रंग में हैं इस्लाम में फितना पडता है और इसका नतीजा अत्यंत बुरा निकलता है। इसलिए जमाअत की आम बोल-चाल और निद-रात के मुहावरों में ये शब्द नहीं आने चाहिएँ।’’ -मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी का खत, अंकित अखबार ‘अलहकम’ क़ादियान न. 29, भाग.3, तारीख 17 अगसत, सन! 1899 ई. पतिलिपित रिसाला मसीह मौऊद और खत्म नुबूवत, पृ. 6, मौलवी मुहम्मद अली लाहौरी।
हदीस की विदूता से नुबूवत की ओर तरक्क़ी
‘‘हमारे सरदार व रसूल (सल्ल.) नबियां के सिलसिले के समापक हैं और आप (सल्ल.) के बाद कोई नबी नहीं आ कसता। इसलिए इस शरीअत में नबी के स्थानपन्न मुहद्दिस (हदीस के विद्वान) मुक़र्रर किए गए हैं।’’ -शहादतुल कुरआन, पृ. 28, प्रकाशित सन् 1893 ई.
‘‘मैं नबी नहीं हूँ बल्कि अल्लाह की ओर से हदीस के विद्वान (मुहद्दिस) और अल्लाह का कलीम (बात करने वाला) हूँ ताकि (मुहम्मद) मुस्तफ़ा (सल्ल.) के दीन की तजदीद करूँ।’’ -आईन-ए-कमालात, पृ. 383, प्रकाशित सन् 1893 ई.
‘‘मैने हरगिज़ नुबूवत का दावा नहीं किया औरन मैंने कहा है कि मैं नबी हूँ , लेकिन उन लोगों ने जल्दी की और मेरी बात को समझने में ग़लती की है। लोगों ने सिवाए उसके जो मैंने अपनी किताबों में लिखा है और कुछ नहीं कहा कि मैं मुहद्दिस (हदीस का विद्वान) हूँ और अल्लाह तआला मुण्से इस तरह कलाम (बातचीत) करता है, जिस तरह मुहद्दिसीन (हदीस के विद्वानों) से।’’ -हमामतुल बुशर, पृ.96, प्रकाशित सन् 1894 ई.
‘‘लोगों ने मेरी बात को नहीं समझा है और कह दिया है कि यह व्यक्ति नुबूवत का दावेदार है और अल्लाह जानता है कि उनका कथन (कौल) पूरी तरह झूठ है जिसमें सच्चाह बिलकुल नहीं और न इसकी बुनियाद है। हाँ, मैंने यह ज़रूर कहा है कि ‘मुहद्दिस’ में नुबूवत के सभी गुण पाए जाते हैं, लेकिन बिलकुव्वत(सामथ्र्यानुसार) बिलफेल(कर्मानुसार) नहीं, तो मुहद्दिस सामथ्र्यवान नबी है। और नुबूवत का दरवाज़ा बन्द न हो जाता तो वह भी नबी हो जाता।’’ -हमामतुल बुशरा, पृ. 99, प्रकाशित सन् 1894 ई.
‘‘नुबूवत का दावा नहीं, मुहद्दिस होने का दावा है जो अल्लाह तआला के हुक्म से किया गया है और इसमें क्या शक है कि मुहद्दिस होना भी एक कुव्विया नुबूवत का भाग अपने अंदर रखता है।’’ -इज़ाला औहाम, पृ. 421, रूहानी खज़ाइन, पृ. 320, भाग-3, प्रकाशित सन 1891 ई.
‘‘इस (मुहद्दिस होने) को अगर एक लाक्षणिक (मजाज़ी) नुबूवत ठहराया जाए या एक कुल्लिया नुबूवत का भाग माना जाए तो क्या इससे नुबूवत का दावा आ गया’’ -इज़ाला औहाम, पृ. 422, प्रकाशित सन् 1891 ई.
‘‘मुहद्दिस जो रसूलों में से अनुयायी भी होता है और अपूर्ण रूप से नबी भी। अनुयायी इस वजह से कि वह पूरी तरह रसूल की शरीअत का ताबेदा और रिसालत के प्रकाश से लाभान्वित होता है और नबी इस वजह से से कि अल्लाह तआला नबियों में बरज़ख़ के तौर पर अल्लाह तआला ने पैदा किया है। वह हालाँकि पूरे तौर पर उम्मती (अनुयायी) है, मगर एक वजह से नबी भी होता है और मुहद्दिस के लिए ज़रूरी है कि वह किसी नबी के समरूप हो और खुदा तआला के निकट वही नाम पावे जो उस नबी का नाम है।’’ -इज़ाला औहाम, पृ. 569, रूहानी खज़ाइन, पृ. 407, भाग-3, प्रकाशित सन् 1891 ई.
‘‘इसके अलावा कि इसमें कोई संदेह नही कि यह आजिज़ (विनीत) खुदा तआला की ओर से इस उम्मत के लिए मुहद्दिस होकर आया है और मुहद्दिस एक माने में नबी ही होता है। मानो कि इसके लिए नुबूवतनामा नहीं, मगर फिर भी आंशिक रूप में वह एक नबी ही है, क्योंकि वह खुदा तआला से नुबूवत के हमकलाम (सहवार्ता) का एक शर्फ़ रखता है। गै़ब की बातें उसपर ज़ाहिर की जाती हैं और रसूलां व नबियों की तरह उसकी वह्य को भी शैतान की दखलंदाज़ी से पाक किया जाता है और शरीअत का सार उसपर खोला जाता है और हू-ब-हू नबियों की तरह नियुक्त होकर आता है, और नबियों की तर उसपर अनिवार्य (फर्ज़) होता है कि अपने को बुलंद आवाज़ से ज़ाहिर करे और इससे इनकान करनेवाला एक हद तक सज़ा का पात्र ठहरता है और नुबूवत के माना सिवाए इसके कुछ नहीं कि उपरोक्त बातें उसमें पाई जाएँ।’’ -तौज़ीहुल मराम, पृ. 18, प्रकाशित सन् 1890 ई.
‘‘यह कहना कि नुबूवत का दावा किया है कितनी जिहालत (अज्ञानता) कितनी मूर्खता और कितनी सच्चाई से दूरी है। ऐ नादानो् मेरी मुराद नुबूवत से यह नहीं कि मैं खुदा की पनाह, आप हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के मुक़ाबिल खड़ा होकर नुबूवत का दावा करता हूँ या कोई नई शरीअत लाया हूँ । नुबूवत से मेरी मुराद सिफ़ यह है कि अल्लाह से बहुत ज़्यादा बातें और कलाम हो जो हज़रत मुहम्मद सल्ल. की पैरवी व अनुकरण से हासिल है। अतः (खुदा से) बातचीत वसंबोधन के आप लोग भी क़ायल हैं। अतः यह केवल शब्दों की लड़ाई हुई। यानी आप लोग जिस चीज़ का नाम (खुदा से) बातचीत और संबोधन (मुकालिमा और मुखातिबा) रखते हैं, मैं उसकी अधिकता का नाम, अल्लाह के हुक्म की वजह से, नुबूवत रखता हूँ- व लिकुलिल अय्यस्तलह!’’ --परिशिष्ट हक़ीक़त वह्य, पृ. 68, प्रकाशित सन् 1907 ई.
अल्लाह का नबी
‘‘मसीह मौऊद आनेवाला है। उसकी पहचान यह लिखी है कि वह अल्लाह का नबी होगा यानी खुदा तआला से वह्य पानेवाला। किन्तु इस जगह तमाम व कामिला नुबूवत मुराद नहीं, क्योंकि तमाम व कामिला नुबूवत पर मुहर लग चुकी है, बब्कि वह नुबूवत मुराद है जो मुहद्दिसयत (हदीस के विद्वता) के भाव तक सीमित है, जो मुहम्मद (सल्ल.) की शरीअत के प्रकाश की रोशनी से नूर हासिल करती है। अतः यह नेमत खास तौर पर इसी बंदे को दी गई।’’ --इज़ाला औहाम, पृ. 701, रूहानी खज़ाइन, पृ. 478, भाग-3, प्रकाशित सन् 1891 ई.
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी समय-समय पर अपने दृष्टिकोण और खयालात बदलते रहे। उन्होंने विलायत (वली होने) और मुहद्दिसयत (हदीस के विद्वता) से नुबूवत की ओर कमाल तरीके पेशकदमी की। जिस बात का वे खुलकर इनकार कर चुके थे, धीरे-धीरे उसके इकरात की तरफ बढते रहे। यह सिर्फ मिर्ज़ा साहब ही की जसरत थी, शायद वह किसी दूसरे को हासिल न हो सकी। सबसे पहले मसीह मौऊद का सरसरी तौर पर जिक्र करते हुए लिखते हैं-
‘‘पहले तो जानना चाहिए कि मसीह के नाज़िल होने का अक़ीदा कोई ऐसा अक़ीदा नहीं है जो हमारे ईमानियात का कोई अंग या हमारे दीन के रूक्नों में से कोई रूक्त हो, बल्कि सैकडों पेशीनगोइयों में से एक पेशीनगोई है जिसका असल इस्लाम से कुछ भी संबंध नहीं। जिस ज़माने तक यह पेशीनगोई बयान नहीं की गई थी, उस ज़माने तक इस्लाम कुछ अपूर्ण (नामुकम्मल) नहीं था और जब बयान की गई तो उससे इस्लाम कुछ मुकम्मल नहीं हो गया।’’ --इज़ाला औहाम, प्रथम संस्करण, पृ. 140, प्रकाशित सन् 1891 ई.
‘‘अगर यह एतिराज़ पेश किया जाए कि मसीह का मसील (रूपक) भी नबी होना चाहिए, क्योंकि मसीह नबी था तो इसका जवाब पहले तो यही है कि आनेवाला मसीह के लिए हमारे दावे ने नुबूवत लाज़िम नहीं की, बल्कि साफ़ तौर पर यही लिखा है कि वह एक मुसलमान होगा और आम मुसलमानों की तरह अल्लाह की शरीअत का पाबंद होगा ओर इससे अधिक कुछ भी ज़ाहिर नहीं करेगा कि मैं मुसलमान हूँ और मुसलमानों का इमाम हूँ।’’ -तौज़ीहुल मराम, पृ. 19, प्रकाशित सन् 1890 ई.
मसीह के सदृश बनने की कोशिश
मसीह के सदृश कहलाने के बारे में मिर्ज़ा साहब के विचार देखिए-
‘‘और लेखक को इस बात का भी इल्म दिया गया है कि वह वक़्त का मुजददिद (यानी अपने समय का सुधारक) है और रूहानी तौर पर उसके कमालात मसीह इब्न मरियम के कमालात के समान हैं और एक को दूसरे से पूरी तरह समानता और सदृश्ता है।’’ -इश्तेहार अंकित ‘तबलीग़े रिसालत’, भाग-1, पृ.15, मजमूआ इश्तेहारात, पृ. 24, भाग-1
‘‘दीने इस्लाम के पूरी तरह ग़ालिब होने का जो वादा किया गया है वह ग़लबा मसीह के ज़रीए ज़ाहिर में आएगा और जब मसीह (अलै.) दोबारा इस दुनिया में तशरीफ लाएँगे तो उनके हाथ से इस्लाम समस्त संसार व कोने-कोनै में फैल जाएगा, लेकिन इस आजिज़ पर ज़ाहिर किया गया है कि यह खाकसार अपनी गुरबत और विनम्रता और भरोसा और त्याग और आयतों और अनवार (रौशनियों) के अनुसार मसीह की पहली जिन्दगी का नमूना है और इस बन्दे का स्वभाव और मसीह का स्वभाव परस्पर अत्यंत ही सदृश घटित हुआ है। मानो एक ही जोहर के दो टुकडे या एक ही पेड़ के दो फल हैं और काफ़ी हद तक समरूपता है कि परोक्ष दृष्टि मे अत्यंत ही बारी भिन्नता है।’’ -बराहीने अहमदिया, पृ. 499, भाग-5, रूहानी खज़ाइन, पृ. 593, भाग.1, टिप्पनी पर टिप्पनी 3, प्रकाशित सन् 1908 ई.
‘‘मुझे मसीह इन्ब मरियम होने का दावा नहीं और न ही में आवागमन का माननेवाला हूँ, बल्कि मुझे तो केवल मसीह के समान होने का दावा है। जिस प्रकार मुहद्दिसयत नुबूवत के समान होती है ऐसे ही मेरी रूहानी हालत मसीह इब्न मरियम की रूहानी हालत से निहायत दर्जे की समानता रखती है।’’ -मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 221, भाग-1, अंकितः तबलीग़ रिसालत, भाग-2, पृ. 21
इस आजिज़ (गुलाम) ने जो मसीह के समान होने का दावा किया है, जिसको कम समझ लोग मसीह मौऊद खयाल कर बैठे हैं, यह कोई नया दावा नहीं जो आज मेरे मुँह से सुना गया हो, बल्कि वह वही पुराना इलहाम (ईश-प्रेरणा) है जो मैंने खुदा तआला से पाकर ‘अराहीने अहमदिया’ के कई स्थानों पर सविस्तार अंकित कर दिया था, जिसके प्रकाशित करने पर सात साल से भी कुछ अधिक समय गुज़र गया होगा। मैंने यह दावा हरगिज़ नहीं किया कि मैं मसीह इब्न मरियम हूँ । जो व्यक्ति यह आरोप मेरे ऊपर लगाए, वह पूरी तरह फरेबी और झूठा, बल्कि मेरी ओर से अर्सा सत-आठ साल से बराबर यही प्रकाशित हो रहा है कि मसीह के समान व समरूप हूँ । यानी हज़रत ईसा (अलै.) की कुछ आध्यात्मिक (रूहानी) विशेषताएँ- स्वभाव और आदत और नैतिकता आदि अल्लाह तआला ने मेरी प्रकृति में भी रखी हैं।’’ --इज़ाला औहाम, पृ. 190, भाग-3, प्रकाशित सन् 1891 ई.
‘‘यह बात सच है कि अल्लाह जल-ल शानहू (माहन् प्रतापवान) की वह्य ओर इलहाम से मैंने मसीह के समान होने का दावा किया है। मैं उसी इलहाम के आधार पर अपने को उसी मौऊद के समान समझता हूँ जिसको लोग भ्रमवश मसीह मौऊद कहते हैं। मुझे इस बात से इन्कार नहीं कि मेरे सिवा कोई ओर मसीह के समान भी आनेवाला हो।’’ -मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 207, भाग-1, इश्तेहार 11 फरवरी, सन् 1891 ई.
हक़ीक़त खुल गई
प्रिय पाठकगण ग़ौर किजिए, उपरोक्त बयानों ओर उदधरणों में मिर्ज़ा साहब ने अपने आपको मसीह के समान साबित कने की कैसी कोशिश की है और इस बात का शिद्दत से इनकार किया है कि वह ईसा इब्ने मरियम हैं, बल्कि ऐसा समझने और कहनेवाले को झूठा और कज़्ज़ाब बताया है। न पता वह कौन-सी ज़रूरत और मजबूरी थी कि अपने आपको केवल मसीह के समान होने का दावा करता व्यक्ति, फिर मसीह इब्न मरियम ही होने का दावा कैसे कर बैठा। मिर्ज़ा साहब कहते हैं-
‘‘मगर जब समय आ गया तो वह रहस्य मुझे समझाया गया तब मैंने मालूम किया मेरे इस मसीह मौऊद होने के दावे में कोई नई बात नहंी। यह नहीं दावा है जो बराहीने अहमदिया में बार-बार सविस्तार लिखा जा चुका है।’’ -कश्ती-ए-नूह, पृ. 47, प्रकाशित सन् 1902 ई.
‘‘और यही ईसा है जिसका इंतिज़ार था और इलहामी इबारतों में मरियम और ईसा से मैं ही मुराद हूँ। मेरे बारे ही में कहा गया है कि उसको निशान बना देंगे और यह भी कहा गया कि यह वही मरियम का बेटा ईसा है जो आनेवाला था, जिसमं लोग शक करते हैं। यही हक़ है और आनेवाला यही है ओर शक सिर्फ नासमझी से है।’’ -कश्ती-ए-नूह, पृ. 48, 94, प्रकाशित सन् 1902 ई.
‘‘सोचो कि खुदा जानता था कि इस मर्म के ज्ञान होने से यह दलील कमज़ोर हो जाएगी इसलिए मानो उसने ‘बराहीने अहमदिया’ के तीसरे भाग में मेरा नाम मरियम रखा, फिर जैसा कि बराहीने अहमदिया से स्पष्ट है कि दो साल तक मरियम के गुणों के साथ मैंने परवरिश पाई और परदे में पालन-पोषण होता रहा। फिर मरियम की तरह ईसा की रूह मुझमें फूँकी गई और इस्तिआरा (रूपक) के रंग में मुझे गर्भवती किया गया और अंततः कई महीने के बाद जो दस महीने से ज़्यादा नहीं, उस इलहाम के ज़रिए से जो सबसे आखिर, बराहीने अहमदिया, भाग-4, पृ. 556 में अंकित है, मुझे मरियम से ईसा बनाया गया। अतः इस तौर से मैं इब्न मरियम ठहरा और खुदा ने बराहीन अहमदिया के वक़्त में इस रहस्य की मुझे खबर न दी।’’ -कश्ती-ए-नूह, पृ. 97, प्रकाशित सन् 1902 ई.
‘‘बड़े औलिया जिनपर परोक्ष खुल चुका है और कई करामात के मालिक हैं, एक साथ इस बात पर गवाह हैं कि मसीह मौऊद चैदहवीं सदी से पहले, चैदहवीं सदी के आरंभ में होगा और इससे सीमोल्लंघन न करेगा। अतः हम नमूने के तौर पर किसी क़द्र इस रिसाला में लिख भी आए हैं और स्पष्ट है कि इस समय सिवाए इस आजिज़ (गुलाम) के और कोई व्यक्ति दावेदार इस पद का नहीं।’’ -इज़ाला औहाम, पृ. 685, प्रकाशित 1891 ई.
‘‘हर व्यक्ति समझ सकता है कि इस वक़्त जो मौऊद के ज़ाहिर होने का वक़्त है कि किसी ने सिवाए इस आजिज़ के दावा नहीं किया कि मैं मसीह मौऊद हूँ , बल्कि इस मुद्दत- तेरह सौ वर्ष- में कभी किसी मुसलमान की तरफ से ऐसा दावा नहीं हुआ कि मैं मसीह मौऊद हूँ। यक़ीनन समझो कि नाज़िल होनेवाला इब्न मरियम यही है जिसने ईसा बिन मरियम की तरह अपने ज़माने में किसी ऐसे शंख वालिद रूहानी को न पाया जो उसकी रूहानी पैदाइश का सबब ठहरता, तब खुदा तआला खुद इसका मुतवल्ली हुआ और तरबियत की, गोद में लिया और इस बंदे का नाम इब्न मरियम रखा। अतः मुमकित तौर पर यही ईसा बिन मरियम है जो बिना बाप के पैदा हुआ। क्या तुम साबित कर सकते हो, क्या तुम सबूत दे सकते हो कि तुम्हारे चारों सिलसिलों में से किसी सिलसिले में दाखिल है। फिर यह अगर इब्न मरियम नहीं तो कौन है?’’
-इज़ाला औहाम, पृ. 656, भाग-3, प्रकाशित सन् 1891 ई.
नुबूवत का एलान
इस सिलसिले में खुद मिर्ज़ा साहब क्या कहते हैं, देखिए-
‘‘जिस बुनियाद मर मैं अपने को नबी कहता हूँ, वह केवल इतनी है कि मैं अल्लाह तआला से हमकलामी से मुशर्रफ़ हूँ और वह मेरे साथ बहुज ज्यादा बात करता और बोलता है औरमेरी बातों का जवाब देता है और बहुत-सी परोक्ष(गै़ब) की बातें मेरे ऊपर ज़ाहिर करता है और भावी युगों के वे रहस्य मेरे ऊपर खोलता है कि जब तक इनसान को उसके साथ खुसूसियत की निकटता न हो, दूसरे पर वह रहस्य नहीं खोलता और उन्हीं बातों की अधिकता की वजह से उसने मेरा नाम नबी रखा, इसलिए मैं खुदा के हुक्म के मुताबिक़ नबी हूँ और अगर मैं इससे इनकार करूँ तो बडा गुनाह होगा और जिस हालत में खुदा मेरा नाम नबी रखता है तो मैं कैसे इनकार कर सकता हूँ । मैं इसपर कायम हूँ उस वक़्त तक जो इस दुनिया से गुज़र जाऊँ।’’ -मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी का खत, तारीख 23 मई सन् 1908 ई. बनाम रू अखबार आम लाहौर, हक़ीक़तुल सुबूत, पृ. 270 से 271, प्रकाशित सन् 1907
मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्ल.) हैं, ऐन मुहम्मद हैं- का दावा
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी अपने आपको मसीह मौऊद साबित करने के बाद अब अपने आपको मुहम्मद मुसतफ़ा (सल्ल.) साबित करने की कोशिश करते हुए कहते हैं-
‘‘इधर बच्चा पैदा हुआ और उसके कान में अज़ाद दी जाती है और शुरू ही में उसको खुदा और रसूल पाक का नाम सुनाया जाता है। ठीक इसी प्रकार यह बात मेरे साथ घटित हुई। मैं अभी अहमदियत में बच्चे की ही शक्ल में था जो मेरे कान में यह आवाज़ पढी कि ‘‘मसीह मौऊद मुहम्मद अस्त ऐन मुहम्मद अस्त (यानी मसीह मौऊद मुहम्मद हैं, ऐन मुहम्मद हैं)।’’ -अखबार अल-फज़्ल, क़ादियान, तारीख 21 अक्तूबर, सन् 1931 ई.
मैं इससे बिलकुल बेखबर था कि मसीह मौऊद पुकार-पुकारकर कह रहा है कि - ‘‘मनम मुहम्मद व अहमद मुज्तबा बाशद’’ (यानी मैं मुहम्मद व बहमद मुज्तबा हूँ) फिर मैं इस मुश्किल से बेखबर था कि खुदा का हर चुना हुआ नबी अपने आपको बरूजे़ मुहम्मद (सल्ल.) कहता है और बडे ज़ोर से दावा करता है कि मैं बुरूज़ी तौर पर वही नबी खातमुल अम्बिया हूँ।’’
एक ग़लती का रिवारण
‘‘फिर मुझे यह मालूम न था कि बड़े हौसलेवाले नबी हज़रत मसीह मौऊद को मानने से खुदा के नज़दीक सहाबा की जमाअत में दाखिल हो गया हूँ , हालाँकि वह खुदा का नबी इलहामी शब्दों में कह चुका था कि जो मेरी जमाअत में शामिल हुआ और असल मे मेरे सरदार खैरूल मुर्सलीन (सल्ल.) के सहाबा में दाखि़ल हुआ।’’ --रूहानी खज़ाइन, पृ. 258, भाग-16, ले. मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी
मिर्ज़ाईयों का मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) से श्रेष्ठ बताना
मिर्ज़ाइयों का अक़ीदा है कि मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी को न केवल नबियां, बल्कि रसूलों के सरदार हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर भी बडाई हासिल है। मिज़ा गुलाम अहमद कादियानी अपनी किताब ‘‘जिक्रे इलाही’’ पृ. 19 पर लिखते हैं-
‘‘अतः मेरा ईमान है कि हज़रत मसीह मौऊद (अलै.) रसूले करीम (सल्ल.) के नक़्शे क़दम पर इतने चले कि नबी हो गए। लेकिन क्या उस्ताद और शागिर्द का एक दर्जा हो सकता है, मानो शागिर्द इल्म के लिहाज़ से उस्ताद के बराबर भी हो जाए फिर भी उस्ताद के सामने बडे ही अदब और विनम्रता के साथ ही बैठेगा। यही संबंध हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) और हज़रत मसीह मौऊद में है।’’ - तकरीर मियाँ मुहम्मद खलीफा क़ादियानी, अखबार अलहक्म, 18 अप्रैल सन् 1914 ई.
‘‘इस्लाम पहली के चाँद की तरह शुरू हुआ और मुक़द्दर था, परिणामतः अंतिम ज़माने में बद्र (अर्थात् चैदवीं का चाँद) हो जाए खुदा तआला के हुक्म सें अतः खुदा तआला की हिकमत के आधार पर बद्र (पूर्ण चाँद) के समरूप हो (यानी चैदहवीं शताब्दी)। अतः इन्हीं अर्थों की ओर संकेत है अल्लाह तआला के इस कथन में कि-- ‘‘व लक़द् न-स-र-कुमुल्लाहु बि-बद्रि (यानी और तुम्हारी मदद कर चुका है अल्लाह बद्र की लड़ाई में)’’
‘‘हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की पहली रिसालत में आपके इनकारियों को काफ़िर और इस्लाम के दायरे से खारिज क़रार देना, लेकिन उनकी दूसरी रिसालत में आपके इनकारियों को इस्लाम में दाख़िल समझना यह हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की शान और अल्लाह की आयतों का मज़ाक़ उड़ाना है, हालाँकि खुतब-ए-इलहामिया में मसीह मौऊद ने आप (सल्ल.) की पहली रिसालत और दूसरी रिसालत के पारस्परिक संबंध को हिलाल (यानी पहली का चाँद) के संबंध से परिभाषित किया है।’’
--अख़बार अल-फज़्ल क़ादियान, भाग-3, पृ. 10ए प्रकाशित तिथि 15 जुलाई, सन् 1915 ई.
मशहूर क़ादियानी शायर क़ाज़ी अकमल के शेरों को देखिए जो उन्होंने मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी की शान में उनकी मौजूदगी में पढे़ और मिर्ज़ा साहब ने उन शेरों को पसन्द किया-
मुहम्मद फिर उतर आए हैं हममें,
और आगे से हैं बढ़कार अपनी शान में।
मुहम्मद देखने हों जिसने अकमल,
गुलाम अहमद को देखे क़ादियाँ में।।
यानी मानो मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी न सिर्फ़ हू-ब-हू मुहम्मद मुसतफा (सल्ल.) हैं, बल्कि अपनी शान के एतिबार से मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्ल.) से बढ़कार हैं-- ‘‘नऊजुबिल्लाहि मिन् ज़ालिक’’ (हम इससे अल्लाह की पनाह चाहते हैं)
इमाम मेहदी और हज़रत ईसा (अलै.) दो अलग-अलग शख़्सियतें
यह बात हदीसों से स्पष्ट रूप से साबित है कि इमाम मेहदी और हज़रत ईसा (अलै.) दो अलग-अलग शख़्सियतें हैं। इमाम मेहदी का आना पहले होगा और हज़रत ईसा (अलै.) का बाद में, जबकि मिर्ज़ा साहब इस बात के दावेदार हैं कि वह इमाम मेहदी भी हैं और ईसा अलै. (मौऊद) भी। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) और उसके बाद रसूल (सल्ल.) के सहाबियों में से कोई व्यक्ति भी इस बात का क़ायल न था कि हज़रत इमाम मेहदी और हज़रत ईसा (अलै.) दोनों एक ही शख़्सियत (व्यक्तितव) हैं। सहाबा के दौर के बाद ताबईन, तबअ ताबईन यहाँ तक कि इस वक़्त तक सिवाए मिर्ज़ा साहब के कोई भी व्यक्ति इस बात का क़ायल नहीं। यानी रसूल (सल्ल.) की हदीसों और सहाबा किराम के अमल से यह बात बिलकुल स्पष्ट है।
मिर्ज़ा साहब मसीह के अवतरण के क़ायल न थे, बल्कि इसको शिर्क समझते थे। मिर्ज़ाइयों का अक़ीदा है कि हज़रत ईसा (अलै.) मर चुके हैं। उनको ज़िन्दा समझना शिर्क है और क़ियामत के निकट हरगिज़ तशरीफ़ नहीं लाएँगे और जो ईसा (अलै.) इब्न मरियम नाज़िल होनेवाले हैं, वे मिर्ज़ा साहब हैं।
‘‘तुम यक़ीन जानो कि ईसा इब्न मरियम मर चुका है कश्मीर, श्रीनगर, मुहल्ला ख़ानयार में उसकी क़ब्र है।’’
-कश्तीए नूह, पृ. 33, हाशिया अज़ हक़ीक़त मतबूआ, सन् 1902 ई.
यहाँ भी ग़ौर करने की ज़रूरत है। हज़रत ईसा (अलै.) मरियम के बेटे हैं और मिर्ज़ा साहब मिर्ज़ा ग़ुलाम मुर्तज़ा के। और हज़रत ईसा (अलै.) अल्लाह के हुक्म से हज़रत मरियम के पेट से बग़ैर बाप के पैदा हुए और हदीसों में जिस मसीह इब्न मरियम के नाज़िल होने का उल्लेख आया है वह हज़रत इमाम मेहदी के काफ़ी देर बाद पैदा होगा और वही मसीह इब्न मरियम होगा। मिर्ज़ा साहब ने अपने आपको मसीह के सदृश बताया है, हालाँकि हदीस व कुरआन में कहीं भी मसीह के सदृश होने का ज़िक्र नहीं, बल्कि हदीसों में इस बात की व्याख्या की गई है कि इमाम मेहदी दमिश्क़ की जामा मस्जिद में सुबह की नमाज़ के लिए मुसल्ला पर खड़े होंगे। यकायक पूर्वीय मिनारे पर ईसा (अलै.) का नुजूल दो फ़रिश्तों के सहारे पर हो गया और इमाम मेहदी हज़रत ईसा (अलै.) को देखकर मुसल्ला से हट जाएँगे और अर्ज़ करेंगे कि ऐ अल्लाह के नबी! तुम इमामत कराएँ। हज़रत ईसा (अलै.) फ़रमाएँगे कि तुम्ही नमाज़ पढ़ाओ। यह इक़ामत तुम्हारे लिए कही गई है। इमाम मेहदी नमाज़ पढ़ाएँगे ओर हज़रत ईसा (अलै.) पैरवी करेंगे, ताकि यह मालूम हो जाए कि रसूल होने की हैसियत से नाज़िल नहीं हुए हैं, बल्कि उम्मते मुहम्मदिया के ताबे (अधीन) और मुजददिद होने की हैसियत से आए हैं। -अल उर्फ़ लिवर्द, पृ. 72, भाग-2
पाठकगाण ग़ौर करें कि हज़रत ईसा जिस मिनारे से अवरित (नाज़िल) होंगे वह पहले से मौजूद होगा न कि अपने नाज़िल होने के बाद अपनी मौजूदगी में तामीर कराएँगे। इन सब व्याख्याओं से स्पष्ट होता है कि हज़रत ईसा (अलै.) और इमाम मेहदी दो अलग-अलग् शख़्स होंगे, जबकि मिर्ज़ा साहब अपने को मेहदी और मसीह मौऊद दोनों होने का एक साथ दावा करते हैं।
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मिर्ज़ा गुलाम अहमद न मेहदी, न मसीह मौऊद
हदीसों में इमाम मेहदी और हज़रत ईसा (अलै.) के जो लक्षण और अलामतें बताई गई हैं, मिर्ज़ा गुलाम अहमद की ज़िन्दगी उनसे ख़ाली नज़र आती है।
इमाम मेहदी हसन बिन अली (रज़ि.) की औलाद से होंगे और मिर्ज़ा जी मुग़ल खानदान से थे, सैयद न थे।
इमाम मेहदी का नाम मुहम्मद, पिता का नाम अब्दुल्लाह और माता का नाम आमिना होगा। मिर्ज़ा जी का नाम गुाम अहमद, पिता का नाम गुलाम मुर्तज़ा और माता का नाम चिराग़ बीबी था।
इमाम मेहदी पूरी दुनिया के बादशाह होंगे और संसार को न्याय व इनसाफ़ से भर देगें। मिर्ज़ा साहब तो अपने पूरे गाँव के भी चैधरी न थे। जब कभी ज़मीन का कोई झगड़ा पेश आता तो गुरूदासपुर की कचेहरी में जाकर फ़रियाद करते थे।
इमाम मेहदी ‘शाम’ (सिरिया) देश में जाकर दज्जाल के लशकर से जंग करेंगे। मिर्ज़ा साहब को दमिश्क़ और बैतुल मक़दिस का मुँह देखना नसीब न हुआ। मक्का मुकर्रमा में मुसलमान मक़ामे इबराही और हरे असवद के बीच उनसे बैअत करेंगे और उनको अपना इमाम तसलीम करेंगे। इमाम मेहदी बैतुल मक़दिस में वफ़ात पाएँगें और वहीं दफन होंगे और हज़रत ईसा (अलै.) उनकी नमाज़े जनाज़ा पढाएँगे, जबकि मिर्ज़ा जी लाहौर ( पाकिस्तान ) में मरे और क़ादियान में दफ़न हुए।
हज़रत ईसा (अलै.) बिना बाप के हज़रत मरियम (अलै.) के पेट से पैदा हुए और मिर्ज़ा के वालिद गुलाम मुर्तज़ा और वालिदा चिराग़ बीबी थीं।
पाक हदीसों में आनेवाले मसीह के लक्षण व गुणों का उल्लेख करते हुए बताया गया कि वह शासक और न्याय करनेवाले होंगे और हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की शरीयत के मुताबिक़ निर्णय करेंगे जबकि मिर्ज़ा साहब को ते अपने गाँव क़ादियान की हुकूमत भी हासिल न थी। मिर्ज़ा साहब जब कभी महसूस करते कि उनपर जुल्म हो रहा है और उनका हक़ माररा जा रहा है तो उसके लिए अंग्रज़ी अदालत के हुक्मरानों से गुरूदासपुर जाकर फ़रियाद करते। इस प्रकार मिर्ज़ा साहब का यह दावा करना कि आनवाले मसीह से मुराद मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी है, हदीस से खुला हुआ मज़ाक और उसकी खुली हुई तौहीन है।
हज़रत ईसा (अलै.) के बारे में आया है कि वह सलीब को तोडेगा और खिंज़ीर (सुअर) को क़त्ल करेगा। यानी ईसाइयत का खातिमा हो जाएगा और कोइ्र खिंजीर (यानी सुअर) खानेवाला बाक़ी न रहेगा। अब यह बात तो मिर्ज़ा साहब की उम्मत ही बताएगी कि मिर्ज़ा साहब ने कितनी सलीबें तोडीं और कितने सुअर क़त्ल किए। जबकि हक़ीक़त यह है कि मिर्ज़ा साहब के आने से सलीब और सलीब परस्तों को कोई नुक़सान नहीं पहुँचा, बल्कि मिर्ज़ा साहब सारी उम्र सलीब परस्तों की तरक्क़ी व ऊंचे दर्जों के लिए दुआ करते रहे ओर उनकी हर मुमकिन मदद करते रहे।
वह लड़ाई को उठा देगा, और एक जगह आया है कि वह जिज़िया को ख़त्म कर देगा। यानी सब लोग मुसलमान हो जाएँगे, कोई खुदा और उसके रसूल और इस्लाम धर्म का दुश्मन बाक़ी न रहेगा, जिनसे जिहाद (धर्मयुद्ध) व जंग की जाए और जिज़िया वसूल किया जाए। वह, यानी आनेवाला मसीह जिहाद व जिज़िया को मंसूख (रद्द) न करेगा, बल्कि इसकी ज़रूरत ही बाक़ी न रहेगी। बल्कि यह शरीअते मुहम्मदिया (सल्ल.) का ही हुक्म होगा जिसको हज़रत मसीह (अलै.) लागू करेंगे।
मिर्ज़ा साहब बेचारे जिज़िया तो क्या मंसूख करते वे सारी उम्र अंगेज़ों के भूमिकरदाता रहे और आयकर माफ़ कराने के लिए उनसे प्रार्थनाएँ करते रहे।
वह माल को पानी की तरह बहा देगा और कोई सदक़ा-खैराता लेनेवाला न मिलेगा। यानी सभी लोग धनी हो जाएँगे और कोई माँगनेवाला और ज़रूरतमंद बाक़ी न रहेगा।
मिर्ज़ा साहब के ज़माने में इसके विपरी हुआ। हिन्दुसतानी मुसलमान अंगेज़ों के महकूम ( अधीन ) हो गए। वे ग़रीबी और भुखमरी के शिकार हुए। यहाँ तक कि मिर्ज़ा साहब को भी अपने घरेलू ख़र्च, लंगरखना व प्रेस और कुतुबखना चलाने के लिए लोगों से चंदा माँगने पर मजबूर होना पडा।
हज़रत मसीह (अलै.) के नुजूल के समय इबादत इतनी मज़ेदार हो जाएगी कि एक सजदा के मुक़ाबले में दुनिया और उसकी सारी दौलत तुक्ष्य लगेगी।
मिर्ज़ा साहब के ज़माने में खुदापरस्ती के बजाए दुनियापरस्ती व ऐशो इशरत का प्रभाव बढ़ा, यहाँ तक कि मिर्ज़ा साहब का घराना भी सुरक्षित न रह सका। जिन लोंगों ने मिर्ज़ा साहब के घरवालों व परिजन को अंदर से जाकर देखा है, उनकी कहने के मुताबिक़ मिर्जा साहब के ख़लीफा मिर्ज़ा महमूद के घराने और अंगेज़ी सभ्यता और उसके समाज के बीच अन्तर करना मुमकिन न था।
हज़रत ईसा (अलै.) दमिश्क़ शाम की जामा मसजिद के पूर्वीय किनारे पर आसमान से उतरेंगे। उतरने के बाद लुद्द नामक शहर में दज्जाल को क़त्ल करेंगे। एक हदीस में है कि वे हज व उमरा करेंगे, मक्का मुकर्रमा आएँगे और फिर मदीना मुनव्वरा आएँगे ओर रौज़-ए-मुबारक (हुजूर की पाक क़ब्र) पर हाज़िर होकर दरूद व सलाम भेजेंगें हदीस में है कि नाज़िल होने के बाद चालीस साल ज़िन्दा रहेंगे, मदीना मुनव्वरा में वफ़ात पाएँगे और हुजूर (सल्ल.) की पाक क़ब्र के निकट दफ़्न होगे।
मसीह (अलै.) जिस मिनारे पर उतरेंगे वह मिनारा पहले से मौजूद होगा, जबकि मिर्ज़ा साहब ने नाज़िल होने से पहले लोगों से चंदा माँगकर मिनारा बनाया, जिसका नाम ‘मिनारतुल मसीह’ रखा। मालूम नहीं वह कौन-सा दज्जाल है जिसको मिर्ज़ा ने क़तल किया और कहाँ क़त्ल किया?
मिर्ज़ा साहब को न हज की तौफ़ीक़ मिली और न उमरा की, तो वह रौज़-ए-मुबारक पर हाज़िरी देकर सलाम क्या पेश करते। मिर्ज़ा साहब नुबूवत के दावे के कुछ साल बाद लाहौर में मर गए और क़ादियान में दफन हुए।
प्रिय पाठको! आपने मसीह (अलै.) कीवह अलामतें व लक्षण पढे जो हदीसों की मोतबर (विश्वनीय) किताबों में बयान हुई हैं। उनमें की कोई अलामत भी मिर्ज़ा साहब में नहीं पाई जाती। इन वाज़ेह हदीसों के मिर्ज़ा गुलाम अहमद के माननेवाले जो माने और मतलब चाहें बयाने करें, लेकिन सच्चाई को छिपाया नहीं जा सकता।
अब जिसका जी चाहे हक़ (सच्चाई) को क़बूल करे और जिसका जी चाहे झूठ और कक्र व फ़रेब की पैरवी करे। --‘‘व मा अलैना इल्लल बलाग’’(यानी हमाने ज़िम्मा सीधी-सच्ची राह दिखने के सिवा कुछ नहीं )
कुरआन व हदीस में फेर-बदल तथा इलहामात, तावीले और दावे
कुरआन मजीद में फेर-बदल
कुरआन मजीद में मिर्ज़ा साहब ने जो परिवर्तन व फेर-बदल किए हैं, उनका सिलसिला बहुत लम्बा है। मिर्ज़ा जी ने कुरआन मजीद की उन आयतों को जिनमें नबी करीम (सल्ल.) को अल्लाह तआला ने मुखातब किया है, बडी चालाकी से अपने ऊपर चरितार्थ (फिट) करने की कोशिश की है और कुरआन मजीद की आयतों में परिवर्तन कर डाला है। सूरा अस-सफ़फ़ की वह आयत जो बहुत मशहूर है, जिसमें सारे जहान के मालिक अल्लाह तआला ने हज़रत ईसा (अलै.) का क़ौल (कथन) नक़ल करते हुए फरमाया कि (मसीह ने कहा) ‘‘मैं अल्लाह का रसूल हूँ और तौरात की तसदीक़ करनेवाला हूँ और अपने बाद आनेवाले रसूल की खुशखबरी देनेवाला हूँ जिनका नाम अहमद होगा। ‘‘मिर्ज़ाई लोग भोले-भाले लोगों को गुमराह करने के लिए कुरआन की इस आयत का ग़लत मतलब पेश करके यह बताने की कोशिश करते हैं कि देखो अल्लाह तआला ने कुरआन मजीद में मिर्ज़ा साहब के नबी होन की खुशखबरी दी है। जबकि कुरआन मजीद हज़रत ईसा (अलै.) की ज़बाने पाक से इस बात का एलान करा रहा है कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ और अपने सामने मौजूद तौरात की तसदीक़ (पुष्टि) करता हूँ और अपने बाद आनेवाले रसूल की शुभ-सूचना देता हूँ , जिनका नाम ‘अहमद’ होगा।
ग़ौर करने लायक़ बात यह है कि हज़रत ईसा (अलै.) के बाद हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) तशरीफ़ लाए या मिर्ज़ा जी। अगर--अल्लाह की पनाह- हज़रत ईसा और मिर्ज़ा जी के बीच कोई फ़ासिला न होता तो शायद कुछ नादानों को धोखा देने के लिए यह फ़रेब काम कर जाता, जबकि कुरआन मजीद की इबारत साफ़ बता रही है कि हज़रत ईसा (अलै.) ने अपने बाद आनेवाले नबी की शुभ-सूचना दी है। सीरत (हुजूर सल्ल. की जीवनी) की किताबों में यह बात तफ़सील से बयान की गई है कि जनाब नबी करीम (सल्ल.) का नाम ‘मुहम्मद’ आपके दादा मुहतरम अब्दुल मुत्तलिब ने और आपकी माँ ने आपका नाम ‘अहमद’ रखा। कुरआन मजीद में और कई दूसरे नामों से भी अल्लाह के आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को पुकारा गया है।
इसके अलावा भी अल्लाह तआला ने कुरआन मजीद में जो आयतें जनाब नबी करीम (सल्ल.) की मुबारक शान में अवतरित हैं, मिर्ज़ा जी फरमाते हैं कि उन आयतों का संबंध मुझसे और वह मुझपर पूर्ण घटित हैं। इसकी कुछ मिसाले देखें-
* व मा अर्सल्ना-क इल्ला रह्-म-तल् लिल् आलमीन
मायनेः ओर हमने तुमको तमाम दुनिया के लिए रहमत बनाकर भेजा है।
(कुरआन 21ः107)
* व र-फअ-ना ल-क ज़िक्रक।
मायने: और तुम्हारा जिक्र बुलंद किया। (कुरआन 94ः4)
-तजि़करा, पृ. 81, 385, संस्करण-3
* यासीन, वल् कुरआनिल्हकीम, इन्न-क लमिनल मुर्सलीन।
मायनेः यासीन, क़सम है कुरआन की, जो हिकमत से भरा हुआ है। निस्संदेह, तुम रसूलों मे से हो। (कुरआन 36ः1-3)
---तजि़करा, पृ. 479
* या अय् युहल-मुद्दस्सिरू, कुम फ़-अन-ज़िर, व रब्ब-क फ़-कब्बिर।
मायनेः ऐ ओढ़ने-लपेटनेवाले, उठो और सावधान करने में लग जाओ, और अपने परवरदिगार की बड़ाई करो। (कुरआन 74ः1-3)
-तजि़करा, पृ. 51, संस्करण-3
*कुल इन्न-मा-अ-ना ब-या-रूम-मिस्लुकुम यूहा इलैय-य अन्न-मा इलाहु-कुम इलाहुँव्वाहिद।
मायनेरू कह दो कि मैं तुम्हारी तरह एक इनसान हूँ ,हालाँकि मरी ओर वह्य आती है कि तुम्हारा पूज्य-प्रभु (इलाह) बस अकेला प्रभु है। (कुरआन 18ः110)
-तजि़्करा, पृ. 245, 278, 365, 436, 639, संस्करण-3
* कुल् या अ य् युहन्नासु इन्नी रसूलुल्लाहि इलैकु जमी-अ।
मायने: कहोः ऐ लोगो! मैं तुम सबकी ओर अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ (कुरआन 7ः158)
-हमामतुल बुशरा, भाग-2, पृ. 56
इससे बढ़कर और कया दुस्साहस हो सकता है जिसपर मातम किया जाए। काश! क़ादियानी इसपर ग़ौर करते! मिर्ज़ा जी अगर पूरे कुरआन मजीद के बारे में भी फरमा देते कि यह मेरे ऊपर उतरा है तो उनसे क्या दूर था।
कलमा के शब्दों और अर्थ में परिवर्तन
कहने को तो क़ादियानी यह दावा करते हैं कि हमारा कलिमा दूसरे मुसलमानों से अलग नहीं, लेकिन मुसलमानों के नज़दीक ‘‘ला इला-ह इल्लल्लाहु मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह’’ का इक़रार ईमान लाने के लिए काफ़ी है, जिसका अर्थ है- ‘‘अल्लाह के सिवा कोई इलाह (पूज्य-प्रभू) नहीं और मुहम्मद (सल्ल.) अल्लाह के रसूल हैं। लेकिन क़ादियनानियों के निकट किसी भी व्यक्ति का ईमान उस वक़्त तक पूर्ण और मोतबर नहंी जब तक कि वह अल्लाह के पालनहार होने के इक़रार व हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत के साथ मिर्ज़ा गुलाम अहमद को खुदा का नबी और रसूल तसलीम न करे। यह कलिमे में कितना बड़ा खुला परिवर्तन और उसकी तौहीन है। पाक कलिमे में इससे भी बढ़कर परिवर्तन किया है जो शाब्दिक है। मिर्ज़ा नासिर अहमद के अफ्रीका के सफर पर तसवीरी किताब Africa Speaks अफ्रीका स्पीकस पर ‘अहमद सेंटरल मसजिद, नाइजीरिया’ का फोटो मौजूद है, जिसपर यह कलिमा लिखा हुआ है- ‘‘ला इला-ह इल्ललाह, अहमद रसूलुल्लाह’’ इस कलिमे के शाब्दिक परिवर्तन में ‘मुहम्मद’ शब्द हटा दिया गया हैं और अहमद शब्द जोड दिया गया है।
मिर्ज़ा के इलहाम
कुरआन मजीद के उसूल के मुताबि अल्लाह तआला ने अपने हर नबी को उसी क़ौम की ज़बान (भाषा) में वह्य भेजी जिस क़ौम की तरफ़ वह नबी बनाकर भेजा गया- ‘‘व मा अर्सल्ना मिर्रसूलिन इल्ला बिलिसानि क़ौमिही लियुबय्यि-न लहुम’’ यानी- हमने कोई रसूल नहीं भेजा, मगर उसकी क़ौम की ज़बान में ही ताकि उन्हें खोलकर बताएं’’ कुरआन मजीद के इस साफ़ उसूल के खिलाफ मिर्ज़ा साहब को विभिन्न भाषाओ (ज़बानों) में इलहाम हुए। सहीबात तो यह है कि मिर्ज़ा साहब को विभिन्न भाषाओं (ज़बानों) में इलहाम हुए। सही बात तो यह है कि मिर्ज़ा साहब पर पंजाबी ज़बान में वह्य होती क्योंकि वे पंजाबी जानते थे, पंजाब के रहने वाले थे और अवाम पंजाबी ज़बान को ही अच्छी तरह समझते थे। किन्तु पंजाबी ज़बान इस सौभाग्य से वंचित (महरूम) ही रही। यह कितनी अक़्ल के खिलाफ बात है कि नबी तो पंजाबी हो और उसको इलहाम किसी दूसरी ज़बान में हो। अतः मिर्ज़ा साहब लिखते हैं-
‘‘यह बात अक्त्रल के खिलाफ और बेहूदा है कि इनसान की असल ज़बान तो कोई और हो और इलहाम उसको किसी और ज़बान में हो जिसको वह समझ भी नहीं सकता, क्योंकि उसमें असह्य तकलीफ़ है और ऐेसे इलहाम से फायदा क्या हुआ जो इनसानी समझ से परे है।’’ -चश्म-ए-मुवक्कित, पृ. 20, रूहानी खज़ाइन,पृ. 218, भाग-23
मिर्ज़ा साहब का दावा है कि मेरी वह्य और इलहाम कुरआन पाक की तरह है, लेकिन अगर आप मिर्ज़ा साहब के इलहामों का सरसरी जाइज़ा लेगे तो यह बात खुलकर सामने आएगी कि मिर्ज़ा साहब के मितने ही इलहाम ऐसे हैं जिनको वे खुद भी न समझ सकते थे। चुनाँचे मिर्ज़ा साहब फरमाते हैं, ‘‘ज्यादातर ताज्जुब की बात यह है कि कुछ इलहाम मुझे उन ज़बानों में भी होते हैं जिनकी मुझे कुछ जानकारी नहीं, जैसे-अंग्रज़ी, संस्कृत या इबरानी आदि। -नुजूले मसीह, पृ. 57, रूहानी खज़ाइन,पृ. 435, भाग-18
गौर किजिए, मिर्ज़ा साहब जिस ज़बान को खुद नहीं जानते उस ज़बान के इलहाम को क्या समझते और दूसरों को क्या समझाते होंगे?
यही बात नहीं कि मिर्ज़ा साहब ग़ैर-ज़बानों के इलहामों को न समझ सकते हों, बल्कि बहुत से उर्दू और अरबी इलहाम ऐसे भी हैं, जिनको मिर्ज़ा साहब भी न समझ सकते थे, जिसकी कुछ मिसालें पेश हैं-
‘‘पेट फट गया।’’ -अल-बुशरा, प्र. 119, भाग-2
यह दिन के वक़्त इलहाम हुआ है, मालूम नहीं यह किसे बारे में है।
‘‘लाहौर में एक बेशर्म’’ -अल-बुशरा, पृ. 126, भाग-2
कौन? मालू नहीं।
‘‘एक दाना किस-किसने खया।’’ -अल-बुशरा, पृ. 107, भाग-2
गुप्त इलहाम
बहुत से गुप्त इलहाम- 280, 270, 140, 20, 270, 20, 26, 2, 228, 23, 15, 11, 1, 272 आदि-आदि। -अल-बुशरा, पृ. 17, भाग-2, मजमूआ इलहामते मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी। मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 301, भाग-1
इन इलहामों की हक़ीक़त मिर्ज़ा गुलाम अहमद साहब पर भी न ज़ाहिर हो सकीः
* ‘‘रब-न आज’’ यानी हमारा नब आजी है।’’ ‘आजी’ शब्द के अर्थ अभी तक मालूम नहीं हो सके। -अल-बुशरा, पृ.43, भाग-1, तज्किरा , पृ 102, संस्करण 3
* ग़सम, ग़सम, ग़सम --अल-बुशरा, पृ.50, भाग-2, तजि़्करा, पृ. 319, संस्करण 3
क्या यही इलहाम हैं जिनपर क़ादियानी नुबूवत की बुनियाद रखी गई है।
मिर्ज़ा जी की तावीलें
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी ने अपनी नुबूवत की पहली ईंट ही तावील पर रखी। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के ‘‘खातमुन्नबीईन’’ होने का मतलब इसके सिवा और क्या हो सकता है कि आप अल्लाह तआला के आखिरी नबी हैं। कुरआन मजीद के संदर्भ व निष्कर्ष, पवित्र हदीसों और सहाबा किराम (रजि.) इसी बात पर एकमत हैं कि अब हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के बाद कोई नबी आनेवाला नहीं। समस्त मुस्लिम समुदाय भी इस बात पर एक हैं और अरबी शब्दकोश भी इसी भाव की व्याख्या करते हैं, लेकिन मिर्ज़ा साहब और उनके माननेवाले ‘खातमुन्नबीईन’ का मतलब नबियों की मुहर लेते हैं और इसका यह मतलब बयान करते हैं-- ‘हज़रत नबी करीम (सल्ल.) के बाद जो नबी भी आएँगे, वह आप (सल्ल.) की मुहर लगाने से ही नबी बनेंगे।’’ एक दूसरी तावील क़ादियानी गिरोह यह करता है कि ‘‘नुबूवत का दरवाज़ा तो खुला हुआ है, अलबत्ता कमाल दर्जे की नुबूवत हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर खत्म हो गई और आप (सल्ल.) सारे नबियों में श्रेष्ठतम (अफ़ज़ल) हैं।’’ मिर्ज़ा साहब तावील करने में बडे माहिर हैं। वे मौक़े के एतिबार से अपना दृष्टिकोण वह माक़िफ़ बदलते रहते हैं और यही हाल उनके माननेवालों का है कि कुरआन मजीद की आयतों का जैसा मतलब व भाव चाहा निकाल लिया, जिस हदीस को चाहा क़बूल कर लिया और जिसको चाहा रद्द कर दिया। नीचे हम इन कुछ अजीब-ग़रीब तावीलों का ज़िक्र करेंगे।
(1)मिर्ज़ा साहब हज़रत ईसा (अलै.) के आसमान पर उठाए जाने के क़ायल भी हैं और उनके वफ़ात के भी और कहते ळें कि जिस मरियम के बेटे ईसा का तुम इंतिज़ार कर रहे हो, जिसकी ख़बर हदीसों ने दी है, वह यही आजिज़ (गुलाम अहमद क़ादियानी) है।
हज़रत ईसा (अलै.) के नुजूल और दज्जाल के ज़ाहिर होने की अनगिनत हदीसें बयान हुई हैं जो मिर्जा साहब पर चरितार्थ (फिट) नहीं होतीं। उनको अपने पर चरितार्थ करने के लिए बेधडक तावील कर डाली जो आज तक किसी की कल्पना व विचार में भी न आई। कहते हैं कि-- ‘‘मसीह के नाज़िल होने से मुराद उनका आसमान से उतरना नहंी, बल्कि मिर्ज़ा साहब का अपने गाँव क़ादियान में पैदा होना मुराद है।’’
हदीस में मसीह (अलै.) का दमिश्क के सफेद पूर्वीय मिनारे पर उतरना आया है। मिर्ज़ा जी फरमाते हैं कि - ‘‘दमिश्क़ से मुराद उनका गाँव क़ादियान है और पूर्वीय मिनारे से मुराद वह मिनारा है जो मिर्ज़ा साहब के निवास करने की जगह क़ादियानके पूर्वीय किनारे पर स्थित है।’’ (जिसे मिर्ज़ा साहब ने अपने जीवन-काल में बनवाया।)
‘‘हदीस में दज्जाल का ज़िक्र आया है उससे मुराद शैतान और ईसाई क़ौमें हैं।’’ -तावील मिर्ज़ा साहब
‘‘हदीस में दज्जाल के जिस गधे का जिक्र है उससे मुराद रेलगाडी है।’’
इसी रेलगाडी पर सवार होकर मिर्ज़ा साहब लाहौर जाया करते थे और मरने के बाद आपकी लाश को दज्जाल के इसी गधे पर लादकर लाया गया।
हदीस में आया है कि हज़रत ईसा (अलै.) नाज़िल होने के बाद दज्जाल को ‘लुद्द’ नामक स्थान पर क़त्ल करेंगे। मिर्ज़ाजी फरमाते हैं कि--
‘‘लुद्द से मुराद लुधियाना है और दज्जाल के क़तल् से मुराद ‘लेखराम’ का क़त्ल है।’’
हदीस में आया है कि ‘‘जब हज़रत ईसा (अलै.) आसमान से उतरेंगे तो वे दो पीली चादरें पहने होंगे।’’ मिर्ज़ा साहब ने इसकी तावी इस प्रकार फरमाई-- ‘‘मसीह मौऊद दो पीली चादरों में उतरेगा, एक चादर बदन के ऊपर के हिस्से में होगी, दूसरी चादर बदन के नीचे के हिस्से में होगी। इसलिए मैंने कहा, इस ओर इशारा था कि मसीह मौऊद दो बीमारियों के साथ ज़ाहिर होगा। ताबीर के इल्म में पीले कपडे से मुराद बीमारी है और वे दोनों बीमारियाँ मुझमें हैं। यानी एक सिर की बीमारी (दिमाग़ी रोग) दूसरी बार-बार पेशाब और दस्तों की बीमारी।’’ --तजि़करतुश्शहादतैन, पृ. 23.24
मिर्ज़ा साहब के दावे
मिर्ज़ा साहब की तावीलों की तरह उनके दावे भी अनगिनत हैं। वे एक समय मेें ऐसे दावे करते नज़र आते हैं, जो एक-दूसरे के ठीक विपरीत होते हैं। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति गुज़रा हो जिसने एक वक़्त में कई-कई पैतरे बदले हैं। मिर्ज़ा साहब की नुबूवत के थैले में हर चीज़ मौजूद है। कुफ्र भी है, ईमान भी। एक चीज़ का इक़रार भी और इनकार भी। जैसा वक़्त हुआ वैसा अपना हथियार इस्तेमाल कर लिया और अगर फँस गए तो तावील का सहारा लेकर निकल गए। उनके नज़दीक खत्मे नुबूवत (नुबूवत के खत्म होने) का इनकारी झूठा, दज्जाल है और खुद नुबूवत का दावा भी कर रहे हैं। वह कभी ज़िल्ली व बुरूज़ी नबी बनते हैं और कभी स्थाई नबी और फिर समस्त नबियों में सर्वश्रेष्ठ बन बैठे। वे मरियम भी हैं और मरियम का बेटा भी, इमाम मेहदी भी हैं और मसीह मौऊद भी।
एक समय में हिन्दुओं को धोखा देने के लिए कृष्णजी बने और यहूदियों और ईसाइयों को अपने जाल में फंसाने के लिए मूसा और ईसा भी बने। यहूदी, ईसाई और हिन्दू तो उनके झाँसे में न आ सके, लेकिन मुसलमानों में से भोले-भाले लोग और कुछ पढे-लिखे नौजवान, जो उनकी कपटनीति और फरेबकारी से वाक़िफ थे, कलिमा के इक़रारी समझकर उनके जाल में फँस गए। वे ज़ाहिर में तो इस्लाम का नाम लेते रहे और परदे के पीछे उसके बुनियादी अक़ीदों पर कुदाल चलाते रहे, जिसका सिलसिला आज तक जारी है।
अल्लाह का शुक्र है- लोग ज्यों-ज्यों क़ादियानियत के इरादों से आगाह हो रहे हैं और हक़ उनपर वाज़ेह हो रहा है, त्यों-त्यों वे उनसे परहेज़ करने लगे हैं और सतर्क रहने लगे हैं और यह भी कि जो भोले-भाले लोग सादगी में आकर क़ादियानियत का शिकार हो गए थे वे उससे तौबा करके इस्लाम की ओर लौट रहे हैं।
मिर्ज़ा जी गर्भवती हो गए
मिर्ज़ा साहब फरमाते हैं कि मरियम की तरह ईसा की रूह मुझमें फूॅकी गई और लांक्षणिक रूप में मुझे गर्भ धारण कराया गया और कई महीन के बाद जो दस महीने से ज्यादा नहीं, इल्हाम के ज़रीये से मुझे मरियम से ईसा बनाया गया। इस प्रकार से मैं मरियम का बेटा ईसा (इब्न मरियम) ठहरा। -कश्ती-ए-नूह, पृ. 46.47, संस्करण, सन् 1902 ई.
मिर्ज़ा साहब खुदा की बीवी
क़ाज़ी यार मुहम्मद साहब क़ादियानी लिखते हैं कि हज़रम मसीह मौऊद ने एक अवसर पर अपनी यह स्थिति प्रकट की कि ‘कश्फ़’ (इल्हाम या वह्य) की हालत आपपर इस तरह तारी हुई कि मानो आप औरत हैं और अल्लाह तआला ने अपनी पौरूष शक्ति को ज़ाहिर किया। समझदारों के लिए इशारा काफ़ी है। -ट्रैक्ट 134, इस्लामी कुरबानी, पृ. 12, ले.: काज़ी यार मुहम्मद
लेकिन मिर्ज़ा साहब ने यह नहीं बताया कि खुदा ने उनके साथ पौरूष शक्ति का प्रदर्शन किस ओर से किया (अल्लाह की पनाह) शायद मिर्ज़ा साहब को भ्रम हो गया होगा। मिर्ज़ा साहब को कश्फ के ज़रीये जो कुछ महसूस हुआ वह शैतानी हयूला होगा, वरना अल्लाह तआला की ज़ात उन ऐबों से पाक व साफ़ है जो शिर्क करनेवाले उससे जोडते हैं।
मिर्ज़ा जी की भविष्यवाणियाँ
मिर्ज़ा जी के निकट भविष्यवाणियों की हैसियत
मिर्ज़ा गुलाम अहमद साहब कहते हैं-
‘‘मुमकिन नहीं कि खुदा की भविष्यवाणी (पेशीनगोई) मे कोई वादाखिलाफ़ी हो।’’ -चश्म-ए-मारफ़त, पृ. 12, प्रकाशित सन् 1908 ई.
‘‘हमारी सच्चाई या झूठ जाँचने के लिए हमारी भविष्यवाणी से बढ़कर कोई इम्तिहान (कसौटी) नहीं।’’ --आईन-ए- कमालात, पृ. 231, प्रकाशित 1893 ई.
‘‘इसी लिए हम, बल्कि हर समझदार व्यक्ति यह कहने में हक़दार हो जाए, वह खुदा का मुलहम(जिस पर इलहाम होता हो) और मुखातब (जिसे संबोधित किया जाए) नही, बल्कि अल्लाह पर झूठ घडनेवाला है, क्योंकि मुमकिन नहीं कि नबियों की भविष्यवाणियाँ टल जाएँ।’’ --कश्ती-ए-नूह, पृ. 5
मानो मिर्ज़ा साहब की सच्चाई व झूठ मालूम करने के लिए पहला और सबसे बडा सबूत उनकी भविष्यवाणियाँ (पेशीनगोइयाँ) हैं। अतः नीचे हम मिर्ज़ा साहब की कुछ मशहूर भविष्यवाणियाँ पेश करते हैं। भविष्यवाणियों के बारे में खुद मिर्ज़ा साहब के बयान किए गए मेयार (कसौटी) को सामने रखते हुए पाठकगण मिर्ज़ा साहब के सच्चा या झूठा होने का खुद ही फैसला करें।
अब्दुल्लाह आथम की मौत की भविष्यवाणी
मिर्ज़ा साहब ने जब मसीह मौऊद होने का दावा किया तो ईसाइयों से खुब मुनाज़िराबाज़ी (शास्त्रार्थ) हुई। स्थिति गाली-गलौच, इश्तेहारबाज़ी और मुकद्दमेबाज़ी तक जा पहॅंची। उन समस्त मोर्चाें में सबसे अधिक मशहूर घटना अब्दुल्लाह आथम पादरी की है। मिर्ज़ा साहब ने उससे शास्त्रार्थ किया और फिर यह भविष्यवाणी की कि वह अमुक तिथि तक मर जाएगा। चुनाँॅचे मिर्ज़ा साहब जंग मुक़द्दस,पृ. 188.189, प्रकाशित सन् 1893 ई. मे लिखते हैं--
‘‘मैं इस वक़्त इक़रार करता हूँ कि अगर यह भविष्यवाणी (पेशीनगोई) झूठी निकली, यानी वह पक्ष जो खुदा के नजदीक झूठ पर है-- वह पनद्रह महीने की मुद्दत में आज की तारीख़ से सज़ा के तौर पर मौत की दोज़ख में ने पडे तो मैं हर एक सज़ा उठाने को तैयार हूँ। मुझको बेइज़्ज़त किया जाए और रूसवा किया जाए, मेरे गले में रस्सा डा दिया जाए, मुझको फाँसी दी जाए- हर एक बात के लिए तैयार हूँ ओर मैं अल्लाह जल-ल शानहू की क़सम खाकर कहता हूँ कि ज़रूर ऐसा ही करेगा, ज़रूर करेगा, ज़रूर करेगा। ज़मीन व आसमान तो टल जाएँ पर उसकी बातें न टलेंगी।’’
अब्दुल्लाह आथम, भविष्यवाणी की आखिरी तारीख़ तिथि 5 सितम्बर, सन् 1894 ई. तक सही व सलामत ज़िदा रहा। क़ायिानियों के चेहरों का रंग उड़ गया। पहली भविष्यवाणी के ग़लत होने का रंज व दुख, दूसरे गैरों के तानों और ज़िल्लत व रूसवाई का गम। क़ादियान मं सारी रात कुहराम मचा हो, लोग चीख-चीखकर नमाज़ों में रोते रहे और दुआएँ करते रहे- ‘‘या अल्लाह आथ केा मार दे, या अब्दुल्लाह आथम को मार दे, ऐ जगत के पालनहार हमें रूसवा न कीजिए।’’ - लोंगों को चक़ीन था कि आज सूरज अस्त नहीं होगा कि आथम मर जाएगा। मगर जब सूरज डूब गया तो क़ादियानियों के दिल काँपने लग। रहीम बख़्श एम. ए. अपने पिता मास्टर क़ादिर बख़्श से बया करते हैं- ‘‘उस वक़्त हुजूर (मिर्ज़ा गुलाम अहमद) ने तक़रीर की और आज़माइश की हक़ीक़त बताई तो तबीअत मगन हो गई और दिल को मुकम्मल इतमीनान हो गया और ईमान ताज़ा हो गया। मास्टर क़ादिर बख़्श साहब यह भी बयान करते हैं कि मैंने अमृतसर जाकर अब्दुल्लाह आथम को खुद देखा। ईसाई उसे गाडी में बिठाए हुए ब़डी धूम-धाम से बाज़्ारों में लिए फिरते थे, लेकिन उसे देखकर यह समझ गया कि हक़ीक़त यह मर गया है और सिफ इसका जनाज़ा लिए फिरते हैं। आज नहीं तो कल मर जाएगा।’’
-अल-हकम क़ादियान, भाग-25, पृ. 34, दिनांक 7 सितम्बर, सन् 1923 ई.
जब विरोधियों ने शोर मचाया और लानत व मलामत की कि मिर्ज़ा साहब की आथम के बारे में भविष्यवाणी पूरी नह हुई और आथम-सही-सलामत ज़िन्दा है, तो मिर्ज़ा साहब ने इसकी यह तावील पेश की-
‘‘चूँकि आथम ने खत लिखा जो अखबार ‘‘वफ़ादाद’’ माह-सितम्बर, सन् 1894 ई. में प्रकाशित हुआ।
‘‘मैं खुदा के फज़्ज से ज़िन्दा और सलामत हूँ । मैं आपकी तवज्जोह किताब ‘नुजूल मसीह’ पृ. 81.82 की ओर दिलाना चाहता हूँ जो मेरे संबंध और अन्य साथियों की मौत के संबंध में भविष्यवाणी है, इससे शुरू करके जो कुछ गुज़रा उनको मालूम है। और मिर्ज़ा साहब कहते थे कि ‘आथम ने इस्लाम क़बूल कर लिया इसलिए मैं नहीं मरा।’ खैर उनको इखतियार है जो चाहे सो तावील करें। कौन किसको रोक सकता है। मैं दिल से और ज़ाहिर से भी ईसाई था और अब भी ईसाई हूँ। इस पर खुदा का शुक्र अदा करता हूँ।’’
जब आथम का देहांत हो गया तो क़ादियानी शोर मचाने लगे। कुद नादान कहते हैं कि आथम अपनी मियाद में नहीं मरा, लेकिन व जानते हैं कि मर तो गया। मियाद और ग़ैर मियाद की मुद्द त फुजूल है, अंततः मर तो गया। (मानो) कि अगर मिर्ज़ा क़ादियानी की भविष्यवाणी न होती तो आथम न मरता, हरगिज़ न मरता और कभी न मरता!)
मौऊद के बेटे की भविष्यवाणी
सन् 1886 ई. में मिर्ज़ा साहब की बीवी गर्भवती थी, उस समय उन्होंने यह भविष्यवाणी की--
‘‘खुदावन्द करीम (अल्लाह तआला) ने जो हर चीज़ पर कुदरत रखता है, मुझको अपने इलहाम से बताया कि मैं तुझे एक रहमत का निशान देता हूँ खुदा ने कहा, ताकि दीने इस्लाम का शर्फ़ (श्रेष्ठता), कलामुल्लाह का मर्तबा लोंगों पर ज़ाहिर हो, ताकि लोग समझें कि मैं क़ादिर हूँ। जो चाहता हूँ करता हूँ, ताकि वे यक़ीन लाएँ कि मैं कि मैं तेरे साथ हूँ और ताकित उन्हें जो खुदा, खुदा के दीन, उसकी किताब, उसके रसूल को इनकार की निगाह से देखते हैं, एक खुली निशानी मिले- एक खूबसूरत और पाक लड़का तुझे दिया जाएगा। वह तेरे ही नुत्फ़े (शुक्राणू), तेरी ही नस्ल से होगा। खूबसूरत, पाक लड़का तुम्हारा मेहमान आता है। उसका नाम बशीर भी है। मुबारक वह जो आसमान से आता है, उसके साथ फ़ज़्ल (कृपा) है। वह बहुतों को बीमारियों से साफ करेगा। भौतिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूण किया जाएगा। वह तीन को चार करने वाला है।’’
-मुलख्खस इश्तेहार, 20 फरवरी सन् 1886 ई. अंकितः तबलीग़े रिसालत भाग-1, पृ. 58
इस इश्तेहार में जिस ज़ोर व शोर के साथ उपरोक्त लड़के की भविष्यवाणी करते हुए उसे इस्लाम का खुदा और खुदा का रसूल और खुद मिर्ज़ा के साहिबे इलहाम होने, बल्कि खुदा तआला के क़ादिर व ताक़तवर होने की ज़बरदस्त दलील बताया गया है, वह व्याख्या की मुहताज नहीं है। किन्तु अफ़सोस कि इस गर्भ से मिर्ज़ा साहब के घर लड़की पैदा हुई, इसपर अफ़सोस यह कि इसके बाद मिर्ज़ा साहब के यहाँ कोई लड़का ऐसा नहीं हुआ जिस मिर्ज़ा साहब ने इस भविष्यवाणी का मिस्दाक़ (चरितार्थ) ठहराया हो और वह ज़िंदा रहा हो, या खुद मिर्ज़ा साहब ने उसके मुसलेह मौऊद होने का अमलन या ज़बानी इक़रार किया हो।
लेकिन मिर्ज़ा साहब अपने बयानों में स्पष्ट कर चुके थे कि जल्दी ही उस लड़के की पैदाइश होने वाली है जिसकी शुभ-सूचना दे रहे थे, लेकिन लड़की के पैदा होने पर मूरी ढिठाई से यह कहकर गुज़रगए कि मैंने कब कहा था कि लड़का इस गर्भ से पैदा होगा।
मुबारक अहमद के बारे में भविष्यवाणी
मिर्ज़ा साहब का चैथा लड़का मुबारक अहमद एक बार बीमार पड़ा, उसके बारे में अखबार ‘बद्र’ 29 अगस्त, सन् 1887 ई. पृ. 4 पर लिखा गया-
‘‘मियाँ मुबारक साहब जो सचत बीमार हैं और कभी-कभी बेहोशी तक की नौबत पहुँच जाती है और अभी तक बीमार हैं, उनके संबंध में आज इलहाम हुआ हैः क़बूल हो गइ, नौ दिन का बुख़र टूट गया। यानी वह दुआ क़बूल हो गई कि अल्लाह तआला, मियाँ साहब मौसूफ को रोग मुक्त करे।’’
उस सख़्त बीमारी में जो मायूसकुन (निराशजनक) थी मिर्ज़ा साहब ने जो दुआ माँगी वह यही हो सकती है कि खुदा उसे मुकम्मल सेहत दे और मेरी दी हुई खबरें सच्ची साबित कर दे। उस लड़क के बारे में मिर्ज़ा साहब ने फरमाया था- मुसलेह मौऊद, बीमारों को सेहत देनेवाला, कैदियों को रास्तगारी बख्श्नेवाला, लम्बी उम्र पानेवाला, जीत और कामयाबी की कुँजी, निकटता व दयालुता का निशान, रौब व बडाई और दौलत ज़मीन के किनारों तक। मिर्ज़ा साहब की दुआएँ जो जो अल्लाह की बारगाह में क़बूल व मक़बूल हुई। ज़मीन के किनारों तक शुहरत पानेवाला, क़ौमों को बाबरकत करनेवाला, मानो खुदा आसमान से उतर आया, आदि महान गुणोंवाला मालिक बनाया था।
यह भविष्यवाणी (पेशीनगोई) बिलकुल झूठी साबित हुई। जिसमें मियाँ मुबारक की सेहत की खबर दी गई थी।
साहबज़ादा मियाँ मुबारक साहब सेहतमंद न हुए, उनके उम्र का पैमाना भर चुका था। सिर्फ ठोकर की कसर थी। मिर्ज़ा साहब इस बच्चे के बारे में समय-समय पर इलहाम सुनाते रहे, ताकि लोगों को तसलली हो। अल्लाह तआला ने अस्थाई रूप से सेहत का रंग ओर फिर बीमारी का ग़लबा दिखाकर 16 सितम्बर सन् 1887 ई. को मौत से दोचार कर दिया और मिर्ज़ा साहब की भविष्यवाणियाँ धरी की धरी रह गई।
क़ादियान में प्लेग
सन् 1902 ई. में भारत के अनेक प्रांतों में प्लेग फैल गया। बहुत-से शहर और कस्बे इसकी लपेट में आ गए। अभी इ समहामारी की शुरूआत ही थी, मिर्ज़ा साहब ने अनेक भविष्यवाणियाँ (पेशीनगोइयाँ) करनी शुरू कर दीं। धीरे-धीरे यह मर्ज़ ज़ोर पकड़ता गया, लेकिन क़स्बा कादियान अभी तक सुरक्षित था और वहाँ इस महामारी के कोई लक्षण नजत्रर नहीं आ रहे थे। मिर्ज़ा साहब ने इस स्थिति से लाभ उठाते हुए प्रोपगेंडा शुरू कर दिया कि चॅूँकि मिर्ज़ा साहब की नुबूवत को झुठलाया जा रहा है, इसलिए अल्लाह तआला ने यह अज़ाब (प्रकोप) भेजा है और क़ादियान चूंकि
चूंकि मिर्ज़ा साहब की रिहाइशगाह और उनकी नुबूवत का केन्द्र है इसलिए वहाँ अज़ाब नहीं आया और न आएगा, बल्कि कोइ बाहर का आदमी क़ादियान में आ जाए तो वह भी इस ईश्वरीय प्रकोप से बचा रहेगा। और बढ़कर यह दावा किया कि जिन-जिन बस्तियों में मिर्ज़ा साहब के मुरीद (अनुयायी) मौजूद हैं, वे सारे मकत्राम और वहाँ के बाशिन्दे इस महामारी से सुरक्षित रहेंगे। आपने बडे भरोसे और यक़ीन के साथ यह दावा कियाः
‘‘जहाँ एक भी सच्चा क़ादियानी होगा, उस जगह को खुदा तआला हर ग़ज़ब व मुसीबत से बचा लेगा।’’
आगे फरमाते हैं-
‘‘(ऐ विरोधियो!) तुल लोग भी मिलकर ऐसी भविष्यवाणी करो, जिनसे क़ादियान के पैग़मब्र का दावा झूठा हो जाए और उसकी दो ही सूरते हैं- या यह कि लाहौर और अमृतसर ताऊन ( महामारी प्लेग ) के हमले से सुरक्षित रहें या यह कि क़ादियान ताऊन में ग्रस्त हो जाए। खुदा ने इस अकेले सादिक (निहायत सच्चा, यानी मिर्ज़ा गुलाम अहमद) के तुफैल क़ादियान को, जिसमें तरह-तरह के लोग बसते हैं, अपनी खास हिफ़ाज़त में ले लिया।’’ इलहामाते मिर्ज़ा, पृ. 109, 112, 113
मिर्ज़ा साहब के इस प्रोपगेंडा ने ताऊन (प्लेग) के डरे और सहमे हुए लोगों को क़ादियानियत की ओर खींचने में बड़ा काम किया। इसी दौरान उन्होंने एक किताब लिखी जिसका नाम- ‘‘कश्ती-ए-नूह’’ रखा, जिससे यह बताना मक़सूद था कि जो कोई मेरी नुबूवत का तसलीम करेगा, वह इस कश्नी में सवार होकर तूफ़ाने नूह की तरह इस अज़ाब से सुरक्षित रहेगा।
लेकिन जगत के पालनहार अल्लाह तआला को कुछ और ही मंजूर था। उसने इस झूठ की लई खोलने का खास प्रबंध किया, यानी उसी प्लेग ( महामारी ) की चपेट में मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी को ले लिया। प्लेग क़ादियान और उसके सभी इलाकों में भी फैल गया। मिर्ज़ा जी के घमंडपूर्ण और ऊँचे दावों के बावजूद प्लेग ने क़ादियान की सफाई शुरू कर दी।
दिसम्बर सन् 1902 का इज्तिमा (सभा) सिर्फ ताऊन (प्लेग) की वजह से स्थगित करना पडा। फिर मई सन् 1904 ई. में क़ादियानी स्कूल ताऊन की वजह से बंद करना पडा। ताऊन की तीव्रता व भयंकरता का यह हाल था कि लोग परेशानी के आलम में इधर-उधर भाग रहे थे, लोंगों ने अपने घर छोड़कार खेतों में डेरे लगाए थे। क़ादियान का सरा क़स्बा उजड़ा हुआ नज़र आता था, जैसे अज़ाबे इलाही से तबाह की हुई बस्तियाँ। मतलब यह कि ताऊन से क़ादियान के बचे रहने की भविष्यवाणी भी झूइ निकली। जो मिर्ज़ा जी के कथ्नानुसार खुद उनके झूठा होने की खुली हुई दलील है।
मिर्ज़ा साहब की हसरत जो दिल ही दिल मे रह गई
मिर्ज़ा साहब के करीबी रिश्तेदारों में एक अहमद बे होशियानपुरी थे जिनकी एक नौउम्र बच्ची मुहममदी बेगम थी। इस बच्ची से निकाह की ख़्वाहिश मिर्ज़ा साहब ने दिल ही दिल में पाल ली और दावा किया कि मुहम्मदी बेगम से अनका निकाह होना एक खुदाई इलहाम के मुताबिक है, जो होकर रहेगा।
अहमद बेग (मुहम्मदी बेगम के पिता) अपने एक घरेलू काम से मिर्ज़ा साहब के पास गए। उस समय तो मिर्ज्रा साहब ने उनको यह कहकर टाल दिया कि हम कोई काम बिना इसितखारा के और अल्लाह की मर्ज़ी मालूम किए बिना नहीं करते। कुछ दिन बाद मिर्ज़ा साहब ने इस सुलूक और मुरव्वत का बदला इस प्रकार दिया कि उनकी बडी बेटी मुहम्मदी बेगम का रिश्ता अपने लिए माँगा। उस समय मिर्ज़ा साहब की उम्र पचास साल की थी।
उसने न सिर्फ बड़ी नफ़रत से मिर्ज़ा साहब के इस मुतालबे को ठुकराया और उसके दिल में मिर्ज़ा साहब की जो रही-सही इज़्ज़त थी वह भी ख़ाक में मिल गई, बल्कि अहमद बेग ने मिर्ज़ा साहब का रिश्तावाला ख़त अखबारों में प्रकाशित करा दिया। चूंकि इस खत की इबारत का संबंध भविष्यवाणी से था, इसलिए वह नीचे दिया जा रहा है।
‘‘खुदा तआला ने अपने कलाम पाक से मेरे ऊपर ज़ाहिर किया है कि अगर आप अपनी बड़ी बेटी का रिश्ता मेरे साथ मंजूर न करेंगे तो आपके लिए दूसरी जगह करना हरगिज़ मुबारक न होगा और इसका अंजाम दर्द, तकलीफ और मौत होगा। ये दोनों तरफ़ बरकत और मौत की ऐसी हैं कि जिनको आज़माने के बाद मेरी सच्चाई या झूठ मालूम हो सकता है।’’ -आईन-ए-कमालात, पृ. 179, 280- अखबार नूर अफशाँ, 10 मई, सन् 1888 ई.
अपने इस खुदाई दावे का जिक्र मिर्ज़ा साहब ने इस प्रकार किया-
‘‘उस खुदाए क़ादिरूल मुत्लक़ (सर्वशक्तिमान, संप्रभु खुदा) ने मुझे फरमाया कि उस व्यक्ति (मिर्ज़ा अहमद बेग) की बड़ी बेटी (मुहम्मदी बेगम) के निकाह के लिए रिश्ता भेज और उनको कह दे कि तमाम सुलूक व मुरव्वत तुमसे इसी शर्त से किया जाएगा और यह निकाह तुम्हारे लिए बरकत का सबब और एक रहमत का निशान होगा और उन तमाम रहमतों और बकतों से हिस्सा पाओगे जो इश्तेहार 22 फरवरी सन् 1888 ई. में अंकित हैं, लेकिन अगर निकाह से इनकार किया तो उस लड़की का अंजाम बहुत ही बुरा होगा और जिस किसी दूसरे व्यक्ति से ब्याही जाएगी वह निकाह के रोज़ से ढाई साल तक, और ऐसा ही उस लड़की के पिता की तीन साल के अन्दर मृत्यु हो जाएगी और उनके घर में फूट और तंगी और मुसीबत पड़ेगी और बीच के समय में भी उस लड़की के लिए कई अप्रिय और ग़म के मामले पेश आँगे।’’ -तबीग़े रिसालत, भाग-1.पृ. 155.166, मजमूआ इश्तेहरात, भाग-1, पृ. 157-158
मिर्ज़ा साहब की यह भविष्यवाणी भी सरासर झूठ और ग़लत साबित हुई। जिस भविष्यवाणी को मिर्ज़ा साहब ने अपने सच और झूठ की कसौटी बनाया था, उसका अंजाम बिलकुल खुलकर सामने आ गया। चाहिए तो यह था कि मिर्ज़ा साहब अपने कहने के मुताबिक भविष्यवाणी के ग़लत साहिब हो जाने पर तौबा करके उम्मते मुहम्मदिया का तरीक़ा अपना लेते, लेकिन यह उनकी क़िस्मत में न था। घटनाओं का ग़लत अर्थ निकालकर और ग़लत तावीलों को सहारा लेकर अपने आपको और अपने मुरीदों का मुतमइन करते रहे।
खुशनसीब रही कमउम्र मुहम्मदी बेगम जिसको अल्लाह तआला ने पचास साला व्यक्ति की सोहबत की तकलीफ़ से बचा लिया, जो दुनिया में कई खतरनाक मर्ज़ का शिकार था और सौतन की मौजूदगी में परेशानी और तंगी की ज़िन्दगी मुज़ारनी पड़ती और मिर्ज़ा साहब की मौत के बाद एक लम्बा समय बेवगी के कष्ट बर्दाश्त कने पडते और आख़िरत की मार इन सब कष्ट व तकलीफों से बढ़कर होती। इसके विपरीत मुहम्मदी बेगम ने अपने शौहर सुलतान मुहम्मद के साथ पूरी उम्र जब तक जीवित रहीं खुशहाली के साथ शांतिमय जीवन व्यतीत किया, जो कम ही लोगों को नसीब होता है। सुलतान मुहम्मद एक तंदुरूस्त, सेहतमंद और खूबसूरत नौजवान था और फौज के एक अच्छे पद पर फाइज़ था। उसके एक दोस्त सैयद मुहम्मद शरीफ़ साहब, जो ग्राम घड़िाला, ज़िला लायलपुर के निवासी थे ने उसके हालात सन् 1930 ई. में मालूम किए तो उसने जवाब में लिखा-
‘‘अस्सलामु अलैकुम,
मैं अल्लाह के फ़ज़्ल से यह खत लिखने तक तंदुरूस्त और बखैर हूँ। अल्लाह के फ़ज़्ल से फौजी मुलाज़मत के वक़्त भी तंदुरूस्त रहा। मैं इस समय रिसालदारी पद के पेंशन पर हूँ। एक सौ पैंतीस रूपए मासिक पेंशन मिलती है। सरकार की ओर से पाँच मुरब्बा ज़मीन मिली हुई है। क़सबा पट्टी में मेरी पैतृक भूमि भी मेरे हिस्से मे आई है, जो लगभग सौ बीघा है। ज़िला शेखुर में भी तीन मुरब्बा ज़मीन है। मेरे छः लड़के हैं, जिनमें से एक लायलपुर में पढ़ता है। सरकार की ओर से उसको पचपन रूपए मासिक वज़ीफ़ा मिलता है। दूसरा लड़का पट्टी में शिक्षा प्राप्त कर रहा है। मैं अल्लाह के फ़ज़्ल से अहले सुन्नत वल् जमाअत हूँ। मैं अहमदी (क़ादियानी) मज़हब को बुरा समझता हूँ। उसका अनुयायी नहीं हूँ। उसका धर्म झूठा समझता हूँ। -वस्सलाम
ताबेदार, सुलतान बेग (पेंशनर), मक़मः पट्टी, ज़िलाः लायलपुर
मतबुआ अहले हदीस, 14 नवम्बर, सन 1930 ई.
मिर्ज़ा जी की आखिरी दुआ और मौलाना सनाउल्लह अमृतसरी से आख़िरी फै़सला
मौलाना मुहम्मद हुसैन बटालवी और उनके साथियों की तरह मुनाज़िरे इस्लाम हज़रत मौलाना अबुल वफ़ा सनाउल्लाह अमृतसरी(रह.) मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी को झुठलाने और उनके मुक़ाबिले के लिए हर वक़्त तैयार रहते थे। मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी ने मिर्ज़ाइयों से हर मैदान में मुक़ाबिला किया और उनको हमेशा भारी शिकस्त दी और उनकी झूठी नुबूवत की बुनियादें हिलाकर रख दीं। मिर्ज़ा साहब और उनके साथी मौलाना (रह.) से बहुत ज़्यादा तंग आ गए थे। उनका जीना दूभर हो चुका था। अपना सब कुछ बरबाद होते देखकर मिर्ज़ा जी ने आखिरी बाज़ी लगा दी। उन्होंने अखबारों में एक फ़रेब और धोखे से भरा इश्तेहार दिया जो ‘अखबार अहले हदीस’ अमृतसर, तारीख 26 अप्रैल, सन् 1907 ई. के अंक में प्रकाशित हुआ, जो नीचे दिया जा रहा है। मौलाना को संबोधित करने हुए लिखा-
बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह के नाम से जो रहमान व रही है।)
नह्मदुहू व नुसल्लि अला रसूलिहिम-करीम
व यस्तम्बिऊ-न-क अ-हक्कुन हु-व
(वे तुमसे चाहते हैं कि उन्हें खबर दो कि क्या वह वास्तव मे हक़ है?)
कुल इय् व रब्बीय् अन्न-हू ल-हक्कुन
(कह दोः हाँ, मेरे रब की क़सम वह बिलकुल हक़ है)
खिदमत में,
मौलवी सनाउल्लाह!
अस्सलामु अला मनित्तबअल हुदा
(यानी सलाम उसपर जो हिदायत की पैरवी करे। सलाम के ये शब्द गै़र मुस्लिमों को सम्बोशित करते समय प्रयोग किए जाते हैं। मौलाना सनाउल्लाह साहब को शायद मिर्ज़ा गै़र मुसलिम ही समझते थे)
मुद्दत से आपकी पत्रिका ‘‘अहले हदीस’’ में मुझे झुठलाने और गुमराह साबित करने का सिलसिला जारी है। मुझे आप अपनी इस पत्रिका में झूठा, दज्जाल फ़सादी के नाम से मंसूब करते हैं और दुनिया में मेरे बारे में प्रचार करते हैं कि वह व्यक्ति धूर्त, झूठा और दज्जाल है और इस व्यक्ति का दावा मसीह मौऊद होने का सरासर झूठ है। मैंने आपसे बहुत दुख उठाया और सब्र करता रहा, किन्तु चूँकि मैं देखता हॅू कि मैं हक़ के फैलाने पर तैनात हूँ और आप बहुत से झूठे आरोप मेरे ऊपर लगाकर दुनिया को मेरी ओर आने से रोकते हैं और मुझे उन गलियों और तोहमतों और उन शब्दों से याद करते हैं कि जिनसे बढ़कर कोई अपशब्द नहंी हो सकता। अगर मैं ऐसा ही झूठा और फ़रेबी हूँ, जैसा कि प्रायः आप अपने हर एक अंक में मुझे याद करते हैं, तो मैं आपकी ज़िन्दगी में हलाक (मृत्यु को प्राप्त) हो जाऊँ। क्योंकि मैं जानता हूँ कि फ़सादी और महाझूठे की बहुत उम्र नहीं होती, अंततः वह ज़िल्लत और हसरत के साथ अपने सख़्त दुश्मन की ज़िन्दगी में ही नाकाम, हलाक हो जाता है और उसका हलाक होना ही बेहतर होता है, ताकि खुदा के बंदों को तबाह न करे और अगर मैं झूठा व फ़रेबी नहीं हूँ और खुदा की दयालुता से उम्मीद करता हूँ कि आप अल्लाह की सुन्नत के मुताबि़ हक़ के झुठलाने वालों की सज़ा से बच नहीं सकेंगे। अतः यदि वह सज़ा जो इनसान के हाथों से नहीं, बल्कि केवल खुदा के हाथों से है, जैसे- ताऊन व हैज़ा आदि घातक बीमारियाँ आप पर मेरी ज़िन्दगी में ही घटित न हुईं तो मैं खुदा की ओर से नहीं। यह किसी वह्य या इलहाम की बुनियाद पर कोई भविष्यवाणी नहीं, बल्कि सिर्फ दुआ के तौर पर मैंने खुदा से फै़सला चाहा है और मैं खुदा से दुआ करता हूँ कि मेरे मालिक सर्वदृष्टा व सर्वसमर्थ्य, सर्वज्ञ व सर्वज्ञाता है, जो मेरे दिल की हालत से अच्छी तरह वाक़िफ है, अगर यह दावा मसीह मौऊद होने का केवल मेरे मन का धोखा और मनघड़त है और मैं तेरी नज़र में फ़सादी और महाझूठा हूँ और निद-रात धोखा करना और झूठ घड़ना मेरा काम है, तो ऐ मेरे प्यारे मालिक। मैं आज़िजी (विनम्रता) से दुआ करता हूँ कि मौलवी सनाउल्लाह साहब की ज़िन्दगी में मुझे हलाक र दे और मेरी मौत से उनको और उनकी जमाअत को खुश कर दे (आमीन) मगर ऐ मेरे कामिल और सच्चे खुदा! अगर मौलवी सनाउल्लाह उन तोहमतों में जो मुझपर लगाता है हक़ पर नहीं, तो मैं सविनय तेरी शरण में दुआ करता कि मेरी ज़िन्दगी में ही उनको तबाह कर, मगर न इनसानी हाथों से, बल्कि ताऊन व हैज़ा आदि घातक मज़ों से, सिवाए इस स्थिति के कि वह खुले तौर पर मेरे रूबरू और मेरी जमाअत के सामने उन तमाम गलियों और बदनामियों से तौबा करे, जिनको अपना अनिवार्य कर्तव्य समझकर हमेशा मुझे दुख पहुँचाता है।(ऐसा ही हो ऐ सर्व जगत् के पालनहार)। मैं इनके हाथों बहुत सताया गया और सब्र करता रहा, किन्तु, अब मैं देखता हूँ कि इनकी बदज़बानी हद से गुज़र गई। मुझे उन चोरों और डाकुओं से भी बदतर जानते हैं, जिनका वुजूद दुनिया के लिए अत्यंत हानिकारक होता है और इन्होंने आरोंपों और अपशब्दों में- ‘ला तक़फु मा ल्े-सल-क बिही इल्मु’ (यानी जिस चीज़ का तुम्हें ज्ञान न हो उसके पीछे न लगो) पर भी अमल नहीं किया और तमाम दुनिया से मुझको बदतर जानता है और दूर-दूर मुल्कों तक मेरे बारे में यह प्रचार कर दिया कि यह व्यक्ति वास्तव में खुदा का बाग़ी, ठग और दुकानदार और झूठा और गुमराह और बहुत ही बुरा आदमी है। अतः यदि ऐसे शब्द, हक़ के चाहनेवालों पर ग़लत असर डालते तो मैं उन तोहमतों पर सब्र करता रहा, मगर मैं देखता हूँ कि मौलवी सनाउल्लाह इन्हीं तोहमतों के ज़रीय से इस लिससिले को ख़तम् करना चाहता है और उस इमारत को ध्वस्त करना चाहता है जो तूने मेरे आक़ा और मेरे भेजनेवाले अपने हाथ से बनाई है। इसलिए अब मैं तेरे ही तक़द्दुस और रहमत का दामन पकड़कर तेरे सामने दुआ करता हूँ कि मुझमें और सनाउल्लाह में सच्चा फै़सला कर और वह जो तेरी निगाह में हक़ीक़त में फ़सादी और महाझूठा है उसको सच्चे की ही ज़िन्दगी में दुनिया से उठा ले या किसी और बड़ी आफ़त में जो मौत के बराबर हो सकती है (में ग्रस्त) कर। ऐ मेरे आक़ा! प्यारे मालिक, तू ऐसा ही कर (आमीन सुम्मा आमीन)। अंततः मौलवी साहब से निवेदन है कि वह मेरे इस लेख को अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर दे और जो चाहें इसके नीचे लिख दें और अब फैसला खुदा के हाथ है।
--लेखकः अब्दुल्लाह अहमद मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी मसीह मौऊद, आफ़ाउल्लाहो व वालिदहू, दिनांक एक रवीउल अव्वल 25 हि., 15 अप्रैल, सन् 1907 ई.
मिर्ज़ा साहब की यह दुआ अल्लाह की बारगाह में मक़बूल हुई। मिर्ज़ा साहब हैज़ा के मर्ज़ में ग्रसत होकर शिक्षाप्रद स्थिति में इस संसार से विदा हो गए और मुनाज़िरे इस्लाम मौलाना अबुल वफ़ा सनाउल्लाह अमृतसरी (रह.) एक लम्बी मुद्द त तक सकुशल जीवित रहे और क़ादियानियत की सरकूबी में व्यस्त रहे। मिर्ज़ा साहब की मौत के लगभग चालीस साल बाद आपने वफ़ात पाई।
क़ादियानी लोग मुसलमानों को क्या समझते हैं?
क़ादियानी, जिनकी बुनियाद ही झूठ पर है , झूठ बोलने में बड़े माहिर हैं। वे इस बात का ढिंढोरा बडे ज़ोर-शोर से पीटते हैं कि उनकी कोशिश से सैकडों लोग इस्लाम में दाखिल हुए। जबकि उनकी कोशिशों का असल निशाना मुसलिम समाज है। भोले-भाले नावाकिफ़ मुसलमानों को मुसलमान मानने के लिए तैयार नहीं। गै़र मुसलिम भाइयों में भी ये क़ादियानी अपने को बहुत निर्दाष और पीडित बनकर यह जताने की कोशिश करते हैं कि ये मुसलमान हमपर जफल्म कर रहे हैं और हमें मुसलमान मानने को तैयार नहीं औरहमारे ग़ैर मुसलिम भाई भी बहुत जल्द उनके फ़रेब का शिकार होकर उनकी हिमायत के लिए तैयारह हो जात हैं, जबकि क़ादियानी अपने असल इरादों व संकल्पों को छिपाए रखते हैं जो मुसलमानों के बारे में वे अपने दिलों में रखते हैं। नीचे हम उन अक़ीदों का उल्लेख करेंगे जो वे ग़ैर क़ादियानी यानी मुसलमानों के बारे में रखते हैं।
गै़र क़ादियानियों के बारे में मिर्ज्रा जी का बयान
मिर्ज़ा जी बयान करते हैं-
‘‘जो व्यक्ति मेरी पैरवी नहीं करेगा और मेरा जमाअत में दाखिल नहीं होगा, वह खुदा और रसूल की नाफ़रमानी करनेवाला जहन्नमी है।’’ --तबलीग़ रिसालत, पृ. 27, भाग-9
रंडियों की औलाद
‘‘मेरी इन किताबों को हर मुसलमान मुहब्बत की नज़र से देखता है और इसके इल्म से फ़ायदा उठाता है और मेरी दावत के हक़ होने की गवाही देता है और इसे क़बूल करता है। किन्तु रंडियों (व्यभिचारिणी औरतों) की औलाद मेरे हक़ होने की गवाही नहीं देता।’’ -आईन-एकमालाते इस्लाम, पृ. 548, ले.: मिर्ज़ा गुलाम अहमद प्रकाशित सन् 1893 ई.
हरामज़ादे
‘‘जो हमारी जीत (फ़तह) का क़ायल नहीं होगा, समझा जाएगा कि उसको हरामी (अवैध संतान) बनने का शौक़ है और हलालज़ादा (वैध संतान) नहीं है।’’ -अनवारे इस्लाम, पृ. 30, ले.: मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी, प्रकाशित सन् 1894 ई.
मर्द सुअर और औरत कुतियाँ
‘‘मेरे विरोधी जंगलों के सुअर हो गए और उनकी औरतें कुतियों से बढ़ गईं।’’ --नज्मुल हुदा, पृ. 10, ले.ः मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी, प्रकाशित सन् 1908 ई.
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी के उपरोक्त बयानों के आधार पर मानो कि (अल्लाह की पनाह) तमाम मुसलमान जो मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद के हक़ होने की गवाही न दें, वह जहन्नमी और हरामज़ादे, जंगल के सुअर और रंडियों की औलाद हैं और मुसलमान औरतें हरामज़ादियाँ, रंडियाँ(वैश्याएँ) और जंगल की कुतियाँ और जहन्नमी हैं।
पाठक खुद ग़ौर करें! यह है वह भाषा और वर्णनशैली जो मिर्जा गुलाम अहमद क़ादियानी अपने विरोधियों और क़ादियानियत के इनकारियों के बारे में इस्तेमाल करते हैं। मानव इतिहास गवाह है कि किसी नबी, वली, ऋषि, मुनि या महापुरूषों ने ऐसी गन्दी ज़बान कभी इस्तेमाल नहीं की। खुदासीदा बुज़र्गों का तो क्या ज़िक्र, एक आम सज्जन व्यक्ति भी इस शैली की भाषा लेखन व भाषण में इस्तेमाल नहीं करता। अलबत्ता गैर ज़िम्मेदर व लापरवाह लोंगों के बारे में क्या कहा जा सकता है। सोचिए तो सही, इस प्रकार के अश्लील वाक्य बोलने वाला व्यक्ति क्या नबी हो सकता है? नबी होना तो दूर की बात उसकी गिनती तो सज्जन व्यक्तियों में भी नहीं की जानी चाहिए।
ग़ैर मिर्ज़ाई के पीछे नमाज़ जाइज़ नहीं
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी साहब ने सख़्ती से ताकीद की-
‘‘अहमदी को गै़र अहमदी के पीछे नमाज़ न पढ़नी चाहिए।’’ -अनवारे ख़िलाफत, पृ. 89, मिर्ज़ा महमूद
ग़ैर मिर्ज़ाई की जनाज़े की नमाज़ पढ़नी और उससे रिश्तेदारी का निषेध
मिर्ज़ा गुलाम अहमद अपने अनुयायियों को ताकीद करते हैं-
‘‘ग़ैर अहमदी की नमाज़े जनाज़ा ना पढ़ो और ग़ैर अहमदी रिश्तेदारों को रिश्ता न दो।’’ -अल-फज़्ल, 14 अप्रैल,सन् 1908 ई.
एक साहब ने सवाल किया कि ग़ैर अहमदी बच्चे का जनाज़ा क्यों न पढ़ा जाए, जबकि वह मासू होता है। इस पर मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी ने कहा-
‘‘जिस प्रकार ईसाई बच्चों का जनाज़ा नहीं पढ़ा जा सकता, यद्यपि मासूम (अबोध) ही ही होता है। उसी तरह एक ग़ैर अहमदी के बच्चे का जनाज़ा भी नहीं पढ़ा जा सकता।’’
--डा. मिर्ज़ा महमूद अहमद, अल-फ़ज़्ल, 23 अक्तूबर, सन् 1922 ई. मानो कि मिर्ज़ाइयों के नज़दीक तमाम मुसलमान काफ़िर हैं।
दुआ मत करो
सवालः क्या किसी ऐसे व्यक्ति की मृत्यु पर जो अहमदिया सिलसिला में शामिल नहीं, यह कहना जाइज़ है कि खुदा मरहूम को जन्नत नसीब करे?
जवाबः ग़ैर अहमदियों का कुफ्र रौशन दलील से साबित है और काफिरों के लिए मग़फिरत की दुआ जाइज़ नहीं। -अल-फज्ल,7 फरवरी, सन् 1921 ई. भाग-8, पृ. 59
पूरी तरह बाइकाट
‘‘गैर अहमदियों से हमारी नमाज़ अलग की गई। उनको लड़कियाँ देना हराम किया गया। उनके जनाजै पढ़ने से रोका गया। अब शेष क्या रह गया जो हम उनके साथ मिलकर रह सकते हैं। दो प्रकार के संबंध होते हैं- एक धार्मिक, दूसरा सांसारिक। धार्मिक (दीनी) संबंध का सबसे बड़ा ज़रीया इबादत का इकट्ठा होना है और सांसारिक संबंध का भरी ज़रीया रिश्ता-नाता है। और यं दोनों हमारे लिए हराम ठहरा दिए गए। अगर कहो कि हमको उनकी लड़कियाँ लेने की इजाज़त है तो मैं कहता हूँ, ईसाई की भी लड़कियाँ लेने की इजाज़त है।’’ --कलिमतुल फ़स्ल, पृ. 169, ले.: मिर्ज़ा बशीर अहमद पुत्र मिर्ज़ा गुलाम अहमद
मुसलमानों और क़ादियानियों की जंत्री(क़ादियानियों का कलेंडर) भी अलग् है। मुसलमानों का साल मुहर्रम से शुरू होता है और क़ादियानियों का ‘सुलह’ से। मुसलमानों के साल के महीने - मुहर्रर, सफ़र, रबीउल अव्वल, रबीउस्सानी, जमादुल अव्वल, जमादुस्सानी, रजब, शाबान, रमज़ान, शव्वाल, ज़ीकादा, ज़िलहिज्ज हैं। क़ादियानियों के महीनों के नाम अहमदिया कलेंडर में इस प्रकार अंकित किए जाते हैं- सुलह, तबलीग़ अमान, शहादत, हिजरत, अहसान, वफ़ा, जुहूर, तबूक, अखा, नुबूवत, फतह।
यह इस बात की खुली निशानी है कि क़ादियानी अलग समुदाय और मुसलिम समुदाय एक अलग् समुदाय है, जिनमें बुनियादी तौर पर ख़त्मे नुबूवत (नुबूवत के ख़त्म होने) और फिर अन्य बातों में पग-पग पर विभेद पाया जाता है।
मिर्ज़ा साहब और बैतुल्लाह (काबा) का हज
मिर्ज़ा साहब ज़िन्दगी-भर हज न कर सके जिसके लिए हर मुसलमान अल्लाह से दुआएँ करता है कि एक परवरदिगार! तू हमें अपने घर की ज़ियारत (दर्शन) नसीब फ़रमा। जब लोगों ने मौलाना मुहम्मदहुसैन बटालवी के हज करने का ज़िक्र किया तो मिर्ज़ा साहब ने जवाद दिया-
‘‘मेरा पहला काम खिंज़ीरों (सुआरों) का क़त्ल करना और सलीब की पराजय है। अभी तो मैं खिंजीरों को क़तल् कर रहा हूँ।’’ -मल्ूफजाते अहमदिया पंजुम, पृ. 363, 364
मिर्ज़ा साहब अच्छी तरह जानते थे कि मुसैलमा कज़्ज़ाब का क्या अंजाम हुआ जिसने नुबूवत का झूठा दावा किया था। मुसैलमा कज़्ज़ाब और उनके साथियों को पहले ख़लीफा हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ और सहाबा (रजि.) ने क़त्ल करके जहन्नम पहुँचा दिया। क्या मिर्ज़ा साहब को इस बात की खबर नहीं थी कि नुबूवत के दावेदार का अंजाम हिजाज़(अरब का वह इलाक़ा जिसमें मक्का, मदीना और ताइफ़ शामिल हैं) की धरती पर क्या होता है? अतः मुसैलमा कज़्ज़ाब जैसी दुर्गति होगी। इसी बैतुल्लाह (ख़ान-ए-काबा) की ज़ियारत से महरूम रहे, जो इस्लामी इबादत का लाज़िमी और अहम अंग है।
फिर अल्लाह तआला ने मिर्ज़ा अहमद क़ादियानी को हज जैसी बड़ी इबादत से महरूम करके इमाम मेहदी और ईसा मसीह होने के उन तमाम दावों कों मिट्टी में मिला दिया, क्योंकि इमाम मेहदी मक्का मुकर्रमा में पैदा होंगे, उनका नाम मुहम्मद होगा और माँ का नाम आमिना और वालिद मुहतरम का नाम अब्दुल्लाह होगा। वे हज्रे अस्वद (काला पत्थर) और मक़ामे इबराहीम के बीच बैअत लेंगे। इसी प्रकार हज़रत ईसा (अलै.) दमिश्क के पूर्वीय मिनारे पर दो फ़रिश्तों के सहारे नाज़िल होंगे और रसूलों के सरदार और नुबूवत के समापक हज़रह मुहम्मद (सल्ल.) की पवित्र क़ब्र के निकट दफ़न होंगे।
अब यह बात जो मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी साहब के माननेवाले ही बताएँगे कि उनके नबी ने कितने सुअर क़तल किए और कितनी सलीबें तोडीं।
मिर्ज़ा जी और अल्लाह की राह में जिहाद
अल्लाह की राह में जिहाद एक अत्यंत महत्वपूर्ण कर्म है जिसको मंसूख (रद्द) कराने के लिए क़ादियानी नुबूवत व रिसालत की बुनियाद रखी गई, वरना ‘दीन’ (धर्म) की पूर्णता के बाद अब किसी नबी और रसूल की आवश्यकता ही बाक़ी नहीं रह गई थी और मानव-जीवन का कौन-सा भाग बाक़ी रह गया था जिसकी ओर रसूले अकरम खातमुन्नबीयीन हजत्ररत मुहम्मद (सल्ल.) ने मार्गदर्शन न किया हो। और न ही ‘दीन’ में कोई ऐसी कठिन बात पाई जा रही थी जिसका मंसूख किया जाना ज़रूरी था। क़ादयानियत के सारे ताने-बाने जिहाद को मंसूख कराने के लिए बुने गए। अंगेज़ जब हिन्दुस्तान में आए तो उनकी हुकूमत के स्थायित्व के लिए ज़रूरी था कि यहाँ की जनता उनकी पैरवी को वफादारी के साथ स्वीकार कर लेती लेकिन उनको इस सिलसिले में कामयाबी नज़र नहीं आ रही थी। इसके लिए ज़रूरी था कि वे मुसलमानों के दिल से जिहाद के जज़्बे के महत्व को खत्म कर दें ओर यह काम एक ऐसा व्यक्ति ही कर सकता था जिसको मुसलमानों का बड़ी हद तक एतिमाद हासिल होता।भारत में सैयद अहमद शहीद व मौलाना इसमाईल शहीद और उनके जानिसार साथी जिनके दिल जिहाद से सरशार (उत्मत्त) थे, इस्लाम की रक्षा व स्थायित्व के लिए सिर से पैर तक मुजाहिद (जिहाद करने वाले) नज़र आते थे। लोग हज़ारों की संख्या में उनके चारों ओर जमा होने लगे। उनकी कोशिशों से मुसलमानों के अंदर अल्लाह की राह में जिहाद की भावना भड़क उठी और वे हर तरह की कुरबानी देने के लिए तैयार हो गए। इस सूरतेहाल में अंग्रेज़ों के अंदर बेचैनी का पैदा होना एक स्वाभाविक बात थी। ऐसी ही एक तहरीक (आन्दोलन) सूडान का पैदा होना एक स्वाभाविक बात थी। ऐसी ही एक तहरीक (आन्दोलन) सूडान में शेख अहमद सूडानी लेकर उठे जिससे सूडान में अंग्रेज़ों का प्रभुत्व डगमगाने लगा। फिर अल्लामा जमालुद्दीन अफगानी की तहरीक ‘‘इत्तिहादे इस्लामी’’ (इस्लामी एकता) के लिए कम बेचैनी का कारण न थी। इन सारे कारनामों का जाइज़ा लेने के बाद अंग्रज़ इस नतीज़े पर पहुँचे कि मुसलमानों की भावनाओं पर क़ाबू पाने के लिए ज़रूरी है कि मज़हबी तौर पर उनको हुकूमत की वफ़ादारी पर आमादा किया जाए, ताकि इसके बाद उनको मुसलमानों की ओर सेख़तरा बाक़ी न रहे और वे इतमीनान से हुकूमत कर सकें। इस सेवा के लिए अंग्रेज़ों ने मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी को सबसे ज़्यादा उचित और लाभदायक व्यक्ति पाया। अतः उन्होंने मिर्ज़ा जी को चुन लिया।
मिर्ज़ा गुलाम अहमद साहब एक मानसिक रोगी थे, जैसे-- पागलपन, चित्त-विक्षिम्त आदि। आपके दिल में यह लहर उठी थी कि वे दुनिया की एक महान् शख्सियत के रूप में उभरें। दुनिया के अन्दर उनके माननेवालों की संख्या बहुत ज्यादा हो। उनको वही स्थान प्राप्त हो जो इस्लाम के आखिरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को प्राप्त है। आने झूठे अभिमान को प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने आपको इस्लाम का विद्वान (आलिमे दीन), फिर धर्म-सुधारक (मुजद्दिदे दीन) का दर्जा देने की कोशिश की। फिर इमाम मेहदी बनने, इसके बाद मसीह के सदृश, फिर मसीह मौऊद और अंत में बाक़ायदा नबी बन बैठे।
अंग्रज़ों की राह में चूँकि जिहाद व इत्तिहादे इस्लामी (अल्लाह की राह में जान तोड़ संघर्ष और इस्लामी एकता) और इस रास्ते में जान व माल की कुरबानी की भावना सबसे बडी रूकावटें थीं, इस लिए अंग्रेज़ यही चाहते थे कि एक व्यक्ति उनका समर्थक व हामी और मददगार हो जो उनके रास्ते की सारी रूकावटें साफ़ करे। मिर्ज़ा क़ादियानी ने बड़ी महारत के साथ अंग्रेज़ों की इस मनोकामना को पूरा करने की कोशिश की। अपनी कोशिशों का ज़िक्र मिर्ज़ा साहब इन शब्दों में करते हैं-
‘‘मेरी उम्र का ज्यादा हिसस इस अंग्रज़ी सल्तनत (साम्राज्य) के समर्थन और हिमायत में गुज़रा है ओर जिाद से रोकना और अंग्रजों की पैरवी करने के बारे में इतनी किताबें लिखी हैं और इश्तेहार प्रकाशि किए हैं कि यदि वे पत्रिकाएँ और किताबे इकट्ठी की जााएँ तो पचास अलमारियाँ उनसे भर सकती थीं। मैंने ऐसी किताबों को अरब, मिस्र, शाम, काबुल और रूम देश तक पहुँचा दिया।’’ -निर्याकुल कुलूब, पृ. 15, मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी
स्पष्टीकरण
‘‘यह अनुरोध है कि सरकार अन्नदाता ऐसे खानदान के बारे में जिसको पचास साल के लगातार तजुर्बे में माननीय सरकार के प्रतिष्ठित अधिकारियों ने हमेशा मज़बूत राय से चिट्ठियों में यह गवाही दी है कि वह शुरू से अंग्रेज़ी सरकार का खैरख़्वाह और सेवक है। इस स्वयं अपने हाथ से लगाए हुए पौधे के बारे में अत्यंत सावधानी व चैकसी और खोजबीन व तवज्जोह से काम ले और अधीन हाकिमों को निर्देश दे कि वे भी इस खानदान की प्रमाणित वफ़ादारी और निष्ठा का लिहाज़ रखकर मुझे और मेरी जमाअत को कृपा और दया की दृष्टि से देखें।’’
एक दूसरी जगह लिखते हैं-
‘‘मैं आरंभिक उम्र से इस वक़्त तक लगभग साठ वर्ष की उम्र तक पहुँचा हूँ ताकि मुसलमानों के दिलों को अंग्रेज़ी सरकार की सच्ची मुहब्बत और खैरख्वाही और हमदर्दी की ओर फेर दूँ और उनके कुछ नासमझों के दिलों से ग़लत जिहाद आदि को दूर कर दूँ जो उनकी दिली सफ़ाई और निष्ठापूण संबंध से रोकते हैं। -जमीमा श्हादतुल कुरआन और मिर्ज़ा, संस्करण-6, प्रकाशित सन् 1893 ई.. तबलीग़े रिसालत, भाग-7,पृ. मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 11, भाग-3
यह है उस व्यक्ति का चरित्र जो सलीब तोड़ने का दावा करता है और सलीब बरदारों की गुलामी में मरा जाता है।
अंतिम बात
इस्लाम का बुनियादी अक़ीदा है कि जनाब नबी करीम हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) रहती दुनिया तक के लिए अल्लाह के अंतिम नबी व रसूल हैं और जिन्नों व इनसानों के लिए पूर्ण सुचरित्र और अमली नमूना हैं। अल्लाह की ओर से जो ‘दीन’ आप (सल्ल.) लेकर आए हैं वह तमाम ज़मानों और देशों में बसने वाले सभी इन्सानों और जिन्नों के लिए काफ़ी है। अब मानव जीवन का कोई भी मसला ऐसा बाक़ी नहीं रहा जिसका हल नबी करीम खतमुल अम्बिया हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने न बता दिया हो। आप (सल्ल.) पर अवतरित होनेवाली अल्लाह की आखिरी किताब कुरआन मजीद किसी भी फेर-बदल व परिवर्तन से सुरक्षित कर दी गई और इसकी सुरक्षा भी अल्लाह ने स्वयं अपने जिम्मे ली है। --‘‘इन्ना नह्नू नज़्ज़ल-नज़ ज़िक-र व इन्ना हलू ल हाफिजून’’ (हमने ही इस ज़िक्र {कुरआन मजीद} को अवतरित किया है और हम ही इसके रक्षक भी हैं।) -कुरआन 15ः9
इसी लिए कुरआन मजीद आज भी अपने उसी शक्ल में मौजूद है सि शक्ल में अवतरित किया गया ओर उसी प्रकार हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) का पवित्र जीवन-चरित्र यानी आपके वचन, आचरण और हालात तथा आप (सल्ल.) का स्वभाव व आदतें, आपका उठना-बैठना आपका लेन-देन व अबादतें, आपकी घरेलू, ज़िन्दगी हमारे सामने पूरी तरह मौजूद व सुरक्षित है। यह विशेषता आप (सल्ल.) से पहले के नबियों को हासिल नहीं थी। इसी लिए निरंतर रसूल आते रहे। मगर जनाब नबी करीम (सल्ल.) के आ जाने के बाद नुबूवत का क्रम खत्म हो गया। चूँकि अब इस संसार में बसने वाले सभी इनसानों के लिए क़ियामत तक एक ही जीवन-विधान मौजूद हैं, जिसकी सच्चाई पर जनाब नबी करीम (सल्ल.) का पवित्र जीवन गवाह है, अतः आप (सल्ल.) के बाद न किसी नबी व रसूल के आने की ज़रूरत है और न गुंजाइश।
इस्लाम दुनिया में अनेक परीक्षाओं से गुज़रा है। उसके खिलाफ बड़ी संगी साजिशें की गई और की जाती रही हैं। आज के दौर में इस्लाम के खिलाफ नई नुबूवत का फ़ितना, एक बहुत बडी साज़िश का नतीजा है जिसके लिए मुसलिम समुदाय को सुसंगठित और एकमत होकर गंभीरता से सोच-विचार करने की ज़रूरत है।
झूठे नबियों का फ़र्ज़ी नुबूवत का दावा करने के सिलसिला तो यहूदियों व ईसाइयों में भी जारी थी, मगर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की उम्मत में तो आप (सल्ल.) के जीवनकाल से ही जारी है, जिसकी पहली मिसाल मुसैलमा कज़्ज़ाब हैं, जिसने नबी करीम (सल्ल.) से अनुरोध किया था कि आप(सल्ल.) की ज़िन्दगी में आप (सल्ल.) की नुबूवत हम क़बूल करते हैं, लेकिन आप (सल्ल.) के बाद यह नुबूवत हमारे सुपुर्द कर दी जाए। उस वक़्त नबी करीम (सल्ल.) के पवित्र हाथ में एक छडी थी। आप (सल्ल.) ने फरमाया ‘‘नुबूवत व खिलाफ़त का तो सवाल ही पैदा नहीं होता) अगर तू मुझसे यह छडी भी माँगेगा तो भी तुझ न दूँगा।
आज के दौर में मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी का नुबूवत का दावा मुसलिम समुदाय के लए एक बहुत बडा फ़ितना और अहुत बडा चैलेंज है जिसकी रोक अत्यंत आवशक है। इस फ़ितने के मुक़ाबिले के लिए हमारे पूर्वज व बुजुर्गों ने बडी-बडी कुरबानियाँ पेश की हैं। (अल्लाह उनकी क़ब्रों को नूर से भर दे!) इसलिए हमें भी अपने बडों की पैरवी करते हुए राँगा पिलाई नींव बनकर इस बडी बला का मुक़ाबिला करने की ज़रूरत है।
क़ादियानी जो अपने आपको अहमदी मुसलमान कहते हैं और मुसलमानों को बताते हैं कि हमारा कलिमा, नमाज़, कुरआन वही है जो दूसरे मुसलमानों का है, मगर वे अपने असल इरादों को दिलों में छिपाए रखते हैं। उनके नज़दीक कलम-ए-तय्यब के अर्थ में यह बात शामिल है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के साथ मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी साहब को भी खुदा का नबी व रसूल स्वीकार किया जाए। उन्होंने मुसलमानों के सर्वमान्य अक़ीदा-खत्मे नुबूवत (नुबूवत का समापन) की बुनियादों पर कुल्हाड़ी चलाकर इस्लाम की मज़बूत इमारत को ध्वस्त कने की नापाक कोशिश की। वे चाहते हैं कि जनाब नबी करीम (सल्ल.) का पवित्र नाम तो बाक़ी रहे ओर मुसलमान आप पर भी उसी तरह ईमान रखें जिस तरह पहले के नबी हज़रत इब्राहीम (अलै.) हज़रत मूसा (अलै.) ओर हज़रत ईसा (अलै.) पर रखते हैं, लेकिन उनके लिए पूर्ण आदर्श-चरित्र मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी हों और वे सारी मुहब्बतें, अक़ीदतें (श्रद्धाएँ), वफादारियाँ और जाँनिसारियाँ जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के साथ खास हैं वह मिर्ज़ा गुलाम अहमद साहब से संबद्ध हो जाएँ और मुहम्मद (सल्ल.) की नुबूवत व रिसालत की मज़बूत इमारत ध्वस्त होकर रह जाए।
क़ादियानियत एक स्थाई धर्म और क़ादियानी एक अलग सम्प्रदाय है, जिनका इस्लाम से कोई संबंध नहीं। हर समझदार व्यक्ति इस बात से सहमत होगा कि समाज में हर किसी व्यक्ति या गिरोह को यह अधिकार प्राप्त है कि जिस धर्म को चाहे वह अनाए और जहाँ तक संभव हो उसके प्रचार-प्रसार के लिए काम करे, लेकिन किसी ऐसे गिरोह को जो स्वयं को मुसलमान कहे हरगिज़ इजाज़त नहीं दी जा सकती कि अपनी बातों और कामों के द्वारा इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों को स्वीकार नहीं करते तो बेहतर है कि वह इस्लाम ले या कोई नया धर्म बना लें। जो व्यक्ति अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को आखिरी नबी स्वीकार नहीं करता तो हमें इस बात से कोई गरज़ नहीं कि वह एक छोड दस नबियों की नुबूवत पर ईमान रखे। हम मुसलमानों को इससे क्या वास्ता।
जिस प्रकार कोई भी मुसलमान मसजिदे नबवी (मदीना स्थित) के ध्वस्त किए जाने को बर्दाश्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार यह बात उसके ईमान के बिलकुल खि़लाफ है कि वह यह बरदाश्त कर ले कि उसके सामने इस्लाम का नाम लेकर इस्लाम की जडें काटने की कोशिश की जाए और इस्लाम के मज़बूत क़िला ‘ख़तमे नुबूवत के अक़ीदे’ को ध्वस्त करके उसकी जगह नई इमारत तामीर करने का दुस्सःहस किया जाए।
‘‘ऐ अल्लाह! हमें सही मानों में हक़ को हक़ समझने की तौफ़ीक़ दे और हमें बातिल को बातिल समझने की तौफीक़ दे और उससे बचने की ताक़त दे।’’
Can Ahmadis go to Hajj?
Are Ahmadis Sunni or Shia?
What are the beliefs of Ahmadiyya?
What does the name Ahmadi mean?
Quran Shareef Hindi क़ुरआन शरीफ हिन्दी तर्जुमा और लिपि अरबी मूलग्रंथ के साथ
क़ादियानियत की हक़ीकत PDF on scribd.com
लेखक: मुहम्मद अब्दुर्रऊफ - अनुवादक: एस. कौसर लईक़-साहित्य सौरभ,1781, हौज़ सुईवालान, नई दिल्ली -110002 .
विषय सूची
भूमिका, परिचय :
मिर्ज़ा साहब का संक्षिप्त जीवन-परिचय
مرزا غلام احمد
जन्म तथा वंश , शिक्षा (तालीम) , जवानी की बात, लिबास , पसंदीदा खुराक, जेब की ढेले, जिस्मानी हालत ,मिर्ज़ा साहब की आँखें ,स्नायविक (आसाबी) दुर्बलता ,याददाश्त की खराबी ,मिर्ज़ा साहब के दाँत ,जूते का तोहफ़ा ,बार-बार पेशाब आने की बीमारी, स्थाई रोग ,अफ़ीम ,ब्राण्डी ,टाँक वाइन ,टाँक वाइन का फ़तवा ,नुबूवत और सुचरित्र ,खुला हुआ जुलमनुबूवत का समापन और मिर्ज़ा गुलाम अहमद के अक़ीदे:नुबूवत के खत्म होने का इनकारी- काफ़िर और झूठा ,मुजददिद व वली होने की तरफ पेशक़दमी ,हदीस की विदूता से नुबूवत की ओर तरक्क़ी, अल्लाह का नबी, मसीह के सदृश बनने की कोशिश, हक़ीक़त खुल गई ,नुबूवत का एलान ,मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्ल.) हैं, ऐन मुहम्मद हैं- का दावा ,एक ग़लती का रिवारण,मिर्ज़ाईयों का मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) से श्रेष्ठ बताना
इमाम मेहदी और हज़रम ईसा (अलै.) दो अलग-अलग शख्सियतें
मिर्ज़ा गुलाम अहमद न मेहदी, न मसीह मौऊद
कुरआन व हदीस में फेर बदल तथा इलहामात, तावीलें और दावे :कुरआन मजीद में फेर-बदल, कलमा के शब्दों और अर्थ में परिवर्तन, मिर्ज़ा के इलहाम
गुप्त इलहाम, मिर्ज़ा जी की तावीलें, मिर्ज़ा साहब के दावे, मिर्ज़ा जी गर्भवती हो गए
मिर्ज़ा जी की भविष्यवाणियाँ :मिर्ज़ा जी के निकट भविष्यवाणियों की हैसियत, अब्दुल्लाह आथम की मौत की भविष्यवाणी
मौऊद के बेटे की भविष्यवाणी ,मुबारक अहमद के बारे में भविष्यवाणी, क़ादियान में प्लेग
मिर्ज़ा साहब की हसरत जो दिल ही दिल मे रह गई, मिर्ज़ा जी की आखिरी दुआ और मौलाना सनाउल्लह अमृतसरी से आख़िरी फै़सला
क़ादियानी लोग मुसलमानों को क्या समझते हैं? :गै़र क़ादियानियों के बारे में मिर्ज्रा जी का बयान, रंडियों की औलाद
हरामज़ादे, मर्द सुअर और औरत कुतियाँ, ग़ैर मिर्ज़ाई के पीछे नमाज़ जाइज़ नहीं, ग़ैर मिर्ज़ाई की जनाज़े की नमाज़ पढ़नी और उससे रिश्तेदारी का निषेध, दुआ मत करो, पूरी तरह बाइकाट
मिर्ज़ा साहब और बैतुल्लाह (काबा) का हज
मिर्ज़ा जी और अल्लाह की राह में जिहाद :
स्पष्टीकरण
अंतिम बात
This is a work of impeccable research and judicious historical scrutiny. Ian Talbot, University of Southampton"
...book start...
(अल्लाह के नाम से बड़ा मेहरबान, निहायत रहीम है)
भूमिका
देश-विभाजन को आधी सदी से अधिक समय गुज़र चुका है, किन्तु इसके नापसन्दीदा असरात अभी तक मोजूद हैं। पंजाब , हरियाणा और हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाक़ों में अब भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो हालात से मजबूर होकर सत्य-धर्म ( अर्थात इस्लाम ) से दूर हो गए थे। हालाँकि सुधार व प्रचार का काम देश-विभाजन के तुरंत बाद ही शुरू हो गया था, किन्तु सही बात यह है कि उसका हक़ अदा न हो सका। क़ादियानी, जो एक योजना के तहत अपने केन्द्र क़ादियान ( पंजाब ) में जमा व सुरक्षित रह गए थे, हालात अनुकूल पाकर अपना जाल बिछाने में लग गए और ‘दीन’ से नावाक़िफ़ बचे-खुचे लोगों को अपना शिकार बनाने लगे। उनकी सरगर्मियों का असल केन्द्र तो पाकिस्तान था, लेकिन वहाँ उन्हें बड़ी मुसीबतों और रूसवाइयों का सामना करना पड़ा, क्योंकि वहाँ का पूरा मुसलिम समुदाय अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के बाद किसी भी व्यक्ति को अललाह का रसूल और नबी स्वीकार नहीं करता। अतः सन् 1974 ई. में सरकारी तौर पर उन्हें पाकिस्तान में ग़ैर मुसलिम ठहरा दिया गया, और आज पूरा मुसलिम-जगत दीनी और धार्मिक रूप से उन्हें इस्लाम से बाहर समझता है। चूँकि पाकिस्तान में काम करना उनके लिए संभव न रहा, इसलिए उन्होंने अपनी कोशिशों और सरगर्मियों का रूख हिन्दुस्तान और खास तौर से पंजाब की ओर फेर दिया। पूर्वीय पंजाब के भूले-भटके व कम इल्मवाले लोग जो उनकी असलियत से नावाक़िफ़ थे, उन्हें मुसलमान समझकर बहुत जल्द उनके झाँसे में आ गए। क़ादियानी लोग मुसलिम समाज के अन्दर घुसकर अपने आपको एक सच्चे मुसलमान के रूप में पेश करते हैं और अपने इरादों को छिपाए रखते हैं। उन्हें पहचान लेना हर एक के बस की बात नहीं।
किताब इसी मक़सद से लिखी गई है कि आम लोग क़ादियानियत का असली चेहरा देख सकें और उनके असल इरादों से जो बड़े डरावने और भयानक हैं, वाक़िफ हो सकें।
किताब लिखते समय मौलाना सैयद अबुल हसन नदवी (रह.), मौलाना मुहम्मद यूसुफ लुधियानवी (रह.), मौलाना मुहम्मद अब्दुल ग़नी पटियालवी, मौलाना मुहम्मद अब्दुल्लाह मेमार अमृतसरी, प्रोफेसर मुहम्मद इलियास बर्नी, अल्लामा एहसान इलाही ज़हीर शदीद (रह.) मौलाना मुहम्मद इदरीस काँधलवी (रह.) , मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी (रह.) और मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी (रह.) के लेखों और कोशिशों से लाभ उठाया गया है और ज्यादातर उदधरण (हवाले) उन्हीं की पुस्तकों से लिए गए हैं। अल्लाह तआला इन बुजुर्गों की सभी कोशिशों और जिद्दोजुहद को क़बूल फरमाए और दुनिया व आखिरत में उनके दर्जों को बुलंद करे। आमीन!जनाब मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ साहब, डाक्टर ताबिश मेहदी, जनाब नसीम ग़ाज़ी साहब और भाई अज़ीज़ ख़ालिद किफ़ायत ने अपने क़ीमती मशविरों से नवाज़ा और हर मुमकिन सहयोग दिया, जिसके लिए इन लोगों का शुक्रिया अदा करना में अपना फ़र्ज़ समझता हूँ । इनके अलावा बहुत से अन्य दोसत् भी हैं जो मुझे बराबर इसके लिए उत्साहित करते रहे, मैं उनका भी शुक्रिया अदा करता हूँ।
आखिर में अल्लाह से दुआ है कि जिस जज़बे और एहसास के साथ यह किताब तैयार की गई है, उसमें कामियाबी दे और मुसलिम उम्मद ( समुदाय ) को क़ादियानियत जैसे एक बड़े फ़ितने से महमफूज़ व सुरक्षित रखे।
‘‘ऐ हमारे रब! हमारे ओर से इसे क़बूल कर ले, बेश तू सुनता, जानता है।’’ -कुरआन, 2:127
आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की शिफ़ाअत का उम्मीदवार-
-मुहम्मद अब्दुर्रऊफ, इस्लामाबाद, मालेर कोटला, ( पंजाब )
6 सितम्बर , 1999
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परिचय
यह किताब मोहतरम मौलाना मुहम्मद मुहम्मद अब्दुर्रऊफ की अध्ययन-रूचि और गवेषणात्मक चिंतन ( तहक़ीक़ी फिक्र ) और ज्ञान-प्रियत का प्रमाण तो है ही, किन्तु इससे भी बढ़कार यह खत्म नुबूवत अर्थात नुबूवत का समापन के अक़ीदे के संबंध में उनकी संलग्नता का प्रदर्शन भी है। इस रचना की ज्ञानात्मक (इल्मी) व तथ्यान्वेषणात्मक (तहक़ीक़ी) हैसियत चाहे कुछ भी हो, इसके ज्ञानात्मक लाभ से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि आज हर व्यक्ति को ऐसे संसाधन उपलब्ध नहीं हैं कि इस सबसे बड़े फ़ितने से संबंधित साहित्य का पूरी तरह अध्ययन कर सके। इस लिहाज़ से यह किताब एक कम्पैक्ट की हैसियत रखती है जिसके आईने में क़ादियानियत की वास्तविा वस्तुस्थिति, उसके तमाम अवयवों के साथ देखी जा सकती है।
इस नश्वर संसार में सत्य और असत्य का संघर्स आदिकाल से मौजूद रहा है और यह भी वास्तविकता है कि आखिरकार असत्य का पराजय ही हाथ लगी है।
सतीज़ाकार रहा है अज़ल से ता इमरोज़।
चिराग़े मुस्तफ़ा से शरारे बूलहबी।।
(अर्थात आदि से आज तक सत्य के प्रतीक हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्ल.) के चिराग़ और असत्य का साकार रूप अबू लहब की चिनगारी की जंग चही आ रही है।)
यही अबू लहब की चिनगारी विभिनन ज़मानों में अलग-अलग अन्दाज़ से और अलग-अलग शक्लों में नूरे मुहम्मदी से संघर्षरत रही है। मगर खुदा का शुक्र है कि हर बार ज़िल्लत व रूसवाई उसको प्राप्त हुई है और सत्य व न्याय को हमेशा जीत हासि हुई है।
हिन्दुस्तान में क़ादियानियत के फ़ितने ने सिर उठाया तो हमारे पूर्वजों और दीन के बुजाुर्गों व विद्वानों ने अपनी-अपनी प्रतिभा और हिम्मद व संसाधनों के मुताबिक उसको कुचलने और मिटाने की पूरी कोशिश की, और आज भी मुहम्मद (सल्ल.) के आशिक़ों व हक़ पर जान न्योछावर करनेवालों का क़ादियानियत से मुक़ाबला होता चला आ रहा है। वर्तमान समय में क़ादियानियत की तहरीक जिस ढंग से एक बार फिर अपने पाँव पसार रही है, उसका पीछा करने क लिए भाई मोहतरम जनाब मुहम्मद अब्दुर्रऊफ साहब ने रात-दिन मेहनत करके क़ादियानी किताबों और पत्रिकाओं से ही लेखांशों ( इक़तिबासों )को नक़ल करके उसका असली चेहरा दिखने की कोशिश की है खुदा उनकी इस कोशिश को क़बूल करे और जिस मक़सद के लिए यह किताब पेश की जा रही है उसमें कामियाबी दे। (आमीन!)
- ख़ालिद किफ़ायत
इस्मत मंज़िल, मालेर कोटला, (पंजाब)
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मिर्ज़ा साहब का संक्षिप्त जीवन-परिचय
जन्म तथा वंश
मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी का जन्म सन् 1839 ई. या सन् 1840 ई. में ज़िला गुरूदासपुर (पंजाब) के क़स्बा क़ादियान में हुआ। (सन 1891 ई.) में मसीह मौैऊद होने का और सन 1901 ई. में नुबूवत का दावा किया। सन् 1908 ई. में लाहौर में मृत्यु हुई और क़ादियान में दफ़न हुए।) उनके वालिद का नाम गुलाम मुर्तज़ा और वालिदा का नाम चिराग़ बीबी था। उनका संबंध मुग़ल क़ौम बिरलास से था।
शिक्षा (तालीम)
मिर्ज़ा साहब की इबतिदाई तालीम घर पर हुई। उन्होंने कुरआन मजीद और थोडी-सी फ़ारसी की तालीम अपने घर पर ही मौलवी फज़ले इलाही से हासिल की और अपनी सियालकोट की नौकरी के दौरान वहाँ आफिस के मुंशियों से कुछ अंग्रज़ी भी सीखी। (सीरतुल मेहदी, भाग-1ए पृ. 137) मिर्ज़ा ने मिसमेरिज़्म की तालीम भी हासिल की और उसमें महारत हासिल करने की कोशिश की, किन्तु बाद में उसको छोड़ दिया।
जवानी की बात
‘‘बयान किया मुझसे हज़रत वालिदा साहिबा ने कि एक बार अपनी जवानी के ज़माने में हज़रत मसीह (मौऊद) अलै. तुम्हारे दादा की पेंशन वसूल करने गए तो पीछे-पीछे मिर्ज़ा इमामुद्दीन भी चले गए। जब आपने पेंशन वसूल कर ली तो वह आपको फुसलाकर और धोखा देकर बजाए क़ादियान लाने के बाहर ले गया और इधर-उधर फिराता रहा। फिर जब आने रूपया उड़ाकार खत्म कर दिया तो आपको छोडकर कहीं और चला गया। हज़रत मसीह मौऊद इस शर्म से वापस घर नहीं आए और चूँकि तुम्हारे दादा का मंशा रहता था कि आप कहीं मुलाज़िम हो जाएँ, इसलिए आप सियालकोट शहर में डिप्टी कमिश्नर की कचेहरी में थोड़ी-सी तनख्वाह पर मुलाज़िम हो गए।’’
-सीरतुल मेहदी, भाग-1, पृ. 24, अंक-54, लेखक: साहबज़ादा बशीर अहमद
लिबास
मिर्ज़ा सहब आम तौर पर गर्म कपडे पहनते थे जिसमें ओवरकोट शामिल था। गर्मियों में भी पायजामा और सदरी (सीनाबंद जाकेट) गर्म रखते थे। सिर पर अमामा (पगड़ी) बाँधते थे और यह सब कुद बीमारी की वजह से था।
पसंदीदा खुराक
उनको मिठाई और मीठे खाने बहुत पसंद थे।
जेब की ढेले
हालाँकि शुगर की बीमारी भी आपको लगी हुई थी और बार-बार पेशाब के भी आप रोगी थे, उसी ज़माने में आप मिट्टी के ढेले कभी-कभी जेब में रखते थे और उसी जेब में गुड़ के ढेले भी रख लिया करते थे। इसी प्रकार की और बहुत-सी बातें हैं जो इस बात की गवाह हैं कि आपको अपने शाश्वत यार के प्यार में ऐसी तल्लीनता थी कि जिसके सबब इस दुनिया से बिलकुल बेखबर हो रहे थे।
- मिर्ज़ा साहब के हालात, संकलनकर्ता: मेराजुद्दीन उमर साहब, परिशिष्ट बराहीने अहमदिया, भाग-1, पृ. 87
जिस्मानी हालत
बचपन में चोट लग जाने के सबब से आपका दाहिना हाथ कमज़ोर था। आप निवाल मुँह तक तो ले जाते थे, लेकिन पानी का बरतन मुँह तक न ले जा सकते थे। नमाज़ में भी आपको दाहिना हाथ बाएँ हाथ से संभालना पड़ता था।
-हयातुल मेहदी, पृ. 198
मिर्ज़ा साहब की आँखें
मिर्ज़ा साहब की आँखें अध-खुली रहती थीं और एक आँख दूसरी के मुक़ाबले में छोटी थी। एक बार मिर्ज़ा साहब अपने कुछ ख़ादिमों के साथ फ़ोटो खिंचवाने गए तो फोटोग्राफर ने आपसे अर्ज़ किया कि हुज़ूर ज़रा आँखें खोलकर रखें, वरना तसवीर अच्छी नहीं आएगी और आपने उसके कहने पर एक बार तक़लीफ़ के साथ आँखों को कुछ अधिक खोला भी किन्तु वे फिर उसी तरह आधी बंद हो गई।
-सीरतुल मेहदी, पृ. 77, भाग-2, रिवायत 403-404, लेखक: साहबज़ादा बशीर अहमद
स्नायविक (आसाबी) दुर्बलता
मिर्ज़ा साहब स्नायविक कमज़ोरी के सिलसिले में खुद भी लिखते हैं जो इस प्रकार है-
‘‘मेरे मोहतरम भाई (मौलवी नूरूद्दीन साहब) अस्सलामु अलैकुम
यह आजिज़ पीर (सोमवार) के दिन 9 मार्च, सन् 1891 ई. को अपने परिवार के साथ लुधियाना की ओर जाएगा और चूँकि सर्दी और दूसरे-तीसरे दिन बारिश भी हो जाती है और इस आजिज़ को स्नायविक (आसाबी) बीमारी है, ठंडी हवा और बारिश से बहुत नुक़सान पहुँचता है। इस कारण से यह आजिज़ किसी सूरत से इतनी तकलीफ़ उठा नहीं सकता कि इस हालत में लुधियाना पहुँचकर फिर जल्दी लाहौर में आवे। तबीअत बीमार है, लाचार हूँ। इसलिए मुनाबि है कि अप्रैल के महीने में कोई तारीख तय की जाए। अस्सलाम,विनीत गुलाम अहमद
-मक्तूबाते अहमदिया, भाग-5, अंक-2, पृ. 90,
लेखः याकूब अली उर्फ़ानी क़ादियानी
याददाश्त की खराबी
मिर्ज़ा साहब फ़रमाते हैं-
‘‘मेरी याददाश्त बहुत खराब है, अगर कई बार किसी से मुलाक़ात हो तब भी भूल जाता हूँ। याद दिलाना सबसे अच्छा तरीक़ा है। याददाश्त इतनी खराब है कि बयान नहीं कर सकता।’’- मक्तूबाते अहमदिया, भाग-5, पृ. 21, अंक 2
मिर्ज़ा साहब के दाँत
मिर्ज़ा साहब के दाँत आखिरी उम्र में बहुत खराब हो गए थे, यानी कुछ दाँतों को कीड़ा लग गया था जिससे कभी-कभी बहुत तकलीफ़ हो जाती थी। चुनाँचे एक बार एक दाढ़ का सिरा ऐसा नोकदार हो गया था कि उससे उनके ज़बान में ज़ख़्म पड गया तो रेती के साथ घिसवाकर बराबर भी कराया था, मगर कभी कोई दाँत निकलवाया नहीं। -सीरतुल मेहदी, भाग.2, पृ. 135
जूते का तोहफ़ा
एक बार एक व्यक्ति ने जूते तोहफ़े में पेश किए। मिर्ज़ा साहब ने उसे क़बूल कर पहन लिया, किन्तु उसके दाँए-बाँए की पहचान न कर सकते थे। दायाँ पैर बाईं ओर के जूते में और बायाँ पैर दाईं ओर के जूते में डालकर पहन लिया। आ़िखरकार इस ग़लती से बचने के लिए एक ओर के जूते पर सियाही से निशान लगाना पड़ा। -सीरतुल मेहदी, भाग-1, पृ. 67
बार-बार पेशाब आने की बीमारी
मिर्ज़ा साहब खुद ज़िक्र करते हैं-
‘‘मुझे किसी दिन कभी-कभी सौ बार से भी अधिक पेशाब आता है, जिससे कमज़ोरी बढ़ जाती है।’’ -सीरतुल मेहदी, भाग-2
फिर तो मिर्ज़ा साहब बेचारे पेशाब ही में लगे रहते होंगे। हर पन्द्रह मिनट बाद पेशाब, फिर पेशाब में 5-6 मिनट भी लगते होंगे।
स्थाई रोग
‘‘मैं एक स्थाई मर्ज़ में ग्रस्त आदमी हूँ। हमेशा सिर के दर्द, सिर चकराने, अनिद्रा (नींद न आना) और दिल की ऐंठन की बीमारी दौरे के साथ आती है। वह बीमारी मधुमेह (शूगर) है कि एक मुद्दत से लगी है और कभी-कभी सौ-सौ बार रात को या दिन को पेशाब आता है। इस बार-बार पेशाब आने से जितनी बीमारियों की कमज़ोरी होतही है वे सब मेरी हालत में शामिल हैं।’’ -ज़मीमा अरबईन, पृ. 403, रूहानी खज़ाइन. पृ. 471, भाग-17
अफ़ीम
मिर्ज़ा साहब कहते हैं-
‘‘एक बार मुझे एक दोस्त ने सलाह दी कि मधुमेह के लिए अफ़ीम लाभदायक होती है। अतः इलाज के मक़सद से, हरज नही कि अफ़ीम शुरू कर दी जाए। मैंने जवाब दिया कि यह आपने बड़ी मेहरबानी की कि हमदर्दी दिखाई।’’ -नसीमे दावत, पृ. 67
मियाँ महमूद खलीफ-ए-क़ादियान लिखते हैं कि हज़रत मसीह मौऊद (अलै.) ने ‘‘तिर्याक़े इलाही’’ दवा अल्लाह तआला की हिदायत व मार्गदर्शन के तहत बनाई और उसका एक ब़ा हिस्सा अफ़ीम थी और यह दवा किसी क़द्र और अफ़ीम की अधिकता के बाद हज़रत खलीफ़ा प्रथम (नूरूद्दीन साहब) को (हुजूर मिर्ज़ा साहब) छः माह से अधिक दिनों तक देते रहे और खुद भी समय-समय पर अनेकों बीमारियों के दौरों के वक़्त वक़्त इस्तेमाल करते रहे।
-अखबार अल-फ़ज़ल, भाग.17, अंग-6, प्र. 2, तारीख 19 जुलाई, सन् 1929 ई. ब्राण्डी
ब्राण्डी, जो मशहूर शराब है, मिर्ज़ा साहब अपने दोस्तों के लिए मँगवाकर देते थे। एक बार अपने खास सेवक मेहदी हसन से कहा-
‘‘दो बोतल ब्राण्डी पीर मंजूर मुहम्मद के लिए लेते आना। जब तक तुम बोतलें ब्राण्डी की न ले लो लाहौर से रवाना न होना।’’
मैं समझ गया कि अब मेरे लिए लाना ज़रूरी ह। मैंने प्ल्यूमर की दुकान से दो बोतलें खरीदकर ला दीं। (सेवक का उत्तर)
-अखबार अल-हकम क़ादियान, भाग.39, अंक-25, तारीख 7 नवम्बर,सन् 1936 ई. टाँक वाइन
टाँक वाइन, जो बहुत ही उम्दा और उत्तम विदेशी शराब है, मिर्ज़ा साहब ने अपने खाने के सामानों के साथ मियाँ यार महमूद साहब के ज़रीए लाहौर से मँगवाइ।
-अखबार अल-हकम, क़ादियान, भाग-39ए अंक-25, तारीख 7 नवम्बर, सन 1936 ई.
खुतुत बनामे गुलाम, पृ. 5, संग्रह: मक्तूबात मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी साहब, बनामे हकीम मुहम्मद हुसैन कुरैशी साहब क़ादियानी ..... रफ़ीकुस्सेहत, लाहौर।
टाँक वाइन का फ़तवा
अतः इन हालात में अगर मसीह मौऊद ब्राण्डी और रम का इस्तेमाल भी अपने मरीज़ों से करवाते या खुद भी मज़ की हालत में कर लेते हों तो वह शरीअत के खिलाफ़ न था। जबकि ‘‘टाँक वाइन’’ एक दवा है। अगर अपने खानदान के किसी सदस्य या दोस्त के लिए जो किसी लम्बे मर्ज़ से उठा हो और कमज़ोर हो गया या मान लिया जाए कि अपने लिए भी मंगवाई हो और इस्तेमाल भी की हो तो इसमें कया हरज हो गया। आपको कमज़ोरी के दौरे इतने सख़्त पडते थे कि हाथ-पाँॅव ठंडे पड जाते थे। नाडियाँ डूब जाती थीं। मैंने खुद ऐसी हालत में आपको देखा है। नाड़ी (नब्ज़) का पता नहीं चलता था, तो वैद्यों या डाॅक्टरों के मशविरे से आपने ‘‘टाँक वाइन’’ का इस्तेमाल ऐसी सूरत में किया हो तो बिलकुल शरीअत के मुताबिक़ है।
-डॉक्टर बशारत अहमद क़ादियानी फ़रीक़ लाहौरी, प्रकाशितः अखबारे पैग़ामे सुलह, भाग-23, पृ. 15, तारीख 4 मार्च, सन् 1935 ई.
पढ़नेवाले लोग ऊपर लिखी इबारतों को ज़ेहन में खें और ग़ौर करें कि शराब के बारे में क़ादियानियों का नज़रिया कहाँ तक सही है और यह कहाँ तक इस्लाम के अहकाम के मुताबिक़ है।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया- ‘‘हर नशा लानेवाली चीज़ खुम्र (शराब) है और हर ख़म्र (शराब) हराम है।’’ -मुसलिम
अल्लाह के आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमाया- ‘‘शराब दवा नहीं, बीमारी है।’’ अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने शराब के सिलसिले में 10 आदमियों पर लानत भेजी हैः (1) शराब निचोडनेवाला (2) निचुड़वानेवाला (3) पीनवाला (4) उठानेवाला (5) वह जिसके लिए उठाकर ले जाई जाए (6) पिलानेवाला (7) बेचनेवाला (8) उसकी क़ीमत खानेवाला (9) खरीदनेवाला (10) और जिसके लिए खरीदी जाए।
नुबूवत और सुचरित्र
अल्लाह तआला ने अपने आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को जो रूप और चरित्र प्रदान किया था, कितने ही लोग जनाब नबी करीम (सल्ल.) के नूरानी रूप को देखकर आप (सल्ल.) की नुबूवत पर ईमान ले आए और कितने ही लोग आप (सल्ल.) के चरित्र और अच्छे सुलूक से प्रभावित होकर ईमान ले आए और कितने ही लोगों के लिए आप (सल्ल.) का कलाम (वाणी) ईमान लाने का सबब बन गया।
खुशक़िस्मत बेटे का जनाज़ा
मिर्ज़ा अफ़ज़ल अहमद साहब, मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी के बहुत ही नेक बेटे थे। मिर्ज़ा साहब अपने इस बेटे के फरमाँबरदार और खिदमतगुज़ार होने को तसलीम करते हैं, लेकिन उन्होंने अपने बेटे की नमाज़े जनाज़ा इसलिए नहीं पढ़ी कि वह अपने बाप मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी की तुबूवत का इनकारी था और आखिरी वक़्त तक सरवरे कायना रमतुललिल आलमी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की नुबूवत से जुड़ा रहा।
इससे बढ़कर और क्या संगदिली हो सकती है। क्या कोई ऐसा पत्थर-दिल व ज़ालिम इन्सान नबी हो सकता है?
खुला हुआ जुलम
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी ने अपने बड़े बेटे सुलतान अहमद को उसके सारे अधिकारों से सिर्फ इसलिए महरूम कर दिया कि उसने मुहम्मदी बेग से मिर्ज़ा साहब का रिश्ता कराने में उनकी मदद नहीं की, बल्कि उनके विरोधियों का साथ दिया और अपने दूसरे बेटे मिर्ज़ा फ़ज़्ल अहमद साहब की बीवी को इस अपराध पर तलाक़ दिलवाया कि उनकी बीवी मिर्ज़ा अहमद बेग मुहम्मदी बेगम के वालिद की भांजी थी। इस्लामी शरीअत में तलाक़ हलाल कामों में सबसे बुरा काम है। क्या इस बुरा काम तलाक़ दिलवाने का अपराध करनेवाला (और इसपर यह कि वह बदले की भावना से हो) नबी हो सकता है?
नुबूवत का समापत और मिर्ज़ा गुलाम अहमद के अ़कीदे
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी शुरू में खत्म नुबूवत (नुबवूत के समापन) के उसी तरह क़ायल थे जिस तरह आम मुसलमान क़ायल है तथा खत्मे नुबूवत के वही मतलब लेते थे जिसपर पूरी उम्मत एकमत है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर नुबूवत का सिलसिला खत्म हो गया। अब आप(सल्ल.) के बाद कोई नबी आनेवाला नहीं है। अर्थात आप (सल्ल.) ने नुबूवत के दरवाज़े को हमेशा के लिए बन्द कर दिया। अतः मिर्ज़ा साहब लिखते हैं-
‘‘कुरआन करीम खतिमुन्नबीईन (अर्थात् नबियों के समापक) के बाद किसी रसूल का आना जाइज़ नहीं रखता, चाहे वह नया रसूल हो या पुराना हो, क्योंकि रसूल को इल्म जिबरील (अलै.) के ज़रिए से मिलता है और रिसालत की वह्य लेकर जिबरईल (अलै.) के नाज़िल होने का दरवाज़ा बन्द है और यह बात खुद रोक है कि रसूल तो आए, किन्तु रिसालत की वह्य का सिलसिला न हो।’’ -इज़ाला औहाम, पृ. 761, रूहानी ख़जाइन, पृ. 511, भाग-3, मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी मतबूआ, सन 1891 ई.
‘‘हर समझदार व्यक्ति समझ सकता है कि अगर अल्लाह तआला अपने वादे का सच्चा है, और जो वादा कुरआन की आयत ‘खातिमुन्नबीईन’ में किया गया है और जो हदीसों में तफ़सील से बयान किया गया है कि जिबरील (अलै.) को रसूल (सल्ल.) की वफ़ात के बाद हमेशा के लिए नुबूवत की वह्य लाने से मना किया गया है- ये सारी बातें सच और सही हैं- तो फिर कोई व्यक्ति रसूल की हैसियत से हमारे नबी (सल्ल.) के बाद हरगिज़ नहीं आ सकता।’’ - इज़ाला औहाम, पृ. 577, रूहानी ख़जाइन, पृ. 412, भाग-3, लेखकः मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी मतबूआ, सन् 1891 ई.
‘‘क्या तू नहीं जानता कि परवरदिगार, रहीम, फज़्लवाले ने हमारे नबी (सल्ल.) का बिना किसी अपवाद के खातिमुन्नबीईन (अर्थात नुबूवत के समापक) नाम रखा और हमारे नबी (सल्ल.) ने चाहनेवालों के लिए इसी की व्याख्या अपने कथन-ला नबी-य-बहदी (अर्थात मेरे बाद कोई नबी नहीं) में साफ़ तौर से कर दी और अगर हम अपने नबी (सल्ल.) के बाद किसी नबी का आना सही मानें तो मानो कि हम वह्य का दरवाज़ा बन्द हो जाने के बाद उसका खुलना जाइज़ ठहरा दें और यह सही नहीं है। जैसा कि मुसलमानों पर स्पष्ट है और हमारे नबी (सल्ल.) के बाद नबी कैसे आ सकता है, जबकि आप (सल्ल.) की वफ़ात के बाद वह्य का सिलसिला खत्म हो गया और अल्लाह तआला ने आप (सल्ल.) पर नबियां (के लिससिले) को खत्म कर दिया।’’ -हमामतुल बुशरा, पृ. 24, रूहानी खज़ाइन, पृ. 200, मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी मतबूआ, सन् 1894 ई.
‘‘हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने बार-बार फरमाया था कि मेरे बाद कोई नबी नहीं आएगा और हदीस ‘ला नबी-य-बअदी’ ऐसी मशहूर थी कि किसी को इसके सही होने में शुबह नहीं था और कुरआन शरीफ़ जिसका शब्द, निर्णायक शब्द है पाक आयत ‘व लाकिर्रसूलल्लाहि व खातिमुन्नबीईन’ (अर्थात लेकिन अल्लाह का रसूल और नबियां के समापक हैं) से भी साबित होता है कि वास्तव में हमारे नबी (सल्ल.) पर नुबूवत खत्म हो चुकी है।’’ -किताबल बरिया, पृ. 184, रूहानी ख्ज़ाइन, पृ. 217-18, भाग-13ए मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी, मतबूआ, सन् 1897 ई.
नुबूवत के खत्म होने का इनकारी- काफ़िर और झूठा
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी उस व्यक्ति के क़ाफ़िर (इन्कार करने वाला) व झूठा मानते हैं जो नुबूवत के खत्म होने का क़ायल नहीं है। इस सिलसिले में हम उनके ये कथन नक़ल करते हैं-
‘‘मैं उन सभी बातों का क़ायल हूँ जो इस्लामी अक़ीदों में दाखिल हैं और जैसा कि ‘अहले सुन्नत वल-जमाअत’ का अक़ीदा है। उन सब बातों को मानता हूँ जो कुरआन व हदीस से पूरी तरह साबित हैं और सैयदना व मौलाना हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) व रसूलों के समापक (सल्ल.) के बाद किसी दूसरे नुबूवत के रिसालत के दावेदार को झूठा व काफ़िर जानता हूँ। मेरा यक़ीन है कि रिसालत की वह्य हज़रत आदम सफ़ीउल्लाह से शुरू हुई और जनाब मुहम्मद रसूल (सल्ल.) पर खत्म हो गई।’’ -मजमूआ इश्तेहात, पृ. 230, भाग-1,12 अक्तूबर, सन् 1891 ई., लेखकः मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी
‘‘उन तमाम बातों में मेरा वही मज़हब है जो दूसरे ‘अहले सुन्नत वल-जमाअत’ का मज़हब है। अब मैं तफ़सील से नीचे लिखी बातों को मुसलमानों के सामने इस खुदा के घर (जामा मसजिद दिल्ली) में साफ़-साफ़ तसलीम करता हूँ कि मैं जनाब खतमुल अंबिया सल्ल. (नबियों के क्रम-समापक अर्थात् हज़रत मुहम्मद सल्ल.) की खत्म नुबूवत का क़ायल हूँ और जो व्यक्ति नुबूवत के खत्म होने का इनकारी हो उसको बेदीन (विधर्मी) और इस्लाम के दायरे से खारिज समझा हूँ।’’
-मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी का तहरीरी बयान जो तारीख 23 अक्तूबर, सन् 1891 ई. को जामा मसजिद, दिल्ली के जलसे में दिया गया।
-मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 255, अंकित तबलीग़े रिसालत, भाग-2, पृ. 44
‘‘क्या ऐसा बदक़िस्मत झूठा जो खुद रिसालत का दावा करता है कुरआन शरीफ़ पर ईमान रख सकता है और क्या ऐसा वह व्यक्ति जो कुरआन शरीफ़ पर ईमान रखता है और आयत‘व लाकिर्रसूलल्लाहि व खातमन्नबिय्यीन’ (अर्थात अल्लाह के रसूल और नबियों के क्रम-समापक हैं) को खुदा का कलाम यक़ीन करता है, वह कह सकता है कि में भी आप (सल्ल.) के बाद रसूल और नबी हूँ?’’
-अंजामे आतिहम, पृ. 27, रूहानी खज़ाइन, हाशिया न. 27, भाग-11, प्रकाशित सन् 194 ई.
‘‘मैं जानता हूँ कि हर वह चीज़ जो कुरआन के मुखालिफ है वह झूठ नास्तिकता व बेदीनी है। फिर में किस प्रकार नुबूवत का दावा करूँ , जबकि मैं मुसलमानों में से हूँ।’ -हमामतुल बुशरा, पृ. 96, रूहानी खज़ाइन, पृ. 297, भाग-7, लेखक मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी, प्रकाशित सन् 1894 ई.
‘‘मैं न नुबूवत का दावेदार हूँ और न मोजज़ात (नबियोंवाला चमत्कार दिखानेवाला कर्म) और फ़िरिश्तों, लैलतुल कद्र आदि से इनकार करने वाला, और सैयदना मौलाना हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) खतमुल मुर्सलीन के बाद किसी दूसरे नुबूवत और रिसालत के दावेदार को झूठा और काफ़िर जानता हूँ।’’ -तबलीग़े रिसालत, भाग-2, पृ. 22, मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 230, तारीख 22 अक्तूबर, सन 1891 ई.
‘‘मुझे कब जाइज़ है कि मैं नुबूवत का दावा करके इस्लाम से खारिज हो जाऊँ और काफिरों की जमाअत से जा मिलूँ।’’ -हमामतुल बुशरा, पृ. 96, प्रकाशित सन् 1894 ई.
‘‘ऐ लोगों! कुरआन के दुश्मन न बनो और खातमुन्नबीय्यीन के बाद नुबूवत की वह्य का नया सिलसिला जारी न करो। उस खुदा से शर्म करो जिसके सामने हाज़िर किए जाओगे।’’ - आसमानी फैसला , पृ. 25, प्रकाशित सन् 1891 ई.
मुजददिद व वली होने की तरफ पेशक़दमी
उपरोक्त हवालों से मिर्ज़ा गुलाम अहमद ने स्पष्ट और खुले शब्दों में नबी करीम (सल्ल.) को खातमुल अम्बिया यानी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को आखिरी नबी तसलीम करते हुए उस व्यक्ति को झूठा और खुदा का विरोधी बताया है जो नबी करीम हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के बाद किसी को नबी या रसूल मानता है, और वह बार-बार इस बात को दुहराते हैं कि ‘‘मेरा बक़ीदा वही है जो सारे मुसलमानों का अक़ीदा है कि अब अल्लाह के आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के बाद कोई नबी और रसूल नहीं आएगा। इसके विरूदध आप (सल्ल.) के बाद मैं किसी को नबी और रसूल मानकार कैसे इस्लाम से खारिज हो सकता हूँ?’’ इस खुले इकरार के बाद ग़ौर कीजिए कि मिर्ज़ा साहब किस प्रकार नुबूवत के अक़ीदे से दूर होते चले गए। आखिरकार उन्होंने एक ‘‘ज़िल्ली नबी(वह नबी जो खुद शरीअतवाला न हो यानी जिसे अल्लाह की ओर से शरीअत‘संविधान न दी गई हो, बल्कि वह किसी दूसरे नबी की शरीअत का अनुपालक हो।--अनुवादक)’’, फिर स्थायी नबी व रसूल (यानी वास्तविक नबी, जैसे दूसरे नबी थे।) होने का दावा कर दिया, बल्कि आखिर में अपने आपको तमाम नबियां से बड़ा साबित करने की नाकाम कोशिश की। चुनाँॅचे मिर्ज़ा साहब एक जगह लिखते हैं-
‘‘उन पर स्पष्ट रहे कि हम भी नुबूवत के दावेदार पर लानत भेजते हैं और ‘ला इला-ह इल्लल्लाह और मुहम्मदुर्रसूलुल्लह’ के कायल हैं और आप (सल्ल.) पर नुबूवत खत्म होने पर ईमान लाते हैं और नुबूवत की वह्य (वह्य-नुबूवत) नहीं बल्कि वली होने की वह्य (वह्य-विलायत) जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की नुबूवत के अधीन और आप (सल्ल.) की पैरवी व पद्चिन्हों पर चलने से अल्लाह के वलियों को मिली है, इसके हम क़ायल हैं और इससे ज़्यादा जो व्यक्ति मुझपर इलज़ाम लगाए वह तक़वा और ईमानदारी को छोडता है। अतः नुबूवत का दावा नहीं, बल्कि सिर्फ़ विलायत (वली होने) और मुजददिद होने का दावा है। -इश्तेहार मिर्ज़ा, तारीख़ 20 शाबान, सन् 1314 हिजरी, तबलीग़ रिसालत, भाग-6, पृ. 372, मजमूआ इश्तेहारात, पृ. 297 से 298, भाग-2
‘‘और खुदा कलाम व खिताब करता है उस उम्मत के वलियों के साथ और उनको नबियों का रंग दिया जाता है, लेकिन वे हक़ीक़त में नबी नहीं होते, क्योंकि कुरआन करीम में शरीअत की तमाम ज़रूरतों को पूरा कर दिया है।’’ -मुवाहिबुर्रहमान, पृ. 66, सन् 1903 ई.
‘‘मेरा नुबूवत का कोई दावा नहंी, यह आपकी ग़लती है या आप किसी खयाल से कह रहे हैं। क्या यह ज़रूरी है कि जो इलहाम (ईश-प्रेरणा) का दावा करता है वह नबी भी हो जाए। मैं तो मुहम्मदी और पूरे तौर पर अल्लाह और रसूल का पैरोकार हूँ और इन निशानियों कानाम माजज़ा! रखना नहीं चाहता, बल्कि हमारे मज़हब के अनुसार इन निशानियों का नाम करामात है जो अल्लाह और रसूल की पैरवी से दिए जाते हैं। -जंगे मुक़द्दस, पृ. 67, प्रकाशित सन् 1893 ई.
‘‘पहले तो इस आज़िज (विनीत) की बात को याद रखें कि हम लोग मोजज़ा का शब्द उसी अवसर पर बोला करते हैं जो कोई ग़ैर-मामूली चमत्कार किसी नबी या रसूल की तरफ मंसूब हो। लेकिन यह आज़ि न नबी है न रसूल है, केवल मासूम नबी मुहम्मद (सल्ल.) का एक मामूल सेवक और अनुयायी है और प्यारे नबी (सल्ल.) की बरकत और आज्ञानुपालन से ये रौशनियाँ और बरकतें ज़ाहिर हो रही हैं, इसलिए इस जगह करामत का शब्द मुनासिब है, न कि मोजज़े का।’’ -अखबार अलहकम, क़ादियान, पृ. 23, भाग-5, प्रतिलिखित द्वाराः क़मरूल हुदा, पृ. 58, ले.: क़मरूद्दीन जुहलमी क़ादियानी
‘‘इनसाफ़ चाहनेवाले को याद रखना चाहिए कि इस आजिज़ ने कभी और किसी वक़्त हक़ीक़त में नुबूवत या रिसालत का दावा नहीं किया और अवास्तविक रूप में किसी शब्द का प्रयोग करना और शब्दकोश के सामान्य अर्थों के लिहाज़ से उसी को बोलचाल में लाना कुफ्र को जाज़िम नहीं करता है, मगर मैं इसको भी पसन्द नहीं करता कि इसमें आम मुसलमानों को धोखा लग जाने का अन्देशा है।’’ -अंजाम आथम, पृ. 27, प्रकाशित सन् 1896 ई.
‘‘यह सच है कि वह इलहाम (ईश-प्रेरणा) जो अल्लाह ने इस बन्दे पर उतारा है, उसमें इस बन्दे के बारे में ‘नबी’ और ‘रसूल’ ‘मुर्सल’ के शब्द अधिकता से मौजूद है। इसलिए यह वास्तविक अर्थों पर आधारित नहीं है- व लाकिन अय्यस्तलह- सो खुदा की यह इस्तिलाह (पारिभाषा) है जो उसने ऐसे शब्द प्रयोग किए। हम इस बात के क़ायल और माननेवाले हैं कि नुबूवत के वास्तविक अर्थों के अनुसार हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के बाद न कोई नया नबी आ सकता है और न पुराना। कुरआन ऐसे नबियों के प्रकट होने से मना करता है, किन्तु मजाज़ी (लाक्षणिक) अर्थों की मदद से अल्लाह को यह सामथ्र्य प्राप्त है कि किसी मुलहम को नबी के शब्दों या रसूल के शब्दों ये याद करें।’’ -सीराजे मुनीर, पृ. 302, प्रकाशित सन् 1897 ई.
‘‘हाल यह है कि हालाँकि बीस साल से लगातार इस आजिज़ को इलहाम हुआ है। अधिकतर उसमें नबी या रसूल का शब्द आ गया है लेकिन वह व्यक्ति ग़लत कहता है जो ऐसा समझता है। इस नुबूवत व रिसलत से मुराद हक़ीक़ी नुबूवत और रिसालत है। चूँकि ऐसे शब्दों से जो व्यक्ति इस्तिआरा (रूपक) के रंग में हैं इस्लाम में फितना पडता है और इसका नतीजा अत्यंत बुरा निकलता है। इसलिए जमाअत की आम बोल-चाल और निद-रात के मुहावरों में ये शब्द नहीं आने चाहिएँ।’’ -मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी का खत, अंकित अखबार ‘अलहकम’ क़ादियान न. 29, भाग.3, तारीख 17 अगसत, सन! 1899 ई. पतिलिपित रिसाला मसीह मौऊद और खत्म नुबूवत, पृ. 6, मौलवी मुहम्मद अली लाहौरी।
हदीस की विदूता से नुबूवत की ओर तरक्क़ी
‘‘हमारे सरदार व रसूल (सल्ल.) नबियां के सिलसिले के समापक हैं और आप (सल्ल.) के बाद कोई नबी नहीं आ कसता। इसलिए इस शरीअत में नबी के स्थानपन्न मुहद्दिस (हदीस के विद्वान) मुक़र्रर किए गए हैं।’’ -शहादतुल कुरआन, पृ. 28, प्रकाशित सन् 1893 ई.
‘‘मैं नबी नहीं हूँ बल्कि अल्लाह की ओर से हदीस के विद्वान (मुहद्दिस) और अल्लाह का कलीम (बात करने वाला) हूँ ताकि (मुहम्मद) मुस्तफ़ा (सल्ल.) के दीन की तजदीद करूँ।’’ -आईन-ए-कमालात, पृ. 383, प्रकाशित सन् 1893 ई.
‘‘मैने हरगिज़ नुबूवत का दावा नहीं किया औरन मैंने कहा है कि मैं नबी हूँ , लेकिन उन लोगों ने जल्दी की और मेरी बात को समझने में ग़लती की है। लोगों ने सिवाए उसके जो मैंने अपनी किताबों में लिखा है और कुछ नहीं कहा कि मैं मुहद्दिस (हदीस का विद्वान) हूँ और अल्लाह तआला मुण्से इस तरह कलाम (बातचीत) करता है, जिस तरह मुहद्दिसीन (हदीस के विद्वानों) से।’’ -हमामतुल बुशर, पृ.96, प्रकाशित सन् 1894 ई.
‘‘लोगों ने मेरी बात को नहीं समझा है और कह दिया है कि यह व्यक्ति नुबूवत का दावेदार है और अल्लाह जानता है कि उनका कथन (कौल) पूरी तरह झूठ है जिसमें सच्चाह बिलकुल नहीं और न इसकी बुनियाद है। हाँ, मैंने यह ज़रूर कहा है कि ‘मुहद्दिस’ में नुबूवत के सभी गुण पाए जाते हैं, लेकिन बिलकुव्वत(सामथ्र्यानुसार) बिलफेल(कर्मानुसार) नहीं, तो मुहद्दिस सामथ्र्यवान नबी है। और नुबूवत का दरवाज़ा बन्द न हो जाता तो वह भी नबी हो जाता।’’ -हमामतुल बुशरा, पृ. 99, प्रकाशित सन् 1894 ई.
‘‘नुबूवत का दावा नहीं, मुहद्दिस होने का दावा है जो अल्लाह तआला के हुक्म से किया गया है और इसमें क्या शक है कि मुहद्दिस होना भी एक कुव्विया नुबूवत का भाग अपने अंदर रखता है।’’ -इज़ाला औहाम, पृ. 421, रूहानी खज़ाइन, पृ. 320, भाग-3, प्रकाशित सन 1891 ई.
‘‘इस (मुहद्दिस होने) को अगर एक लाक्षणिक (मजाज़ी) नुबूवत ठहराया जाए या एक कुल्लिया नुबूवत का भाग माना जाए तो क्या इससे नुबूवत का दावा आ गया’’ -इज़ाला औहाम, पृ. 422, प्रकाशित सन् 1891 ई.
‘‘मुहद्दिस जो रसूलों में से अनुयायी भी होता है और अपूर्ण रूप से नबी भी। अनुयायी इस वजह से कि वह पूरी तरह रसूल की शरीअत का ताबेदा और रिसालत के प्रकाश से लाभान्वित होता है और नबी इस वजह से से कि अल्लाह तआला नबियों में बरज़ख़ के तौर पर अल्लाह तआला ने पैदा किया है। वह हालाँकि पूरे तौर पर उम्मती (अनुयायी) है, मगर एक वजह से नबी भी होता है और मुहद्दिस के लिए ज़रूरी है कि वह किसी नबी के समरूप हो और खुदा तआला के निकट वही नाम पावे जो उस नबी का नाम है।’’ -इज़ाला औहाम, पृ. 569, रूहानी खज़ाइन, पृ. 407, भाग-3, प्रकाशित सन् 1891 ई.
‘‘इसके अलावा कि इसमें कोई संदेह नही कि यह आजिज़ (विनीत) खुदा तआला की ओर से इस उम्मत के लिए मुहद्दिस होकर आया है और मुहद्दिस एक माने में नबी ही होता है। मानो कि इसके लिए नुबूवतनामा नहीं, मगर फिर भी आंशिक रूप में वह एक नबी ही है, क्योंकि वह खुदा तआला से नुबूवत के हमकलाम (सहवार्ता) का एक शर्फ़ रखता है। गै़ब की बातें उसपर ज़ाहिर की जाती हैं और रसूलां व नबियों की तरह उसकी वह्य को भी शैतान की दखलंदाज़ी से पाक किया जाता है और शरीअत का सार उसपर खोला जाता है और हू-ब-हू नबियों की तरह नियुक्त होकर आता है, और नबियों की तर उसपर अनिवार्य (फर्ज़) होता है कि अपने को बुलंद आवाज़ से ज़ाहिर करे और इससे इनकान करनेवाला एक हद तक सज़ा का पात्र ठहरता है और नुबूवत के माना सिवाए इसके कुछ नहीं कि उपरोक्त बातें उसमें पाई जाएँ।’’ -तौज़ीहुल मराम, पृ. 18, प्रकाशित सन् 1890 ई.
‘‘यह कहना कि नुबूवत का दावा किया है कितनी जिहालत (अज्ञानता) कितनी मूर्खता और कितनी सच्चाई से दूरी है। ऐ नादानो् मेरी मुराद नुबूवत से यह नहीं कि मैं खुदा की पनाह, आप हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के मुक़ाबिल खड़ा होकर नुबूवत का दावा करता हूँ या कोई नई शरीअत लाया हूँ । नुबूवत से मेरी मुराद सिफ़ यह है कि अल्लाह से बहुत ज़्यादा बातें और कलाम हो जो हज़रत मुहम्मद सल्ल. की पैरवी व अनुकरण से हासिल है। अतः (खुदा से) बातचीत वसंबोधन के आप लोग भी क़ायल हैं। अतः यह केवल शब्दों की लड़ाई हुई। यानी आप लोग जिस चीज़ का नाम (खुदा से) बातचीत और संबोधन (मुकालिमा और मुखातिबा) रखते हैं, मैं उसकी अधिकता का नाम, अल्लाह के हुक्म की वजह से, नुबूवत रखता हूँ- व लिकुलिल अय्यस्तलह!’’ --परिशिष्ट हक़ीक़त वह्य, पृ. 68, प्रकाशित सन् 1907 ई.
अल्लाह का नबी
‘‘मसीह मौऊद आनेवाला है। उसकी पहचान यह लिखी है कि वह अल्लाह का नबी होगा यानी खुदा तआला से वह्य पानेवाला। किन्तु इस जगह तमाम व कामिला नुबूवत मुराद नहीं, क्योंकि तमाम व कामिला नुबूवत पर मुहर लग चुकी है, बब्कि वह नुबूवत मुराद है जो मुहद्दिसयत (हदीस के विद्वता) के भाव तक सीमित है, जो मुहम्मद (सल्ल.) की शरीअत के प्रकाश की रोशनी से नूर हासिल करती है। अतः यह नेमत खास तौर पर इसी बंदे को दी गई।’’ --इज़ाला औहाम, पृ. 701, रूहानी खज़ाइन, पृ. 478, भाग-3, प्रकाशित सन् 1891 ई.
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी समय-समय पर अपने दृष्टिकोण और खयालात बदलते रहे। उन्होंने विलायत (वली होने) और मुहद्दिसयत (हदीस के विद्वता) से नुबूवत की ओर कमाल तरीके पेशकदमी की। जिस बात का वे खुलकर इनकार कर चुके थे, धीरे-धीरे उसके इकरात की तरफ बढते रहे। यह सिर्फ मिर्ज़ा साहब ही की जसरत थी, शायद वह किसी दूसरे को हासिल न हो सकी। सबसे पहले मसीह मौऊद का सरसरी तौर पर जिक्र करते हुए लिखते हैं-
‘‘पहले तो जानना चाहिए कि मसीह के नाज़िल होने का अक़ीदा कोई ऐसा अक़ीदा नहीं है जो हमारे ईमानियात का कोई अंग या हमारे दीन के रूक्नों में से कोई रूक्त हो, बल्कि सैकडों पेशीनगोइयों में से एक पेशीनगोई है जिसका असल इस्लाम से कुछ भी संबंध नहीं। जिस ज़माने तक यह पेशीनगोई बयान नहीं की गई थी, उस ज़माने तक इस्लाम कुछ अपूर्ण (नामुकम्मल) नहीं था और जब बयान की गई तो उससे इस्लाम कुछ मुकम्मल नहीं हो गया।’’ --इज़ाला औहाम, प्रथम संस्करण, पृ. 140, प्रकाशित सन् 1891 ई.
‘‘अगर यह एतिराज़ पेश किया जाए कि मसीह का मसील (रूपक) भी नबी होना चाहिए, क्योंकि मसीह नबी था तो इसका जवाब पहले तो यही है कि आनेवाला मसीह के लिए हमारे दावे ने नुबूवत लाज़िम नहीं की, बल्कि साफ़ तौर पर यही लिखा है कि वह एक मुसलमान होगा और आम मुसलमानों की तरह अल्लाह की शरीअत का पाबंद होगा ओर इससे अधिक कुछ भी ज़ाहिर नहीं करेगा कि मैं मुसलमान हूँ और मुसलमानों का इमाम हूँ।’’ -तौज़ीहुल मराम, पृ. 19, प्रकाशित सन् 1890 ई.
मसीह के सदृश बनने की कोशिश
मसीह के सदृश कहलाने के बारे में मिर्ज़ा साहब के विचार देखिए-
‘‘और लेखक को इस बात का भी इल्म दिया गया है कि वह वक़्त का मुजददिद (यानी अपने समय का सुधारक) है और रूहानी तौर पर उसके कमालात मसीह इब्न मरियम के कमालात के समान हैं और एक को दूसरे से पूरी तरह समानता और सदृश्ता है।’’ -इश्तेहार अंकित ‘तबलीग़े रिसालत’, भाग-1, पृ.15, मजमूआ इश्तेहारात, पृ. 24, भाग-1
‘‘दीने इस्लाम के पूरी तरह ग़ालिब होने का जो वादा किया गया है वह ग़लबा मसीह के ज़रीए ज़ाहिर में आएगा और जब मसीह (अलै.) दोबारा इस दुनिया में तशरीफ लाएँगे तो उनके हाथ से इस्लाम समस्त संसार व कोने-कोनै में फैल जाएगा, लेकिन इस आजिज़ पर ज़ाहिर किया गया है कि यह खाकसार अपनी गुरबत और विनम्रता और भरोसा और त्याग और आयतों और अनवार (रौशनियों) के अनुसार मसीह की पहली जिन्दगी का नमूना है और इस बन्दे का स्वभाव और मसीह का स्वभाव परस्पर अत्यंत ही सदृश घटित हुआ है। मानो एक ही जोहर के दो टुकडे या एक ही पेड़ के दो फल हैं और काफ़ी हद तक समरूपता है कि परोक्ष दृष्टि मे अत्यंत ही बारी भिन्नता है।’’ -बराहीने अहमदिया, पृ. 499, भाग-5, रूहानी खज़ाइन, पृ. 593, भाग.1, टिप्पनी पर टिप्पनी 3, प्रकाशित सन् 1908 ई.
‘‘मुझे मसीह इन्ब मरियम होने का दावा नहीं और न ही में आवागमन का माननेवाला हूँ, बल्कि मुझे तो केवल मसीह के समान होने का दावा है। जिस प्रकार मुहद्दिसयत नुबूवत के समान होती है ऐसे ही मेरी रूहानी हालत मसीह इब्न मरियम की रूहानी हालत से निहायत दर्जे की समानता रखती है।’’ -मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 221, भाग-1, अंकितः तबलीग़ रिसालत, भाग-2, पृ. 21
इस आजिज़ (गुलाम) ने जो मसीह के समान होने का दावा किया है, जिसको कम समझ लोग मसीह मौऊद खयाल कर बैठे हैं, यह कोई नया दावा नहीं जो आज मेरे मुँह से सुना गया हो, बल्कि वह वही पुराना इलहाम (ईश-प्रेरणा) है जो मैंने खुदा तआला से पाकर ‘अराहीने अहमदिया’ के कई स्थानों पर सविस्तार अंकित कर दिया था, जिसके प्रकाशित करने पर सात साल से भी कुछ अधिक समय गुज़र गया होगा। मैंने यह दावा हरगिज़ नहीं किया कि मैं मसीह इब्न मरियम हूँ । जो व्यक्ति यह आरोप मेरे ऊपर लगाए, वह पूरी तरह फरेबी और झूठा, बल्कि मेरी ओर से अर्सा सत-आठ साल से बराबर यही प्रकाशित हो रहा है कि मसीह के समान व समरूप हूँ । यानी हज़रत ईसा (अलै.) की कुछ आध्यात्मिक (रूहानी) विशेषताएँ- स्वभाव और आदत और नैतिकता आदि अल्लाह तआला ने मेरी प्रकृति में भी रखी हैं।’’ --इज़ाला औहाम, पृ. 190, भाग-3, प्रकाशित सन् 1891 ई.
‘‘यह बात सच है कि अल्लाह जल-ल शानहू (माहन् प्रतापवान) की वह्य ओर इलहाम से मैंने मसीह के समान होने का दावा किया है। मैं उसी इलहाम के आधार पर अपने को उसी मौऊद के समान समझता हूँ जिसको लोग भ्रमवश मसीह मौऊद कहते हैं। मुझे इस बात से इन्कार नहीं कि मेरे सिवा कोई ओर मसीह के समान भी आनेवाला हो।’’ -मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 207, भाग-1, इश्तेहार 11 फरवरी, सन् 1891 ई.
हक़ीक़त खुल गई
प्रिय पाठकगण ग़ौर किजिए, उपरोक्त बयानों ओर उदधरणों में मिर्ज़ा साहब ने अपने आपको मसीह के समान साबित कने की कैसी कोशिश की है और इस बात का शिद्दत से इनकार किया है कि वह ईसा इब्ने मरियम हैं, बल्कि ऐसा समझने और कहनेवाले को झूठा और कज़्ज़ाब बताया है। न पता वह कौन-सी ज़रूरत और मजबूरी थी कि अपने आपको केवल मसीह के समान होने का दावा करता व्यक्ति, फिर मसीह इब्न मरियम ही होने का दावा कैसे कर बैठा। मिर्ज़ा साहब कहते हैं-
‘‘मगर जब समय आ गया तो वह रहस्य मुझे समझाया गया तब मैंने मालूम किया मेरे इस मसीह मौऊद होने के दावे में कोई नई बात नहंी। यह नहीं दावा है जो बराहीने अहमदिया में बार-बार सविस्तार लिखा जा चुका है।’’ -कश्ती-ए-नूह, पृ. 47, प्रकाशित सन् 1902 ई.
‘‘और यही ईसा है जिसका इंतिज़ार था और इलहामी इबारतों में मरियम और ईसा से मैं ही मुराद हूँ। मेरे बारे ही में कहा गया है कि उसको निशान बना देंगे और यह भी कहा गया कि यह वही मरियम का बेटा ईसा है जो आनेवाला था, जिसमं लोग शक करते हैं। यही हक़ है और आनेवाला यही है ओर शक सिर्फ नासमझी से है।’’ -कश्ती-ए-नूह, पृ. 48, 94, प्रकाशित सन् 1902 ई.
‘‘सोचो कि खुदा जानता था कि इस मर्म के ज्ञान होने से यह दलील कमज़ोर हो जाएगी इसलिए मानो उसने ‘बराहीने अहमदिया’ के तीसरे भाग में मेरा नाम मरियम रखा, फिर जैसा कि बराहीने अहमदिया से स्पष्ट है कि दो साल तक मरियम के गुणों के साथ मैंने परवरिश पाई और परदे में पालन-पोषण होता रहा। फिर मरियम की तरह ईसा की रूह मुझमें फूँकी गई और इस्तिआरा (रूपक) के रंग में मुझे गर्भवती किया गया और अंततः कई महीने के बाद जो दस महीने से ज़्यादा नहीं, उस इलहाम के ज़रिए से जो सबसे आखिर, बराहीने अहमदिया, भाग-4, पृ. 556 में अंकित है, मुझे मरियम से ईसा बनाया गया। अतः इस तौर से मैं इब्न मरियम ठहरा और खुदा ने बराहीन अहमदिया के वक़्त में इस रहस्य की मुझे खबर न दी।’’ -कश्ती-ए-नूह, पृ. 97, प्रकाशित सन् 1902 ई.
‘‘बड़े औलिया जिनपर परोक्ष खुल चुका है और कई करामात के मालिक हैं, एक साथ इस बात पर गवाह हैं कि मसीह मौऊद चैदहवीं सदी से पहले, चैदहवीं सदी के आरंभ में होगा और इससे सीमोल्लंघन न करेगा। अतः हम नमूने के तौर पर किसी क़द्र इस रिसाला में लिख भी आए हैं और स्पष्ट है कि इस समय सिवाए इस आजिज़ (गुलाम) के और कोई व्यक्ति दावेदार इस पद का नहीं।’’ -इज़ाला औहाम, पृ. 685, प्रकाशित 1891 ई.
‘‘हर व्यक्ति समझ सकता है कि इस वक़्त जो मौऊद के ज़ाहिर होने का वक़्त है कि किसी ने सिवाए इस आजिज़ के दावा नहीं किया कि मैं मसीह मौऊद हूँ , बल्कि इस मुद्दत- तेरह सौ वर्ष- में कभी किसी मुसलमान की तरफ से ऐसा दावा नहीं हुआ कि मैं मसीह मौऊद हूँ। यक़ीनन समझो कि नाज़िल होनेवाला इब्न मरियम यही है जिसने ईसा बिन मरियम की तरह अपने ज़माने में किसी ऐसे शंख वालिद रूहानी को न पाया जो उसकी रूहानी पैदाइश का सबब ठहरता, तब खुदा तआला खुद इसका मुतवल्ली हुआ और तरबियत की, गोद में लिया और इस बंदे का नाम इब्न मरियम रखा। अतः मुमकित तौर पर यही ईसा बिन मरियम है जो बिना बाप के पैदा हुआ। क्या तुम साबित कर सकते हो, क्या तुम सबूत दे सकते हो कि तुम्हारे चारों सिलसिलों में से किसी सिलसिले में दाखिल है। फिर यह अगर इब्न मरियम नहीं तो कौन है?’’
-इज़ाला औहाम, पृ. 656, भाग-3, प्रकाशित सन् 1891 ई.
नुबूवत का एलान
इस सिलसिले में खुद मिर्ज़ा साहब क्या कहते हैं, देखिए-
‘‘जिस बुनियाद मर मैं अपने को नबी कहता हूँ, वह केवल इतनी है कि मैं अल्लाह तआला से हमकलामी से मुशर्रफ़ हूँ और वह मेरे साथ बहुज ज्यादा बात करता और बोलता है औरमेरी बातों का जवाब देता है और बहुत-सी परोक्ष(गै़ब) की बातें मेरे ऊपर ज़ाहिर करता है और भावी युगों के वे रहस्य मेरे ऊपर खोलता है कि जब तक इनसान को उसके साथ खुसूसियत की निकटता न हो, दूसरे पर वह रहस्य नहीं खोलता और उन्हीं बातों की अधिकता की वजह से उसने मेरा नाम नबी रखा, इसलिए मैं खुदा के हुक्म के मुताबिक़ नबी हूँ और अगर मैं इससे इनकार करूँ तो बडा गुनाह होगा और जिस हालत में खुदा मेरा नाम नबी रखता है तो मैं कैसे इनकार कर सकता हूँ । मैं इसपर कायम हूँ उस वक़्त तक जो इस दुनिया से गुज़र जाऊँ।’’ -मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी का खत, तारीख 23 मई सन् 1908 ई. बनाम रू अखबार आम लाहौर, हक़ीक़तुल सुबूत, पृ. 270 से 271, प्रकाशित सन् 1907
मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्ल.) हैं, ऐन मुहम्मद हैं- का दावा
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी अपने आपको मसीह मौऊद साबित करने के बाद अब अपने आपको मुहम्मद मुसतफ़ा (सल्ल.) साबित करने की कोशिश करते हुए कहते हैं-
‘‘इधर बच्चा पैदा हुआ और उसके कान में अज़ाद दी जाती है और शुरू ही में उसको खुदा और रसूल पाक का नाम सुनाया जाता है। ठीक इसी प्रकार यह बात मेरे साथ घटित हुई। मैं अभी अहमदियत में बच्चे की ही शक्ल में था जो मेरे कान में यह आवाज़ पढी कि ‘‘मसीह मौऊद मुहम्मद अस्त ऐन मुहम्मद अस्त (यानी मसीह मौऊद मुहम्मद हैं, ऐन मुहम्मद हैं)।’’ -अखबार अल-फज़्ल, क़ादियान, तारीख 21 अक्तूबर, सन् 1931 ई.
मैं इससे बिलकुल बेखबर था कि मसीह मौऊद पुकार-पुकारकर कह रहा है कि - ‘‘मनम मुहम्मद व अहमद मुज्तबा बाशद’’ (यानी मैं मुहम्मद व बहमद मुज्तबा हूँ) फिर मैं इस मुश्किल से बेखबर था कि खुदा का हर चुना हुआ नबी अपने आपको बरूजे़ मुहम्मद (सल्ल.) कहता है और बडे ज़ोर से दावा करता है कि मैं बुरूज़ी तौर पर वही नबी खातमुल अम्बिया हूँ।’’
एक ग़लती का रिवारण
‘‘फिर मुझे यह मालूम न था कि बड़े हौसलेवाले नबी हज़रत मसीह मौऊद को मानने से खुदा के नज़दीक सहाबा की जमाअत में दाखिल हो गया हूँ , हालाँकि वह खुदा का नबी इलहामी शब्दों में कह चुका था कि जो मेरी जमाअत में शामिल हुआ और असल मे मेरे सरदार खैरूल मुर्सलीन (सल्ल.) के सहाबा में दाखि़ल हुआ।’’ --रूहानी खज़ाइन, पृ. 258, भाग-16, ले. मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी
मिर्ज़ाईयों का मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी को अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) से श्रेष्ठ बताना
मिर्ज़ाइयों का अक़ीदा है कि मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी को न केवल नबियां, बल्कि रसूलों के सरदार हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर भी बडाई हासिल है। मिज़ा गुलाम अहमद कादियानी अपनी किताब ‘‘जिक्रे इलाही’’ पृ. 19 पर लिखते हैं-
‘‘अतः मेरा ईमान है कि हज़रत मसीह मौऊद (अलै.) रसूले करीम (सल्ल.) के नक़्शे क़दम पर इतने चले कि नबी हो गए। लेकिन क्या उस्ताद और शागिर्द का एक दर्जा हो सकता है, मानो शागिर्द इल्म के लिहाज़ से उस्ताद के बराबर भी हो जाए फिर भी उस्ताद के सामने बडे ही अदब और विनम्रता के साथ ही बैठेगा। यही संबंध हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) और हज़रत मसीह मौऊद में है।’’ - तकरीर मियाँ मुहम्मद खलीफा क़ादियानी, अखबार अलहक्म, 18 अप्रैल सन् 1914 ई.
‘‘इस्लाम पहली के चाँद की तरह शुरू हुआ और मुक़द्दर था, परिणामतः अंतिम ज़माने में बद्र (अर्थात् चैदवीं का चाँद) हो जाए खुदा तआला के हुक्म सें अतः खुदा तआला की हिकमत के आधार पर बद्र (पूर्ण चाँद) के समरूप हो (यानी चैदहवीं शताब्दी)। अतः इन्हीं अर्थों की ओर संकेत है अल्लाह तआला के इस कथन में कि-- ‘‘व लक़द् न-स-र-कुमुल्लाहु बि-बद्रि (यानी और तुम्हारी मदद कर चुका है अल्लाह बद्र की लड़ाई में)’’
‘‘हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की पहली रिसालत में आपके इनकारियों को काफ़िर और इस्लाम के दायरे से खारिज क़रार देना, लेकिन उनकी दूसरी रिसालत में आपके इनकारियों को इस्लाम में दाख़िल समझना यह हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की शान और अल्लाह की आयतों का मज़ाक़ उड़ाना है, हालाँकि खुतब-ए-इलहामिया में मसीह मौऊद ने आप (सल्ल.) की पहली रिसालत और दूसरी रिसालत के पारस्परिक संबंध को हिलाल (यानी पहली का चाँद) के संबंध से परिभाषित किया है।’’
--अख़बार अल-फज़्ल क़ादियान, भाग-3, पृ. 10ए प्रकाशित तिथि 15 जुलाई, सन् 1915 ई.
मशहूर क़ादियानी शायर क़ाज़ी अकमल के शेरों को देखिए जो उन्होंने मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी की शान में उनकी मौजूदगी में पढे़ और मिर्ज़ा साहब ने उन शेरों को पसन्द किया-
मुहम्मद फिर उतर आए हैं हममें,
और आगे से हैं बढ़कार अपनी शान में।
मुहम्मद देखने हों जिसने अकमल,
गुलाम अहमद को देखे क़ादियाँ में।।
यानी मानो मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी न सिर्फ़ हू-ब-हू मुहम्मद मुसतफा (सल्ल.) हैं, बल्कि अपनी शान के एतिबार से मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्ल.) से बढ़कार हैं-- ‘‘नऊजुबिल्लाहि मिन् ज़ालिक’’ (हम इससे अल्लाह की पनाह चाहते हैं)
इमाम मेहदी और हज़रत ईसा (अलै.) दो अलग-अलग शख़्सियतें
यह बात हदीसों से स्पष्ट रूप से साबित है कि इमाम मेहदी और हज़रत ईसा (अलै.) दो अलग-अलग शख़्सियतें हैं। इमाम मेहदी का आना पहले होगा और हज़रत ईसा (अलै.) का बाद में, जबकि मिर्ज़ा साहब इस बात के दावेदार हैं कि वह इमाम मेहदी भी हैं और ईसा अलै. (मौऊद) भी। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) और उसके बाद रसूल (सल्ल.) के सहाबियों में से कोई व्यक्ति भी इस बात का क़ायल न था कि हज़रत इमाम मेहदी और हज़रत ईसा (अलै.) दोनों एक ही शख़्सियत (व्यक्तितव) हैं। सहाबा के दौर के बाद ताबईन, तबअ ताबईन यहाँ तक कि इस वक़्त तक सिवाए मिर्ज़ा साहब के कोई भी व्यक्ति इस बात का क़ायल नहीं। यानी रसूल (सल्ल.) की हदीसों और सहाबा किराम के अमल से यह बात बिलकुल स्पष्ट है।
मिर्ज़ा साहब मसीह के अवतरण के क़ायल न थे, बल्कि इसको शिर्क समझते थे। मिर्ज़ाइयों का अक़ीदा है कि हज़रत ईसा (अलै.) मर चुके हैं। उनको ज़िन्दा समझना शिर्क है और क़ियामत के निकट हरगिज़ तशरीफ़ नहीं लाएँगे और जो ईसा (अलै.) इब्न मरियम नाज़िल होनेवाले हैं, वे मिर्ज़ा साहब हैं।
‘‘तुम यक़ीन जानो कि ईसा इब्न मरियम मर चुका है कश्मीर, श्रीनगर, मुहल्ला ख़ानयार में उसकी क़ब्र है।’’
-कश्तीए नूह, पृ. 33, हाशिया अज़ हक़ीक़त मतबूआ, सन् 1902 ई.
यहाँ भी ग़ौर करने की ज़रूरत है। हज़रत ईसा (अलै.) मरियम के बेटे हैं और मिर्ज़ा साहब मिर्ज़ा ग़ुलाम मुर्तज़ा के। और हज़रत ईसा (अलै.) अल्लाह के हुक्म से हज़रत मरियम के पेट से बग़ैर बाप के पैदा हुए और हदीसों में जिस मसीह इब्न मरियम के नाज़िल होने का उल्लेख आया है वह हज़रत इमाम मेहदी के काफ़ी देर बाद पैदा होगा और वही मसीह इब्न मरियम होगा। मिर्ज़ा साहब ने अपने आपको मसीह के सदृश बताया है, हालाँकि हदीस व कुरआन में कहीं भी मसीह के सदृश होने का ज़िक्र नहीं, बल्कि हदीसों में इस बात की व्याख्या की गई है कि इमाम मेहदी दमिश्क़ की जामा मस्जिद में सुबह की नमाज़ के लिए मुसल्ला पर खड़े होंगे। यकायक पूर्वीय मिनारे पर ईसा (अलै.) का नुजूल दो फ़रिश्तों के सहारे पर हो गया और इमाम मेहदी हज़रत ईसा (अलै.) को देखकर मुसल्ला से हट जाएँगे और अर्ज़ करेंगे कि ऐ अल्लाह के नबी! तुम इमामत कराएँ। हज़रत ईसा (अलै.) फ़रमाएँगे कि तुम्ही नमाज़ पढ़ाओ। यह इक़ामत तुम्हारे लिए कही गई है। इमाम मेहदी नमाज़ पढ़ाएँगे ओर हज़रत ईसा (अलै.) पैरवी करेंगे, ताकि यह मालूम हो जाए कि रसूल होने की हैसियत से नाज़िल नहीं हुए हैं, बल्कि उम्मते मुहम्मदिया के ताबे (अधीन) और मुजददिद होने की हैसियत से आए हैं। -अल उर्फ़ लिवर्द, पृ. 72, भाग-2
पाठकगाण ग़ौर करें कि हज़रत ईसा जिस मिनारे से अवरित (नाज़िल) होंगे वह पहले से मौजूद होगा न कि अपने नाज़िल होने के बाद अपनी मौजूदगी में तामीर कराएँगे। इन सब व्याख्याओं से स्पष्ट होता है कि हज़रत ईसा (अलै.) और इमाम मेहदी दो अलग-अलग् शख़्स होंगे, जबकि मिर्ज़ा साहब अपने को मेहदी और मसीह मौऊद दोनों होने का एक साथ दावा करते हैं।
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मिर्ज़ा गुलाम अहमद न मेहदी, न मसीह मौऊद
हदीसों में इमाम मेहदी और हज़रत ईसा (अलै.) के जो लक्षण और अलामतें बताई गई हैं, मिर्ज़ा गुलाम अहमद की ज़िन्दगी उनसे ख़ाली नज़र आती है।
इमाम मेहदी हसन बिन अली (रज़ि.) की औलाद से होंगे और मिर्ज़ा जी मुग़ल खानदान से थे, सैयद न थे।
इमाम मेहदी का नाम मुहम्मद, पिता का नाम अब्दुल्लाह और माता का नाम आमिना होगा। मिर्ज़ा जी का नाम गुाम अहमद, पिता का नाम गुलाम मुर्तज़ा और माता का नाम चिराग़ बीबी था।
इमाम मेहदी पूरी दुनिया के बादशाह होंगे और संसार को न्याय व इनसाफ़ से भर देगें। मिर्ज़ा साहब तो अपने पूरे गाँव के भी चैधरी न थे। जब कभी ज़मीन का कोई झगड़ा पेश आता तो गुरूदासपुर की कचेहरी में जाकर फ़रियाद करते थे।
इमाम मेहदी ‘शाम’ (सिरिया) देश में जाकर दज्जाल के लशकर से जंग करेंगे। मिर्ज़ा साहब को दमिश्क़ और बैतुल मक़दिस का मुँह देखना नसीब न हुआ। मक्का मुकर्रमा में मुसलमान मक़ामे इबराही और हरे असवद के बीच उनसे बैअत करेंगे और उनको अपना इमाम तसलीम करेंगे। इमाम मेहदी बैतुल मक़दिस में वफ़ात पाएँगें और वहीं दफन होंगे और हज़रत ईसा (अलै.) उनकी नमाज़े जनाज़ा पढाएँगे, जबकि मिर्ज़ा जी लाहौर ( पाकिस्तान ) में मरे और क़ादियान में दफ़न हुए।
हज़रत ईसा (अलै.) बिना बाप के हज़रत मरियम (अलै.) के पेट से पैदा हुए और मिर्ज़ा के वालिद गुलाम मुर्तज़ा और वालिदा चिराग़ बीबी थीं।
पाक हदीसों में आनेवाले मसीह के लक्षण व गुणों का उल्लेख करते हुए बताया गया कि वह शासक और न्याय करनेवाले होंगे और हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की शरीयत के मुताबिक़ निर्णय करेंगे जबकि मिर्ज़ा साहब को ते अपने गाँव क़ादियान की हुकूमत भी हासिल न थी। मिर्ज़ा साहब जब कभी महसूस करते कि उनपर जुल्म हो रहा है और उनका हक़ माररा जा रहा है तो उसके लिए अंग्रज़ी अदालत के हुक्मरानों से गुरूदासपुर जाकर फ़रियाद करते। इस प्रकार मिर्ज़ा साहब का यह दावा करना कि आनवाले मसीह से मुराद मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी है, हदीस से खुला हुआ मज़ाक और उसकी खुली हुई तौहीन है।
हज़रत ईसा (अलै.) के बारे में आया है कि वह सलीब को तोडेगा और खिंज़ीर (सुअर) को क़त्ल करेगा। यानी ईसाइयत का खातिमा हो जाएगा और कोइ्र खिंजीर (यानी सुअर) खानेवाला बाक़ी न रहेगा। अब यह बात तो मिर्ज़ा साहब की उम्मत ही बताएगी कि मिर्ज़ा साहब ने कितनी सलीबें तोडीं और कितने सुअर क़त्ल किए। जबकि हक़ीक़त यह है कि मिर्ज़ा साहब के आने से सलीब और सलीब परस्तों को कोई नुक़सान नहीं पहुँचा, बल्कि मिर्ज़ा साहब सारी उम्र सलीब परस्तों की तरक्क़ी व ऊंचे दर्जों के लिए दुआ करते रहे ओर उनकी हर मुमकिन मदद करते रहे।
वह लड़ाई को उठा देगा, और एक जगह आया है कि वह जिज़िया को ख़त्म कर देगा। यानी सब लोग मुसलमान हो जाएँगे, कोई खुदा और उसके रसूल और इस्लाम धर्म का दुश्मन बाक़ी न रहेगा, जिनसे जिहाद (धर्मयुद्ध) व जंग की जाए और जिज़िया वसूल किया जाए। वह, यानी आनेवाला मसीह जिहाद व जिज़िया को मंसूख (रद्द) न करेगा, बल्कि इसकी ज़रूरत ही बाक़ी न रहेगी। बल्कि यह शरीअते मुहम्मदिया (सल्ल.) का ही हुक्म होगा जिसको हज़रत मसीह (अलै.) लागू करेंगे।
मिर्ज़ा साहब बेचारे जिज़िया तो क्या मंसूख करते वे सारी उम्र अंगेज़ों के भूमिकरदाता रहे और आयकर माफ़ कराने के लिए उनसे प्रार्थनाएँ करते रहे।
वह माल को पानी की तरह बहा देगा और कोई सदक़ा-खैराता लेनेवाला न मिलेगा। यानी सभी लोग धनी हो जाएँगे और कोई माँगनेवाला और ज़रूरतमंद बाक़ी न रहेगा।
मिर्ज़ा साहब के ज़माने में इसके विपरी हुआ। हिन्दुसतानी मुसलमान अंगेज़ों के महकूम ( अधीन ) हो गए। वे ग़रीबी और भुखमरी के शिकार हुए। यहाँ तक कि मिर्ज़ा साहब को भी अपने घरेलू ख़र्च, लंगरखना व प्रेस और कुतुबखना चलाने के लिए लोगों से चंदा माँगने पर मजबूर होना पडा।
हज़रत मसीह (अलै.) के नुजूल के समय इबादत इतनी मज़ेदार हो जाएगी कि एक सजदा के मुक़ाबले में दुनिया और उसकी सारी दौलत तुक्ष्य लगेगी।
मिर्ज़ा साहब के ज़माने में खुदापरस्ती के बजाए दुनियापरस्ती व ऐशो इशरत का प्रभाव बढ़ा, यहाँ तक कि मिर्ज़ा साहब का घराना भी सुरक्षित न रह सका। जिन लोंगों ने मिर्ज़ा साहब के घरवालों व परिजन को अंदर से जाकर देखा है, उनकी कहने के मुताबिक़ मिर्जा साहब के ख़लीफा मिर्ज़ा महमूद के घराने और अंगेज़ी सभ्यता और उसके समाज के बीच अन्तर करना मुमकिन न था।
हज़रत ईसा (अलै.) दमिश्क़ शाम की जामा मसजिद के पूर्वीय किनारे पर आसमान से उतरेंगे। उतरने के बाद लुद्द नामक शहर में दज्जाल को क़त्ल करेंगे। एक हदीस में है कि वे हज व उमरा करेंगे, मक्का मुकर्रमा आएँगे और फिर मदीना मुनव्वरा आएँगे ओर रौज़-ए-मुबारक (हुजूर की पाक क़ब्र) पर हाज़िर होकर दरूद व सलाम भेजेंगें हदीस में है कि नाज़िल होने के बाद चालीस साल ज़िन्दा रहेंगे, मदीना मुनव्वरा में वफ़ात पाएँगे और हुजूर (सल्ल.) की पाक क़ब्र के निकट दफ़्न होगे।
मसीह (अलै.) जिस मिनारे पर उतरेंगे वह मिनारा पहले से मौजूद होगा, जबकि मिर्ज़ा साहब ने नाज़िल होने से पहले लोगों से चंदा माँगकर मिनारा बनाया, जिसका नाम ‘मिनारतुल मसीह’ रखा। मालूम नहीं वह कौन-सा दज्जाल है जिसको मिर्ज़ा ने क़तल किया और कहाँ क़त्ल किया?
मिर्ज़ा साहब को न हज की तौफ़ीक़ मिली और न उमरा की, तो वह रौज़-ए-मुबारक पर हाज़िरी देकर सलाम क्या पेश करते। मिर्ज़ा साहब नुबूवत के दावे के कुछ साल बाद लाहौर में मर गए और क़ादियान में दफन हुए।
प्रिय पाठको! आपने मसीह (अलै.) कीवह अलामतें व लक्षण पढे जो हदीसों की मोतबर (विश्वनीय) किताबों में बयान हुई हैं। उनमें की कोई अलामत भी मिर्ज़ा साहब में नहीं पाई जाती। इन वाज़ेह हदीसों के मिर्ज़ा गुलाम अहमद के माननेवाले जो माने और मतलब चाहें बयाने करें, लेकिन सच्चाई को छिपाया नहीं जा सकता।
अब जिसका जी चाहे हक़ (सच्चाई) को क़बूल करे और जिसका जी चाहे झूठ और कक्र व फ़रेब की पैरवी करे। --‘‘व मा अलैना इल्लल बलाग’’(यानी हमाने ज़िम्मा सीधी-सच्ची राह दिखने के सिवा कुछ नहीं )
कुरआन व हदीस में फेर-बदल तथा इलहामात, तावीले और दावे
कुरआन मजीद में फेर-बदल
कुरआन मजीद में मिर्ज़ा साहब ने जो परिवर्तन व फेर-बदल किए हैं, उनका सिलसिला बहुत लम्बा है। मिर्ज़ा जी ने कुरआन मजीद की उन आयतों को जिनमें नबी करीम (सल्ल.) को अल्लाह तआला ने मुखातब किया है, बडी चालाकी से अपने ऊपर चरितार्थ (फिट) करने की कोशिश की है और कुरआन मजीद की आयतों में परिवर्तन कर डाला है। सूरा अस-सफ़फ़ की वह आयत जो बहुत मशहूर है, जिसमें सारे जहान के मालिक अल्लाह तआला ने हज़रत ईसा (अलै.) का क़ौल (कथन) नक़ल करते हुए फरमाया कि (मसीह ने कहा) ‘‘मैं अल्लाह का रसूल हूँ और तौरात की तसदीक़ करनेवाला हूँ और अपने बाद आनेवाले रसूल की खुशखबरी देनेवाला हूँ जिनका नाम अहमद होगा। ‘‘मिर्ज़ाई लोग भोले-भाले लोगों को गुमराह करने के लिए कुरआन की इस आयत का ग़लत मतलब पेश करके यह बताने की कोशिश करते हैं कि देखो अल्लाह तआला ने कुरआन मजीद में मिर्ज़ा साहब के नबी होन की खुशखबरी दी है। जबकि कुरआन मजीद हज़रत ईसा (अलै.) की ज़बाने पाक से इस बात का एलान करा रहा है कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ और अपने सामने मौजूद तौरात की तसदीक़ (पुष्टि) करता हूँ और अपने बाद आनेवाले रसूल की शुभ-सूचना देता हूँ , जिनका नाम ‘अहमद’ होगा।
ग़ौर करने लायक़ बात यह है कि हज़रत ईसा (अलै.) के बाद हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) तशरीफ़ लाए या मिर्ज़ा जी। अगर--अल्लाह की पनाह- हज़रत ईसा और मिर्ज़ा जी के बीच कोई फ़ासिला न होता तो शायद कुछ नादानों को धोखा देने के लिए यह फ़रेब काम कर जाता, जबकि कुरआन मजीद की इबारत साफ़ बता रही है कि हज़रत ईसा (अलै.) ने अपने बाद आनेवाले नबी की शुभ-सूचना दी है। सीरत (हुजूर सल्ल. की जीवनी) की किताबों में यह बात तफ़सील से बयान की गई है कि जनाब नबी करीम (सल्ल.) का नाम ‘मुहम्मद’ आपके दादा मुहतरम अब्दुल मुत्तलिब ने और आपकी माँ ने आपका नाम ‘अहमद’ रखा। कुरआन मजीद में और कई दूसरे नामों से भी अल्लाह के आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को पुकारा गया है।
इसके अलावा भी अल्लाह तआला ने कुरआन मजीद में जो आयतें जनाब नबी करीम (सल्ल.) की मुबारक शान में अवतरित हैं, मिर्ज़ा जी फरमाते हैं कि उन आयतों का संबंध मुझसे और वह मुझपर पूर्ण घटित हैं। इसकी कुछ मिसाले देखें-
* व मा अर्सल्ना-क इल्ला रह्-म-तल् लिल् आलमीन
मायनेः ओर हमने तुमको तमाम दुनिया के लिए रहमत बनाकर भेजा है।
(कुरआन 21ः107)
* व र-फअ-ना ल-क ज़िक्रक।
मायने: और तुम्हारा जिक्र बुलंद किया। (कुरआन 94ः4)
-तजि़करा, पृ. 81, 385, संस्करण-3
* यासीन, वल् कुरआनिल्हकीम, इन्न-क लमिनल मुर्सलीन।
मायनेः यासीन, क़सम है कुरआन की, जो हिकमत से भरा हुआ है। निस्संदेह, तुम रसूलों मे से हो। (कुरआन 36ः1-3)
---तजि़करा, पृ. 479
* या अय् युहल-मुद्दस्सिरू, कुम फ़-अन-ज़िर, व रब्ब-क फ़-कब्बिर।
मायनेः ऐ ओढ़ने-लपेटनेवाले, उठो और सावधान करने में लग जाओ, और अपने परवरदिगार की बड़ाई करो। (कुरआन 74ः1-3)
-तजि़करा, पृ. 51, संस्करण-3
*कुल इन्न-मा-अ-ना ब-या-रूम-मिस्लुकुम यूहा इलैय-य अन्न-मा इलाहु-कुम इलाहुँव्वाहिद।
मायनेरू कह दो कि मैं तुम्हारी तरह एक इनसान हूँ ,हालाँकि मरी ओर वह्य आती है कि तुम्हारा पूज्य-प्रभु (इलाह) बस अकेला प्रभु है। (कुरआन 18ः110)
-तजि़्करा, पृ. 245, 278, 365, 436, 639, संस्करण-3
* कुल् या अ य् युहन्नासु इन्नी रसूलुल्लाहि इलैकु जमी-अ।
मायने: कहोः ऐ लोगो! मैं तुम सबकी ओर अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ (कुरआन 7ः158)
-हमामतुल बुशरा, भाग-2, पृ. 56
इससे बढ़कर और कया दुस्साहस हो सकता है जिसपर मातम किया जाए। काश! क़ादियानी इसपर ग़ौर करते! मिर्ज़ा जी अगर पूरे कुरआन मजीद के बारे में भी फरमा देते कि यह मेरे ऊपर उतरा है तो उनसे क्या दूर था।
कलमा के शब्दों और अर्थ में परिवर्तन
कहने को तो क़ादियानी यह दावा करते हैं कि हमारा कलिमा दूसरे मुसलमानों से अलग नहीं, लेकिन मुसलमानों के नज़दीक ‘‘ला इला-ह इल्लल्लाहु मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह’’ का इक़रार ईमान लाने के लिए काफ़ी है, जिसका अर्थ है- ‘‘अल्लाह के सिवा कोई इलाह (पूज्य-प्रभू) नहीं और मुहम्मद (सल्ल.) अल्लाह के रसूल हैं। लेकिन क़ादियनानियों के निकट किसी भी व्यक्ति का ईमान उस वक़्त तक पूर्ण और मोतबर नहंी जब तक कि वह अल्लाह के पालनहार होने के इक़रार व हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की रिसालत के साथ मिर्ज़ा गुलाम अहमद को खुदा का नबी और रसूल तसलीम न करे। यह कलिमे में कितना बड़ा खुला परिवर्तन और उसकी तौहीन है। पाक कलिमे में इससे भी बढ़कर परिवर्तन किया है जो शाब्दिक है। मिर्ज़ा नासिर अहमद के अफ्रीका के सफर पर तसवीरी किताब Africa Speaks अफ्रीका स्पीकस पर ‘अहमद सेंटरल मसजिद, नाइजीरिया’ का फोटो मौजूद है, जिसपर यह कलिमा लिखा हुआ है- ‘‘ला इला-ह इल्ललाह, अहमद रसूलुल्लाह’’ इस कलिमे के शाब्दिक परिवर्तन में ‘मुहम्मद’ शब्द हटा दिया गया हैं और अहमद शब्द जोड दिया गया है।
मिर्ज़ा के इलहाम
कुरआन मजीद के उसूल के मुताबि अल्लाह तआला ने अपने हर नबी को उसी क़ौम की ज़बान (भाषा) में वह्य भेजी जिस क़ौम की तरफ़ वह नबी बनाकर भेजा गया- ‘‘व मा अर्सल्ना मिर्रसूलिन इल्ला बिलिसानि क़ौमिही लियुबय्यि-न लहुम’’ यानी- हमने कोई रसूल नहीं भेजा, मगर उसकी क़ौम की ज़बान में ही ताकि उन्हें खोलकर बताएं’’ कुरआन मजीद के इस साफ़ उसूल के खिलाफ मिर्ज़ा साहब को विभिन्न भाषाओ (ज़बानों) में इलहाम हुए। सहीबात तो यह है कि मिर्ज़ा साहब को विभिन्न भाषाओं (ज़बानों) में इलहाम हुए। सही बात तो यह है कि मिर्ज़ा साहब पर पंजाबी ज़बान में वह्य होती क्योंकि वे पंजाबी जानते थे, पंजाब के रहने वाले थे और अवाम पंजाबी ज़बान को ही अच्छी तरह समझते थे। किन्तु पंजाबी ज़बान इस सौभाग्य से वंचित (महरूम) ही रही। यह कितनी अक़्ल के खिलाफ बात है कि नबी तो पंजाबी हो और उसको इलहाम किसी दूसरी ज़बान में हो। अतः मिर्ज़ा साहब लिखते हैं-
‘‘यह बात अक्त्रल के खिलाफ और बेहूदा है कि इनसान की असल ज़बान तो कोई और हो और इलहाम उसको किसी और ज़बान में हो जिसको वह समझ भी नहीं सकता, क्योंकि उसमें असह्य तकलीफ़ है और ऐेसे इलहाम से फायदा क्या हुआ जो इनसानी समझ से परे है।’’ -चश्म-ए-मुवक्कित, पृ. 20, रूहानी खज़ाइन,पृ. 218, भाग-23
मिर्ज़ा साहब का दावा है कि मेरी वह्य और इलहाम कुरआन पाक की तरह है, लेकिन अगर आप मिर्ज़ा साहब के इलहामों का सरसरी जाइज़ा लेगे तो यह बात खुलकर सामने आएगी कि मिर्ज़ा साहब के मितने ही इलहाम ऐसे हैं जिनको वे खुद भी न समझ सकते थे। चुनाँचे मिर्ज़ा साहब फरमाते हैं, ‘‘ज्यादातर ताज्जुब की बात यह है कि कुछ इलहाम मुझे उन ज़बानों में भी होते हैं जिनकी मुझे कुछ जानकारी नहीं, जैसे-अंग्रज़ी, संस्कृत या इबरानी आदि। -नुजूले मसीह, पृ. 57, रूहानी खज़ाइन,पृ. 435, भाग-18
गौर किजिए, मिर्ज़ा साहब जिस ज़बान को खुद नहीं जानते उस ज़बान के इलहाम को क्या समझते और दूसरों को क्या समझाते होंगे?
यही बात नहीं कि मिर्ज़ा साहब ग़ैर-ज़बानों के इलहामों को न समझ सकते हों, बल्कि बहुत से उर्दू और अरबी इलहाम ऐसे भी हैं, जिनको मिर्ज़ा साहब भी न समझ सकते थे, जिसकी कुछ मिसालें पेश हैं-
‘‘पेट फट गया।’’ -अल-बुशरा, प्र. 119, भाग-2
यह दिन के वक़्त इलहाम हुआ है, मालूम नहीं यह किसे बारे में है।
‘‘लाहौर में एक बेशर्म’’ -अल-बुशरा, पृ. 126, भाग-2
कौन? मालू नहीं।
‘‘एक दाना किस-किसने खया।’’ -अल-बुशरा, पृ. 107, भाग-2
गुप्त इलहाम
बहुत से गुप्त इलहाम- 280, 270, 140, 20, 270, 20, 26, 2, 228, 23, 15, 11, 1, 272 आदि-आदि। -अल-बुशरा, पृ. 17, भाग-2, मजमूआ इलहामते मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी। मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 301, भाग-1
इन इलहामों की हक़ीक़त मिर्ज़ा गुलाम अहमद साहब पर भी न ज़ाहिर हो सकीः
* ‘‘रब-न आज’’ यानी हमारा नब आजी है।’’ ‘आजी’ शब्द के अर्थ अभी तक मालूम नहीं हो सके। -अल-बुशरा, पृ.43, भाग-1, तज्किरा , पृ 102, संस्करण 3
* ग़सम, ग़सम, ग़सम --अल-बुशरा, पृ.50, भाग-2, तजि़्करा, पृ. 319, संस्करण 3
क्या यही इलहाम हैं जिनपर क़ादियानी नुबूवत की बुनियाद रखी गई है।
मिर्ज़ा जी की तावीलें
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी ने अपनी नुबूवत की पहली ईंट ही तावील पर रखी। हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के ‘‘खातमुन्नबीईन’’ होने का मतलब इसके सिवा और क्या हो सकता है कि आप अल्लाह तआला के आखिरी नबी हैं। कुरआन मजीद के संदर्भ व निष्कर्ष, पवित्र हदीसों और सहाबा किराम (रजि.) इसी बात पर एकमत हैं कि अब हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के बाद कोई नबी आनेवाला नहीं। समस्त मुस्लिम समुदाय भी इस बात पर एक हैं और अरबी शब्दकोश भी इसी भाव की व्याख्या करते हैं, लेकिन मिर्ज़ा साहब और उनके माननेवाले ‘खातमुन्नबीईन’ का मतलब नबियों की मुहर लेते हैं और इसका यह मतलब बयान करते हैं-- ‘हज़रत नबी करीम (सल्ल.) के बाद जो नबी भी आएँगे, वह आप (सल्ल.) की मुहर लगाने से ही नबी बनेंगे।’’ एक दूसरी तावील क़ादियानी गिरोह यह करता है कि ‘‘नुबूवत का दरवाज़ा तो खुला हुआ है, अलबत्ता कमाल दर्जे की नुबूवत हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर खत्म हो गई और आप (सल्ल.) सारे नबियों में श्रेष्ठतम (अफ़ज़ल) हैं।’’ मिर्ज़ा साहब तावील करने में बडे माहिर हैं। वे मौक़े के एतिबार से अपना दृष्टिकोण वह माक़िफ़ बदलते रहते हैं और यही हाल उनके माननेवालों का है कि कुरआन मजीद की आयतों का जैसा मतलब व भाव चाहा निकाल लिया, जिस हदीस को चाहा क़बूल कर लिया और जिसको चाहा रद्द कर दिया। नीचे हम इन कुछ अजीब-ग़रीब तावीलों का ज़िक्र करेंगे।
(1)मिर्ज़ा साहब हज़रत ईसा (अलै.) के आसमान पर उठाए जाने के क़ायल भी हैं और उनके वफ़ात के भी और कहते ळें कि जिस मरियम के बेटे ईसा का तुम इंतिज़ार कर रहे हो, जिसकी ख़बर हदीसों ने दी है, वह यही आजिज़ (गुलाम अहमद क़ादियानी) है।
हज़रत ईसा (अलै.) के नुजूल और दज्जाल के ज़ाहिर होने की अनगिनत हदीसें बयान हुई हैं जो मिर्जा साहब पर चरितार्थ (फिट) नहीं होतीं। उनको अपने पर चरितार्थ करने के लिए बेधडक तावील कर डाली जो आज तक किसी की कल्पना व विचार में भी न आई। कहते हैं कि-- ‘‘मसीह के नाज़िल होने से मुराद उनका आसमान से उतरना नहंी, बल्कि मिर्ज़ा साहब का अपने गाँव क़ादियान में पैदा होना मुराद है।’’
हदीस में मसीह (अलै.) का दमिश्क के सफेद पूर्वीय मिनारे पर उतरना आया है। मिर्ज़ा जी फरमाते हैं कि - ‘‘दमिश्क़ से मुराद उनका गाँव क़ादियान है और पूर्वीय मिनारे से मुराद वह मिनारा है जो मिर्ज़ा साहब के निवास करने की जगह क़ादियानके पूर्वीय किनारे पर स्थित है।’’ (जिसे मिर्ज़ा साहब ने अपने जीवन-काल में बनवाया।)
‘‘हदीस में दज्जाल का ज़िक्र आया है उससे मुराद शैतान और ईसाई क़ौमें हैं।’’ -तावील मिर्ज़ा साहब
‘‘हदीस में दज्जाल के जिस गधे का जिक्र है उससे मुराद रेलगाडी है।’’
इसी रेलगाडी पर सवार होकर मिर्ज़ा साहब लाहौर जाया करते थे और मरने के बाद आपकी लाश को दज्जाल के इसी गधे पर लादकर लाया गया।
हदीस में आया है कि हज़रत ईसा (अलै.) नाज़िल होने के बाद दज्जाल को ‘लुद्द’ नामक स्थान पर क़त्ल करेंगे। मिर्ज़ाजी फरमाते हैं कि--
‘‘लुद्द से मुराद लुधियाना है और दज्जाल के क़तल् से मुराद ‘लेखराम’ का क़त्ल है।’’
हदीस में आया है कि ‘‘जब हज़रत ईसा (अलै.) आसमान से उतरेंगे तो वे दो पीली चादरें पहने होंगे।’’ मिर्ज़ा साहब ने इसकी तावी इस प्रकार फरमाई-- ‘‘मसीह मौऊद दो पीली चादरों में उतरेगा, एक चादर बदन के ऊपर के हिस्से में होगी, दूसरी चादर बदन के नीचे के हिस्से में होगी। इसलिए मैंने कहा, इस ओर इशारा था कि मसीह मौऊद दो बीमारियों के साथ ज़ाहिर होगा। ताबीर के इल्म में पीले कपडे से मुराद बीमारी है और वे दोनों बीमारियाँ मुझमें हैं। यानी एक सिर की बीमारी (दिमाग़ी रोग) दूसरी बार-बार पेशाब और दस्तों की बीमारी।’’ --तजि़करतुश्शहादतैन, पृ. 23.24
मिर्ज़ा साहब के दावे
मिर्ज़ा साहब की तावीलों की तरह उनके दावे भी अनगिनत हैं। वे एक समय मेें ऐसे दावे करते नज़र आते हैं, जो एक-दूसरे के ठीक विपरीत होते हैं। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति गुज़रा हो जिसने एक वक़्त में कई-कई पैतरे बदले हैं। मिर्ज़ा साहब की नुबूवत के थैले में हर चीज़ मौजूद है। कुफ्र भी है, ईमान भी। एक चीज़ का इक़रार भी और इनकार भी। जैसा वक़्त हुआ वैसा अपना हथियार इस्तेमाल कर लिया और अगर फँस गए तो तावील का सहारा लेकर निकल गए। उनके नज़दीक खत्मे नुबूवत (नुबूवत के खत्म होने) का इनकारी झूठा, दज्जाल है और खुद नुबूवत का दावा भी कर रहे हैं। वह कभी ज़िल्ली व बुरूज़ी नबी बनते हैं और कभी स्थाई नबी और फिर समस्त नबियों में सर्वश्रेष्ठ बन बैठे। वे मरियम भी हैं और मरियम का बेटा भी, इमाम मेहदी भी हैं और मसीह मौऊद भी।
एक समय में हिन्दुओं को धोखा देने के लिए कृष्णजी बने और यहूदियों और ईसाइयों को अपने जाल में फंसाने के लिए मूसा और ईसा भी बने। यहूदी, ईसाई और हिन्दू तो उनके झाँसे में न आ सके, लेकिन मुसलमानों में से भोले-भाले लोग और कुछ पढे-लिखे नौजवान, जो उनकी कपटनीति और फरेबकारी से वाक़िफ थे, कलिमा के इक़रारी समझकर उनके जाल में फँस गए। वे ज़ाहिर में तो इस्लाम का नाम लेते रहे और परदे के पीछे उसके बुनियादी अक़ीदों पर कुदाल चलाते रहे, जिसका सिलसिला आज तक जारी है।
अल्लाह का शुक्र है- लोग ज्यों-ज्यों क़ादियानियत के इरादों से आगाह हो रहे हैं और हक़ उनपर वाज़ेह हो रहा है, त्यों-त्यों वे उनसे परहेज़ करने लगे हैं और सतर्क रहने लगे हैं और यह भी कि जो भोले-भाले लोग सादगी में आकर क़ादियानियत का शिकार हो गए थे वे उससे तौबा करके इस्लाम की ओर लौट रहे हैं।
मिर्ज़ा जी गर्भवती हो गए
मिर्ज़ा साहब फरमाते हैं कि मरियम की तरह ईसा की रूह मुझमें फूॅकी गई और लांक्षणिक रूप में मुझे गर्भ धारण कराया गया और कई महीन के बाद जो दस महीने से ज्यादा नहीं, इल्हाम के ज़रीये से मुझे मरियम से ईसा बनाया गया। इस प्रकार से मैं मरियम का बेटा ईसा (इब्न मरियम) ठहरा। -कश्ती-ए-नूह, पृ. 46.47, संस्करण, सन् 1902 ई.
मिर्ज़ा साहब खुदा की बीवी
क़ाज़ी यार मुहम्मद साहब क़ादियानी लिखते हैं कि हज़रम मसीह मौऊद ने एक अवसर पर अपनी यह स्थिति प्रकट की कि ‘कश्फ़’ (इल्हाम या वह्य) की हालत आपपर इस तरह तारी हुई कि मानो आप औरत हैं और अल्लाह तआला ने अपनी पौरूष शक्ति को ज़ाहिर किया। समझदारों के लिए इशारा काफ़ी है। -ट्रैक्ट 134, इस्लामी कुरबानी, पृ. 12, ले.: काज़ी यार मुहम्मद
लेकिन मिर्ज़ा साहब ने यह नहीं बताया कि खुदा ने उनके साथ पौरूष शक्ति का प्रदर्शन किस ओर से किया (अल्लाह की पनाह) शायद मिर्ज़ा साहब को भ्रम हो गया होगा। मिर्ज़ा साहब को कश्फ के ज़रीये जो कुछ महसूस हुआ वह शैतानी हयूला होगा, वरना अल्लाह तआला की ज़ात उन ऐबों से पाक व साफ़ है जो शिर्क करनेवाले उससे जोडते हैं।
मिर्ज़ा जी की भविष्यवाणियाँ
मिर्ज़ा जी के निकट भविष्यवाणियों की हैसियत
मिर्ज़ा गुलाम अहमद साहब कहते हैं-
‘‘मुमकिन नहीं कि खुदा की भविष्यवाणी (पेशीनगोई) मे कोई वादाखिलाफ़ी हो।’’ -चश्म-ए-मारफ़त, पृ. 12, प्रकाशित सन् 1908 ई.
‘‘हमारी सच्चाई या झूठ जाँचने के लिए हमारी भविष्यवाणी से बढ़कर कोई इम्तिहान (कसौटी) नहीं।’’ --आईन-ए- कमालात, पृ. 231, प्रकाशित 1893 ई.
‘‘इसी लिए हम, बल्कि हर समझदार व्यक्ति यह कहने में हक़दार हो जाए, वह खुदा का मुलहम(जिस पर इलहाम होता हो) और मुखातब (जिसे संबोधित किया जाए) नही, बल्कि अल्लाह पर झूठ घडनेवाला है, क्योंकि मुमकिन नहीं कि नबियों की भविष्यवाणियाँ टल जाएँ।’’ --कश्ती-ए-नूह, पृ. 5
मानो मिर्ज़ा साहब की सच्चाई व झूठ मालूम करने के लिए पहला और सबसे बडा सबूत उनकी भविष्यवाणियाँ (पेशीनगोइयाँ) हैं। अतः नीचे हम मिर्ज़ा साहब की कुछ मशहूर भविष्यवाणियाँ पेश करते हैं। भविष्यवाणियों के बारे में खुद मिर्ज़ा साहब के बयान किए गए मेयार (कसौटी) को सामने रखते हुए पाठकगण मिर्ज़ा साहब के सच्चा या झूठा होने का खुद ही फैसला करें।
अब्दुल्लाह आथम की मौत की भविष्यवाणी
मिर्ज़ा साहब ने जब मसीह मौऊद होने का दावा किया तो ईसाइयों से खुब मुनाज़िराबाज़ी (शास्त्रार्थ) हुई। स्थिति गाली-गलौच, इश्तेहारबाज़ी और मुकद्दमेबाज़ी तक जा पहॅंची। उन समस्त मोर्चाें में सबसे अधिक मशहूर घटना अब्दुल्लाह आथम पादरी की है। मिर्ज़ा साहब ने उससे शास्त्रार्थ किया और फिर यह भविष्यवाणी की कि वह अमुक तिथि तक मर जाएगा। चुनाँॅचे मिर्ज़ा साहब जंग मुक़द्दस,पृ. 188.189, प्रकाशित सन् 1893 ई. मे लिखते हैं--
‘‘मैं इस वक़्त इक़रार करता हूँ कि अगर यह भविष्यवाणी (पेशीनगोई) झूठी निकली, यानी वह पक्ष जो खुदा के नजदीक झूठ पर है-- वह पनद्रह महीने की मुद्दत में आज की तारीख़ से सज़ा के तौर पर मौत की दोज़ख में ने पडे तो मैं हर एक सज़ा उठाने को तैयार हूँ। मुझको बेइज़्ज़त किया जाए और रूसवा किया जाए, मेरे गले में रस्सा डा दिया जाए, मुझको फाँसी दी जाए- हर एक बात के लिए तैयार हूँ ओर मैं अल्लाह जल-ल शानहू की क़सम खाकर कहता हूँ कि ज़रूर ऐसा ही करेगा, ज़रूर करेगा, ज़रूर करेगा। ज़मीन व आसमान तो टल जाएँ पर उसकी बातें न टलेंगी।’’
अब्दुल्लाह आथम, भविष्यवाणी की आखिरी तारीख़ तिथि 5 सितम्बर, सन् 1894 ई. तक सही व सलामत ज़िदा रहा। क़ायिानियों के चेहरों का रंग उड़ गया। पहली भविष्यवाणी के ग़लत होने का रंज व दुख, दूसरे गैरों के तानों और ज़िल्लत व रूसवाई का गम। क़ादियान मं सारी रात कुहराम मचा हो, लोग चीख-चीखकर नमाज़ों में रोते रहे और दुआएँ करते रहे- ‘‘या अल्लाह आथ केा मार दे, या अब्दुल्लाह आथम को मार दे, ऐ जगत के पालनहार हमें रूसवा न कीजिए।’’ - लोंगों को चक़ीन था कि आज सूरज अस्त नहीं होगा कि आथम मर जाएगा। मगर जब सूरज डूब गया तो क़ादियानियों के दिल काँपने लग। रहीम बख़्श एम. ए. अपने पिता मास्टर क़ादिर बख़्श से बया करते हैं- ‘‘उस वक़्त हुजूर (मिर्ज़ा गुलाम अहमद) ने तक़रीर की और आज़माइश की हक़ीक़त बताई तो तबीअत मगन हो गई और दिल को मुकम्मल इतमीनान हो गया और ईमान ताज़ा हो गया। मास्टर क़ादिर बख़्श साहब यह भी बयान करते हैं कि मैंने अमृतसर जाकर अब्दुल्लाह आथम को खुद देखा। ईसाई उसे गाडी में बिठाए हुए ब़डी धूम-धाम से बाज़्ारों में लिए फिरते थे, लेकिन उसे देखकर यह समझ गया कि हक़ीक़त यह मर गया है और सिफ इसका जनाज़ा लिए फिरते हैं। आज नहीं तो कल मर जाएगा।’’
-अल-हकम क़ादियान, भाग-25, पृ. 34, दिनांक 7 सितम्बर, सन् 1923 ई.
जब विरोधियों ने शोर मचाया और लानत व मलामत की कि मिर्ज़ा साहब की आथम के बारे में भविष्यवाणी पूरी नह हुई और आथम-सही-सलामत ज़िन्दा है, तो मिर्ज़ा साहब ने इसकी यह तावील पेश की-
‘‘चूँकि आथम ने खत लिखा जो अखबार ‘‘वफ़ादाद’’ माह-सितम्बर, सन् 1894 ई. में प्रकाशित हुआ।
‘‘मैं खुदा के फज़्ज से ज़िन्दा और सलामत हूँ । मैं आपकी तवज्जोह किताब ‘नुजूल मसीह’ पृ. 81.82 की ओर दिलाना चाहता हूँ जो मेरे संबंध और अन्य साथियों की मौत के संबंध में भविष्यवाणी है, इससे शुरू करके जो कुछ गुज़रा उनको मालूम है। और मिर्ज़ा साहब कहते थे कि ‘आथम ने इस्लाम क़बूल कर लिया इसलिए मैं नहीं मरा।’ खैर उनको इखतियार है जो चाहे सो तावील करें। कौन किसको रोक सकता है। मैं दिल से और ज़ाहिर से भी ईसाई था और अब भी ईसाई हूँ। इस पर खुदा का शुक्र अदा करता हूँ।’’
जब आथम का देहांत हो गया तो क़ादियानी शोर मचाने लगे। कुद नादान कहते हैं कि आथम अपनी मियाद में नहीं मरा, लेकिन व जानते हैं कि मर तो गया। मियाद और ग़ैर मियाद की मुद्द त फुजूल है, अंततः मर तो गया। (मानो) कि अगर मिर्ज़ा क़ादियानी की भविष्यवाणी न होती तो आथम न मरता, हरगिज़ न मरता और कभी न मरता!)
मौऊद के बेटे की भविष्यवाणी
सन् 1886 ई. में मिर्ज़ा साहब की बीवी गर्भवती थी, उस समय उन्होंने यह भविष्यवाणी की--
‘‘खुदावन्द करीम (अल्लाह तआला) ने जो हर चीज़ पर कुदरत रखता है, मुझको अपने इलहाम से बताया कि मैं तुझे एक रहमत का निशान देता हूँ खुदा ने कहा, ताकि दीने इस्लाम का शर्फ़ (श्रेष्ठता), कलामुल्लाह का मर्तबा लोंगों पर ज़ाहिर हो, ताकि लोग समझें कि मैं क़ादिर हूँ। जो चाहता हूँ करता हूँ, ताकि वे यक़ीन लाएँ कि मैं कि मैं तेरे साथ हूँ और ताकित उन्हें जो खुदा, खुदा के दीन, उसकी किताब, उसके रसूल को इनकार की निगाह से देखते हैं, एक खुली निशानी मिले- एक खूबसूरत और पाक लड़का तुझे दिया जाएगा। वह तेरे ही नुत्फ़े (शुक्राणू), तेरी ही नस्ल से होगा। खूबसूरत, पाक लड़का तुम्हारा मेहमान आता है। उसका नाम बशीर भी है। मुबारक वह जो आसमान से आता है, उसके साथ फ़ज़्ल (कृपा) है। वह बहुतों को बीमारियों से साफ करेगा। भौतिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूण किया जाएगा। वह तीन को चार करने वाला है।’’
-मुलख्खस इश्तेहार, 20 फरवरी सन् 1886 ई. अंकितः तबलीग़े रिसालत भाग-1, पृ. 58
इस इश्तेहार में जिस ज़ोर व शोर के साथ उपरोक्त लड़के की भविष्यवाणी करते हुए उसे इस्लाम का खुदा और खुदा का रसूल और खुद मिर्ज़ा के साहिबे इलहाम होने, बल्कि खुदा तआला के क़ादिर व ताक़तवर होने की ज़बरदस्त दलील बताया गया है, वह व्याख्या की मुहताज नहीं है। किन्तु अफ़सोस कि इस गर्भ से मिर्ज़ा साहब के घर लड़की पैदा हुई, इसपर अफ़सोस यह कि इसके बाद मिर्ज़ा साहब के यहाँ कोई लड़का ऐसा नहीं हुआ जिस मिर्ज़ा साहब ने इस भविष्यवाणी का मिस्दाक़ (चरितार्थ) ठहराया हो और वह ज़िंदा रहा हो, या खुद मिर्ज़ा साहब ने उसके मुसलेह मौऊद होने का अमलन या ज़बानी इक़रार किया हो।
लेकिन मिर्ज़ा साहब अपने बयानों में स्पष्ट कर चुके थे कि जल्दी ही उस लड़के की पैदाइश होने वाली है जिसकी शुभ-सूचना दे रहे थे, लेकिन लड़की के पैदा होने पर मूरी ढिठाई से यह कहकर गुज़रगए कि मैंने कब कहा था कि लड़का इस गर्भ से पैदा होगा।
मुबारक अहमद के बारे में भविष्यवाणी
मिर्ज़ा साहब का चैथा लड़का मुबारक अहमद एक बार बीमार पड़ा, उसके बारे में अखबार ‘बद्र’ 29 अगस्त, सन् 1887 ई. पृ. 4 पर लिखा गया-
‘‘मियाँ मुबारक साहब जो सचत बीमार हैं और कभी-कभी बेहोशी तक की नौबत पहुँच जाती है और अभी तक बीमार हैं, उनके संबंध में आज इलहाम हुआ हैः क़बूल हो गइ, नौ दिन का बुख़र टूट गया। यानी वह दुआ क़बूल हो गई कि अल्लाह तआला, मियाँ साहब मौसूफ को रोग मुक्त करे।’’
उस सख़्त बीमारी में जो मायूसकुन (निराशजनक) थी मिर्ज़ा साहब ने जो दुआ माँगी वह यही हो सकती है कि खुदा उसे मुकम्मल सेहत दे और मेरी दी हुई खबरें सच्ची साबित कर दे। उस लड़क के बारे में मिर्ज़ा साहब ने फरमाया था- मुसलेह मौऊद, बीमारों को सेहत देनेवाला, कैदियों को रास्तगारी बख्श्नेवाला, लम्बी उम्र पानेवाला, जीत और कामयाबी की कुँजी, निकटता व दयालुता का निशान, रौब व बडाई और दौलत ज़मीन के किनारों तक। मिर्ज़ा साहब की दुआएँ जो जो अल्लाह की बारगाह में क़बूल व मक़बूल हुई। ज़मीन के किनारों तक शुहरत पानेवाला, क़ौमों को बाबरकत करनेवाला, मानो खुदा आसमान से उतर आया, आदि महान गुणोंवाला मालिक बनाया था।
यह भविष्यवाणी (पेशीनगोई) बिलकुल झूठी साबित हुई। जिसमें मियाँ मुबारक की सेहत की खबर दी गई थी।
साहबज़ादा मियाँ मुबारक साहब सेहतमंद न हुए, उनके उम्र का पैमाना भर चुका था। सिर्फ ठोकर की कसर थी। मिर्ज़ा साहब इस बच्चे के बारे में समय-समय पर इलहाम सुनाते रहे, ताकि लोगों को तसलली हो। अल्लाह तआला ने अस्थाई रूप से सेहत का रंग ओर फिर बीमारी का ग़लबा दिखाकर 16 सितम्बर सन् 1887 ई. को मौत से दोचार कर दिया और मिर्ज़ा साहब की भविष्यवाणियाँ धरी की धरी रह गई।
क़ादियान में प्लेग
सन् 1902 ई. में भारत के अनेक प्रांतों में प्लेग फैल गया। बहुत-से शहर और कस्बे इसकी लपेट में आ गए। अभी इ समहामारी की शुरूआत ही थी, मिर्ज़ा साहब ने अनेक भविष्यवाणियाँ (पेशीनगोइयाँ) करनी शुरू कर दीं। धीरे-धीरे यह मर्ज़ ज़ोर पकड़ता गया, लेकिन क़स्बा कादियान अभी तक सुरक्षित था और वहाँ इस महामारी के कोई लक्षण नजत्रर नहीं आ रहे थे। मिर्ज़ा साहब ने इस स्थिति से लाभ उठाते हुए प्रोपगेंडा शुरू कर दिया कि चॅूँकि मिर्ज़ा साहब की नुबूवत को झुठलाया जा रहा है, इसलिए अल्लाह तआला ने यह अज़ाब (प्रकोप) भेजा है और क़ादियान चूंकि
चूंकि मिर्ज़ा साहब की रिहाइशगाह और उनकी नुबूवत का केन्द्र है इसलिए वहाँ अज़ाब नहीं आया और न आएगा, बल्कि कोइ बाहर का आदमी क़ादियान में आ जाए तो वह भी इस ईश्वरीय प्रकोप से बचा रहेगा। और बढ़कर यह दावा किया कि जिन-जिन बस्तियों में मिर्ज़ा साहब के मुरीद (अनुयायी) मौजूद हैं, वे सारे मकत्राम और वहाँ के बाशिन्दे इस महामारी से सुरक्षित रहेंगे। आपने बडे भरोसे और यक़ीन के साथ यह दावा कियाः
‘‘जहाँ एक भी सच्चा क़ादियानी होगा, उस जगह को खुदा तआला हर ग़ज़ब व मुसीबत से बचा लेगा।’’
आगे फरमाते हैं-
‘‘(ऐ विरोधियो!) तुल लोग भी मिलकर ऐसी भविष्यवाणी करो, जिनसे क़ादियान के पैग़मब्र का दावा झूठा हो जाए और उसकी दो ही सूरते हैं- या यह कि लाहौर और अमृतसर ताऊन ( महामारी प्लेग ) के हमले से सुरक्षित रहें या यह कि क़ादियान ताऊन में ग्रस्त हो जाए। खुदा ने इस अकेले सादिक (निहायत सच्चा, यानी मिर्ज़ा गुलाम अहमद) के तुफैल क़ादियान को, जिसमें तरह-तरह के लोग बसते हैं, अपनी खास हिफ़ाज़त में ले लिया।’’ इलहामाते मिर्ज़ा, पृ. 109, 112, 113
मिर्ज़ा साहब के इस प्रोपगेंडा ने ताऊन (प्लेग) के डरे और सहमे हुए लोगों को क़ादियानियत की ओर खींचने में बड़ा काम किया। इसी दौरान उन्होंने एक किताब लिखी जिसका नाम- ‘‘कश्ती-ए-नूह’’ रखा, जिससे यह बताना मक़सूद था कि जो कोई मेरी नुबूवत का तसलीम करेगा, वह इस कश्नी में सवार होकर तूफ़ाने नूह की तरह इस अज़ाब से सुरक्षित रहेगा।
लेकिन जगत के पालनहार अल्लाह तआला को कुछ और ही मंजूर था। उसने इस झूठ की लई खोलने का खास प्रबंध किया, यानी उसी प्लेग ( महामारी ) की चपेट में मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी को ले लिया। प्लेग क़ादियान और उसके सभी इलाकों में भी फैल गया। मिर्ज़ा जी के घमंडपूर्ण और ऊँचे दावों के बावजूद प्लेग ने क़ादियान की सफाई शुरू कर दी।
दिसम्बर सन् 1902 का इज्तिमा (सभा) सिर्फ ताऊन (प्लेग) की वजह से स्थगित करना पडा। फिर मई सन् 1904 ई. में क़ादियानी स्कूल ताऊन की वजह से बंद करना पडा। ताऊन की तीव्रता व भयंकरता का यह हाल था कि लोग परेशानी के आलम में इधर-उधर भाग रहे थे, लोंगों ने अपने घर छोड़कार खेतों में डेरे लगाए थे। क़ादियान का सरा क़स्बा उजड़ा हुआ नज़र आता था, जैसे अज़ाबे इलाही से तबाह की हुई बस्तियाँ। मतलब यह कि ताऊन से क़ादियान के बचे रहने की भविष्यवाणी भी झूइ निकली। जो मिर्ज़ा जी के कथ्नानुसार खुद उनके झूठा होने की खुली हुई दलील है।
मिर्ज़ा साहब की हसरत जो दिल ही दिल मे रह गई
मिर्ज़ा साहब के करीबी रिश्तेदारों में एक अहमद बे होशियानपुरी थे जिनकी एक नौउम्र बच्ची मुहममदी बेगम थी। इस बच्ची से निकाह की ख़्वाहिश मिर्ज़ा साहब ने दिल ही दिल में पाल ली और दावा किया कि मुहम्मदी बेगम से अनका निकाह होना एक खुदाई इलहाम के मुताबिक है, जो होकर रहेगा।
अहमद बेग (मुहम्मदी बेगम के पिता) अपने एक घरेलू काम से मिर्ज़ा साहब के पास गए। उस समय तो मिर्ज्रा साहब ने उनको यह कहकर टाल दिया कि हम कोई काम बिना इसितखारा के और अल्लाह की मर्ज़ी मालूम किए बिना नहीं करते। कुछ दिन बाद मिर्ज़ा साहब ने इस सुलूक और मुरव्वत का बदला इस प्रकार दिया कि उनकी बडी बेटी मुहम्मदी बेगम का रिश्ता अपने लिए माँगा। उस समय मिर्ज़ा साहब की उम्र पचास साल की थी।
उसने न सिर्फ बड़ी नफ़रत से मिर्ज़ा साहब के इस मुतालबे को ठुकराया और उसके दिल में मिर्ज़ा साहब की जो रही-सही इज़्ज़त थी वह भी ख़ाक में मिल गई, बल्कि अहमद बेग ने मिर्ज़ा साहब का रिश्तावाला ख़त अखबारों में प्रकाशित करा दिया। चूंकि इस खत की इबारत का संबंध भविष्यवाणी से था, इसलिए वह नीचे दिया जा रहा है।
‘‘खुदा तआला ने अपने कलाम पाक से मेरे ऊपर ज़ाहिर किया है कि अगर आप अपनी बड़ी बेटी का रिश्ता मेरे साथ मंजूर न करेंगे तो आपके लिए दूसरी जगह करना हरगिज़ मुबारक न होगा और इसका अंजाम दर्द, तकलीफ और मौत होगा। ये दोनों तरफ़ बरकत और मौत की ऐसी हैं कि जिनको आज़माने के बाद मेरी सच्चाई या झूठ मालूम हो सकता है।’’ -आईन-ए-कमालात, पृ. 179, 280- अखबार नूर अफशाँ, 10 मई, सन् 1888 ई.
अपने इस खुदाई दावे का जिक्र मिर्ज़ा साहब ने इस प्रकार किया-
‘‘उस खुदाए क़ादिरूल मुत्लक़ (सर्वशक्तिमान, संप्रभु खुदा) ने मुझे फरमाया कि उस व्यक्ति (मिर्ज़ा अहमद बेग) की बड़ी बेटी (मुहम्मदी बेगम) के निकाह के लिए रिश्ता भेज और उनको कह दे कि तमाम सुलूक व मुरव्वत तुमसे इसी शर्त से किया जाएगा और यह निकाह तुम्हारे लिए बरकत का सबब और एक रहमत का निशान होगा और उन तमाम रहमतों और बकतों से हिस्सा पाओगे जो इश्तेहार 22 फरवरी सन् 1888 ई. में अंकित हैं, लेकिन अगर निकाह से इनकार किया तो उस लड़की का अंजाम बहुत ही बुरा होगा और जिस किसी दूसरे व्यक्ति से ब्याही जाएगी वह निकाह के रोज़ से ढाई साल तक, और ऐसा ही उस लड़की के पिता की तीन साल के अन्दर मृत्यु हो जाएगी और उनके घर में फूट और तंगी और मुसीबत पड़ेगी और बीच के समय में भी उस लड़की के लिए कई अप्रिय और ग़म के मामले पेश आँगे।’’ -तबीग़े रिसालत, भाग-1.पृ. 155.166, मजमूआ इश्तेहरात, भाग-1, पृ. 157-158
मिर्ज़ा साहब की यह भविष्यवाणी भी सरासर झूठ और ग़लत साबित हुई। जिस भविष्यवाणी को मिर्ज़ा साहब ने अपने सच और झूठ की कसौटी बनाया था, उसका अंजाम बिलकुल खुलकर सामने आ गया। चाहिए तो यह था कि मिर्ज़ा साहब अपने कहने के मुताबिक भविष्यवाणी के ग़लत साहिब हो जाने पर तौबा करके उम्मते मुहम्मदिया का तरीक़ा अपना लेते, लेकिन यह उनकी क़िस्मत में न था। घटनाओं का ग़लत अर्थ निकालकर और ग़लत तावीलों को सहारा लेकर अपने आपको और अपने मुरीदों का मुतमइन करते रहे।
खुशनसीब रही कमउम्र मुहम्मदी बेगम जिसको अल्लाह तआला ने पचास साला व्यक्ति की सोहबत की तकलीफ़ से बचा लिया, जो दुनिया में कई खतरनाक मर्ज़ का शिकार था और सौतन की मौजूदगी में परेशानी और तंगी की ज़िन्दगी मुज़ारनी पड़ती और मिर्ज़ा साहब की मौत के बाद एक लम्बा समय बेवगी के कष्ट बर्दाश्त कने पडते और आख़िरत की मार इन सब कष्ट व तकलीफों से बढ़कर होती। इसके विपरीत मुहम्मदी बेगम ने अपने शौहर सुलतान मुहम्मद के साथ पूरी उम्र जब तक जीवित रहीं खुशहाली के साथ शांतिमय जीवन व्यतीत किया, जो कम ही लोगों को नसीब होता है। सुलतान मुहम्मद एक तंदुरूस्त, सेहतमंद और खूबसूरत नौजवान था और फौज के एक अच्छे पद पर फाइज़ था। उसके एक दोस्त सैयद मुहम्मद शरीफ़ साहब, जो ग्राम घड़िाला, ज़िला लायलपुर के निवासी थे ने उसके हालात सन् 1930 ई. में मालूम किए तो उसने जवाब में लिखा-
‘‘अस्सलामु अलैकुम,
मैं अल्लाह के फ़ज़्ल से यह खत लिखने तक तंदुरूस्त और बखैर हूँ। अल्लाह के फ़ज़्ल से फौजी मुलाज़मत के वक़्त भी तंदुरूस्त रहा। मैं इस समय रिसालदारी पद के पेंशन पर हूँ। एक सौ पैंतीस रूपए मासिक पेंशन मिलती है। सरकार की ओर से पाँच मुरब्बा ज़मीन मिली हुई है। क़सबा पट्टी में मेरी पैतृक भूमि भी मेरे हिस्से मे आई है, जो लगभग सौ बीघा है। ज़िला शेखुर में भी तीन मुरब्बा ज़मीन है। मेरे छः लड़के हैं, जिनमें से एक लायलपुर में पढ़ता है। सरकार की ओर से उसको पचपन रूपए मासिक वज़ीफ़ा मिलता है। दूसरा लड़का पट्टी में शिक्षा प्राप्त कर रहा है। मैं अल्लाह के फ़ज़्ल से अहले सुन्नत वल् जमाअत हूँ। मैं अहमदी (क़ादियानी) मज़हब को बुरा समझता हूँ। उसका अनुयायी नहीं हूँ। उसका धर्म झूठा समझता हूँ। -वस्सलाम
ताबेदार, सुलतान बेग (पेंशनर), मक़मः पट्टी, ज़िलाः लायलपुर
मतबुआ अहले हदीस, 14 नवम्बर, सन 1930 ई.
मिर्ज़ा जी की आखिरी दुआ और मौलाना सनाउल्लह अमृतसरी से आख़िरी फै़सला
मौलाना मुहम्मद हुसैन बटालवी और उनके साथियों की तरह मुनाज़िरे इस्लाम हज़रत मौलाना अबुल वफ़ा सनाउल्लाह अमृतसरी(रह.) मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी को झुठलाने और उनके मुक़ाबिले के लिए हर वक़्त तैयार रहते थे। मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी ने मिर्ज़ाइयों से हर मैदान में मुक़ाबिला किया और उनको हमेशा भारी शिकस्त दी और उनकी झूठी नुबूवत की बुनियादें हिलाकर रख दीं। मिर्ज़ा साहब और उनके साथी मौलाना (रह.) से बहुत ज़्यादा तंग आ गए थे। उनका जीना दूभर हो चुका था। अपना सब कुछ बरबाद होते देखकर मिर्ज़ा जी ने आखिरी बाज़ी लगा दी। उन्होंने अखबारों में एक फ़रेब और धोखे से भरा इश्तेहार दिया जो ‘अखबार अहले हदीस’ अमृतसर, तारीख 26 अप्रैल, सन् 1907 ई. के अंक में प्रकाशित हुआ, जो नीचे दिया जा रहा है। मौलाना को संबोधित करने हुए लिखा-
बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
(अल्लाह के नाम से जो रहमान व रही है।)
नह्मदुहू व नुसल्लि अला रसूलिहिम-करीम
व यस्तम्बिऊ-न-क अ-हक्कुन हु-व
(वे तुमसे चाहते हैं कि उन्हें खबर दो कि क्या वह वास्तव मे हक़ है?)
कुल इय् व रब्बीय् अन्न-हू ल-हक्कुन
(कह दोः हाँ, मेरे रब की क़सम वह बिलकुल हक़ है)
खिदमत में,
मौलवी सनाउल्लाह!
अस्सलामु अला मनित्तबअल हुदा
(यानी सलाम उसपर जो हिदायत की पैरवी करे। सलाम के ये शब्द गै़र मुस्लिमों को सम्बोशित करते समय प्रयोग किए जाते हैं। मौलाना सनाउल्लाह साहब को शायद मिर्ज़ा गै़र मुसलिम ही समझते थे)
मुद्दत से आपकी पत्रिका ‘‘अहले हदीस’’ में मुझे झुठलाने और गुमराह साबित करने का सिलसिला जारी है। मुझे आप अपनी इस पत्रिका में झूठा, दज्जाल फ़सादी के नाम से मंसूब करते हैं और दुनिया में मेरे बारे में प्रचार करते हैं कि वह व्यक्ति धूर्त, झूठा और दज्जाल है और इस व्यक्ति का दावा मसीह मौऊद होने का सरासर झूठ है। मैंने आपसे बहुत दुख उठाया और सब्र करता रहा, किन्तु चूँकि मैं देखता हॅू कि मैं हक़ के फैलाने पर तैनात हूँ और आप बहुत से झूठे आरोप मेरे ऊपर लगाकर दुनिया को मेरी ओर आने से रोकते हैं और मुझे उन गलियों और तोहमतों और उन शब्दों से याद करते हैं कि जिनसे बढ़कर कोई अपशब्द नहंी हो सकता। अगर मैं ऐसा ही झूठा और फ़रेबी हूँ, जैसा कि प्रायः आप अपने हर एक अंक में मुझे याद करते हैं, तो मैं आपकी ज़िन्दगी में हलाक (मृत्यु को प्राप्त) हो जाऊँ। क्योंकि मैं जानता हूँ कि फ़सादी और महाझूठे की बहुत उम्र नहीं होती, अंततः वह ज़िल्लत और हसरत के साथ अपने सख़्त दुश्मन की ज़िन्दगी में ही नाकाम, हलाक हो जाता है और उसका हलाक होना ही बेहतर होता है, ताकि खुदा के बंदों को तबाह न करे और अगर मैं झूठा व फ़रेबी नहीं हूँ और खुदा की दयालुता से उम्मीद करता हूँ कि आप अल्लाह की सुन्नत के मुताबि़ हक़ के झुठलाने वालों की सज़ा से बच नहीं सकेंगे। अतः यदि वह सज़ा जो इनसान के हाथों से नहीं, बल्कि केवल खुदा के हाथों से है, जैसे- ताऊन व हैज़ा आदि घातक बीमारियाँ आप पर मेरी ज़िन्दगी में ही घटित न हुईं तो मैं खुदा की ओर से नहीं। यह किसी वह्य या इलहाम की बुनियाद पर कोई भविष्यवाणी नहीं, बल्कि सिर्फ दुआ के तौर पर मैंने खुदा से फै़सला चाहा है और मैं खुदा से दुआ करता हूँ कि मेरे मालिक सर्वदृष्टा व सर्वसमर्थ्य, सर्वज्ञ व सर्वज्ञाता है, जो मेरे दिल की हालत से अच्छी तरह वाक़िफ है, अगर यह दावा मसीह मौऊद होने का केवल मेरे मन का धोखा और मनघड़त है और मैं तेरी नज़र में फ़सादी और महाझूठा हूँ और निद-रात धोखा करना और झूठ घड़ना मेरा काम है, तो ऐ मेरे प्यारे मालिक। मैं आज़िजी (विनम्रता) से दुआ करता हूँ कि मौलवी सनाउल्लाह साहब की ज़िन्दगी में मुझे हलाक र दे और मेरी मौत से उनको और उनकी जमाअत को खुश कर दे (आमीन) मगर ऐ मेरे कामिल और सच्चे खुदा! अगर मौलवी सनाउल्लाह उन तोहमतों में जो मुझपर लगाता है हक़ पर नहीं, तो मैं सविनय तेरी शरण में दुआ करता कि मेरी ज़िन्दगी में ही उनको तबाह कर, मगर न इनसानी हाथों से, बल्कि ताऊन व हैज़ा आदि घातक मज़ों से, सिवाए इस स्थिति के कि वह खुले तौर पर मेरे रूबरू और मेरी जमाअत के सामने उन तमाम गलियों और बदनामियों से तौबा करे, जिनको अपना अनिवार्य कर्तव्य समझकर हमेशा मुझे दुख पहुँचाता है।(ऐसा ही हो ऐ सर्व जगत् के पालनहार)। मैं इनके हाथों बहुत सताया गया और सब्र करता रहा, किन्तु, अब मैं देखता हूँ कि इनकी बदज़बानी हद से गुज़र गई। मुझे उन चोरों और डाकुओं से भी बदतर जानते हैं, जिनका वुजूद दुनिया के लिए अत्यंत हानिकारक होता है और इन्होंने आरोंपों और अपशब्दों में- ‘ला तक़फु मा ल्े-सल-क बिही इल्मु’ (यानी जिस चीज़ का तुम्हें ज्ञान न हो उसके पीछे न लगो) पर भी अमल नहीं किया और तमाम दुनिया से मुझको बदतर जानता है और दूर-दूर मुल्कों तक मेरे बारे में यह प्रचार कर दिया कि यह व्यक्ति वास्तव में खुदा का बाग़ी, ठग और दुकानदार और झूठा और गुमराह और बहुत ही बुरा आदमी है। अतः यदि ऐसे शब्द, हक़ के चाहनेवालों पर ग़लत असर डालते तो मैं उन तोहमतों पर सब्र करता रहा, मगर मैं देखता हूँ कि मौलवी सनाउल्लाह इन्हीं तोहमतों के ज़रीय से इस लिससिले को ख़तम् करना चाहता है और उस इमारत को ध्वस्त करना चाहता है जो तूने मेरे आक़ा और मेरे भेजनेवाले अपने हाथ से बनाई है। इसलिए अब मैं तेरे ही तक़द्दुस और रहमत का दामन पकड़कर तेरे सामने दुआ करता हूँ कि मुझमें और सनाउल्लाह में सच्चा फै़सला कर और वह जो तेरी निगाह में हक़ीक़त में फ़सादी और महाझूठा है उसको सच्चे की ही ज़िन्दगी में दुनिया से उठा ले या किसी और बड़ी आफ़त में जो मौत के बराबर हो सकती है (में ग्रस्त) कर। ऐ मेरे आक़ा! प्यारे मालिक, तू ऐसा ही कर (आमीन सुम्मा आमीन)। अंततः मौलवी साहब से निवेदन है कि वह मेरे इस लेख को अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर दे और जो चाहें इसके नीचे लिख दें और अब फैसला खुदा के हाथ है।
--लेखकः अब्दुल्लाह अहमद मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी मसीह मौऊद, आफ़ाउल्लाहो व वालिदहू, दिनांक एक रवीउल अव्वल 25 हि., 15 अप्रैल, सन् 1907 ई.
मिर्ज़ा साहब की यह दुआ अल्लाह की बारगाह में मक़बूल हुई। मिर्ज़ा साहब हैज़ा के मर्ज़ में ग्रसत होकर शिक्षाप्रद स्थिति में इस संसार से विदा हो गए और मुनाज़िरे इस्लाम मौलाना अबुल वफ़ा सनाउल्लाह अमृतसरी (रह.) एक लम्बी मुद्द त तक सकुशल जीवित रहे और क़ादियानियत की सरकूबी में व्यस्त रहे। मिर्ज़ा साहब की मौत के लगभग चालीस साल बाद आपने वफ़ात पाई।
क़ादियानी लोग मुसलमानों को क्या समझते हैं?
क़ादियानी, जिनकी बुनियाद ही झूठ पर है , झूठ बोलने में बड़े माहिर हैं। वे इस बात का ढिंढोरा बडे ज़ोर-शोर से पीटते हैं कि उनकी कोशिश से सैकडों लोग इस्लाम में दाखिल हुए। जबकि उनकी कोशिशों का असल निशाना मुसलिम समाज है। भोले-भाले नावाकिफ़ मुसलमानों को मुसलमान मानने के लिए तैयार नहीं। गै़र मुसलिम भाइयों में भी ये क़ादियानी अपने को बहुत निर्दाष और पीडित बनकर यह जताने की कोशिश करते हैं कि ये मुसलमान हमपर जफल्म कर रहे हैं और हमें मुसलमान मानने को तैयार नहीं औरहमारे ग़ैर मुसलिम भाई भी बहुत जल्द उनके फ़रेब का शिकार होकर उनकी हिमायत के लिए तैयारह हो जात हैं, जबकि क़ादियानी अपने असल इरादों व संकल्पों को छिपाए रखते हैं जो मुसलमानों के बारे में वे अपने दिलों में रखते हैं। नीचे हम उन अक़ीदों का उल्लेख करेंगे जो वे ग़ैर क़ादियानी यानी मुसलमानों के बारे में रखते हैं।
गै़र क़ादियानियों के बारे में मिर्ज्रा जी का बयान
मिर्ज़ा जी बयान करते हैं-
‘‘जो व्यक्ति मेरी पैरवी नहीं करेगा और मेरा जमाअत में दाखिल नहीं होगा, वह खुदा और रसूल की नाफ़रमानी करनेवाला जहन्नमी है।’’ --तबलीग़ रिसालत, पृ. 27, भाग-9
रंडियों की औलाद
‘‘मेरी इन किताबों को हर मुसलमान मुहब्बत की नज़र से देखता है और इसके इल्म से फ़ायदा उठाता है और मेरी दावत के हक़ होने की गवाही देता है और इसे क़बूल करता है। किन्तु रंडियों (व्यभिचारिणी औरतों) की औलाद मेरे हक़ होने की गवाही नहीं देता।’’ -आईन-एकमालाते इस्लाम, पृ. 548, ले.: मिर्ज़ा गुलाम अहमद प्रकाशित सन् 1893 ई.
हरामज़ादे
‘‘जो हमारी जीत (फ़तह) का क़ायल नहीं होगा, समझा जाएगा कि उसको हरामी (अवैध संतान) बनने का शौक़ है और हलालज़ादा (वैध संतान) नहीं है।’’ -अनवारे इस्लाम, पृ. 30, ले.: मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी, प्रकाशित सन् 1894 ई.
मर्द सुअर और औरत कुतियाँ
‘‘मेरे विरोधी जंगलों के सुअर हो गए और उनकी औरतें कुतियों से बढ़ गईं।’’ --नज्मुल हुदा, पृ. 10, ले.ः मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी, प्रकाशित सन् 1908 ई.
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी के उपरोक्त बयानों के आधार पर मानो कि (अल्लाह की पनाह) तमाम मुसलमान जो मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद के हक़ होने की गवाही न दें, वह जहन्नमी और हरामज़ादे, जंगल के सुअर और रंडियों की औलाद हैं और मुसलमान औरतें हरामज़ादियाँ, रंडियाँ(वैश्याएँ) और जंगल की कुतियाँ और जहन्नमी हैं।
पाठक खुद ग़ौर करें! यह है वह भाषा और वर्णनशैली जो मिर्जा गुलाम अहमद क़ादियानी अपने विरोधियों और क़ादियानियत के इनकारियों के बारे में इस्तेमाल करते हैं। मानव इतिहास गवाह है कि किसी नबी, वली, ऋषि, मुनि या महापुरूषों ने ऐसी गन्दी ज़बान कभी इस्तेमाल नहीं की। खुदासीदा बुज़र्गों का तो क्या ज़िक्र, एक आम सज्जन व्यक्ति भी इस शैली की भाषा लेखन व भाषण में इस्तेमाल नहीं करता। अलबत्ता गैर ज़िम्मेदर व लापरवाह लोंगों के बारे में क्या कहा जा सकता है। सोचिए तो सही, इस प्रकार के अश्लील वाक्य बोलने वाला व्यक्ति क्या नबी हो सकता है? नबी होना तो दूर की बात उसकी गिनती तो सज्जन व्यक्तियों में भी नहीं की जानी चाहिए।
ग़ैर मिर्ज़ाई के पीछे नमाज़ जाइज़ नहीं
मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी साहब ने सख़्ती से ताकीद की-
‘‘अहमदी को गै़र अहमदी के पीछे नमाज़ न पढ़नी चाहिए।’’ -अनवारे ख़िलाफत, पृ. 89, मिर्ज़ा महमूद
ग़ैर मिर्ज़ाई की जनाज़े की नमाज़ पढ़नी और उससे रिश्तेदारी का निषेध
मिर्ज़ा गुलाम अहमद अपने अनुयायियों को ताकीद करते हैं-
‘‘ग़ैर अहमदी की नमाज़े जनाज़ा ना पढ़ो और ग़ैर अहमदी रिश्तेदारों को रिश्ता न दो।’’ -अल-फज़्ल, 14 अप्रैल,सन् 1908 ई.
एक साहब ने सवाल किया कि ग़ैर अहमदी बच्चे का जनाज़ा क्यों न पढ़ा जाए, जबकि वह मासू होता है। इस पर मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी ने कहा-
‘‘जिस प्रकार ईसाई बच्चों का जनाज़ा नहीं पढ़ा जा सकता, यद्यपि मासूम (अबोध) ही ही होता है। उसी तरह एक ग़ैर अहमदी के बच्चे का जनाज़ा भी नहीं पढ़ा जा सकता।’’
--डा. मिर्ज़ा महमूद अहमद, अल-फ़ज़्ल, 23 अक्तूबर, सन् 1922 ई. मानो कि मिर्ज़ाइयों के नज़दीक तमाम मुसलमान काफ़िर हैं।
दुआ मत करो
सवालः क्या किसी ऐसे व्यक्ति की मृत्यु पर जो अहमदिया सिलसिला में शामिल नहीं, यह कहना जाइज़ है कि खुदा मरहूम को जन्नत नसीब करे?
जवाबः ग़ैर अहमदियों का कुफ्र रौशन दलील से साबित है और काफिरों के लिए मग़फिरत की दुआ जाइज़ नहीं। -अल-फज्ल,7 फरवरी, सन् 1921 ई. भाग-8, पृ. 59
पूरी तरह बाइकाट
‘‘गैर अहमदियों से हमारी नमाज़ अलग की गई। उनको लड़कियाँ देना हराम किया गया। उनके जनाजै पढ़ने से रोका गया। अब शेष क्या रह गया जो हम उनके साथ मिलकर रह सकते हैं। दो प्रकार के संबंध होते हैं- एक धार्मिक, दूसरा सांसारिक। धार्मिक (दीनी) संबंध का सबसे बड़ा ज़रीया इबादत का इकट्ठा होना है और सांसारिक संबंध का भरी ज़रीया रिश्ता-नाता है। और यं दोनों हमारे लिए हराम ठहरा दिए गए। अगर कहो कि हमको उनकी लड़कियाँ लेने की इजाज़त है तो मैं कहता हूँ, ईसाई की भी लड़कियाँ लेने की इजाज़त है।’’ --कलिमतुल फ़स्ल, पृ. 169, ले.: मिर्ज़ा बशीर अहमद पुत्र मिर्ज़ा गुलाम अहमद
मुसलमानों और क़ादियानियों की जंत्री(क़ादियानियों का कलेंडर) भी अलग् है। मुसलमानों का साल मुहर्रम से शुरू होता है और क़ादियानियों का ‘सुलह’ से। मुसलमानों के साल के महीने - मुहर्रर, सफ़र, रबीउल अव्वल, रबीउस्सानी, जमादुल अव्वल, जमादुस्सानी, रजब, शाबान, रमज़ान, शव्वाल, ज़ीकादा, ज़िलहिज्ज हैं। क़ादियानियों के महीनों के नाम अहमदिया कलेंडर में इस प्रकार अंकित किए जाते हैं- सुलह, तबलीग़ अमान, शहादत, हिजरत, अहसान, वफ़ा, जुहूर, तबूक, अखा, नुबूवत, फतह।
यह इस बात की खुली निशानी है कि क़ादियानी अलग समुदाय और मुसलिम समुदाय एक अलग् समुदाय है, जिनमें बुनियादी तौर पर ख़त्मे नुबूवत (नुबूवत के ख़त्म होने) और फिर अन्य बातों में पग-पग पर विभेद पाया जाता है।
मिर्ज़ा साहब और बैतुल्लाह (काबा) का हज
मिर्ज़ा साहब ज़िन्दगी-भर हज न कर सके जिसके लिए हर मुसलमान अल्लाह से दुआएँ करता है कि एक परवरदिगार! तू हमें अपने घर की ज़ियारत (दर्शन) नसीब फ़रमा। जब लोगों ने मौलाना मुहम्मदहुसैन बटालवी के हज करने का ज़िक्र किया तो मिर्ज़ा साहब ने जवाद दिया-
‘‘मेरा पहला काम खिंज़ीरों (सुआरों) का क़त्ल करना और सलीब की पराजय है। अभी तो मैं खिंजीरों को क़तल् कर रहा हूँ।’’ -मल्ूफजाते अहमदिया पंजुम, पृ. 363, 364
मिर्ज़ा साहब अच्छी तरह जानते थे कि मुसैलमा कज़्ज़ाब का क्या अंजाम हुआ जिसने नुबूवत का झूठा दावा किया था। मुसैलमा कज़्ज़ाब और उनके साथियों को पहले ख़लीफा हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ और सहाबा (रजि.) ने क़त्ल करके जहन्नम पहुँचा दिया। क्या मिर्ज़ा साहब को इस बात की खबर नहीं थी कि नुबूवत के दावेदार का अंजाम हिजाज़(अरब का वह इलाक़ा जिसमें मक्का, मदीना और ताइफ़ शामिल हैं) की धरती पर क्या होता है? अतः मुसैलमा कज़्ज़ाब जैसी दुर्गति होगी। इसी बैतुल्लाह (ख़ान-ए-काबा) की ज़ियारत से महरूम रहे, जो इस्लामी इबादत का लाज़िमी और अहम अंग है।
फिर अल्लाह तआला ने मिर्ज़ा अहमद क़ादियानी को हज जैसी बड़ी इबादत से महरूम करके इमाम मेहदी और ईसा मसीह होने के उन तमाम दावों कों मिट्टी में मिला दिया, क्योंकि इमाम मेहदी मक्का मुकर्रमा में पैदा होंगे, उनका नाम मुहम्मद होगा और माँ का नाम आमिना और वालिद मुहतरम का नाम अब्दुल्लाह होगा। वे हज्रे अस्वद (काला पत्थर) और मक़ामे इबराहीम के बीच बैअत लेंगे। इसी प्रकार हज़रत ईसा (अलै.) दमिश्क के पूर्वीय मिनारे पर दो फ़रिश्तों के सहारे नाज़िल होंगे और रसूलों के सरदार और नुबूवत के समापक हज़रह मुहम्मद (सल्ल.) की पवित्र क़ब्र के निकट दफ़न होंगे।
अब यह बात जो मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी साहब के माननेवाले ही बताएँगे कि उनके नबी ने कितने सुअर क़तल किए और कितनी सलीबें तोडीं।
मिर्ज़ा जी और अल्लाह की राह में जिहाद
अल्लाह की राह में जिहाद एक अत्यंत महत्वपूर्ण कर्म है जिसको मंसूख (रद्द) कराने के लिए क़ादियानी नुबूवत व रिसालत की बुनियाद रखी गई, वरना ‘दीन’ (धर्म) की पूर्णता के बाद अब किसी नबी और रसूल की आवश्यकता ही बाक़ी नहीं रह गई थी और मानव-जीवन का कौन-सा भाग बाक़ी रह गया था जिसकी ओर रसूले अकरम खातमुन्नबीयीन हजत्ररत मुहम्मद (सल्ल.) ने मार्गदर्शन न किया हो। और न ही ‘दीन’ में कोई ऐसी कठिन बात पाई जा रही थी जिसका मंसूख किया जाना ज़रूरी था। क़ादयानियत के सारे ताने-बाने जिहाद को मंसूख कराने के लिए बुने गए। अंगेज़ जब हिन्दुस्तान में आए तो उनकी हुकूमत के स्थायित्व के लिए ज़रूरी था कि यहाँ की जनता उनकी पैरवी को वफादारी के साथ स्वीकार कर लेती लेकिन उनको इस सिलसिले में कामयाबी नज़र नहीं आ रही थी। इसके लिए ज़रूरी था कि वे मुसलमानों के दिल से जिहाद के जज़्बे के महत्व को खत्म कर दें ओर यह काम एक ऐसा व्यक्ति ही कर सकता था जिसको मुसलमानों का बड़ी हद तक एतिमाद हासिल होता।भारत में सैयद अहमद शहीद व मौलाना इसमाईल शहीद और उनके जानिसार साथी जिनके दिल जिहाद से सरशार (उत्मत्त) थे, इस्लाम की रक्षा व स्थायित्व के लिए सिर से पैर तक मुजाहिद (जिहाद करने वाले) नज़र आते थे। लोग हज़ारों की संख्या में उनके चारों ओर जमा होने लगे। उनकी कोशिशों से मुसलमानों के अंदर अल्लाह की राह में जिहाद की भावना भड़क उठी और वे हर तरह की कुरबानी देने के लिए तैयार हो गए। इस सूरतेहाल में अंग्रेज़ों के अंदर बेचैनी का पैदा होना एक स्वाभाविक बात थी। ऐसी ही एक तहरीक (आन्दोलन) सूडान का पैदा होना एक स्वाभाविक बात थी। ऐसी ही एक तहरीक (आन्दोलन) सूडान में शेख अहमद सूडानी लेकर उठे जिससे सूडान में अंग्रेज़ों का प्रभुत्व डगमगाने लगा। फिर अल्लामा जमालुद्दीन अफगानी की तहरीक ‘‘इत्तिहादे इस्लामी’’ (इस्लामी एकता) के लिए कम बेचैनी का कारण न थी। इन सारे कारनामों का जाइज़ा लेने के बाद अंग्रज़ इस नतीज़े पर पहुँचे कि मुसलमानों की भावनाओं पर क़ाबू पाने के लिए ज़रूरी है कि मज़हबी तौर पर उनको हुकूमत की वफ़ादारी पर आमादा किया जाए, ताकि इसके बाद उनको मुसलमानों की ओर सेख़तरा बाक़ी न रहे और वे इतमीनान से हुकूमत कर सकें। इस सेवा के लिए अंग्रेज़ों ने मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी को सबसे ज़्यादा उचित और लाभदायक व्यक्ति पाया। अतः उन्होंने मिर्ज़ा जी को चुन लिया।
मिर्ज़ा गुलाम अहमद साहब एक मानसिक रोगी थे, जैसे-- पागलपन, चित्त-विक्षिम्त आदि। आपके दिल में यह लहर उठी थी कि वे दुनिया की एक महान् शख्सियत के रूप में उभरें। दुनिया के अन्दर उनके माननेवालों की संख्या बहुत ज्यादा हो। उनको वही स्थान प्राप्त हो जो इस्लाम के आखिरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को प्राप्त है। आने झूठे अभिमान को प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने आपको इस्लाम का विद्वान (आलिमे दीन), फिर धर्म-सुधारक (मुजद्दिदे दीन) का दर्जा देने की कोशिश की। फिर इमाम मेहदी बनने, इसके बाद मसीह के सदृश, फिर मसीह मौऊद और अंत में बाक़ायदा नबी बन बैठे।
अंग्रज़ों की राह में चूँकि जिहाद व इत्तिहादे इस्लामी (अल्लाह की राह में जान तोड़ संघर्ष और इस्लामी एकता) और इस रास्ते में जान व माल की कुरबानी की भावना सबसे बडी रूकावटें थीं, इस लिए अंग्रेज़ यही चाहते थे कि एक व्यक्ति उनका समर्थक व हामी और मददगार हो जो उनके रास्ते की सारी रूकावटें साफ़ करे। मिर्ज़ा क़ादियानी ने बड़ी महारत के साथ अंग्रेज़ों की इस मनोकामना को पूरा करने की कोशिश की। अपनी कोशिशों का ज़िक्र मिर्ज़ा साहब इन शब्दों में करते हैं-
‘‘मेरी उम्र का ज्यादा हिसस इस अंग्रज़ी सल्तनत (साम्राज्य) के समर्थन और हिमायत में गुज़रा है ओर जिाद से रोकना और अंग्रजों की पैरवी करने के बारे में इतनी किताबें लिखी हैं और इश्तेहार प्रकाशि किए हैं कि यदि वे पत्रिकाएँ और किताबे इकट्ठी की जााएँ तो पचास अलमारियाँ उनसे भर सकती थीं। मैंने ऐसी किताबों को अरब, मिस्र, शाम, काबुल और रूम देश तक पहुँचा दिया।’’ -निर्याकुल कुलूब, पृ. 15, मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी
स्पष्टीकरण
‘‘यह अनुरोध है कि सरकार अन्नदाता ऐसे खानदान के बारे में जिसको पचास साल के लगातार तजुर्बे में माननीय सरकार के प्रतिष्ठित अधिकारियों ने हमेशा मज़बूत राय से चिट्ठियों में यह गवाही दी है कि वह शुरू से अंग्रेज़ी सरकार का खैरख़्वाह और सेवक है। इस स्वयं अपने हाथ से लगाए हुए पौधे के बारे में अत्यंत सावधानी व चैकसी और खोजबीन व तवज्जोह से काम ले और अधीन हाकिमों को निर्देश दे कि वे भी इस खानदान की प्रमाणित वफ़ादारी और निष्ठा का लिहाज़ रखकर मुझे और मेरी जमाअत को कृपा और दया की दृष्टि से देखें।’’
एक दूसरी जगह लिखते हैं-
‘‘मैं आरंभिक उम्र से इस वक़्त तक लगभग साठ वर्ष की उम्र तक पहुँचा हूँ ताकि मुसलमानों के दिलों को अंग्रेज़ी सरकार की सच्ची मुहब्बत और खैरख्वाही और हमदर्दी की ओर फेर दूँ और उनके कुछ नासमझों के दिलों से ग़लत जिहाद आदि को दूर कर दूँ जो उनकी दिली सफ़ाई और निष्ठापूण संबंध से रोकते हैं। -जमीमा श्हादतुल कुरआन और मिर्ज़ा, संस्करण-6, प्रकाशित सन् 1893 ई.. तबलीग़े रिसालत, भाग-7,पृ. मजमूआ इश्तेहरात, पृ. 11, भाग-3
यह है उस व्यक्ति का चरित्र जो सलीब तोड़ने का दावा करता है और सलीब बरदारों की गुलामी में मरा जाता है।
अंतिम बात
इस्लाम का बुनियादी अक़ीदा है कि जनाब नबी करीम हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) रहती दुनिया तक के लिए अल्लाह के अंतिम नबी व रसूल हैं और जिन्नों व इनसानों के लिए पूर्ण सुचरित्र और अमली नमूना हैं। अल्लाह की ओर से जो ‘दीन’ आप (सल्ल.) लेकर आए हैं वह तमाम ज़मानों और देशों में बसने वाले सभी इन्सानों और जिन्नों के लिए काफ़ी है। अब मानव जीवन का कोई भी मसला ऐसा बाक़ी नहीं रहा जिसका हल नबी करीम खतमुल अम्बिया हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने न बता दिया हो। आप (सल्ल.) पर अवतरित होनेवाली अल्लाह की आखिरी किताब कुरआन मजीद किसी भी फेर-बदल व परिवर्तन से सुरक्षित कर दी गई और इसकी सुरक्षा भी अल्लाह ने स्वयं अपने जिम्मे ली है। --‘‘इन्ना नह्नू नज़्ज़ल-नज़ ज़िक-र व इन्ना हलू ल हाफिजून’’ (हमने ही इस ज़िक्र {कुरआन मजीद} को अवतरित किया है और हम ही इसके रक्षक भी हैं।) -कुरआन 15ः9
इसी लिए कुरआन मजीद आज भी अपने उसी शक्ल में मौजूद है सि शक्ल में अवतरित किया गया ओर उसी प्रकार हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) का पवित्र जीवन-चरित्र यानी आपके वचन, आचरण और हालात तथा आप (सल्ल.) का स्वभाव व आदतें, आपका उठना-बैठना आपका लेन-देन व अबादतें, आपकी घरेलू, ज़िन्दगी हमारे सामने पूरी तरह मौजूद व सुरक्षित है। यह विशेषता आप (सल्ल.) से पहले के नबियों को हासिल नहीं थी। इसी लिए निरंतर रसूल आते रहे। मगर जनाब नबी करीम (सल्ल.) के आ जाने के बाद नुबूवत का क्रम खत्म हो गया। चूँकि अब इस संसार में बसने वाले सभी इनसानों के लिए क़ियामत तक एक ही जीवन-विधान मौजूद हैं, जिसकी सच्चाई पर जनाब नबी करीम (सल्ल.) का पवित्र जीवन गवाह है, अतः आप (सल्ल.) के बाद न किसी नबी व रसूल के आने की ज़रूरत है और न गुंजाइश।
इस्लाम दुनिया में अनेक परीक्षाओं से गुज़रा है। उसके खिलाफ बड़ी संगी साजिशें की गई और की जाती रही हैं। आज के दौर में इस्लाम के खिलाफ नई नुबूवत का फ़ितना, एक बहुत बडी साज़िश का नतीजा है जिसके लिए मुसलिम समुदाय को सुसंगठित और एकमत होकर गंभीरता से सोच-विचार करने की ज़रूरत है।
झूठे नबियों का फ़र्ज़ी नुबूवत का दावा करने के सिलसिला तो यहूदियों व ईसाइयों में भी जारी थी, मगर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की उम्मत में तो आप (सल्ल.) के जीवनकाल से ही जारी है, जिसकी पहली मिसाल मुसैलमा कज़्ज़ाब हैं, जिसने नबी करीम (सल्ल.) से अनुरोध किया था कि आप(सल्ल.) की ज़िन्दगी में आप (सल्ल.) की नुबूवत हम क़बूल करते हैं, लेकिन आप (सल्ल.) के बाद यह नुबूवत हमारे सुपुर्द कर दी जाए। उस वक़्त नबी करीम (सल्ल.) के पवित्र हाथ में एक छडी थी। आप (सल्ल.) ने फरमाया ‘‘नुबूवत व खिलाफ़त का तो सवाल ही पैदा नहीं होता) अगर तू मुझसे यह छडी भी माँगेगा तो भी तुझ न दूँगा।
आज के दौर में मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी का नुबूवत का दावा मुसलिम समुदाय के लए एक बहुत बडा फ़ितना और अहुत बडा चैलेंज है जिसकी रोक अत्यंत आवशक है। इस फ़ितने के मुक़ाबिले के लिए हमारे पूर्वज व बुजुर्गों ने बडी-बडी कुरबानियाँ पेश की हैं। (अल्लाह उनकी क़ब्रों को नूर से भर दे!) इसलिए हमें भी अपने बडों की पैरवी करते हुए राँगा पिलाई नींव बनकर इस बडी बला का मुक़ाबिला करने की ज़रूरत है।
क़ादियानी जो अपने आपको अहमदी मुसलमान कहते हैं और मुसलमानों को बताते हैं कि हमारा कलिमा, नमाज़, कुरआन वही है जो दूसरे मुसलमानों का है, मगर वे अपने असल इरादों को दिलों में छिपाए रखते हैं। उनके नज़दीक कलम-ए-तय्यब के अर्थ में यह बात शामिल है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के साथ मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी साहब को भी खुदा का नबी व रसूल स्वीकार किया जाए। उन्होंने मुसलमानों के सर्वमान्य अक़ीदा-खत्मे नुबूवत (नुबूवत का समापन) की बुनियादों पर कुल्हाड़ी चलाकर इस्लाम की मज़बूत इमारत को ध्वस्त कने की नापाक कोशिश की। वे चाहते हैं कि जनाब नबी करीम (सल्ल.) का पवित्र नाम तो बाक़ी रहे ओर मुसलमान आप पर भी उसी तरह ईमान रखें जिस तरह पहले के नबी हज़रत इब्राहीम (अलै.) हज़रत मूसा (अलै.) ओर हज़रत ईसा (अलै.) पर रखते हैं, लेकिन उनके लिए पूर्ण आदर्श-चरित्र मिर्ज़ा गुलाम अहमद क़ादियानी हों और वे सारी मुहब्बतें, अक़ीदतें (श्रद्धाएँ), वफादारियाँ और जाँनिसारियाँ जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के साथ खास हैं वह मिर्ज़ा गुलाम अहमद साहब से संबद्ध हो जाएँ और मुहम्मद (सल्ल.) की नुबूवत व रिसालत की मज़बूत इमारत ध्वस्त होकर रह जाए।
क़ादियानियत एक स्थाई धर्म और क़ादियानी एक अलग सम्प्रदाय है, जिनका इस्लाम से कोई संबंध नहीं। हर समझदार व्यक्ति इस बात से सहमत होगा कि समाज में हर किसी व्यक्ति या गिरोह को यह अधिकार प्राप्त है कि जिस धर्म को चाहे वह अनाए और जहाँ तक संभव हो उसके प्रचार-प्रसार के लिए काम करे, लेकिन किसी ऐसे गिरोह को जो स्वयं को मुसलमान कहे हरगिज़ इजाज़त नहीं दी जा सकती कि अपनी बातों और कामों के द्वारा इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों को स्वीकार नहीं करते तो बेहतर है कि वह इस्लाम ले या कोई नया धर्म बना लें। जो व्यक्ति अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को आखिरी नबी स्वीकार नहीं करता तो हमें इस बात से कोई गरज़ नहीं कि वह एक छोड दस नबियों की नुबूवत पर ईमान रखे। हम मुसलमानों को इससे क्या वास्ता।
जिस प्रकार कोई भी मुसलमान मसजिदे नबवी (मदीना स्थित) के ध्वस्त किए जाने को बर्दाश्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार यह बात उसके ईमान के बिलकुल खि़लाफ है कि वह यह बरदाश्त कर ले कि उसके सामने इस्लाम का नाम लेकर इस्लाम की जडें काटने की कोशिश की जाए और इस्लाम के मज़बूत क़िला ‘ख़तमे नुबूवत के अक़ीदे’ को ध्वस्त करके उसकी जगह नई इमारत तामीर करने का दुस्सःहस किया जाए।
‘‘ऐ अल्लाह! हमें सही मानों में हक़ को हक़ समझने की तौफ़ीक़ दे और हमें बातिल को बातिल समझने की तौफीक़ दे और उससे बचने की ताक़त दे।’’
Can Ahmadis go to Hajj?
Are Ahmadis Sunni or Shia?
What are the beliefs of Ahmadiyya?
What does the name Ahmadi mean?
Who is Mirza?
Mirza Ghulam Ahmad was born on 13 February 1835 in Qadian, Punjab, the surviving child of twins born to an affluent Mughal family. He was born in the Sikh Empire under Maharaja Ranjit Singh.
Quran Shareef Hindi क़ुरआन शरीफ हिन्दी तर्जुमा और लिपि अरबी मूलग्रंथ के साथ