इस्लाम इन हिन्दी: 11/1/09 - 12/1/09

पुस्‍तक ''जिहाद या फ़साद'-jihad--aur-quran--sawalon-ke-jawab

(हिन्‍दू स्‍कालर हरिद्वार निवासी डा. अनूप गौड़ की पुस्‍तक “क्या हिन्दुत्व का सूर्य डूब जाएगा...”
जो “विश्व संवाद केन्द्र” लखनऊ से प्रकाशित का सूक्ष्म जवाब)

लेखक:- डा. मौलवी मुहम्‍मद असलम क़ासमी



दो शब्‍द
यह दुनिया स्थिर नहीं हैं, हर मनुष्य के भूतकालिक जीवन के संबंध में तो यह कहा जा सकता है कि वह उसका था, परन्तु भविष्य के एक क्षण का भरोसा नहीं, किसी को नहीं मालूम कि कब वह परलोक सिधार जाए एवं उसकी आत्मा मिट्टी के इस शरीर को त्याग दें।
यह आत्मा इस शरीर को त्यागकर कहाँ जाती है? आधुनिक विज्ञान भी इस संबंध में कुछ कहने से लाचार दिखाई पड़ता है। मरने के बाद क्या होगा? इसके बारे में केवल धर्म ही हमारा मार्गदर्शन करता है। करीब-करीब सभी बडे़ धर्मों का मानना है कि मरने के बाद हर मनुष्य की आत्मा को ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत होकर अपने द्वारा किए गए हर प्रकार के कार्यों का हिसाब चुकाना है। इस संबंध में इस्लामिक सिद्वांत यह है कि हर आत्मा ईश्वर की अमानत है वह जब चाहता है उसे वापस ले लेता है। अतः मरने के बाद हर मनुष्य की आत्मा देव-दूतों के कब्जें मे होती है। जहाँ वह उसे एक अलग दुनिया में ले जाते है एवं उसके अच्छे व बुरे कर्मो के अनुसार उसे फल या दण्ड दिया जाता है।
ईश्वर की अदालत में हर मनुष्य के द्वारा किए गए मामूली से मामूली कार्यों को भी सामने ला दिया जाता है। इसी पर प्रकाश डालते हुए, क़ुरआन में एक स्थान पर कहा गया है कि जब हर मनुष्य द्वारा किया गया, छोटा व बडा कार्य ईश्वरीय अदालत में उसके सामने लाया जाएगा तो वह पुकार उठेगा कि -
“हायरे! यह कैसा रिकार्ड है जिसने हर छोटा बडा कार्य सामने ला दिया है।” .. क़ुरआन .... सूरह कहफ, आयत 49
अच्‍छे और बुरे की समीक्षा के बाद हर मनुष्य के लिए केवल दो ही स्थान होंगे, स्वर्ग या नरक, जहाँ उसे सदैव रहना है।
जब हम मरने के बाद के जीवन पर नज़र डालते है तो हमें वर्तमान की जिन्दगी अति दुर्बल, बेहक़ीक़त, इंतिहाई मामूली और बहुत छोटी नज़र आने लगती है। परन्तु इस मामूली जीवन काल में जब मानव जगत धर्म के नाम पर अधर्मीय कार्य करने में लिप्त हो जाए, वही धर्म जो इस दुनिया को बहुत बौना और दुर्बल दिखाता था, सांप्रदायिकता का विषय बनकर मानव जगत में नफ़रत की फ़सल उगाने लगे तो स्थिति बहुत गम्भीर हो जाती है।
परन्तु ऐसा क्यों ? क्या यह ज़रूरी है कि हम जिसे सही समझ रहे हैं केवल वही सत्य मार्ग हो, जो वास्तव में हमें सही मार्ग पर ले जाएगा? धर्म मनुष्य को सही मार्ग दिखाने के लिए है, परन्तु इस धरती पर तो अनेक धर्म हैं, किसे सही कहा जाए और किसे रद्द किया जाए, यह एक विचारणीय बिन्दु है, जब हम इस बात पर विचार करते हैं तो एक महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे दिमाग को झंझोड़ने लगता है, वह यह कि अगर इस सृष्टि का रचयिता सर्वशक्तिमान ईश्वर एक है तो उसके द्वारा दिए गए धर्म अनेक कैसे हो सकते है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम समझने में गलती कर रहे हों, सत्य मार्ग की खोज करना हर व्यक्ति का कर्तव्य है। ऐसा भी हो सकता है कि हम अपनी कमियों से कांच को हीरा समझ रहे हों या हीरे को कुछ और।
हीरे या मोती के असली, नक़ली का पता लगाना यद्यपि जौहरी का काम है, परन्तु हीरा, मोती धारक की भी कुछ ज़िम्मेदारी बनती है अन्यथा उसे उस समय पछताना पड़ेगा जब उसका मूल्य प्राप्त करने का समय आएगा।
जब चमकते सोने को गन्दे कपडे़ में लपेटकर फेंक दिया जाए तो हर देखने वाला उसे गन्दा कपड़ा समझकर छोड़ देगा, परन्तु इससे सोने की कीमत में कोई कमी नहीं आती।
कुछ इसी प्रकार का प्रदर्शन वर्तमान में इस्लाम धर्म के संबंध में उन व्यक्तियों की ओर से देखा जा सकता है जो उसकी संसार भर में बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत हैं।
इस्लाम धर्म दुनिया के बड़े धर्मों में से एक है और सारी दुनिया में अधिक तेजी से फैलने वाला धर्म भी, परन्तु वर्तमान में इस्लाम धर्म एवं उसके पैग़म्बर के ऊपर बडे़-बडे़ आरोप लगाए गए, इस प्रकार के आरोप प्रतिदिन समाचार पत्रों में भी देखने को मिलते रहते हैं। साथ ही बाक़ायदा तौर पर इस विषय की पुस्तकें भी लिखी जाती हैं। ऐसी ही एक पुस्तक “क्या हिन्दुत्व का सूर्य डूब जाएगा...” के अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ। यह पुस्तक “विश्व संवाद केन्द्र” लखनऊ के सहयोग से जागृति प्रकाशन हरिद्वार द्वारा प्रकाशित की गई हैं, एवं उसके लेखक एक सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रवादी, अखिल भारतीय संस्था से जुडे़ व्यक्ति हैं। इस पुस्तिका में इस्लाम धर्म से जोड़कर जो बातें कही गयी हैं।
वे सब उसी प्रकार की हैं।
झूठ को अगर हेरा-फेरी से सच जैसा दिखाकर पेश किया जाए, तो कभी-कभी वह अच्छे ख़ासे व्यक्ति को भी सोचने पर मजबूर कर देता है कि जो कुछ उसके सामने प्रस्तुत किया गया, क्या वह सच तो नहीं? परन्तु जब कोई सीधे तौर पर डिटाई के साथ झूठ को सच कहकर प्रस्तुत करे, तो सोचने वाला दिमाग़ एवं धड़कने वाला दिल व्याकुल हो उठता है। इस प्रकार की बातों ने हर निष्पक्ष मनुष्य की भांति मेरे मन को भी झंझोड़ डाला, अतः मैंने सत्य को सामने लाने के लिए कलम का सहारा लेना उचित समझा।
मैं जानता हूँ कि मैं एक मामूली व्यक्ति हूँ एवं मेरे द्वारा किया गया यह कार्य “नक्क़ारख़ाने में तूती की आवाज़” बनकर भूल-भुलैया की दुनिया में गुम भी हो सकता है। लेकिन एक शायर के बक़ौल-
कोई सुने न सुने इनक़लाब की आवाज़।
पुकारने की हदों तक तो हम पुकार आए।।
मेरा प्रयास रहा है कि कोई ऐसी बात क़लम से न निकले जो किसी की धार्मिक या सामाजिक भावनाओं को ठेस पहुँचाए।
मुझे आशा ही नहीं अपितु यक़ीन है कि इस पुस्तिका में आपको ऐसी कोई बात नहीं मिलेगी, फिर भी अगर अन्जाने में किसी बात से आपकी भावना को ठेस लगे तो मैं पूर्वतः ही क्षमायाची हूँ।
किताब के अन्त में दो लेख जो कहीं न कहीं इसी विषय से सम्बन्ध रखते हैं हिन्दी मासिक ”कान्ति“ देहली के जनवरी एवं फरवरी 2008 के अंकों से नकल करके लिखे गये हैं।
इस पुस्तिका को प्रस्तुत करने में जिन मित्रों ने किसी भी प्रकार का सहयोग दिया हैं। मैं उनको धन्यवाद करता हूँ। विशेष रूप से डा. मौ. अख़लाक़, मास्टर अब्दुल मलिक, बाबू शफीक़ अहमद, भाई सतीश चन्द गुप्ता, कारी सलीम अख़्तर, भाई मौ. इरफान एवं धीरज सिंह का आभारी हूँ जिन्होंने कम्पोज़िंग एवं प्रूफ रीडिंग आदि में मुझे अपना अमूल्य सहयोग देकर पुस्तिका को अतिशीघ्र प्रकाशित करने में मेरी मदद की।
धन्यवाद!
डा. मुहम्मद असलम क़ासमी
मिल्लत उर्दू एकेडमी मौहल्‍ला सोत, रूड़की (हरिद्वार)

हरिद्वार निवासी डा. अनूप गौड़ के द्वारा लिखित पुस्तिका ”क्या हिन्दुत्व का सूर्य डूब जाएगा” प्रकाशक “जागृति प्रकाशन हरिद्वार, उत्तरांचल” के अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ। जैसा कि उक्त पुस्तिका के नाम से ही प्रतीत होता है कि लेखक हिन्दुत्व के संबंध में चिन्तनशील हैं, उन्हें भय है कि कहीं हिन्दुत्व का सूर्य डूब न जाए। अतः उन्होंने हिन्दू भाइयों को मुसलमानों से चेताते हुए आग्रह किया है कि-
‘‘हिन्दुओं को एक बार मुसलमानों के साथ युद्ध करना ही पड़ेगा और इसके लिए हिन्दुओं को अपनी ओर से तैयारी कर लेनी चाहिए।’’ पृष्ठ 75
प्रश्न यह है कि डा. गौड़ को मुसलमानों के प्रति इतना गुस्सा क्यों है कि वह हिन्दुओं को उनसे लड़ मरने की सलाह दे रहे हैं। डा. गौड़ की उक्त पुस्तिका को पढ़कर यह कहना उचित लगता है कि इस्लाम धर्म के संबंध से उसमें लिखी बातों को अगर सत्य मान लिया जाए, तो हर बुद्धिमान व्यक्ति को उतना ही गुस्सा आना चाहिए, जितना उक्त लेख से प्रकट हो रहा है परन्तु इसे क्या कहा जाए कि जिन बातों को सत्य जानकर उक्त लेखक नाराज़ हैं, वह निश्चित रूप से असत्य हैं, निराधार हैं, एवं सरासर आरोप हैं। लेखक महोदय स्वयं इतिहास को पढ़ें तो यह बात उनके सामने आएगी कि सच्चाई क्या है? उक्त पुस्तिका में इस्लाम एवं मुसलमानों पर अनेक बेबुनियाद इल्ज़ाम लगाए गए हैं। उनमें से कुछ पर सूक्ष्म टिप्पणी आपके सामने प्रस्तुत है। उदाहरण के तौर पर डा. गौड़ लिखते हैं।
‘‘इस्लाम का मानना है कि नारी में जीवन नहीं होता है अतः वह वस्तु है, भोगने योग्य है।’’ .......पृष्ठ 32
तौबा-तौबा! इतना बड़ा इल्ज़ाम उस धर्म के ऊपर जिसने चैदह सौ साल पहले के उस समय में जब लड़की के पैदा होने पर मातम होता था, जब नारी को पुरूष की सम्पत्ति माना जाता था, जब उसे पैदा होते ही ज़िन्दा ज़मीन में गाड़ देने का रिवाज आम था। वह स्वयं अपने नाम से कोई सम्पत्ति नहीं ख़रीद सकती थी, (ख़्याल रहे कि ब्रिटेन में नारी को यह अधिकार 1817 में प्राप्त हुआ। ) और हाँ उस समय में जब महिला को अपने पति की चिता के साथ ज़िन्दा जल जाना पड़ता था, जब एक नारी का हाथ किसी के भी हाथ में पकड़ाकर उसे चाहे अनचाहे पुरूष की पत्नी बना देने का अधिकार केवल पुरूष को था। उस समय इस्लाम ने उसे सर उठा कर जीने का अधिकार दिया। किसी पुरूष के साथ उसके विवाह में उस की रज़ामन्दी को शर्त ही नहीं रखा बल्कि यह आदेश भी दिया कि विवाह के समय भी लड़की से पूछा जाए।, यही नही बल्कि यह भी आदेश किया कि विवाह के समय एक पर्याप्त धन पुरूष महिला को दे जिसे “महर” कहा जाता है, जिस पर केवल महिला का अधिकार है। उसे सम्पत्ति रखने-बेचने खरीदने का पूरा अधिकार दिया। माता-पिता एवं पति की सम्पत्ति में उसका निश्चित हिस्सा निर्धारित किया, जब कि भारत में यह अधिकार नारी को 2006 में दिया गया है। इस्लाम में जहाँ जहाँ भी पुरूष व महिला की बात आई है, वहाँ पुरूष की तुलना में महिला को अधिक आदर एवं सम्मान दिया गया। कुरआन की यह आयत देखें -
‘‘और हमने मनुष्य को अपने माता-पिता के साथ अच्छा बरताव करने की नसीहत की, उसकी माँ ने कठिनाइयाँ झेल कर उसे पेट में रखा एवं कठिनाइयाँ झेल कर ही उसे जन्मा एवं उसके गर्भ और दूध छुडाने में 2 साल लगे।’’ सूरह लुकमान आयत 14
और कुरआन में स्पष्ट रूप सें पुरूषों और महिलाओं को एक-दूसरे के प्रति समान अधिकार का वर्णन करते हुए कहा गया है - ''और महिलाओं को भी मारूफ़ तरीके़ पर वही अधिकार प्राप्त है जैसे पुरूषों के महिलाओं पर हैं।'' सूरह बकर आयत नं0 228
सूरह बकर आयत नं. 228
जिस धर्म ने नारी को यह सम्मान दिया है उस पर इतना बड़ा इल्ज़ाम लगाना कि वह नारी को निर्जीव मानता है, कितना बड़ा अन्याय है?
मान्य “डा. अनूप गौड़” अगर यह पुष्टि भी कर देते कि उन्होंने उक्त राय किन बुनियादों पर क़ायम की है तो अच्छा होता।
डा. गौड़ अपनी इसी पुस्तक में लिखते हैं
‘‘मुहम्मद सल्ल. ने स्वयं अपने जीवन काल में 82 युद्ध किए इन युद्धों में से कई युद्धों का उन्होंने स्वयं नेतृत्व किया था ......इसी लिए जेहाद अर्थात ख़ूनी आन्दोलन का इस्लाम में सर्वाधिक महत्व है।’’ पेज 33
प्रिय डा. अनूप गौड साहब आपने बिल्कुल गलत समझा है। मुहम्मद सल्ल. ने कोई युद्ध नही किया, केवल आप समझने में गलती कर रहे हैं। वह कैसे? आइए समझें।
निश्चित रूप से आपने पढ़ा होगा कि जब मुहम्मद सल्‍ल. ने अरब के मक्का नगर में इस्लाम धर्म का प्रचार आरम्भ किया तो मक्का नगर के बडे़-बडे़ सरदार उनके शत्रु हो गए। उन्होंने मुहम्मद सल्ल. को एवं जो भी उनका अनुयाई हो जाता था उसको भाँति-भाँति की यातनाएं देनी आरम्भ कर दी। तीन वर्ष तक तो मुहम्मद सल्‍ल. एवं उनके अनुयाइयों का हर प्रकार से बहिष्कार भी किए रखा, जब मुहम्मद साहब एवं उनके अनुयाइयों को दी जाने वाली यातनाएं, उनकी बर्दाशत से बाहर हो गयीं तो मुहम्मद सा. सल्ल. ने अपने साथियों को मक्का छोड़कर किसी अन्य स्थान पर चले जाने की राय दी। फलस्वरूप उनके करीब सवा सौ अनुयाई अलग-अलग समय में मक्का छोड़कर “ऐथोपिया” चले गए। इसे ही इस्लामी इतिहास में “हिजरत” कहा जाता है, परन्तु जब मक्के वालों ने देखा कि प्रतिदिन लोग मुहम्मद सल्ल. की शिक्षाओं से
प्रभावित होकर इस्लाम धर्म स्वीकार कर रहे हैं तो उन्होंने सुनियोजित तरीक़े से मुहम्मद साहब को जान से मारने का निश्चय किया, एवं रात्रि में उनको पकड़ने के लिए उनके घर को चारों ओर से घेर लिया, तो मुहम्मद सा. सल्ल. ने भी मक्का छोड़कर मदीना चले जाने का निश्चय किया एवं शत्रुओं की निगाहों से बचते हुए रात के अन्धेरे में अपने घर से निकलकर अपने एक अनुयाई को साथ लेकर मक्का छोड़ मदीना आ गए। हिजरत की इसी घटना से इस्लामी सन् ‘‘हिजरी’’ का आरम्भ हुआ। ख़्याल रहे कि मक्के से मदीने की दूरी 433 कि.मी. है। परन्तु जब मक्के वालों ने देखा कि मुहम्मद सा. सल्ल. मदीने में अमन चैन के साथ इस्लाम धर्म का प्रचार प्रसार कर रहे हैं एवं दिन प्रतिदिन उनके अनुयाइयों की संख्या बढ़ रही है, तो वह आग बगूला हो गए एवं हथियार बन्द लाव लश्कर लेकर मदीने पर आक्रमण करने के लिए निकल पडे़। मुहम्मद सल्ल. ने अपने साथियों के साथ मदीने से बाहर उनका रास्ता रोक लिया, इस समय मुसलमानों की संख्या 313 थी, जिनके पास बहुत कम मात्रा में हथियार एवं सवारी थी। जबकि शत्रु हर पहलू से दोगुनी से अधिक शक्ति रखता था। यहाँ पर घमासान युद्ध हुआ एवं शत्रु सेना के सत्तर व्यक्ति मारे गए।
अब प्रश्न यह है कि मुहम्मद सा. सल्ल. अपना घर बार एवं रिश्तेदारों को छोड़, चार सौ कि.मी. से भी अधिक दूरी पर स्थित मदीना नगर में जाकर रहने लगे थे, परन्तु शत्रु को यह बात भी पसन्द न आयी, एवं वह एक शक्तिशाली फौज लेकर इतनी दूरी पर भी आक्रमण करने के लिए चढ़ आया, तो ऐसी स्थिति में मुहम्मद सा. सल्ल. एवं उनके साथियों ने जो कुछ किया उसे युद्ध कहेंगे या आत्मरक्षा का प्रयास, यह फैसला आपके हाथ है - यहीं पर यह पुष्टि करना भी बेहतर होगा कि जिहाद शब्द का मूल अर्थ भी प्रयास
करना ही है, युद्ध करना बिल्कुल नहीं है जबकि ऐसी कुछ विशेष परिस्थितियां भी आती हैं, जहाँ युद्ध भी करना पड़ता है एवं युद्ध करना ही धर्म हो जाता है। क्या श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन को युद्ध करने पर प्रेरित करते हुए यह उपदेश नहीं दिए थे कि, इस समय युद्ध करना ही धर्म है, युद्ध नहीं करोगे तो अधर्म हो जाएगा। जबकि वह अपना अधिकार छोडने को भी तैयार थे।
और दुनिया में कौन सा समाज ऐसा है जो अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए युद्ध करने की अनुमति नहीं देता। स्वयं डा. अनूप गौड़ जी लिखते है-
”हिन्दू इतिहास भी महापुरूषों का इतिहास रहा है। इसमें अधर्म के विरूद्व धर्म की लड़ाई लड़ी जाती थी। ........... स्वयं हिन्दू गौरव को पुनः जागृत करने का सर्वोच्च माध्यम है धर्मयुद्ध, अधर्म के विरूद्ध धर्मयुद्ध करने की परिपाटी बनी रहनी चाहिए।”पेज 35 - 36
लेखक के उक्त विचारों पर कोई टिप्पणी न करते हुए केवल यह कहना प्रयाप्त है कि इसे ही कहते है, ”उलटा चोर कोतवाल को डाँटे“
डा. अनूप गौड़ ने लिखा है -
“मुहम्मद सा. सल्ल. ने स्वयं अपने जीवन काल में 82 युद्ध किए” ।”पेज 33
डा. सा. अगर दस बीस का हवाला भी अंकित कर देते तो हमारे ज्ञान भण्डार में भी वृद्धि हो जाती, क्योंकि उक्त जैसी आत्म रक्षक कार्यवाई को भी अगर वह युद्ध मानते हैं तो भी मुहम्मद सा. सल्ल. के पूरे जीवन काल के इतिहास में इस प्रकार की, बल्कि इससे भी बढ़कर केवल आत्म रक्षक कार्यवाइयों की अधिक से अधिक संख्या तीन हैं। आपकी भाषा में अगर इस प्रकार के आत्मरक्षा के प्रयास, युद्ध हैं, तो उक्त तीन युद्धों के अतिरिक्त शेष दो घटनाएं और हैं परन्तु वे भी केवल आत्मरक्षा के अन्तिम प्रयास थे। वह कैसे? आइए
देखते है। उक्त लड़ाई में जैसा कि बताया गया कि मक्के वालों को अधिक हानि का सामना करना पड़ा था। अतः उसका बदला लेने के लिए वह अगले वर्ष पहले से भी अधिक तैयारी के साथ एवं बड़ी सेना लेकर मदीने पर आक्रमण के लिए निकल पड़े। मुहम्मद सा. सल्ल. को जब इस की सूचना प्राप्त हुई तो उन्होंने अपने साथियों से इस संबंध में परामर्श किया, कि, नगर से बाहर निकलकर आक्रमणकारियों का रास्ता रोका जाए, या नगर में रहकर आत्मरक्षा की जाए,अधिकांश साथियों की राय पर यह निर्णय लिया गया कि नगर से बाहर ही आक्रमण करने वालों का रास्ता रोक लिया जाए। इतिहास में यह बात बहुत स्पष्ट रूप से लिखी गई है कि इस समय पर स्वयं मुहम्मद सल्ल. की राय यह थी कि नगर के भीतर रहकर ही आत्मरक्षा के उपाय किए जाएं, परन्तु अधिकांश व्यक्तियों की सलाह का पालन करते हुए मदीने से करीब डेढ़ कि.मी. बाहर आकर मुहम्मद सा. सल्ल. ने अपने साथियों के साथ मक्के वालों का रास्ता रोक लिया। इस समय भी मक्के वालों से घमासान युद्ध हुआ जिसे इतिहास में “ओहद” की लडाई के नाम से जाना जाता है। इस के आरम्भ में मुसलमानों का पलड़ा भारी रहा। परन्तु अन्तिम चरण में उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा।
ख़्याल रहे कि मक्के वाले चार सौ कि.मी. की लम्बी यात्रा करके मदीने पर आक्रमण करने आए थे और मुहम्मद सा. सल्ल. ने केवल आत्म रक्षा के बेहतर उपाय के तौर पर नगर से बाहर निकलकर उनका रास्ता रोका था। फलस्वरूप युद्ध हुआ, और युद्ध न होता तो क्या आप यह चाहते हैं कि मुहम्मद सल्ल. एवं उनके साथियों को, बावजूद इस के कि वे अपना घरबार छोड़ कर बहुत दूर जा बसे हैं, परन्तु मुख़ालिफ़ लोग हैं कि वहाँ भी चैन से नहीं रहने देते और बार-बार आक्रमण करते हैं, तो क्या ऐसे समय में हाथ पर हाथ रखे घर में पड़ा रहना चाहिए था ?
यह मुहम्मद सल्ल. के जीवन काल का दूसरा युद्ध है, जिसका आपने नेतृत्व किया। आइए अब शेष बचे तीसरे युद्ध पर भी एक नज़र डालें, जिसका इतिहास पढ़कर आपको लगेगा कि वह पहली दोनों घटनाओं से भी अधिक केवल आत्म रक्षा का इंतिहाई और आख़ीरी दर्जे का प्रयास था।
जैसा कि लिखा गया है कि “ओहद” की लड़ाई के अन्तिम चरण में मुसलमानों को हानि उठानी पड़ी थी। अतः इस स्थिति ने मक्के वालों के हौसले बुलन्द कर दिए एवं वह मुहम्मद सल्ल. और उनके साथियों को जड़ से मिटाने के लिए एक बडे़ आक्रमण की तैयारी में लग गए उन्होंने आस-पास के कबीलों एवं सरदारों की सहायता भी प्राप्त की, एवं दो वर्ष की भारी भरकम तैयारी के बाद विभिन्न कबीलों के दस हज़ार सैनानियों की एक विशाल सेना लेकर मदीने पर आक्रमण के लिए चल दिए, मुहम्मद सल्ल. को यह सूचना प्राप्त हुई तो साथियों से परामर्श के उपरान्त यह निर्णय लिया गया कि क्योंकि मदीना शहर तीन ओर से ऊँचे, पहाडों एवं घने बागों से घिरा है और एक दिशा केवल उत्तर की दिशा से ही आक्रमण हो सकता है। अतः इस दिशा में शहर के बाहर एक लम्बी खाई खोद ली जाए। जिसे फाँदकर कोई आसानी से शहर में प्रवेश न कर सके। अतः एक लम्बी और गहरी खाई खोदी गई जिसे खोदने में मुहम्मद सल्ल. स्वयं सम्मिलित हुए। मक्के वालांे की सेना जब यहाँ पहुँची तो उसे मदीने में प्रवेश करने का मार्ग न मिला। फलस्वरूप उसने मदीने से बाहर खाई के पार पड़ाव डाल दिया और मदीनेवासियों पर आक्रमण करने के लिए मदीने में प्रवेश का मार्ग खोजने लगे। दूसरी ओर खाई के तट पर उसकी देख-रेख के लिए मुहम्मद सल्ल. स्वयं अपने साथियों के साथ उपस्थित रहे। मक्के वालों की सेना के एक सरदार ने दिलेरी दिखाते हुए अपना घोड़ा खाई में डालकर आक्रमण करना चाहा परन्तु मुसलमानों के हाथों मारा गया, इसके अतिरिक्त इस पूरी घटना में कोई विशेष झड़प नही हुई न ही किसी पक्ष की विशेष हानि हुई। परिणाम यह हुआ कि प्राकृतिक स्थिति मुसलमानों के हक़ मे थी, क्योंकि वह अपने शहर में थे जबकि शत्रु की सेना अपने शहर एवं घर से बहुत दूर जंगल में पड़ाव डाले हुए थी। दूसरी ओर मौसम, बारिश का था एवं अरब की तेज व तुन्द हवाओं ने स्थिति मक्के वालों के लिए काफी खराब कर दी थी। अंततः मक्के वालों को मदीने का घेराव तोडकर खाली हाथ मक्के लौट जाना पड़ा। इतिहास में इसे “गज़वा-ए-ख़न्दक” के नाम से जाना जाता हैं, क्योंकि ख़न्दक खाई को ही कहते है। यह मुहम्मद सल्ल. के जीवन काल की तीसरी घटना थी, क्या इसे आप युद्ध का नाम देंगे या आत्मरक्षा का अथक प्रयास? निर्णय आपको करना है।
मुनासिब मालूम पड़ता हैं कि मुहम्मद सल्ल. के जीवन काल की उन सभी घटनाओं का वर्णन कर दिया जाए, जिनमें किसी भी प्रकार विपक्ष से आपका सामना हुआ हो, ताकि डा0 गौड़ के द्वारा उन पर बयासी युद्ध करने के आरोप का सत्य सामने आ सके।
हिजरत के छठे साल मुहम्मद सल्ल. ने स्वयं को ख़्वाब में मक्के में स्थित काबे की परिक्रमा(उमरह) करते हुए देखा तो आप अपनी इस इच्छा को पूरा करने के लिए अपने साथियों के साथ मक्के की ओर चल दिए, मक्के वालों को जब इस की सूचना प्राप्त हुई तो, उन्होंन मक्के से बाहर निकलकर आपका रास्ता रोक लिया। विगत तीन-तीन बार के मदीने पर किए गए हमलों में पराजय का मुँह देखने के कारण यद्यपि मक्के वालों के हौसले टूट चुके थे एवं इस समय उनको अन्य कबीलों की सहायता भी प्राप्त न थी, दूसरी ओर मुहम्मद सल्ल. के साथ प्राणों की आहुति देने को तत्पर रहने वाले डेढ़ हजार
सुसज्जित साथी सैनानियों का साथ प्राप्त था। अगर वह चाहते तो शक्ति के बल पर मक्के में प्रवेश कर सकते थे परन्तु उन्होंने ऐसा न करते हुए मक्के वालों को कहलवा भेजा कि, मैं युद्ध का कोई इरादा नहीं रखता। मैं तो केवल “उमरह” अदा करने आया हूँ एवं “उमरह” करने के बाद में अपने साथियों सहित मदीने लौट जाऊँगा। परन्तु मक्केवालांे ने उन्हें एवं उनके साथियों को मक्के में प्रवेश की अनुमति न दी। अंततः कुछ बिचैलियों के माध्यम से वह अपनी ओर से अधिकाधिक अनुचित एवं दबावटी शर्तों को प्रस्तुत करते हुए उन्हें मुसलमानों के द्वारा मान लेने की स्थिति में केवल इस बात पर सहमत हुए कि वे इस समय तो खाली हाथ वापस जाएं परन्तु अगले वर्ष आकर “उमरह” कर लें। मुहम्मद सल्ल. ने इसी उपलब्धि के बदले उनके हर प्रकार के उचित-अनुचित प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हुए संधि कर ली, केवल अपने लिए इस संधि में एक गारंटी और चाही, वह यह कि मक्के वाले दस वर्षों तक मुसलमानों के ऊपर कोई आक्रमण न करें।
इस संधि को इतिहास में “सुलह हुदैबिया” के नाम से जाना जाता है। आइए देखते हैं कि इस में क्या-क्या तय हुआ था।
(1) मुसलमान इस वर्ष खाली वापस जाएं। अगले वर्ष आकर उमरह करें।
(2) उन्हें मक्के में तीन दिन से अधिक रूकने की अनुमति नहीं होगी।
(3) मक्के में जो मुहम्मद सा0 के अनुयाई हैं उन में से किसी को साथ न ले जा सकेंगे।
(4) अगर मक्के वालों में से कोई व्यक्ति इस्लाम धर्म स्वीकार करके मदीने चला जाए तो उसे मक्के वालों के हवाले करना होगा, जबकि अगर कोई मुसलमान मक्का वापस आ गया तो मक्के वाले उसे वापस न करेंगे।
अगर किसी घटना में इस हद तक दबावटी प्रतिबन्धों के साथ बिना किसी प्रकार की लडाई, झगड़े के संधि कर ली जाए तो क्या आप उसे भी युद्ध कहेंगे? यह निर्णय लेना आपके हाथ है।
इस सन्धि के बाद मुहम्मद सल्ल. मक्केवालों की ओर से संतोष हो गया तो उन्होंने एकान्तीय हृदय से विश्व भर के बडे़-बडे़ राजा महाराजाओं को पत्र लिखकर उन्हे इस्लाम धर्म की दावत दी। जिनमें उस समय के दो बडे साम्राज्यों किसरा (ईरान) एवं कैसर (रोम) आदि को पत्र लिखे एवं अपने प्रतिनिधि मंडल भेजकर उन्हे इस्लाम धर्म स्वीकार करने का संदेश दिया, परन्तु अभी दो ही वर्ष हुए थे कि मक्के वालों ने सन्धि को तोड़ दिया। अतः सन् आठ हिजरी में मुहम्मद सल्ल. अपने अधिकतर अनुयाइयों को साथ लेकर मक्का पहुंचें एवं शहर से बाहर पड़ाव डाल दिया। एक रात्रि का विश्राम करने के बाद अगले दिन मुहम्मद सल्ल. ने अपने दस हजार अनुयाइयों के साथ बिना किसी रूकावट के मक्के में प्रवेश किया।
निःसन्देह आप चौंक गए होंगे कि ऐसी स्थिति में जब मक्के वालों ने मुहम्मद सल्ल. को जान से मार डालने के लिए उनके घर का घेराव कर लिया था, जब इन्हीं मक्के वालों ने उन्हें एवं उनके साथियों को दो-दो बार अपना प्यारा घर बार छोड़ने पर मजबूर किया था एवं यही मक्के वाले थे जिन्होंने चार सौ कि.मी. से भी अधिक दूर मदीने में जाकर पनाह लेने वाले मुहम्मद सल्ल. एवं उनके अनुयाइयों पर तीन-तीन भयानक आक्रमण किए थे।
अब जबकि अपने दस हजार अनुयाइयों के साथ मुहम्मद सा0 ने मक्के में प्रवेश करके अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया ऐसे समय में मुहम्मद सल्ल. ने मक्के वालों के साथ क्या व्यवहार किया होगा? मगर चैंकिये मत, किसी ने भी किसी पर हाथ नहीं उठाया बल्कि सार्वजनिक क्षमा का एलान कर दिया गया एवं घोषणा की गयी कि जो अपने घर का द्वार बन्द कर लेगा उसको शरण होगी, जो काबा क्षेत्र में चला जाएगा उसको भी शरण होगी, यहाँ तक कि “अबूसुफ़ियान” जिन्होंने अधिकांश युद्धों में शत्रु सेना का नेतृत्व किया था यह घोषणा की गई कि जो उनके मकान में प्रवेश कर लेगा उसे भी शरण होगी।
क्या विश्व का इतिहास कोई एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है, जिसमें शत्रु सेना के कमान्डर को यह सम्मान दिया गया हो कि जो उसके घर में घुस जाए उसे कुछ नहीं कहा जाएगा। इस घटना को इतिहास में “फ़तह मक्का” के नाम से जाना जाता है।
मक्का फतह हो गया तो मक्के की पूर्वी दिशा में रहने वाले ‘हवाज़िन’ एवं ‘सक़ीफ़’ नामक दो क़बीले व्याकुल हो उठे एवं युद्ध करने को तैयार हो गए, उन्होनें मुसलमानों पर तीरंदाज़ी शुरू कर दी। मुहम्मद सल्ल. भी अपने अनुयाइयों के साथ उनका मुकाबला करने को तैयार थे मुसलमानों को सामने डटा देख यह कबीले मैदान छोड़कर भाग गए एवं ”ताइफ़“ नगर में जा छिपे, मुहम्मद सा0सल्ल0 ने आगे बढ़कर ”ताइफ़“ का घेराव कर लिया परन्तु वह यहाँ से निकलकर ‘अवतास’ की गुफाओं में जा छिपे तो मुहम्मद सल्ल. घेराव तोड़कर मदीने वापस आ गए। इस घटना को इतिहास में “हुनैन” के नाम से जाना जाता है।
मुहम्मद सल्ल. के पूरे जीवन काल में इस प्रकार की सभी घटनाओं में से केवल तीन का वर्णन शेष रह गया है। इन घटनाओं को इतिहास में “गज़वा-ए-तबूक”, “खैबर” और “मौता” के नाम से जाना जाता है। इन घटनाओं का वर्णन अलग से करने का कारण यह है कि इन में स्वयं मुहम्मद सल्‍ल. अपनी ओर से अपने अनुयाइयों की सेना लेकर मदीने से निकले थे या आपने सेना भेजी थी।

तबूकः---
पहली घटना जो “सफर-ए-तबूक” के नाम से प्रसिद्ध है वह सन नौ हिजरी की है।
हिजरत के नौवें वर्ष यह सूचना मिली कि रोम का सम्राट अरब पर भारी आक्रमण की तैयारी कर रहा हैं और उसने इस के लिए अपनी सेना को एडवांस वेतन का भुगतान भी कर दिया है। सीरिया से आने वाले कुछ व्यापारियों ने भी इस सूचना की पुष्टि कर दी, तो मुहम्मद सल्ल. ने अरब क्षेत्र के तट पर ही इस आक्रमण को रोकने का निर्णय लिया, एवं एक विशाल सेना लेकर तबूक नामक स्थान पर जा पहुँचे तथा वहाँ बीस दिन तक ठहरे रहे, रोम का सम्राट मुसलमानों की मुस्तैदी देखकर घबरा गया और उसने आक्रमण करने का अपना ख़्याल त्याग दिया। अतः बिना किसी युद्ध के मुहम्मद सल्ल. अपने साथियों के साथ मदीने वापस आ गए।

ख़ैबरः-
सन् छः हिजरी में मक्के वालों के साथ संधि होने पर उनकी ओर से चैन मिला तो मदीने के आस-पास रहने वाले यहूदी विभिन्न प्रकार की बाधाएँ उत्पन्न करने लगे। मदीने के उत्तर में “ख़ैबर” नाम की एक बस्ती थी, जहाँ पर यहूदी आबाद थे। वह यहां से मुसलमानों के ख़िलाफ़ तरह-तरह की साजिशें, जोड़, तोड़ एवं शरारतें करते रहते थे। उनकी शरारातों से छुटकारा पाने के लिए सन् 7 हिजरी में मुहम्मद सल्ल. अपने सोलह सौ अनुयाइयों को साथ लेकर “खैबर” पहुँचे। यहूदियों ने यह देखा तो “ख़ैबर” के किले का दरवाजा बन्द कर लिया मुहम्मद सा0 सल0 के एक अनुयाई हज़रत अली ने आगे बढ़कर दरवाज़ा उखाड़ फेंका, यहूदियों से छुट-पुट झड़प भी हुई जिसमें उनका एक सरदार ”मुरहिब” हज़रत अली के हाथों मारा गया। अंततः यहूदी अपनी पराजय को स्वीकार करते हुए “खैबर” को छोड़कर जाने लगे। मुसलमानांे ने, न तो उनका पीछा किया एवं न ही उन्हें जाने से रोका, अपितु जितना भी साज़-ओ-सामान वह ले जा सकते थे। उन्हें ले जाने दिया।
उक्त प्रकार की घटनाओं को सामने रखकर ही डा0 अनूप गौड़ ने अपनी पुस्तिका में लिखा है-
”मदीने में से यहूदियों का सर्वनाश या पूरी तरह उनको देश से निकाल बाहर करने का कार्य स्वयं मुहमम्द सा. सल्ल. ने किया।” पृष्ठ - 33
वास्तविकता यह है कि यहूदियों को किसी ने निकाला नहीं था, अपितु अपने लिए स्थिति अनुकूल न समझते हुए वे पहले मदीने से निकलकर ख़ैबर में एकत्र हुए एवं फिर ख़ैबर को भी छोड़कर चले गए। इस को समझने के लिए आप को यह जानना होगा कि अरब के निवासियों का जीवन कबीलाई था, एवं वह भिन्न-भिन्न कबीलों में बटे हुए थे, जो आवश्यकतानुसार एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाते थे। यही कारण है कि इन कबीलांे पर किसी की हुकूमत नहीं चलती थी। बल्कि उनका सरदार ही उनका राजा या हाकिम होता था। अतः एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाने का उनके यहाँ कोई महत्तव नहीं था।

मौताः----
जैसा कि ऊपर लिखा गया है कि मक्के वालों से संधि हो जाने के उपरान्त मुहम्मद सा. सल्ल. ने विश्वभर के राजा महाराजाओं को पत्र लिखे थे, ऐसा ही एक पत्र लेकर सीरिया के राजा के पास उनके एक साथी “हज़रत हारिस बिन उमेर” गए थे। सीरिया के राजा ने क्रोध में आकर “हज़रत हारिस” का वध कर दिया। किसी दूत का वध कर देना अन्तर्राष्ट्रीय नियमों का खुला उल्लंघन था, अतः उस को दण्ड देने के लिए मुहम्मद सा. सल्ल. ने एक सेना सीरिया भेजी, इस में तीन हजार सैनानी थे एवं सेनापति हज़रत जै़द बिन हारिस को बनाया गया था। स्वयं मुहम्मद सा. सल्ल. इसमें सम्मिलित न हुए थे, सीरिया के राजा ने रोम के महाराजा की सहायता से एक लाख की सेना को रणक्षेत्र में उतारा। मौता नामक स्थान पर दोनों सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुसलमान फौज के लगातार तीन सेनापति वीरगति को प्राप्त हुए। उसके बाद “ख़ालिद बिन वलीद” को सेनापति बनाया गया, उन्होंने शत्रु की सेना पर आक्रमण कर ”रोम” की सेना को पराजित कर दिया, अंततः ”सीरिया” एवं ”रोम” की संयुक्त सेना मैदान छोड़कर भाग गई और मुसलमान वापस मदीने आ गए।
हमने मुहम्मद सा. सल्ल. के कुल जीवन काल की उन सभी घटनाओं का वर्णन कर दिया हैं, जिनको लेकर डा. अनूप गौड़ ने मुहम्मद सा. सल्ल. के ऊपर युद्ध करने का आरोप लगाया है, और “इस्लाम धर्म” पर आरोप लगया है कि, उसकी उपज ख़ून की टपकती धारा पर हुई है। (पेज 67)
युद्ध करने का इल्ज़ाम लगाते हुए वह यहाँ तक लिख गए हैं कि -
“मुहम्मद सल्ल. ने स्वयं अपने जीवन में 82 युद्ध किए हैं।”पृष्ठ - 33
उक्त सभी घटनाओं को हम संयुक्त रूप से आपके सामने रखते हैं ताकि यह बात स्पष्ट हो सके कि मुहम्मद सा. सल्ल. ने कितने एवं किस प्रकार के युद्ध किए हैं
1.बद्र
कबः हिजरत के दूसरे वर्ष मक्के वालों का मदीने पर पहला आक्रमण
कहाँ: मदीने से बाहर बद्र नामक स्थान
परिणामः मक्के वालों के सत्तर लोग युद्ध में मारे गए। एवं चौदह मुसलमान शहीद हुए।

2. ओहद
कबः हिजरत के तीसरे वर्ष मक्के वालों का मदीने पर दूसरा आक्रमण
कहाँ: मदीने के पास ओहद नामक पहाड़ी के नीचे
परिणामः कई मुसलमान शहीद हुए

3. खन्दक
कबः हिजरत के चौथे साल मक्के वालों का मदीने पर तीसरा आक्रमण
कहाँ: मदीने के द्वार पर खाई खोदी गई
परिणामः शत्रु की फौज खाई पार न कर सकी अतः खोदी गई कोई युद्ध नहीं हुआ।

4. सुलह हुदैबिया
कबः हिजरत के छठे साल मु. सल्‍ल. उमरा करने हेतु मक्के में प्रवेश करना मक्के वालो ने मक्के से बाहर रोक दिया
कहाँ: मक्के से बहार “हुदैबिया'' नामक स्थान पर
परिणामः कोई युद्ध नही हुआ एवं दोनों पक्षों में संधि हो गई।

5. फ़तह मक्‍काः
कबः हिजरत के आठवे साल जब मक्के वालों ने संधि को तोड़ दिया।
कहाँ: मक्का
परिणामः कोई युद्ध नहीं हुआ न ही जान व माल की कोई हानि हुई।

6. ख़ैबर
कबः हिजरत सातवां साल
कहाँ: मदीने के पास की खैबर नामक बस्ती में
परिणामः बहुत मामूली झड़प हुई जिसमें एक यहूदी मारा गया

7. मौता
कबः हिजरत सातवां साल
कहाँ: जार्डन का पश्चिमी तट
परिणामः घमासान युद्ध हुआ घमासान युद्ध हुआ कई मुस्लिम सिपाही शहीद हुए

8. हुनैन
कबः हिजरत का नौवाँ साल
कहाँ: मक्के के पूर्वी ओर से मुसलमानों पर तीरंदाजी
परिणामः मुस्लमानों को सामने डटा देख शत्रु मैदान छोड़ कर भाग गया

9. तबूक
कबः हिजरत का आठवाँ साल
कहाँ: अरब का उत्तरी तट कोई युद्ध नहीं हुआ।

सन् दस हिजरी में मुहम्मद सा. सल्ल. ने “हज“ अदा किया एवं “हज“ करने के बाद आप केवल दो महीने इक्कीस दिन के बाद इस संसार से परलोक सिधार गए। अतः आपके पूरे जीवन काल में उक्त वर्णित घटनाओं के अतिरिक्त कोई एक भी ऐसी घटना नही हुई जिसमें किसी प्रकार की कहा सुनी भी हुई हो। आइए अब यह भी
देखें कि उक्त नौ घटनाओं मे से युद्ध कितने है।
जैसा कि ज्ञात है कि “गज़वा-ए-खंदक”, “सुलह, हुदैबिया” “तबूक एवं फ़तह मक्का” में तनिक भी युद्ध नहीं हुआ। और ख़ैबर व हुनैन में मामूली व इस प्रकार की झड़प हुई कि उसे युद्ध नहीं कहा जा सकता। अतः निश्चित रूप से यह स्पष्ट हो जाता है कि मुहम्मद सल्ल. के पूरे जीवन काल में युद्ध की केवल तीन घटनाएँ हुई, इनमें आपकी ओर से युद्ध आरम्भ नही किया गया, बल्कि आत्मरक्षा करने हेतु मजबूरन आपको युद्व करना पड़ा। अतः यह कह देना कि स्वयं मुहम्मद सल्ल. ने अपने जीवनकाल में 82 युद्ध किए तथ्यों के ख़िलाफ़ और सरासर झूठ है।
मुहम्मद साहब के समय में जो तीन युद्ध हुए उनमें “जंग-ए-बदर” और मौता इन दोनों में जान व माल की अधिक हानि हुई परंतु किसी में भी 100 से अधिक व्यक्ति नहीं मारे गए, और धन की कोई ऐसी हानि नहीं हुई जो किसी राष्ट्र या कौम/कबीले को प्रभावित कर सके, जहाँ तक समय की बात है अगर उक्त प्रकार के सभी युद्धों में लगे समय को जोड़ लिया जाए तो उसकी कुल अवधि दो दिन से भी कम होती है।
इसका आंकलन अगर हिन्दू धर्म युद्धों में हुई जान व माल व समय की हानि से करें तो बहुत विपरित आंकड़े प्राप्त होते हैं क्योंकि उनमें हुई जान व माल की हानि से संबंधित कोई संख्या करोड़ों से कम नहीं, महाभारत के अनुसार इस लड़ाई में एक अरब छियासठ करोड़ व्यक्ति मारे गये थे ।
“गीता हक़ीक़त के आइने में”पृ.24, लेखक वी.आर.नारला, प्रकाशित यूनीवर्सल पीस फाउन्डेशन, देहली
वह तीन घटनाएँ जिन में युद्ध की स्थिति उत्त्पन्न हुई वह ”जंग-ए-बद्र“, ”जंग-ए-ओहद“, और ”जंग-ए-मौता“ हैं।
पहली दो घटनाएँ उस समय की हैं जब मुहम्मद सल्ल. के मक्का छोड़कर मदीना आ जाने के उपरांत मक्केवालों ने भारी सेना द्वारा मदीने पर चढ़ाई कर दी। ऐसी स्थिति में जब शत्रु आपको नष्ट कर देने के तत्पर हो और बावजूद इस के कि आप उस से बचकर बहुत दूर जाकर रहने लगें, परन्तु वह फिर भी आपका पीछा न छोड़े और विशाल सेना लेकर आपको एवं आपके साथियों को मार डालने के लिए वहीं चढ़ आए। ऐसे समय मे दो प्रकार की स्थितियों का ही सामना होता है। या तो आप हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाएं और शत्रुओं के द्वारा गाजर, मूली की तरह काट दिए जाएं और सदैव के लिए नष्ट कर दिए जाएं। या यह है कि स्वयं की रक्षा के लिए हर सम्भव प्रयास किए जाएं।
इस संसार में कौन सा राष्ट्र या समाज ऐसा है जो उक्त जैसी स्थिति में आत्म रक्षा के लिए हर सम्भव प्रयास करने या आवश्यकता पड़ने पर हथियार उठाने की अनुमति नहीं देता ?
जहाँ तक पहली स्थिति की बात है इस्लाम में अपने ऊपर हमले की स्थिति में आत्मरक्षा के उपायों को अपनाए बिना हाथ पर हाथ रख कर मारा जाना आत्मदाह की भाँति माना जाता है, जिसकी अनुमति नहीं है। ऐसी स्थिति में स्पष्ट निर्देश हैं -
1. हे, नबी इन्कार करने वालों और हृदय में द्वेष रखने वालों के साथ जिहाद करो एवं उनके संग कठोरता से पेश आओ उनका ठिकाना नरक है और वह बहुत बुरा ठिकाना है। सूरह तौबह आयत 73

2. क्या तुम नही लड़ोंगे ऐसे लोगों से जिन्होंने संधि को तोड़ा है और मुहम्मद सल्‍ल. को निकाल बाहर करने के तत्पर रहे। क्या तुम उनसे डरते हो, अगर तुम ईमान रखते हो तो ईश्वर इस बात के ज्य़ादा योग्य है कि तुम उससे डरो। लड़ो उनसे ईश्वर तुम्हारे हाथों द्वारा उनको दण्ड दिलवाएगा। उन्हे ज़लील करेगा। एवं तुम्हारी सहायता करेगा। सूरह तौबह आयत 13-14
3. हे नबी ईमान वालों को युद्ध करने के लिए आमादा करो यदि तुम में से बीस भी डटे रहने वाले होंगे तो वह 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे। यदि सौ ऐसे होंगे तो वह 1000 पर भारी रहेंगे। सूरह अनफाल, आयत 65

कुरआन की आयतों पर प्रश्न चिन्ह
डा. अनूप गौड़ उक्त आयतों एवं ऐसी ही कुछ अन्य आयतों का वर्णन करने के उपरांत लिखते है-
“इसी प्रकार की सैकड़ों “आयतें” क़ुरआन में स्पष्ट निर्देश करती है। उपरोक्त आयतों से स्पष्ट है कि इनमें ईष्र्या, द्वेष, घृणा, छल, कपट, लड़ाई, झगड़ा और हत्या करने के आदेश मिलते है।” पृष्ट - 71
परन्तु डा. गौड़ को यह कौन बतलाए कि उक्त प्रकार की आयतें बद्र और ओहद जैसी विशेष परिस्थितियों में उतरी हैं। जब मक्के वाले मुहम्मद सल्ल. और उनके अनुयाइयों को नष्ट करने के इरादे से मदीने पर चढ़ आए थे। ख़्याल रहे कि कुरआन पूरा एक समय में नहीं उतारा गया है, बल्कि आवश्यकतानुसार समय-समय पर देवदूत (हज़रत-ए-जिबरील) ईश्वर की ओर से एक आयत, दो आयतें या अधिक, जैसी भी ज़रूरत होती थी लाकर मुहम्मद सल्ल. को सुना देते थे वह सुनकर उसे याद करते एवं किसी लिखने वाले को बुलाकर उसे लिखवा लेते थे। और अपने अनुयाइयों को सुना देते थे। इस प्रकार पूरा कुरआन तेईस वर्ष में उतारा गया है।
यह थी ईश्वरवाणी (पवित्र कुरआन) के अवतरण की स्थिति। अब प्रश्न यह है कि ऐसी स्थिति में जब मुहम्मद सल्ल. अपना वतन एवं घरबार छोड़ कर मक्के से मदीने चले आए थे। परन्तु मक्के वालों ने वहाँ पर भी चढ़ाई कर दी, तो क्या ऐसे समय में उन्हे गले लगाने के उपदेश दिए जाते। यहाँ पर एक बार फिर भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उस उपदेश का वर्णन करना उचित होगा जो उन्होंने कौरवों और पाण्डवों के बीच हुए “महाभारत युद्ध” के समय अर्जुन को युद्ध पर उभारने हेतु दिया था कि इस समय युद्ध करना ही धर्म है। युद्ध नहीं करोगे तो अधर्म हो जाएगा। अतः यह मानना पड़ेगा कि ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न होती हैं, जब युद्ध करना भी अनिवार्य हो जाता है, और उस समय युद्ध करना ही धर्म का हिस्सा होता है।
उक्त में क़ुरआन की जो आयतें दी गई हैं उनकी शब्दावली से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि युद्ध करने की अनुमति देने वाली आयतें विशेष समय का विशेष उपदेश हैं। जैसा कि ज्ञात है कि बद्र एवं ओहद के युद्धों में आक्रमणकारियों की संख्या मुसलमानों से कई गुना अधिक थी, अतः उनकी ढारस बंधाते हुए कहा गया कि तुम्हारे बीस व्यक्ति भी उनके दो सौ पर भारी होंगे क्योंकि ईश्वर तुम्हारी सहायता करेगा।
नं0 2 पर अंकित आयत को देखें, संधि को किसने तोड़ा था?
एवं मुहम्मद सल्ल. को किसने घर से बाहर निकाला था? अब वह ही लड़ मरने के लिए आ चढे़ हैं, तो कुरआन की इस आयत में उन्हीं से तो लड़ने की बात की जा रही है।
युद्ध संबंधी आयतों की पृष्ठभूमि जाने बगैर ही प्रश्न चिन्ह लगा देना उचित नहीं है। केवल डा0 गौड़ की ही बात नहीं कुछ अन्य ज़िम्मेदार व्यक्तियों की ओर से भी इन आयतों पर युद्ध की प्ररेणा देने का इल्ज़ाम लगाया जाता रहा है।
80 के दशक में किसी चोपडा नामी व्यक्ति ने मुम्बई हाई कोर्ट में कु़रआन से इन आयतों को निकलवाने के लिए याचिका दायर कि थी। दिनांक 8, 9 मई 2007 को “विश्व युवा केन्द्र“ दिल्ली में आयोजित सभा को संबोधित करते हुए आर.एस.एस. के निवर्तमान सर संचालक के.सी. सुर्दशन ने इसी प्रकार की आयतों की ओर संकेत करते हुए कहा था की हिन्दू धर्मावलंबी अपनी धार्मिक पुस्तकों से विवादित मंत्रों एवं श्लोकों को निकालने के लिए तैयार हैं तो मुसलमान ऐसी आयतों को कु़रआन से क्यों नहीं निकाल सकते हैं जिनसे आतंकवाद की सीख मिलती है।
परन्तु किसी भी प्रकार यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि क़ुरआन के किसी एक अक्षर से भी छल, कपट, लड़ाई झगड़ा या किसी की बेवजह हत्या करने की सीख मिलती हो। किन्तु ऐसा भी नहीं, कि अपने ऊपर हमला होते हुए भी वह अपने अनुयाइयों को हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाने की अनुमति देता हो। विशेष परिस्थितियों में युद्ध की अनुमति दी गई है, परन्तु यह भी नसीहत है। “और सुलह करना (लडा़ई-झगड़े) से बेहतर है। ”सूरह निसा, आयत 128
और एक दुसरे स्थान पर कहा गया है - और अगर शत्रु (युद्ध के बीच) सुलह करना चाहे तो तुम सुलह कर लो और ईश्वर पर भरोसा करो, वह सबकुछ सुनता और जानता है, यहाँ तक की उनका इरादा धोखे का भी हो, (तो तुम परवाह न करो) तुम्हारे लिए ईश्वर काफी है। ससूरह अनफाल आयत नं. 61, 62सूरह अनफाल आयत नं. 61, 62
परन्तु फिर भी अगर सुलह नही हो पाती और युद्ध की ही स्थिति उत्पन्न होती है तो उसके लिए क्या क्या शर्ते हैं। उन्हे बडी़ धार्मिक पुस्तकों में देखा जा सकता है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं।
1. महिला बच्चों एवं बूढ़ों का वध न किया जाए।
2. फलदार वृक्षों को न काटा जाए खेती को न उजाड़ा जाए।
3. धर्मस्थलों में रहने वाले धार्मिक गुरूओं को न छेड़ा जाए।
4. खेती की भूमि को एवं खेती को बर्बाद न किया जाए, फल एवं छायादार वृक्ष ना काटा जाए, जानवरों को न मारा जाए, आदि।
युद्ध क्षेत्र में महिला, बच्चे या बूढ़े क्या करते है? स्पष्ट है कि वह युद्ध करने वालों की सहायता के लिए होते हैं, परन्तु जिस धर्म में युद्ध क्षेत्र में भी बच्चों बूढ़ों एवं महिलाओं का वध करना जायज़ न हो, तो क्या वह धर्म ट्रेन में यात्रा करते बेक़सूर स्त्रियों-पुरूषों बूढ़ों एवं बच्चों को बम से उड़ा देने, या मन्दिर मस्जिद में पूजा-अर्चना करने आए श्रद्धालुओं की धोख़े से हत्या कर देने की अनुमति दे सकता है? या आत्मघाती हमला करके निर्दोर्षों को मारने की अनुमति दे सकता है? ख़्याल रहे कि आत्म हत्या की स्वयं इस्लाम धर्म में कोई गुंजाइश नही है। उक्त प्रकार के जैसे कार्य करके अगर कोई उन्हें धर्म से जोड़ता है तो वह धार्मिक नहीं हो सकता अपितु वह धर्मविरोधी है। फिर क्या वजह है कि इस प्रकार की आतंकवादी घटनाओं का ज़िम्मा केवल मुसलमानों के सर डालकर उनके तार इस्लाम से जोड़ दिए जाते हैं, जब कि कुरआन में उक्त प्रकार की आतंकवादी घटनाओं को पृथ्वी पर फ़साद बरपा करने की संज्ञा दी गई हैं। एवं फसाद बरपा करने वालों को कड़ी चेतावनी देते हुए कहा गया है -
और जो लोग पृथ्वी पर फ़साद बरपा करते है। उनपर लानत है एवं उनके लिए बुरा ठिकाना (नरक) है। सूरह, रअद - 13, आयत - 24
ऐसा भी नहीं कि इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने वाले केवल मुसलमान ही हों। श्रीलंका में तमिलों की बग़ावत, भारत में नक्सलवाद एवं आसाम सहित पूर्वी प्रान्तों में घटने वाली आतंकी घटनाओं में कोई मुसलमान लिप्त नहीं है, परन्तु इन्हें कोई हिन्दू आतंकवाद नहीं कहता।
विश्व भर में विभिन्न स्थानों पर पृथकतावादी आन्दोलन चल रहे हैं इन में कुछ पृथक्तावादी मुस्लिम भी हैं। जैसा कि हमारे देश में कश्मीर की समस्या। परन्तु कश्मीर में अलगावादी संगठन मुसलमान हैं तो इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं कि उनका यह आन्दोलन इस्लामी आन्दोलन है। यह कश्मीरियों का अपना सियासी आन्दोलन हो सकता है धर्म से इसका कोई संबंध नहीं, न ही उनके द्वारा की गई आतंकी कार्यवाई को किसी प्रकार जायज़ ठहराया जा सकता है।
आजकल आत्मघाती हमलों की बड़ी चर्चा है इस प्रकार के हमले “तमिल टाइगर्स“ ने आरम्भ किए थे वर्तमान समय में इराक एवं फलस्तीन में इस प्रकार के हमले अधिक हो रहे हैं। ऐसे हमलों की इस्लाम धर्म में बिल्कुल अनुमति नहीं है। स्वयं आत्महत्या करना इस्लाम धर्म के अनुसार बहुत बड़ा अपराध एवं गुनाह है जो धर्मानुसार हराम और नाजायज़ है, तो फिर आत्महत्या करके दूसरे बेगुनाह व्यक्तियों का वध करने की कैसे अनुमति दी जा सकती है?
दुनिया में जहाँ-जहाँ पर भी पृथकतावाद के सियासी आन्दोलन में मुसलमान सम्मिलित हैं वह सियासी स्वार्थ प्राप्त करने के लिए आतंकवादी हमलों को धर्म से जोड़ते हुए उन्हें जिहाद की संज्ञा देते हैं जब कि कुरआन एंव इस्लाम धर्म की परिभाषा में यह घटनाएँ केवल फ़साद हो सकती हैं जिहाद का इनसे कोई संबंध नहीं है।

जिहाद या फ़साद
वर्तमान में जिहाद के नाम पर लोगों ने इस्लाम को जी भर के बदनाम किया है। इनमें वह मुस्लिम संगठन भी शामिल हैं जो अपने राजनितिक स्वार्थों की प्राप्ति के लिए अपनी सियासी लड़ाई को जिहाद की संज्ञा देते हैं जब कि मुस्लिम विद्वानों, धार्मिक नेताओं एवं इस्लामिक संस्थाआओं ने कभी भी इन राजनितिक गतिविधियों को न तो “जिहाद“ माना है न ही उनका समर्थन किया है, फिर भी न जाने क्यों डा0 श्री अनूप गौड़ एवं उन जैसे कुछ अन्य व्यक्ति भी “जिहाद“ के बारे में बहुत ही गलत धारणा स्थापित कर बैठे हैं। डा0 गौड़ लिखते है -
‘‘जिहाद अर्थात ख़ूनी आन्दोलन का इस्लाम में सर्वाधिक महत्व है।” पृष्ठ - 33
इसी प्रकार हिन्दी के विख्यात लेखक डा0 हृदय नारायण दीक्षित ने अपने एक लेख में लिखा था -
‘‘जिहाद एक अंतर्राष्ट्रीय धारणा है यह संसार को दो भागो में बाँटती है। एक “दारूल हरब” जहाँ “इस्लाम” का राज्य नहीं है, दूसरा “दारूल इस्लाम“ जहाँ इस्लाम का राज्य हैं। “जिहाद“ इन दोनों के बीच निरन्तर युद्ध की स्थिति है, जिसका अंत तभी होगा जब काफिरों पर मुसलमानों को पूर्ण रूपेण प्रभुत्व मिलेगा।’’ दैनिक जागरण (23-9-2001, विशेष परिशिष्ट)
हरिद्वार से प्रकाशित दैनिक बद्री विशाल 4 मई 2002 के अंक में लेखक “निरंजन वर्मा” अपने लेख “भारत पाक युद्ध” में लिखते है -
‘‘मुसलमानों की इस विषय में यह धारणा है कि येनकेन प्रकारेण मुस्लिम अधिपत्य वाले “दारूल इस्लाम“ को आगे बढ़ाकर “दारूल हरब“ अर्थात गैर मुस्लिम प्रधान क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया जाए। हिंसा, लूट-पाट और आक्रमणों द्वारा दारूल हरब इलाके को वशीभूत करने के प्रयासांे को जिहाद कहते हैं।“ (बद्री विशाल 4-5-2002) (बद्री विशाल 4-5-2002)
कहा जाता है कि मारने वाले के हाथ पकडे़ जा सकते हैं, कहने वाले की ज़ुबान नहीं। उक्त अंकित पंक्तियाँ “डा0 गौड़” ”निरंजन वर्मा“ और ”हृदय नारायण दीक्षित“ की हैं, इस्लाम का उनसे कोई संबंध नहीं अगर ये विद्वानगण यह व्याख्या भी कर देते कि उन्होंने उक्त विचार कहाँ से लिए हैं तो उस पर कुछ बात की जाती, परन्तु ऐसा नहीं है। इस्लाम धर्म में हिंसा लूटपाट एवं आक्रमण की न तो अनुमति है और न ही गैर मुस्लिम प्रधान क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने का अधिकार वाली कोई बात। दैनिक जागरण (23-9-2001, विशेष परिशिष्ट)
वास्तव में इसे ही कहते हैं कि झूठ इतना बोलो कि वह सच लगने लगे। परन्तु “दीक्षित जी”, “निरंजन वर्मा” एवं “गौड़“ जैसे गणमान्य व्यक्तियों से यह उम्मीद कैसे की जाए कि उन्होंने झूठ ही यह बातंे लिखी हैं, अगर ऐसा नहीं तो मानना होगा कि निश्चित रूप से वह किसी भी प्रकार मिसगाइडेन्स के शिकार हुए हैं।
हो सकता है कि भारत में तुर्कों एवं मुगलों के आक्रमणों से उन्होंने उक्त प्रकार की राय क़ायम कर ली हो। ख़्याल रहे कि मुगलों एवं तुर्कों के द्वारा भारत में जो आक्रमण किए गए, इस्लाम का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं था। वास्तविकता यह है कि मध्यकालीन युग के राजा, महाराजा अपने साम्राज्य के विस्तार की ख़ातिर इस प्रकार के आक्रमण करते रहते थे।
प्राचीनकाल में यूनान के महाराजा “सिकन्दर” ने पूरे मध्य एशिया एवं भारत पर आक्रमण कर उन पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था या “अशोक महान” ने अनेक क्षेत्रों पर आक्रमण करके उन्हें अपने अधीन कर लिया था, तो क्या यह कहा जाएगा कि यही उनके धर्म की शिक्षा थी? एक समय में मंगोलिया से उठने वाले मुगलों ने पूरे मध्य एशिया में उत्पात मचाया, उस समय वह मुसलमान नहीं थे। उन्होंने मुस्लिम साम्राज्य की राजधानी “बगदाद“ में खून की नदियाँ बहा दीं। यहाँ तक कि मुगल सम्राट हलाकू ने “बगदाद“ में मनुष्यों की खोपड़ियों से एक बडे़ स्तूप का निर्माण कराया। उनकी इस बर्बरता का शिकार होने वाले तो मुस्लिम थे, तो क्या उनके इस आक्रमण को उनके धर्म से जोड़ दिया जाए?
भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम मुगल शासक तैमूर लंग था परन्तु उस समय संयुक्त रूप से मुगलों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। लेकिन उनकी शिक्षा दीक्षा इस्लामिक सिद्धांतों से नहीं बल्कि मंगोली एवं चंगे़जी सिद्धांतों से हुई थी, एवं उनकी कार्यशैली उसी के अनुरूप थी। “बाबर“ जब भारत आया तो वह “मदिरा“ का सेवन करता था। जबकि “इस्लाम“ धर्म में “मदिरा“ का सेवन हराम है। अब यह निर्णय आप स्वयं करें कि क्या उक्त प्रकार के शासकों द्वारा किए गए आक्रमणों को धर्म से जोड़ा जा सकता है ?

जिहाद
“जिहाद“ के बारे में आजकल बहुत भ्रांतियाँ फैली हुई हैं। कुछ अपनों ने और कुछ गैरों ने “जिहाद“ को इस प्रकार प्रस्तुत किया है मानो वह लड़ने झगड़ने, मारने मरने का नाम है जब कि ऐसा नहीं है। “जिहाद“ अरबी भाषा का शब्द है जिसका मूल अर्थ है “प्रयास करना” “जद्दो जहद करना” और “संघर्ष” करना। ख़्याल रहे कि अरबी भाषा में युद्ध करने के लिए “क़िताल” शब्द बोला जाता है न कि जिहाद।
इस्तिलाही मायनों में “जिहाद“ शब्द अलग-अलग स्थान पर अलग मायनों में प्रयोग हुआ है, कहीं अपने नफ़्स (अन्तरात्मा या इन्द्रियों) से संघर्ष करने को “जिहाद“ कहा गया है, कहीं माँ-बाप की सेवा करने को “जिहाद“ कहां गया है, और कहीं ज़ालिम राजा के सामने हक़ बात कहने को “जिहाद“ कहा गया है, परन्तु इस्तिलाह में जिहाद अपने मूल अधिकारों की प्राप्ति के लिए हर सम्भव एवं उचित प्रयास करने को भी कहते हैं। उस में युद्ध की स्थिति केवल इसी प्रकार उत्पन्न हो सकती है जैसे मदीने में मुहम्मद साहब एवं उनके अनुयाइयों के सामने युद्ध करने के अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था, परन्तु ऐसी स्थिति में भी युद्ध की अनुमति केवल स्थापित राज्य को ही प्राप्त है, प्रजा को राज्य के मुक़ाबले हथियार उठाने की कदापि अनुमति नहीं है, चाहे राजा ज़ालिम ही क्यों न हो। विस्तार से जानने के लिये ''फिक़ह'' की बड़ी पुस्तकों का अध्ययन करें। जहाँ आपको यह बात बहुत ही स्पष्ट रूप से मिलेगी कि स्थापित राज्य के मुकाबले में उसकी प्रजा का हथियार उठाना हराम है। ऐसे ही यह भी कि अगर प्रजा में से कोई व्यक्ति अपने समाज में किसी को कोई बुराई करते देखे तो उसे केवल ज़ुबान से शान्तिपूर्ण तरीक़े से रोका जा सकता है। क़ानून को अपने हाथ में लेने या उसके विरूद्ध हथियार उठाने की अनुमति नहीं है।
प्रसिद्ध पुस्तक “फिकहुल सुन्नह” की यह इबारत देखें -
(अरबी से अनुवाद)
‘‘और तीसरी किस्म फर्ज़-ए-क़िफ़ाया की वह है जिस में राजा का होना अनिवार्य है जैसे जिहाद एवं दण्ड देना।’’ फिकहुल सुन्नह बाब 3 पृष्ठ 20फकहुल सुन्नह बाब 3 पृष्ठ 20
अतः अगर कुछ विद्रोही कोई दुर्घटना करके उसे जिहाद का नाम देते हैं, तो केवल उनके कहने से वह धार्मिक जिहाद नहीं हो जाएगा। यही कारण है कि उक्त प्रकार की कार्यवाई करने वालों को कभी भी और कहीं भी धार्मिक गुरूओं का समर्थन नहीं मिलता है।
डा0 अनूप गौड़ सहित उक्त दोनों विद्वानों ने दारूल ”इस्लाम” और ”दारूल हरब” का वर्णन करते हुए यह बात कही है कि -
‘‘मुसलमानों की इस विषय में यह धारणा है कि “दारूल इस्लाम” (मुस्लिम राज्य) को आगे बढ़ाकर “दारूल हरब” (गैर मुस्लिम प्रधान क्षेत्र) पर क़ब्ज़ा कर लिया जाए।
यह एक बेबुनियाद बात है इस में कोई वास्तविकता नहीं। ”क़ुरआन” व ”हदीस” या किसी भी इस्लामिक स्रोत में इस प्रकार की कोई बात नहीं मिलती, अगर लेखक महोदय मध्यकालीन युग में महमूद ग़ज़नवी, मौहम्मद गौरी, तुर्कों या मुगलों के आक्रमणों को देखते हुए यह बात कह रहे हैं तो यह बात समझनी चाहिए कि उनके द्वारा किए गए आक्रमण केवल राजनितिक थे, उनका इस्लाम से कोई संबंध नहीं था, न ही उक्त राजाओं ने ‘‘दारूल इस्लाम’’ या ‘‘दारूल हरब‘‘ को देखकर आक्रमण किए। क्या यह सत्य नहीं कि जब ‘‘बाबर‘‘ ने भारत पर आक्रमण किया तो दिल्ली पर ‘‘इब्राहीम“

“लोधी‘‘ एक मुसलमान राजा शासन कर रहा था। अतः ‘‘बाबर‘‘ का युद्ध ‘‘इब्राहीमलोधी‘‘ से हुआ ऐसे ही ‘‘हुमायूं‘‘ का युद्ध ‘‘शेरशाह सूरी‘‘ से हुआ और ‘‘औरंगज़ेब‘‘ का युद्ध ‘‘कुतुबशाही‘‘ खानदान से हुआ, जबकि यह सब मुसलमान थे। जहाँ तक बात है ‘‘दारूल इस्लाम‘‘ या ‘‘दारूल हरब‘‘ की यह दोनों केवल इस्लामिक इतिहास की परिभाषाएँ हैं जिनका अविष्कार मुहम्मद सल्ल. के सैकड़ों वर्ष बाद ‘‘अब्बासी साम्राज्य‘‘ में हुआ था। कु़रआन या मुहम्मद साहब से संबंधित हदीसों में उक्त दोनों शब्दों का इन मायनों में कहीं कोई वर्णन नही है।
इस सूक्ष्म टिप्पणी के बाद भी अगर ‘‘डा. अनूप‘‘ स्वयं उनके कथनानुसार अभी भी यही मानते है कि इस्लाम की उपज टपकती खून की धारा पर हुई है।(पृष्ठ 67) तो निश्चित ही उन्हें यह भी मानना होगा कि हिन्दू धर्म में भी ऐसा ही है, क्योंकि वहां भी ‘‘कौरवों‘‘ ‘‘पाण्डवों‘‘ के बीच का महायुद्ध, जिसमें एक ओर ‘‘श्री कृष्ण‘‘ भगवान एवं दूसरी ओर उनकी सेना थी। और उसमें कईं करोड़ जानें गयीं थी । मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान ‘‘श्री राम‘‘ द्वारा लंका पर आक्रमण कर युद्ध करना एवं लंका को आग लगाकर भस्म कर देना, ‘‘अशोक महान‘‘ के द्वारा किया गया, रक्तपात तथा ‘‘नन्द‘‘ और ‘‘चन्द्रगुप्त मौर्य‘‘, ‘‘पृथ्वीराज‘‘ व ‘‘जयचन्द‘‘ के बीच युद्ध आदि से तो ऐसा ही प्रतीत होता है।
डा. गौड़ दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करें। और फिर बतलाएं के किस की उपज टपकती खून की धारा पर हुई है ?

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम।
वह क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।।

डा. अनूप गौड़ लिखते है-”भारतीय तत्वज्ञान के अनुसार, धर्म एक जीवन जीने की पद्धति है। जिसका न कोई एक स्थापना करने वाला होता है, और न ही कोई अकेली पुस्तक होती है। (पृष्ठ - 3)
उक्त लेखक ने इस्लाम और ईसाई धर्म पर विचार व्यक्त करते हुए यह भी लिखा है कि:-
इस्लाम/ईसाई व अन्य धर्म उपासना पद्धति मात्र हैं। (पृष्ठ - 3)
डा0 गौड़ साहब धर्म या संस्कृति इतनी मामूली वस्तुएं नहीं है जिनकी परिभाषा मेरे या आपके निर्धारित करने से निर्धारित हो जाएगी। सारा संसार जानता है कि जिसका न कोई एक स्थापना करने वाला हो एवं न ही कोई एक धर्म पुस्तक हो, बल्कि जो ढेर सारे, ऋषियों मुनियों बहुत सारे रस्म व रिवाजों एवं अधिक तोर तरीकों से मिलकर बने, तो उसे धर्म कहेंगे या संस्कृति? और यह भी सब जानते हैं कि हर धर्म का एक अग्रणी गुरू होता है। जिसके बतलाए हुए मार्ग पर धर्म की बुनियाद उठती है, वह ही अनुयाइयों के लिए रोल माडल होता है। (ख्याल रहे के रोल माडल व्यक्ति का बनाया जा सकता है समाज को नहीं) परन्तु डा0 गौड़ के कथनानुसार यह हिन्दू धर्म की विशेषता है कि उसका कोई एक धर्म संस्थापक नहीं और न कोई एक धर्म पुस्तक। (पृष्ठ 3)
चलिए कुछ देर के लिए आपकी बात ही सही मान लेते हैं।
अब कृपया इस पर विचार कीजिए कि आपके कितने ”धर्मगुरू” और धर्मग्रन्थ ऐसे हैं जिनकी वास्तविकता ही विवादित है।
हम किसी की आस्था को आघात पहुँचाना नहीं चाहते क्योंकि हम आस्थाओं, भावनाओं के आहत होने का दर्द समझते हैं। किसी के धर्म या धर्मगुरू के संबंध से कोई ऐसी बात कहना जो उसके मानने वालों को बुरी लगे, इस्लाम धर्म इसकी अनुमति नहीं देता, देखें कुरआन सूरह ”अनआम“ आयत 108
परन्तु कहने वालों ने कहा और सारे देश व संसार ने सुना, ‘‘पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग‘‘ और भारतीय ‘‘जहाजरानी मंत्रालय‘‘ ने उच्चतम न्यायालय में विख्यात ‘‘रामसेतु ’’ विवाद पर अपने द्वारा दाखिल किए गए शपथ पत्र में कहा, कि ”राम“ और ‘‘रामायण‘‘ के अन्य किरदार काल्पनिक हैं। और जब राम काल्पनिक है तो उनके भक्त हनुमान् कहाँ से आए।
न केवल भारतीय ‘‘जहाजरानी मंत्रालय‘‘ ने कहा है, बल्कि तमिलनाडु के मुख्य मन्त्री करूणानिधि1 ने कहा तमिलनाडु के मुख्यमन्त्री करूणानिधि ने कहा है कि राम का अस्तित्व इतना बडा ही झूठ है जितना हिमालय के अस्तित्व का सच।
(दैनिक राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली एडीशन,22/09/2007)

और बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धादेव भट्टाचार्य ने कहा और उन से पहले भी बड़े-बडे़ विद्धानगण
(गाँधी जी भी राम और कृष्ण को तारीख़ी शख्सियतें नहीं मानते थे, उन्होंने अपने अखबार ‘‘हरिजन’’ दिनाँक 27 जुलाई 1937 के अंक मे इसकी पुष्टि की है।) कहते रहे हैं। परन्तु न तो हम ऐसा कहते है न ही कहने वालों का समर्थन करते हैं ।
हमारी इसमें कोई दिलचस्पी नही कि हम किसी भी धर्म गुरू या धर्मग्रन्थ की वास्तविकता पर प्रश्न चिन्ह लगाए परन्तु जो हमें स्वधर्म में लौटाना चाहते है जैसा कि ‘‘डा0 गौड़‘‘ ने आह्वान किया है, (पृष्ठ 78) उनसे यह तो पूछा जाना चाहिए कि वह कौन से धर्म में लौटाना चाहते है। क्या उसी में जिसके धर्म गुरूओं और धर्म ग्रन्थों की वास्तविकता ही संदिग्ध है?
डा0 गौड़ ने लिखा है - मुसलमानों से एक बार युद्ध करना ही पड़ेगा, पृष्ठ 75
पाठक क्षमा करें क्या मुझे डा0 गौड़ से यह कहने की अनुमति मिलेगी कि, यह चर्चा होती रही कि राम और रामायण के अन्य किरदार वास्तविक है या काल्पनिक? और एक समुदाय ने राम जी के जन्म-स्थान का भी पता कर लिया और वहाँ पर बने एक धर्मस्थल को केवल ताकत के बल पर घ्वस्त भी कर डाला और उन्हें कोई न रोक सका। डा0 गौड़ मुसलमानों के साथ इस से बड़ा और क्या युद्ध करेंगे।
और 2002 में गुजरात मे जो (Holo Caust - गोधरा रेलवे स्‍टेशन आग लगने की दुर्भाग्‍यपूर्ण घटना, गुजरात में मुसलमानों पर अत्‍याचार....) हुआ उससे बडा और कौन सा युद्ध हो सकता है, जिसमें देश-भक्ति का दावा करने वाली सियासी व समाजी संस्थाओं से जुड़े बडे़-बडे़ नेताओं ने गर्भवती महिलाओं का पेट तक चाक कर डाला, और अपने ऐसे कारनामों को कैमरे के सामने गर्व से स्वीकार भी करते रहे जिसको छोटे पर्दे पर देश के हर नागरिक ने देखा परन्तु क्या “शासन प्रशासन“ और क्या “न्यायालय“, कोई अपराधियों का बाल बाकाँ न कर सका, क्या इससे बढ़कर आज के समय में कोई अन्य प्रकार का युद्ध भी हो सकता है?
रामसेतु के मुद्दे पर राम और रामायण के अस्तित्व के संबंध में सरकारी सत्ह से शपथ-पत्र दाखिल किया गया फिर जल्दी में उसे वापस भी ले लिया गया। ज़ाहिर है कि वापसी का मतलब हंगामे से बचना था, स्थिति जो भी हो। हमारी इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि हम किसी के धर्म गुरूओं के अस्तित्व की खोजबीन करें। परन्तु जब हम यह देखते है कि खुद हिन्दू विद्वानों के बीच राम का वजूद विवादित रहा है, भारत के बहुत से अग्रणी विद्धानगण भी रामायण के किरदारों पर उक्त प्रकार की टिप्पणी कर चुके हैं इसके बावजूद देश का एक विशेष वर्ग ”जन्मभूमि“ खोज लेता है। और ताक़त के बल पर धर्मस्थलों को भी नहीं बख्शा जाता। फिर भी मुसलमानों से युद्ध करने की कसर बाक़ी रह जाती है, तो ऐसे में क़िस्सा-ए-दर्द सुनाए बगै़र कैसे रहा जा सकता है।
अजीब बात यह भी है कि दुनिया भर में कहीं भी महापुरूषों के जन्म-स्थान पर यादगार नही बनाई जाती, जिसकी वजह शायद यह हो कि जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो किसी को मालूम नहीं होता कि वह भविष्य में कोई बड़ा आदमी बनेगा इस कारण किसी के भी जन्म-स्थान का रिकार्ड नही रखा जाता, हाँ जिस स्थान पर अंतिम संस्कार होता है उसे अवश्य यादगार बनाने का रिवाज है। इसलिए भगवान राम का यादगारी मंदिर सरयू नदी पर बनाया जाना चाहिए, न कि उनके जन्म स्थान पर।
एक वर्ग का मानना है कि यह आस्था का प्रश्न है परन्तु यह भी एक बडा सवाल है कि आस्था बड़ी है या सच्चाई। एक वर्ग आस्था को न्याय और सच्चाई के ऊपर मानता है, परन्तु ऐसी आस्था जो सच्चाई या न्याय के विपरीत हो आस्था नहीं जुर्म है, जबकि इससे प्रभावित होकर हमारे देश की अदालतें फैसला तक सुना देती हैं। सितम्बर 2007 के अंतिम सप्ताह में उ0प्र0 उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने अपने एक निर्णय मंे भारतीय सरकार को मशविरा दिया है कि वह हिन्दू धर्म पुस्तक ”गीता“ को राष्ट्रीय पुस्तक घोषित करे। यह भी वास्तविकता पर आस्था का प्रभुत्व स्थापित करने का उदाहरण है। क्या उक्त न्यायधीश ”गीता” की शिक्षाओं को वर्तमान में आदर्श बनाने की अनुमति दे सकते हैं?
1.”भगवद् गीता“ छठा अध्याय श्लोक 11 में श्री कृष्ण जी योगी को योग के लिए बैठने का तरीक़ा बताते हुए कहते हंै कि योगी एकान्त के स्थान में पहले कुश (एक प्रकार की घास) बिछाए उसके ऊपर मृगादिकों का चर्म और उसके ऊपर वस्त्र विछाए
मृगादिकों का चर्म कहां से आयेगा मृग के शिकार पर तो प्रतिबन्ध है, केवल एक मृग के शिकार करने पर वर्तमान में फिल्मी अभिनेता “सलमान ख़ान“ को “न्यायालय“ सात वर्ष के कारावास की सज़ा सुना चुका है।
2. चैथे अध्याय के तेरहवें श्लोक में और अठारवें अध्याय के 41, 42, 43, 44वें श्लोक में समाज को गुणों के आधार पर चार वर्णो में विभाजित किया गया है। क्या वर्तमान में वर्ण व्यवस्था को स्वीकार किया जा सकता है? जबकि अंतर्राष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत संसार के हर मनुष्य को समान अधिकार प्राप्त हैं।
3. दूसरे अध्याय में श्री कृष्ण जी अर्जुन को युद्ध पर उभारते नज़र आते है, उन्होंने कहा है-
यदि तुम अपने धर्म के अनुसार इस संग्राम को नहीं करोगे तो अपना धर्म और बड़ाई खो बैठोगे। (श्लोक - 33)
इस श्लोक के अनुसार जिस युद्ध को लड़ने पर धर्म ही खो जाऐगा उसमें दूसरी ओर कृष्ण जी ने अपनी फौज को लड़ने के लिए खड़ा किया हुआ है। लोम-विलाम में से एक ही सत्य हो सकता है, अगर यहाँ युद्ध करना ही धर्म है तो यक़ीनन दूसरा पक्ष अधर्मी होगा, तो क्या कृष्ण जी ने दूसरे पक्ष को अपनी सेना देकर अधर्म का समर्थन नहीं किया है? यह विरोधाभास कैसा? क्या इसके होते यह नहीं कहा जाएगा कि ”गीता“ के उपदेशक ने ऐसा करके धर्म, अधर्म, सत्य, असत्य, न्याय और अन्याय दोनों का समर्थन किया है।
एक विशेष वर्ग भारत को हिन्दू स्टेट बनाने या देश में रामराज्य लाने की बात करता रहता है, परन्तु क्या यह सम्भव है, रामराज्य में वर्ण व्यवस्था का प्रभुत्व था शूद्र को बा्रह्मण के कार्य करने की अनुमति नहीं थी श्री राम ने ‘‘शम्बूक’’ शूद्र का वध केवल इस कारण कर दिया था कि उसने शूद्र होकर भी ब्राह्मण के कार्य, विद्या प्राप्त करने और जप तप करने का दुस्साहस किया था। (उत्तर कांड 89)
श्री राम के समय की एक कहानी प्रसिद्ध है कि एक बार महर्षि वाल्मीकि जी स्नान करके लौट रहे थे, उन्होंने देखा कि एक शिकारी ने क्रोच पक्षी के एक जोड़े पर तीर चला दिया, जिससे एक पक्षी मर गया, दूसरा अपने मरे हुए साथी को देखकर विलाप करने लगा, इस करूण दृश्य को देखकर वाल्मीकि जी के मुख से स्वतः ही कविता के यह बोल निकल पडे़-
मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वतीः समाः
यत्क्रौं ´चमिथुनादे कम अवधिः काम मोहितम्
इससे प्रतीत होता है कि राम के समय में शिकार की आम अनुमति थी, स्वयं ”भगवान राम” मृगादि का शिकार करते थे। परन्तु क्या वर्तमान में इन मान्यताओं को स्वीकार किया जा सकता है?
डा0 गौड़ के कथनानुसार हिन्दू एक धर्म है और अन्य धर्म उपासना मात्र। वह यह भी कहते हैं कि हिन्दू एक जीवन जीने की पद्धति है। (पेज 3) अगर हिन्दू धर्म एक जीवन जीने की पद्धति है तो कृपया बताएँ कि यह जीवन जीने की कैसी पद्धति है, जिसके अनुसार जीवन व्यतीत करना वर्तमान में न तो सम्भव है और ना ही उसके अनुसार जीवन व्यतीत करने की अनुमति दी जा सकती है।
हिन्दु धर्म की मूल शिक्षाओं के अनुरूप, “नियोग1“ (महाभारत के अधिक पात्रों का जन्म या तो नियोग प्रथा से हुआ है या स्वच्छंद व्यभिचार व बलात्कार से, सरिता मुक्ता प्रिन्ट -2, पेज 34/7,प्रकाशित बी.ई.-3 झंडेवालान, नई दिल्ली) से बच्चे पैदा करना। स्त्री के एक से अधिक पति होना जैसे की द्रोपदी के थे। समाज को चार खानों में बाँटना, चारों के लिए अलग-अलग नियम, कानून होना(हिन्दू धार्मिक फिलोसफी के अनुसार मनुष्य समाज चार खानों में विभाजित है चारों के कार्य अलग-अलग हैं उनके लिए नियम भी अलग हैं, अधिक जानकारी के लिये वेद, गीता, मनुस्मृति आदि का अध्ययन करें) शूद्रों के लिए शिक्षा प्राप्ति की अनुमति न होना यहां तक की उसे ईश्वर पूजा का अधिकर भी न हो। पति के देहान्त होने पर पत्नी का उसी की चिता के साथ जलकर “सती“ हो जाना।
क्या हिन्दू धर्म की इस प्रकार की शिक्षाओं को वर्तमान का समाज स्वीकार कर सकता है? यहाँ तक की भारत की सरकार भी जीवन जीने की इस पद्धति को स्वीकार नहीं करती। डा0 गौड़ जिन्होंने लिखा है कि
मुसलमानों का धर्मग्रन्थ कु़रआन और ईसाइयों का धर्म ग्रन्थ बाइबिल व्यापक संशोधन मांगते है। पृष्ट 4
वह उक्त प्रकार की धार्मिक शिक्षाओं का अध्ययन करें और बताएं कि व्यापक संशोधन कौन सी पुस्तकें माँग रही हैं? और प्रश्न यह भी है कि डा0 गौड अगर हमें उक्त प्रकार की शिक्षाओं पर लौटाना चाहते हैं तो पहले उस पर स्वयं तो कारबन्द हो जाएं, कम से कम भारतीय सरकार से ही उसे मान्यता दिलवाएं।
आप कह सकते हैं कि वर्तमान में हिन्दू समाज उक्त प्रकार की बातों को छोड़ चुका है, परन्तु ऐसी स्थिति में यह मानना होगा कि हिन्दू समाज अपने धर्म की मूल शिक्षाओं से भटक गया है, ऐसे में वह स्वयं अधर्मी हो गया है, तो क्या आप हमें भी स्वधर्म में लौटाकर अधर्मी बनाना चाहते हैं।
डा0 गौड़ ने लिखा है कि -
जब इस्लाम की विचारधारा का प्रचार होता है तो राष्ट्रवाद नष्ट हो जाता है, और जब राष्ट्रवाद का विकास होता है तो इस्लाम नष्ट हो जाता है। (पृष्ठ 11)
डा0 गौड़ को शायद मालूम नहीं कि भारतीय संविधान, भारतीय संहिता का नब्बे प्रतिशत हिस्सा इस्लामिक सिद्धांतों पर आधारित है या इस्लामी सिद्धांतों से मेल खाता है। इस छोटी सी पुस्तिका की तंगदामनी मुझे इसकी अनुमति नहीं देती कि इस विषय को विस्तार से प्रस्तुत किया जाए, अगर ईश्वर ने चाहा तो इस विषय पर अलग से पुस्तक लिखी जाएगी, परन्तु एक, उदाहरण प्रस्तुत है-
1. भारतीय संविधान में हर नागरिक को समान अधिकार प्राप्त है।
ये सिद्धांत सबसे पहले इस्लाम ने दुनिया के सामने रखा देखें- कुरआन सूरह इसरा आयत नं0 70, सूरह अरफात आयत नं0 189
2. कुछ दिनों पहले ही देश में यह कानून बना है कि बाप की जायदाद में पुत्रों के साथ पुत्रियों को भी हिस्सेदारी दी जाएगी।
इस्लाम चैदह सौ वर्ष पूर्व बेटी को यह अधिकार दे चुका है क़ुरआन सूरह निसा आयत 11 .... 176
3. भारतीय न्यायलय में वादी को दो गवाह पेश करने होते है, यह विचारधारा सबसे पहले इस्लाम ने पेश की थी ....देखें ... कुतुब-ए-फ़िक़ाह
4. आज विधवा की शादी को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इस्लाम चैदह सौ बर्ष से यह आवाज़ उठाता रहा है। दहेज पर सरकारें अब प्रतिबन्ध लगा रहीं हैं इस्लाम 14 सौ वर्ष पूर्व उस पर प्रतिबन्ध लगा चुका है । भूर्ण हत्या, बालिका हत्या आदि पर समाज में अब प्रतिबन्ध लगाया जा रहा है इस्लाम बहुत पहले इस सबको प्रतिबन्धित कर चुका है ।
और यह भी विचारणीय है कि जब उक्त प्रकार की राष्ट्रवादी विचारधाराओं का विकास होता तो उससे इस्लाम नष्ट नहीं होता। हाँ हिन्दुत्व अवश्य नष्ट होता है, क्योंकि उक्त प्रकार की बातें हिन्दू धर्म की मूल शिक्षाओं से टकराती हंै। समानता से वर्ण व्यवस्था नष्ट हो जाती है, जयादाद में बेटी की शिरक़त से प्राय धन को अपना धन जाता है, विधवा की शादी के प्रोत्साहन से सती प्रथा नष्ट हो जाती है।
उक्त प्रकार की बातों के बावजूद हमारा मानना है कि हिन्दू धर्मग्रन्थों में वर्णित बहुत से ऋषि, मुनि अपने समय के ईशदूत थे जिन्हें ईश्वर ने समय-समय पर धर्म की स्थापना के लिए अपने-अपने क्षेत्रों में भेजा था। ऐसे ही बहुत से धर्मग्रन्थ वास्तव में ईश्वरीय पुस्तकें थीं। हमारा ऐसा मानना अपनी ओर से नहीं, बल्कि “इस्लाम” हमें इस के लिए बाध्य करता है। पवित्र क़ुरआन की यह आयत देखें - “संसार के हर क्षेत्र में हमने अर्थात् ईश्वर ने संदेष्टा, मार्गदर्शक और पैग़म्बर भेजे हैं।“ कु़रअसूरह ”रअद“ आयत 7
और एक दूसरे स्थान पर कहा गया है - “हमने हर क्षेत्र में उसी क्षेत्र की भाषा में संदेश वाहक संदेश लेकर भेजे हैं।“ ”सूरह इब्राहीम“ आयत 4
जब ईश्वर ने हर क्षेत्र में संदेश वाहक भेजे हैं तो कोई कारण नहीं कि भारत में ईशदूत न आए हांे, यह बताने की आवश्यकता नहीं कि यहां कि मूल भाषा संस्कृत है जिसमें हिन्दू धर्म के अधिक ग्रन्थ हैं। परन्तु अब यह प्रश्न उठता है कि इन धर्म ग्रन्थों में ऐसी बातें जो मौजूदा समय में स्वीकार न की जा सकें या ऐसी बातें जो धर्म का हिस्सा न लगें, आख़िर क्यों है? इस संबंध में पवित्र कुरआन हमारा दो प्रकार से मार्ग दर्शन करता है।
1. बताया गया है कि पिछले धर्म विशेष क्षेत्र और विशेष समय के लिए थे। ऐसा हो सकता है कि कोई बात तथा नियम विशेष समय या क्षेत्र में स्वीकार्य रहा हो।
2. यह कि गत धर्मों की पुस्तकों में उसके मानने वालों ने अपने स्वार्थों के अनुसार परिवर्तन कर डाला।
इस्लाम धर्म के अतिरिक्त हर धर्म के मानने वाले स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनकी धर्म पुस्तकों में घटाने या बढ़ाने की प्रतिक्रिया चलती रही है एवं वर्तमान में भी जारी है। क़ुरआन में भी कहा गया है- “उनके लिए तबाही है जो धर्म पुस्तकों को अपने हाथों से लिखते है, और कह देते हैं कि यह ईश्वर की ओर से है मामूली स्वार्थ के लिए।“सूरह बकर आयत 79
पहले धर्मावलम्बियों ने ईश्वरीय धर्म में अपनी ओर से मिलावट कर डाली तो ईश्वर ने धर्म का अंतिम संस्करण पवित्र “कुरआन” के रूप में संसार को दिया और उसके एक-एक अक्षर की रक्षा का ज़िम्मा स्वयं लिया। क़ुरआन में कहा गया है- “हमने ही क़ुरआन का अवतरण किया और उसकी रक्षा हम स्वयं करेंगे।“ सूरह ‘‘हिज्र’ आयत नं0 9 सूरह ‘‘हिज्र’ आयत नं0 9
अर्थात् अब धर्मावलम्बियों पर भरोसा नहीं किया जायेगा कि वह गत् धर्मावलम्बियों की भांति इसमें भी अपनी मर्ज़ी से कुछ घटा या बढ़ा दें। इसलिए जो लोग पवित्र क़ुरआन में परिवर्तन किए जाने की बात करते रहते हैं। वह यक़ीन जाने कि ऐसा होना असम्भव है, क्या उनके लिए यह तर्क पर्याप्त नहीं कि सवा चैदह सौ वर्ष के उपरान्त भी कुरआन का एक-एक अक्षर अपनी उसी स्थिति में है जिस पर वह पहले दिन था।
वास्तव में डा0 गौड़ और उन जैसी विचार धारा रखने वाला हर व्यक्ति जानता है कि इस प्रकार के आह्वान से क़ुरआन में कुछ घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता परन्तु फिर भी इस प्रकार के झूठे और बेबुनियाद इल्ज़ामात की बौछार करके एक विशेष वर्ग अपने से कमज़ोर और अल्प मत वाले विशेष वर्ग को ड़रा धमक़ा कर रखना चाहता है।
विचाराधीन पुस्तक “क्या हिन्दुत्व का सूर्य डूब जाएगा” पर यक़ीन रखने वाले व्यक्ति यक़ीन जाने कि अगर हिन्दुत्व का अर्थ वह यही समझ रहे हैं जो डा0 गौड़ ने प्रस्तुत किया है, तो ऐसे ‘‘हिन्दुत्व‘ का सूर्य कभी का डूब चुका, परन्तु हम ‘‘हिन्दुत्व‘ का अर्थ यह नहीं समझते, हमारा मानना है कि ‘‘हिन्दुत्व‘‘ का अर्थ एक विशाल हृदय वाली ऐसी भारतीयता से है जिसमें सबका सम्मान हो। भारत की धरती पर जो भी आया है इस धरती ने उसे अपने दामन में जगह दी है। अनेकता में एकता इसकी पहचान है। यहाँ सारी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले ‘‘महात्मा गाँधी‘‘ जैसे व्यक्ति ने जन्म लिया। यही असल ‘‘हिन्दुत्व‘‘ है, जिसका सूर्य कभी डूबने वाला नहीं।
डा0 गौड़ हिन्दुओं को मुसलमानों से युद्ध करने की सलाह देते हैं। युद्ध की बात करने वाले “इतिहास“ से सबक लें, ‘‘हिटलर‘‘ और ‘‘मुसोलिनी‘‘ ने युद्ध की बात की, ‘‘सद्दाम‘‘ और ‘‘ओसामा बिन लादेन‘‘ ने युद्ध की बात की, आज वे सब कहां हैं? ‘‘पाकिस्तान‘‘ युद्ध की बात करता है, उन्नति की दौड़ में वह “भारत“ से कितना पीछे रह गया, साहिर लुधियानवी ने सच कहा है -

जंग ख़ुद एक मसअला है, जंग क्या मसअलों का हल देगी।
आग और ख़ून आज बख़्शेगी, भूख और एहतियाज कल देगी।।
इसलिए ऐ शरीफ इंसानों, जंग टलती रहे तो बेहतर है।
हम और आप सभी के आँगन में, शमाँ जलती रहे तो बेहतर है।।

डा0 अनूप गौड़ ने बडे़ क्रोध के साथ लिखा है -
”आज से 5000 वर्ष पहले तक सम्पूर्ण विश्व में केवल हिन्दू धर्मावलंबी रहते थे। लेकिन 2005 वर्ष पहले अस्तित्व में आए ईसाई आज एक अरब साठ करोड हो चुके हैं। लगभग 2600 वर्ष से पहले अस्तित्व में आए बौद्ध एक अरब 50 करोड़ हंै। लगभग 1400 वर्ष पूर्व अस्तित्व में आए मुस्लिम आज विश्व में लगभग एक अरब 30 करोड़ हैं।” पृष्ठ 8

डा0 गौड़ को इस बात को लेकर क्रोध है कि कभी पूरे विश्व में केवल हिन्दू धर्म था परन्तु समय-समय पर नये-नये धर्मसंस्थापक आते गए एवं हिन्दू जनसंख्या घटती गई। अच्छा होता कि डा0 गौड इस घटना को ‘‘भगवद् गीता‘‘ के निम्न श्लोक के परिप्रेक्ष्य में देखते-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
- भगवद् गीता 4-7
भगवान श्री कृष्ण जी महाराज कहते है कि -
‘‘जब-जब भी संसार में धर्म की हानि होती है और अधर्म को बढ़ावा मिलता है, तब-तब मैं संसार में धर्म की स्थापना के लिए जन्म लेता हूं।’’
भगवान श्री कृष्ण का यह उपदेश पवित्र क़ु़रआन की शिक्षा के भी अनुकूल है। इस्लामी शिक्षा के अनुसार इस संसार और विशाल ब्रह्माण्ड के रचयिता सर्वशक्तिमान ईश्वर (जिसको अलग-अलग
भाषाओं में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है) ने इस संसार में मनुष्य को पैदा किया, एवं उसकी शिक्षा दीक्षा और उसे धर्म का ज्ञान देने के लिए प्रथम मनुष्य पर अपनी वाणी का अवतरण किया, मानव जाति में वृद्धि होती गयी, तो धीरे-धीरे ईश्वरीय धर्म पर भी अन्धकार के बादल छाते गए। अतः ईश्वर ने योजनाबद्ध तरीक़े से समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रांे में उसी क्षेत्र की भाषा में धर्म को स्थापित करने के लिए उपदेश देने हेतु अपने दूत भेजे, जिन पर “देवदूत” द्वारा अपनी वाणी का अवतरण किया अथवा यों कहा जाए कि भगवान ने अवतार लिया।
“हदीस“ में कहा गया है कि जब-जब संसार में धर्म की हानि हुई हैं तो ईश्वर ने धर्म की स्थापना हेतु संसार के विभिन्न भागांे मंे स्वयं उसी क्षेत्र की भाषा में धार्मिक उपदेश देने के लिए “ईशदूत“ भेजे हैं। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में जन्म लेने वाले ईशदूतांे की संख्या हदीस में एक लाख चैबीस हजार बतायी गई है। जैसा कि गुजर चुका कि पवित्र कु़रआन में कहा गया है -
”हर राष्ट्र में हमने उसी राष्ट्र की भाषा में संदेश देने के लिए ईशदूत भेजे हैं।”
“और हर राष्ट्र में ईशदूत भेजे गए है।” कु़रआन सूरह इब्राहीम आयत 4, सूरह रअद, आयत 7
और जैसा कि हदीस में इस प्रकार के ईशदूतों की संख्या एक लाख चैबीस हजार बताई गई है। स्पष्ट है इतनी बड़ी संख्या का क़ुरआन में वर्णन नहीं किया जा सकता था। अतः स्पष्ट रूप से पवित्र कुरआन में केवल छब्बीस “ईशदूतों“ अथवा “भगवान“ के अवतारों का वर्णन मिलता है उनमें से भी केवल आठ या दस ही ऐसे हैं जिन के क्षेत्रों का भी पता चलता है। विशेष बात यह है कि उन आठ या दस अवतारों में से दो का संबंध स्पष्ट रूप में भारत से बताया गया
है। एक ‘‘आदम‘‘ और दूसरे ‘‘नूह‘‘। पवित्र कुरआन यद्यपि अरबी भाषा में हैं परन्तु यह अद्भुत् संयोग है कि उक्त दोनांे अवतारांे का नाम मुलतः अरबी भाषा में न होकर भारतीय भाषाओं से संबंधित हैं। ‘‘आदम‘‘ आदि से बना है, जिसका मूल अर्थ होता है “पहला” क्यांेकि ‘‘आदम‘‘ ही इस संसार में भेजे जाने वाले पहले मनुष्य भी थे जिनसे शेष मानव जगत की उत्पत्ति हुई, एवं वह प्रथम ईशदूत भी थे इसी कारण उनका नाम भी यहाँ की आदि कालीन भाषा में आदिमः या ‘‘आदम‘‘ रखा गया। यह भी उल्लेखनीय है कि ‘‘आदम‘‘ व ‘‘नूह‘‘ शब्दों की मूल धातु अरबी भाषा में नहीं मिलती बल्कि यह माना गया है कि यह शब्द किसी अन्य भाषा से लिए गए है। इसलामी सिद्धान्त के अनुसार भारत को यह गौरव प्राप्त है कि पहला मनुष्य जो पहला ईश दूत प्रथम अवतार (नबी) भी था वह भारत में हुआ और उसी से सारे मानव जगत की उतपत्ति हुई ।
दूसरे ईशदूत जिनका संबंध भारत से बताया गया है। उनका नाम ”नूह” आया है। उनके बारे में बड़े ही विस्तृत रूप से क़ुरआन में एक घटना का वर्णन है। वह यह कि जब उन्होंने उपदेश देना आरम्भ किया, एवं लोगों को सही धर्म का मार्ग दिखाना चाहा, तो अधिकांश लोगों ने उनकी बात न मानी, एवं उनके शत्रु हो गए, तब ईश्वर ने उनको एक नाविका बनाने को कहा, अतः उन्होने एक बड़ी नाव तैयार की एवं ईश्वर के आदेशानुसार अपने अनुयाइयों सहित नाव पर चढ़ गए, तब ईश्वर ने दुष्टों का नरसंहार करने के लिए इस सारे संसार को जलमग्न कर दिया। अतः संसार के सारे लोग डूब गए, केवल “नूह” एवं उनके कुछ अनुयाई जो उनके साथ नाविका पर सवार थे, वह ही बच पाए। बाद में मानव जगत भी उन्हीं से फैला। इसी प्रकार की एक घटना का वर्णन हमें कुछ भारतीय धार्मिक पुस्तकों में भी मिलता है। जो जल महाप्रलय वाले “मनु महाराज” के नाम से है। इससे पता चलता है कि कु़रआन में “नूह” के नाम से जिस पैग़म्बर का वर्णन किया गया है। वह जल महाप्रलय वाले मनु महाराज का ही वर्णन है।
उक्त विस्तृत भूमिका से केवल यह सिद्ध करना है, कि उक्त में अंकित भगवान “कृष्ण जी” के उपदेश एवं पवित्र कु़रआन की शिक्षाआंे के अनुसार जब-जब धर्म की हानि हुई है, तो धर्म की स्थापना के लिए समय-समय पर ईशदूत आते रहे हैं, या यह कहा जाए कि भगवान अतवार लेते रहे हैं। अतः डा0 गौड़ ने 2005 वर्ष पूर्व ईसा मसीह के आने, 2600 वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध के आने एंव 1400 वर्ष पूर्व मुहम्मद सा0 के आने को लेकर जो चिन्ता व्यक्त की है वह व्यर्थ है। यह श्रृंखला तो ईश्वरीय नियमानुसार चली आ रही है जिसके अनुसार “आदम” आए फिर नूह आए, “भगवान राम” और “श्री कृष्ण” आए “इब्राहीम” आए, मूसा आए, “ईसा मसीह” आए और अंत में हज़रत मुहम्मद सा0 सल्ल0 आए।
मुहम्मद साहब अंतिम थे, अब कोई नया अवतार (संदेष्टा) या “ईशदूत” नहीं आयेगा, कुरआन और हदीस में यह बात जगह-जगह कही गई है।
यहां एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि मु0 साहब के बाद भी दुनिया में अनेक धर्म स्थापित होते रहे हंै, विशेष रूप से भारत में गत् दिनों कई धार्मिक तहरीकें उठीं जिनसे जुड़े लोग अपने गुरू को न केवल ईश्वर का अवतार बल्कि कुछ तो अंतिम अवतार ही मानते हैं।
इस प्रश्न के उत्तर में दो बातें कही जा सकती हैं, विशेष रूप से भारत में जो धार्मिक आंदोलन खडे़ हुए है उनकी स्थापना करने वालों ने स्वयं कभी यह दावा नहीं किया कि वे ईशदूत या ईश्वर के अवतार हैं, बल्कि उनके मानने वालों ने उन्हें मरणोपरांत ईश्वर का अवतार मान लिया। गुरूनानक जी के इतिहास में लिखा है कि वह कबीर की भांति कोई नया धर्म चलाना नहीं चाहते थे। अतः जो बात गुरू ही न कहे वह केवल अनुयाइयों के मान लेने से धर्म का हिस्सा कैसे हो सकती है?
दूसरी बात मैं अपने हिन्दू भाइयों से यह कहना चाहता हूँ कि आपके पास एक पैमाना है, एक स्केल है, और वह है आपकी धर्म पुस्तकें वेद, पुराण और गीता आदि।
आप देखें कि वह किसको प्रमाणित करते हैं। और अंतिम ऋषि या अंतिम अवतार के रूप में किसे दर्शाते हैं, अगले पृष्ठों में हम इस विषय पर थोड़े विस्तार से चर्चा करेंगे।
परंतु इससे पहले यह जानना बेहतर होगा कि हिन्दू धर्म ग्रंथों के बारे में क़ु़रआन क्या कहता है।
जैसा कि बताया गया कि इस्लाम धर्मानुसार इस पृथ्वी पर एक लाख चैबीस हजार पैग़म्बर आए हैं, परन्तु क़ुरआन शरीफ़ में केवल आठ या दस का ही विस्तारित वर्णन किया गया है। इस प्रकार यह भी बताया गया है कि उक्त एक लाख चैबीस हज़ार पैग़म्बरों में से केवल कुछ ही को अलग से धर्म ग्रन्थ दिए गए हैं। शेष ने अपने से पहले वाले ग्रन्थों के अनुसार ही धर्म की शिक्षा दी है। इस प्रकार क़ुरआन में सभी धर्म ग्रंथों का तो वर्णन नहीं, परन्तु पाँच प्रकार के धर्म ग्रन्थों का विस्तारित वर्णन किया गया हैं। एक स्वयं “क़ुरआन” जिसका अवतरण अरब क्षेत्र में मुहम्मद सा0 सल्ल0 पर हुआ, दूसरे “इंजील” (बाइबिल) जो येरोशेलम (फिलिस्तीन) में “ईसा मसीह” पर उतारी गई, तीसरे “तौरैत” जो मिस्र में प्रकट होने वाले पैग़म्बर मूसा को दी गई, “चैथे ज़बूर” जो हज़रत” “दाऊद” को मिली। पाचवे “सुहुफ-ए-ऊला“ ससूरह आला आयत नं 18या “ज़ुबुर-ए-अव्वलीन”सूरह शुअरा 196
“सुहुफ़-ए-ऊला“
अरबी भाषा के दो शब्दों सुहुफ़+ऊला से मिलकर बना है, “सुहुफ़” बहुवचन है सहीफे का, और “सहीफ़े” का मूल अर्थ है, ग्रंथ “ऊला” शब्द अव्वल का स्त्रीवाचक है, जिसका मूल अर्थ है “पहले” या “आदि”। अरबी व्याकरण के अनुसार निर्जीव बहुवचन का विशेषण “स्त्री वाचक” होता है। अतः “सुहुफ-ए-ऊला” का मूल अर्थ हुआ “आदि ग्रंथ”। यही अर्थ “जुबुर-ए-अव्वलीन” का है। यह अद्भुत संयोग है कि हिन्दू धर्म पुस्तकों (वेदों) को ”आदि ग्रंथ“ कहा जाता है। इससे पता चलता है कि क़ुरआन में जिसे “सुहुफ-ए-ऊला” या “ज़ुबुर-ए-अव्वलीन” कहा गया है वह भारतीय धर्म ग्रन्थों (वेदों) का ही वर्णन है, जो संख्या में चार हैं। इसी कारण कु़रआन मंे भी उनके लिए सार्वजनिक बहुवचन शब्द का प्रयोग है। इसके अतिरिक्त वेद एवं क़ुरआन की शिक्षाओं में जो समानता पाई जाती है उससे भी इस दावे की पुष्टि होती है।
विस्तार से जानने के लिए देखें - सैयद अब्दुल्ला तारिक़ की पुस्तक:
‘‘वेद और कुरआन कितने कितने पास‘‘ प्रकाशित :- रोशनी पब्लिकेशन हाऊस, बाज़ार नसरूल्लाह ख़ां - रामपुर (नवाबान)
“क़ुरआन” में कहा गया है कि -
”इसमें अर्थात “कुरआन” में जो कुछ है वह कोई नई बात नहीं, वह केवल वही है, जो “आदि” ग्रंथो में था एवं जो इब्राहीम और मूसा के ग्रंथों में था।”
सूरह आला पारा 30, आयत नं0 19
”वह (क़ुरआन) उन ग्रन्थों की पुष्टि करता है एवं उन्हें प्रमाणित करता है जो पहले से आई हुई हैं, एवं वह (ईश्वर) इससे पहले मनुष्यों के मार्गदर्शन के लिए ”तौरैत“ एवं इंजील का भी अवतरण कर चुका है।“सूरह आल-ए-इमरान आयत नं0 -3
वेद एवं क़ुरआन की शिक्षाओं में अत्यंत समानताओं को देखते हुए कुछ भारतीय विद्वानों ने कहा है कि (नऊज़ु़बिल्लाह) “क़ुरआन” में जो कुछ है, वह वेदों से चुराया हुआ है, परन्तु चैदह सौ पच्चीस वर्ष पूर्व जब मुहम्मद सा0 सल्ल0 पर क़ुरआन का अवतरण हुआ, उस समय भारत से अरब की दूरी, आवागवन के साधनों का अभाव, अरबी एवं संस्कृत भाषाओं के बीच का अन्तर, वह भी उस समय में जब अनुवाद के पर्याप्त साधन न थे एवं मुहम्मद साहब या उनके किसी साथी का किसी भी समय में भारत से किसी प्रकार का संबंध न होना उक्त आरोप के खण्डन के लिए पर्याप्त है।
परन्तु फिर भी यह प्रश्न अपनी जगह क़ायम है, कि फिर दोनों की शिक्षाओं में यह समानता किस प्रकार है।
उसका उत्तर हमें स्वयं कु़रआन से ही मिलता है वह यही कि क़ुरआन केवल पहली आसमानी ईश्वरीय धर्म पुस्तकों की पुष्टि करता है। अतः जब हम यह मान लेते हैं, कि दोनों का स्रोत एक है तो हमें उक्त प्रश्न का स्वयं ही उत्तर मिल जाता है। क़ुरआन में है- “ईश्वर ने तुम्हारे लिए वही धर्म स्थापित किया है जो “नूह“ को दिया था, “इब्राहिम“ को “मूसा“ और “ईसा“ को दिया था।“ सूरह शूरा आयत 13
मुहम्मद साहब सल्ल0 ने भी कहा है कि - ”मैं कोई नया धर्म लेकर नही आया। अपितु वह ही धर्म लाया हूँ, जो आदम लाए थे, नूह लाए थे इब्राहीम लाए थे एवं मूसा व ईसा मसीह लाये थे“। - हदीस
मुहम्मद साहब की इस हदीस में पाँच ईशदूतों, अथवा यह कहें कि पाँच अवतारों का वर्णन है, इनमें प्रथम के दो ऐसे, है जिनका संबंध भारत की धरती से बताया गया है।
ऐसे ही कु़रआन में अनेक स्थानों पर इस्लाम धर्म को “दीन-ए-क़य्यिम” कहा गया है। दीन का मूल अर्थ होता है धर्म एवं “क़य्यिम” का मूल अर्थ है जो सदैव से क़ायम हो, अतीत से चला आ रहा हो, एवं कभी उस की श्रृंखला टूटी न हो, संस्कृत में इसी के लिए “सनातन” के शब्द का प्रयोग होता है। गोया केवल भाषा का अन्तर है, ख़्याल रहे की ईश्वर के लिए सारी भाषाएं समान हैं क्योकि सब उसी के द्वारा बनाई गई हैं।
इस सूक्ष्म भूमिका के उपरांत डा0 गौड़ के उन शब्दों पर ध्यान केन्द्रित करना उचित होगा जिनमें उन्होंने कहा है कि - आज से पाॅंच हज़ार वर्ष पहले तक सम्पूर्ण विश्व में केवल हिन्दू धर्मावलंबी रहते थे। फिर गौतम बुद्ध आए, ईसा मसीह आए, एवं चैदह सौ वर्ष पहले मुहम्मद साहब आए और उनका धर्म फैलता गया, एवं हिन्दुओं की संख्या घटती गई।
वास्तव में बात यह है कि यह सारे ईशदूत स्वयं ही नहीं आए, अपितु हिन्दू धर्म के नियमानुसार एवं पवित्र ग्रंथ गीता के उस श्लोक
के अनुसार आए हैं जिस में कहा गया था कि - जब-जब भी धर्म की हानि होती है तो धर्म की स्थापना के लिए मैं आता हूं। साथ ही यह भी कि वह कोई नया धर्म लेकर नहीं आए, बल्कि वही धर्म लाए हैं जो पहले से चला आ रहा था, परन्तु वह धूमिल हो गया था।
साथ ही इस पर भी विचार करे कि “भगवद् गीता” 4/8 में यह बात स्पष्ट की गई है कि युग-युग में धर्मस्थापना के लिए ईश्वर के अवतार प्रकट होते हैं।
डा0 गौड़ साहब! विश्व भर में बहुत सारे ऋषि, मुनि एवं भगवान के अवतार प्रकट हुए हैं, इन में से बहुत से भारत में आए। जिन्होंने यहाँ की भाषा में ईश्वर का संदेश दिया परन्तु यह सारी सृष्टि उसी एक सर्वशक्तिमान ईश्वर के द्वारा ही रची गई है जो सारे संसार का मालिक है। अतः उसने कभी भारत में अवतार लिया, तो कभी अन्य देशों में, कभी संस्कृत भाषा में अपना संदेश दिया, तो कभी विश्व की अन्य भाषाओं में, क्योंकि सारी धरती उसी की है, एवं विश्व की सारी भाषाएं भी उसी की बनाई हुई हंै। अतः ऋषियों, मुनियों एवं अवतारों व पैग़म्बरों की उसी श्रृंखला में अंतिम अवतार के रूप में मुहम्मद सा0 ने अरब की पृथ्वी पर जन्म लिया, एवं अरबी भाषा में उपदेश दिए। पवित्र “क़ु़रआन” से पहले जितने भी ईश्वरीय धर्म ग्रन्थ आए, उन सभी में बडे़ ही स्पष्ट शब्दों में अंतिम अवतार हज़रत मुहम्मद सा0 सल्ल0 की निशानियाँ बताई गई थीं एवं मुहम्मद सा0 सल्ल0 की अंतिम ईश्वरीय दूत के रूप में प्रकट होने की भविष्यवाणी की गई थी। इसी पर प्रकाश डालते हुए संस्कृत के जाने माने विद्वान “डा0 वेद प्रकाश उपाध्याय” अपनी पुस्तक में लिखते है-
”वेदों में बाइबिल में तथा बौद्ध ग्रन्थों में अंतिम ऋषि के रूप में जिसके आने की घोषणा की गई थी वह मुहम्मद साहब ही सिद्ध होते हंै। अतः मेरे अन्तः करण ने मुझे यह प्रेरणा दी कि सत्य को खोलना आवश्यक है। भले ही वह कुछ लोगों को बुरा लगने वाला हो।“
‘‘नराषंस और अंतिम ऋशि’’ पृश्ठ 4
लेखक डा0 वेद प्रकाश उपाध्याय
प्रकाशितः- जु़महुर बुक डिपो, देवबन्द (यू.पी.)
उक्त विषय में डा0 वेद प्रकाश उपाध्याय (जो भारत के दो विश्वविद्यालयों “चण्डीगढ़” एवं “इलाहाबाद” में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष रहे हंै।) की दो महत्वपूर्ण पुस्तिकाएँ ‘‘नराशंस और अंतिम ऋषि’’ व “कल्कि अवतार और मुहम्मद साहब” हमारा मार्ग दर्शन करती है।
प्रथम पुस्तिका ‘‘नराशंस और अंतिम ऋषि’’ में वेदों ”बाइबिल” एंव बौद्ध ग्रन्थों में “मुहम्मद साहब” के संबंध में की गई भविष्यवाणियों पर विस्तार से चर्चा की गई है। जब कि दूसरी पुस्तक ”कल्कि अवतार और मुहम्मद साहब“ केवल पुराणों पर आधारित है ।
इन दोनों पुस्तकों में ”डा0 उपाध्याय” ने बहुत ही स्पष्ट रूप से वेदों एवं पुराणों में की गई ”अंतिम ऋषि“ “कल्कि अवतार” के रूप में मुहम्मद साहब सल्ल0 के संबंध से भविष्यवाणियों का वर्णन किया है यहाँ पर उदाहरणार्थ उनकी दोनों पुस्तिकाओं में से एक-एक अंश प्रस्तुत है -डा0 वेद प्रकाश ने अपने इस कथन को सिद्ध करने के लिए जिसमें उन्होंने कहा है कि “वेदों” में, “बाइबिल“ में तथा “बौद्ध“ ग्रन्थों में “अन्तिम ऋषि“ के रूप में जिसके आने की घोषणा की गई थी, वह मुहम्मद साहब ही थे। पवित्र वेदों से अनेक मन्त्र प्रस्तुत किए हैं। उनमें से दो निम्नलिखित हैं -
1. इंदजना उपश्रुत नराशंस स्तविष्यते ........... - अथर्ववेद संहिता 20/127/1
2.उष्ट्रा यस्य प्रवाहणो ............ - अथर्ववेद 20/127/2
उक्त मंत्रों पर टिप्पणी करते हुए “नराशंस का काल निर्धारण” के अन्तर्गत् डा0 वेद प्रकाश ने लिखा है-
1. ब्रह्म वाक्य में कहा गया है कि ”हे लोगों सुनो नराशंस की प्रशंसा की जाएगी। उपर्युक्त वाक्य “अथर्ववेद“ का है, और “अथर्ववेद“, “ऋग्वेद“, “यजुर्वेद“ तथा “सामवेद“ से बहुत बाद का है। अतः “अथर्ववेद“ के काल के बाद तो नराशंस की उत्पत्ति का होना निश्चित हुआ।
2. नराशंस के वाहन के रूप में ऊँट का प्रयोग उल्लिखित है।
अतः नराशंस की उत्पत्ति का होना उस समय निश्चित हुआ जब ऊँटों का सवारी के रूप में प्रयोग हो।
नराशंस या अन्तिम ऋषि (पेज 7)
यह बताने की आवश्यकता नही कि मुहम्मद साहब जिस क्षेत्र में प्रकट हुए वहां सवारी के रूप में ऊँट का प्रयोग होता था। एवं मुहम्मद साहब भी ऊँट की सवारी करते थे। मक्के से मदीने की “हिजरत” नामक यात्रा उन्होंने ऊँट पर की थी, “फ़तह मक्का” के समय भी वह ऊँट पर सवार थे। इस के अतिरिक्त करीब-करीब सभी प्रमुख यात्राएं आपने ऊँट के द्वारा की हैं।
खेद का विषय है कि आज के आधुनिक युग में भी जो लोग “नराशंस” के ऊँट पर बैठकर आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं वह कौन सी दुनिया में रहते हैं।
नराशंस शब्द का अनुवाद अगर अरबी भाषा में किया जाए तो वह केवल “मुहम्मद” शब्द से ही किया जा सकता है अर्थात् जिसकी प्रशंसा की जाए। स्वयं यह बहुत बड़ा प्रमाण है कि वेदांे के नराशंस ”मुहम्मद साहब“ ही थे।
यहाँ फिर इस बात को दोहराना उचित होगा कि सारी भाषाएं ईश्वर की हैं, एवं सारा संसार ईश्वर का है, वह जिस क्षेत्र में चाहे, और जिस भाषा में चाहे अपनी वाणी एवं अपने संदेश का अवतरण कर सकता है। साथ ही यह बात भी विचारणीय है कि यह तो ईश्वर का बड़ा अन्याय होगा, कि वह संसार के केवल एक विशेष क्षेत्र “भारत” में ही अवतार लेता रहे एवं संसार के एक विशेष भाग में एवं विशेष भाषा में ही उपदेश देता रहे और दूसरे क्षेत्रों एवं भाषाओं को अपने अवतारों एवं उपदेशों से वंचित रखे। ईश्वर के नौ अवतार भारत में हुऐ एक भारत से बाहर हो गया हम उसको इसलिए स्वीकार न करें कि वह भारत में प्रकट नहीं हुआ यह तो बड़ा अन्याय है।
उपरोक्त प्रथम मंत्र में कहा गया है -
”हे लोगों सुनो नराशंस की प्रशंसा की जाएगी”।
यह मंत्र अपने में कितना सत्य है रात, दिन में पाँच बार अज़ान होती है जिसमें “मुहम्मद साहब” की नाम सहित प्रशंसा की जाती है, पाँच समय ही नमाजे़ पढ़ी जाती हैं। नमाज़ में भी नाम सहित मुहम्मद साहब की प्रशंसा (दरूद) पढ़ी जाती है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि अज़ान एवं नमाज़ की समय सारणी इस प्रकार की है कि विश्व भर में हर क्षण हर समय कहीं न कहीं अज़ान, या नमाज़ हो रही होती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि रात या दिन का एक क्षण भी ऐसा नहीं गुज़रता जिसमें मुहम्मद साहब (नराशंस) की प्रशंसा न की जा रही हो।
Michael Hart एक अमरिकी विद्वान है, इन्होंने अस्सी की दहाई में The 100 नाम से एक पुस्तक लिखी, जिसमें दुनिया की उन सौ महानविभूतियों का वर्णन है जिन्होंने पूरी दुनिया को अपने अस्तित्व से प्रभावित किया। लेखक ने इस पुस्तक में नम्बर एक पर ‘‘हज़रत मुहम्मद साहब सल्ल0‘‘ को रखा है। दूसरे नम्बर पर ‘‘आइज़क-न्यूटन‘‘ और तीसरे नम्बर पर ‘‘हज़रत ईसा मसीह‘‘ को स्थान दिया है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि लेखक पेशे से एक वैज्ञानिक हैं और धर्म से ईसाई। वह अगर पक्षपात से काम लेते तो ‘‘ईसा मसीह‘‘ को प्राथमिकता देते या ‘‘न्यूटन‘‘ को, परन्तु उन्होंने निष्पक्षता से काम लेते हुए ‘‘मुहम्मद साहब सल्ल0‘‘ को पहला स्थान दिया। दूसरे स्थान पर “आइज़क-न्यूटन” और तीसरे नम्बर पर “ईसा मसीह” को रखा है। इससे बड़ी कौन सी प्रंशसा होगी कि मुख़ालिफ़ भी सराहने पर मज़बूर हो जाए।
“डा0 वेद प्रकाश उपाध्याय” ने अपनी दूसरी पुस्तिका ‘‘कल्कि अवतार और मुहम्मद सा0’’ में बडे़ स्पष्ट रूप से इस बात को सिद्ध किया है कि कल्कि अवतार जो “भागवत पुराण” के अनुसार 24 अवतारों के प्रकरण में कल्कि सबसे अन्तिम अवतार हैं। ”मुहम्मद साहब” ही थे जो सन् 570 ईसवी में अरब देश में पैदा हुए।
डा0 वेद प्रकाश के अनुसार “पुराणों” में भी बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कल्कि अवतार के सम्बन्ध से भविष्यवाणी उनकी निशानियों सहित की गयी है। पुराणों में कल्कि अवतार की जो निशानियां बताई गयी हैं, उनमें कुछ इस प्रकार हैं -
1. कल्कि का प्रधान पुरोहित के यहां जन्म लेना।
2. पुरोहित का नाम विष्णु युश होना।
3. माता का नाम सुमति होना।
4. कल्कि का पैदा होने के बाद पहाड़ों पर चला जाना।
5. एवं वहाँ परशुराम जी से ज्ञान प्राप्त करना।
6. कल्कि अवतार का शुक्ल पक्ष की बारहवीं तिथि को माधव मास में जन्म लेना।
7. कल्कि अवतार का ऐसे समय में होना जब युद्धों में अश्व एवं खड्ग
का प्रयोग होगा।
उक्त सारी निशानियाँ ‘‘भागवद् गीता‘‘ ‘‘कल्कि पुराण‘‘ एवं ‘‘भागवत पुराण‘‘ पर आधारित हैं। विस्तार से जानने के लिए देखें ‘‘डा0 वेद प्रकाश‘‘ उपाघ्याय की पुस्तिका -
‘‘कल्कि अवतार और मुहम्मद स.’’
प्रकाशित: जु़महुर बुक डिपो देवबन्द यू0पी0।
अब इस पर ध्यान दीजिए कि मुहम्मद साहब के पिता का नाम “अब्दुल्लाह” था। “विष्णुयुश” एवं “अब्दुल्लाह” का अर्थ एक है, आपकी माताजी का नाम “आमिना” था। “आमिना” एवं “सुमति” का अर्थ एक होता है आपका जन्म महीने की बारहवीं तिथि को हुआ। आप ज्ञान प्राप्ति से पहले मक्के से उत्तर की ओर स्थित पहाड़ पर ‘‘हिरा‘‘ नामक गुफा में बैठकर कई-कई दिन तक ध्यानलीन रहते थे। वहीं पर एक दिन “देवदूत” जिबरील नामक फ़रिश्ता प्रकट हुआ एंव आपको ज्ञान की प्राप्ति हुई।
“कल्कि अवतार का अश्व एवं खड्ग प्रयोग के समय में होना।”
इस पर विचार व्यक्त करते हुए “डा0 वेद प्रकाश“ लिखते हैं -
”दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि अन्तिम अवतार उस समय होगा जब कि युद्धांे में तलवार का प्रयोग किया जाता हो। यह तलवारों एवं घोडों का युग नहीं है। .......... जबकि आज से चैदह सौ वर्ष पूर्व घोडांे तथा तलवारों का प्रयोग होता था।“
-कल्कि अवतार और मुहम्मद सा0 पृष्ठ 22-23
पुराणों में कल्कि अवतार का स्थान शम्भल ग्राम बताया गया है अतः कुछ लोग इस भ्रम में है कि कल्कि अवतार “भारत“ के “सम्भल“ शहर में प्रकट होंगे।
परन्तु डा0 वेद प्रकाश उपाध्याय के अनुसार शम्भल ”संज्ञा“ नहीं ”विशेषण“ के रूप में प्रयोग है। उन्होने इस के तीन अर्थ लिखे हैं जो तीनों ही स्वयं उन्हीं के शब्दों में भारत के सम्भल शहर पर किसी भी प्रकार फ़िट नहीं होते जबकि मुहम्मद साहब के जन्मस्थान अरब के “मक्का नगर” पर वह तीनों अर्थ शत-प्रतिशत फिट बैठते हैं। इन बातांे से बड़े ही स्पष्ट रूप से यह सिद्ध होता है कि कल्कि अवतार मुहम्मद साहब ही थे, जो अंतिम युग के अंतिम अवतार हैं।
उक्त प्रकार की भविष्यवाणी पर टिप्पणी करते हुए कुछ लोग ऐसा कह देते हैं कि यह बातें धर्म ग्रन्थों में बाद की बढ़ाई हुई हो सकती हंै, परंतु ऐसा मान लिया जाए तो फिर उक्त धर्म ग्रन्थों की अन्य शिक्षाओं की ही क्या विश्वसनीयता रह जाती है? अतः “वेद” और “पुराणों“ में आस्था रखने वालों के लिए दो में से एक विकल्प को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता नहीं है कि या तो वह अपने ही धर्म ग्रन्थों की वास्तविकता पर प्रश्न चिन्ह लगाएं या “मुहम्मद साहब“ को “ईशदूत“ के रूप में स्वीकार करें, क्यांेकि उक्त धर्मग्रन्थों में अन्तिम ऋषि के होने का जो समय (ऊँटों, घोड़ों, तलवार एवं खड़ग के प्रयोग का समय) बताया गया है वह वर्तमान युग के चलते सम्भव नहीं है।
प्रायः देखने में आता है कि बहुत से धर्म में विश्वास रखने वाले लोग उक्त निशानियों को पढ़कर यह जान और समझ लेते हैं कि अन्तिम युग के अन्तिम अवतार “मुहम्मद साहब“ ही थे, परन्तु उन्हें कुछ दुनियावी स्वार्थ ऐसा मानने से रोके रखते हैं।
धर्म गुरूओं के सामने तो वह प्रश्न है जो स्वयं एक हिन्दू लेखक ने निम्न शब्दों में प्रकट किया है।
“धर्माधिकारियों ने कभी भी उन विचारों को पनपने, फलने नही दिया जिनसे उनकी रोज़ी रोटी पर आँच आती हो।“ सरिता मुक्ता, प्रिंट 2, पृष्ठ 34/1
और जहाँ तक आम जनता की बात है वह वही कहती है जिसका “कु़रआन“ में निम्न प्रकार वर्णन है।
“और जब उनसे कहा जाता है कि उसे मानों जो ईश्वर ने उतारा है, तो वह कहते हैं कि हम तो उसे मानेंगे जिस पर हमने अपने बाप-दादा को पाया है, चाहे शैतान भड़की आग की ओर ही क्यों न बुलाए।“ सूरह लुकमान आयत नं 20
हम अपने निजी जीवन में झांक कर देखें, हमने कितनी ऐसी परम्पराओं को छोड़ दिया है, जिन पर हमने अपने बाप-दादा का पाया था, हमने उन जैसी वेश-भूषा छोड़ी, उन जैसा खान-पान छोड़ा, परन्तु धर्म जो मरणोपरान्त के जीवन काल से बहस करता है, उसके संबंध से हम क्यों फिक्र मन्द नहीं होते।
एक वर्ग ऐसा भी है जो देश भक्ति का दावा करता है वह केवल उसी चीज को मानना चाहता है जो अपने देश में उपजी हो। भारत से बाहर की किसी भी वस्तु को वह विदेशी समझ कर उससे दूर रहना चाहता है। अजीब बात यह है कि यह वर्ग एक ओर तो स्वयं को एक कोने में समेटकर रखना चाहता है, दूसरी ओर भारत को संसार के अग्रणी मार्ग दर्शक (विश्व गुरू) के बतोर भी देखना चाहता है। एक समय में यह दोनों बातें कैसे हो सकती हैं। ऐसे लोगों से सर इक़बाल के लहजे में यह कहना उचित होगा -
चीन व अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा
हिन्दी हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा
इस वर्ग को यह भी सोचना चाहिए कि वह आवागमन में विश्वास रखते है, अगर अगले जन्म में किसी अन्य देश या अन्य धर्म में पैदा हो गए तो उनकी देश-भक्ति का क्या होगा? या ईश्वर से उन्होंने इस बात की गारन्टी ली है कि वह हर जन्म व हर योनि में केवल भारत में और केवल हिन्दू धर्म में ही जन्म लेंगे।
इस्लाम इस विषय में यह सिद्धान्त पेश करता है कि जो जहां पैदा हुआ और मरा है मानो उसकी मिट्टी वहीं की थी अतः वह कल कयामत में वहीं से दोबारा जीवित करके उठाया जायेगा ।
डा0 गौड़ जो मुसलमानों से युद्ध करने की बात भी करते है, और उनसे हिन्दू धर्म में लौटने को भी कहते है। वह उक्त बातों पर गंभीरता से विचार करें और सोचें कि किसे किसके धर्म में लौट आना चाहिए, और अगर आप इस विषय पर विचार करना नहीं चाहते तो
न करें यह युग शिक्षा का युग है, वह समय इतिहास बन गया जब एक तबके को शिक्षा या ज्ञान प्राप्त करने की अनुमति नही थी। अतः ज्यों-ज्यों शिक्षा बढ़ेगी और आम जनता में तर्क शक्ति उत्पन्न होगी, लोग स्वयं ही सच्चाई को स्वीकार करेंगे अपितु कर भी रहे हैं।
“इंजीनियर नवीन कंसल” मेरे एक मित्र है मैंने उनको “कुरआन” पढ़ने को दिया और उसके बाद उनकी आख्या जाननी चाही। उन्होंने कहा कि जो कुछ भी मैंने पढ़ा और समझा है मुझे लगा कि यह सब बातें पहले से ही मेरे मन में थीं।
यह वही बात है जिसको ”हदीस“ में कहा गया है कि “इस्लाम धर्म“ “दीन-ए-फितरत“ है अर्थात् प्राकृतिक धर्म है, इसकी शिक्षाएं वही हंै जो प्राकृतिक रूप से हर व्यक्ति के मन में पहले से विद्य्मान होती हंै, उदाहरण के बतौर बड़ों का आदर, छोटों से प्यार, पड़ोसी से अच्छा बर्ताव, ग़रीबों की मदद करना, यह सब ऐसी बातें हैं कि हर व्यक्ति का मन-मस्तिष्क स्वीकार करता है कि इन बातों को धर्म का हिस्सा होना ही चाहिए। यही बात ‘‘कुरआन’’ की शिक्षाओं में है। “कुरआन“ के अलावा नवीन साहब को अगर “शिव पुराण“ पढ़ने को दिया जाता तो शायद उन्हें ऐसा न लगता।
विशेष रूप से “शिव पुराण“ का ज़िक्र करने का कारण यह है कि “शिव जी“ को “महादेव” कहा जाता है और हिन्दू धर्म में शिवलिंग की ही अधिक पूजा होती है। एक अनुमान के मुताबिक प्रतिवर्ष करीब पचास लाख व्यक्ति एक समय में “शिवलिंग” पर गंगाजल चढ़ाते हैं। “शिवलिंग“ क्या है, उसकी पूजा क्यों और कब से होती है और उसका आकार और स्थिति क्या है इसका वर्णन विस्तारित रूप से हमें “शिवपुराण“ में ही मिलता है। हो सकता है कि “शिवलिंग“ और ‘‘जलहरी’’ की पूजा करने का आदेश किसी समय में स्वयं ईश्वर ने दिया हो, परन्तु वर्तमान समय मंे “शिवलिंग“ और उससे संबंधित कथाओं को पढ़ते हुए आम व्यक्ति के दिमाग में तरह-तरह के सवाल उत्पन्न होते हंै।
‘‘इस्लाम’’ में केवल एक ईष्वर ही पूज्यनीय है
इस्लाम धर्म में केवल एक ईश्वर की पूजा होती है, जो निराकार है, सर्वशक्तिमान है, जिसने सारी सृष्टि को रचा, उसे किसी भी भाषा में ईश्वर, अल्लाह, प्रभु, या गाॅड, किसी भी नाम से पुकारा
जा सकता है, पर जो व्यक्ति उस निराकार सर्व-शक्तिमान एक ईश्वर की उपासना नहीं करता वह ईश्वर उस से अनेक साकार खुदाओं की पूजा करा देता है बल्कि जो उसके सामने नहीं झुकता उसे सैकड़ों खुदाओं के सामने झुकना पड़ता है, जो स्वयं को बनाने वाले की पूजा नहीं करता उसे अपने हाथ से बनाए हुए खुदाओं की पूजा करनी होती है। यह किसी विशेष धर्म की बात नहीं, कम्युनिज़्म के मानने वाले जो स्वयं को धर्म मुक्त मानते हैं वह भी धर्मावलंबी हैं, जो पूजा अर्चना भी करते है, कम्युनिज़्म उनका धर्म है, “माक्र्स“, “लेनिन“ और “माउत्से“ उनके ईश्वर और “माक्र्स“ का ग्रन्थ Das Capital उनकी धर्म पुस्तक है। आस्था और पूजा के प्रकार अलग-अलग हो सकते है, परन्तु यह मनुष्य की ऐसी ही आवश्यकता है, जैसे खाना और पानी, कम्युनिस्ट जो अपने को नास्तिक कहते हैं, माक्र्स और लेनिन में उनकी भी आस्था होती है, जिनकी वह पूजा करते है, एक कम्युनिस्ट जब “लेनिन“ या “माक्र्स“ के स्टैच्यू के पास से गुज़रता हैं तो उसके कदम हल्के हो जाते है और वह सर से हेट उतारकर उन्हंे सेलूट देता है, क्या इसे पूजा नहीं कहेंगे? स्वयं हमारे देश में पढ़े-लिखे लोगों का एक वर्ग कहता है कि वह किसी धर्म या ईश्वर में विश्वास नहीं रखता है, उसे मरणोपरांत ज़िंदगी पर भी विश्वास नहीं, वह सारी सृष्टि को स्वयं से अस्तित्व में आने वाली एक वस्तु कहता है। इन लोगों की मिसाल गर्भवती महिला के पेट में पलने वाले उस बच्चे की सी है, जिसको कहा जाए कि माँ के पेट का जीवन कोई जीवन नहीं, बल्कि इसके बाहर इससे एक बहुत बड़ी दुनिया है जहां असल जीवन व्यतीत करना है, परंतु वह इस बात को केवल इसलिए न माने कि उसने ऐसी कोई महान दुनिया नहीं देखी लेकिन जब वह पैदा होने के बाद इस दुनिया को देखे, तो उसकी आँखें खुल जाएं। जो व्यक्ति मरणोपरांत परलोक को एक नए संसार के रूप में नहीं मानते, वह उसको देखकर मानेंगें। जिन लोगों को यह बह्माण्ड, अंतरिक्ष में घूमते ग्रह, नियमित होते रात और दिन, यह उगते और बढ़ते पेड़-पौधे और इस अद्भुत सृष्टि की हज़ारों वस्तुएं सृष्टि के रचयिता के होने का यक़ीन नही दिलातीं मौत का एक झटका उन्हें इन सारी बातों का यक़ीन दिलाने के लिए काफी होगा और ये लोग उस समय मानेंगे जब मान लेना उन्हें कोई लाभ नही पहुंचा पायेगा।
और जहाँ तक धर्म में विश्वास रखने वालों की बात है, उनकी एक बात बड़ी अज़ीब लगती है, वह यह कि जब धार्मिक विद्वानों से इस विषय पर चर्चा करें कि क्या वेदों में “नराशंस“ का वर्णन है जिसकी सवारी ऊँट होगी, जिसकी संसार भर में प्रशंसा की जाएगी तो वह स्वीकार करते हैं कि हाँ ऐसा है, गीता में कहा गया है कि युग-युग में ईश्वर अवतार लेते हैं यह भी उन्हें स्वीकार है। ईश्वर के दस अवतार हैं, सत्युग में चार, त्रेता में तीन, द्वापर में दो और कलयुग में एक, जो उनके अनुसार अभी प्रकट नही हुए हंै, यह भी उन्हें स्वीकार है। पुराणों में कल्कि अवतार की भविष्यवाणी की गई है, जो ऊँटों घोड़ों तलवार और खड़ग् के प्रयोग के समय में आएगा, यह भी वह मानते है, परंतु यह सब निशानियां ‘‘मुहम्मद साहब सल्ल0‘‘ पर फ़िट होती है अतः कल्कि अवतार आ गए हैं, यह उन्हें स्वीकार नहीं, कारण यह है कि वह भारत में नहीं आए, इसलिए एक विशेष धर्म में विश्वास रखने वाले आज भी कल्कि अवतार की प्रतीक्षा में जी रहे हैं।
अगर यह मान लिया जाए कि कल्कि अवतार अभी तक नहीं आए अपितु उनका आना शेष है तो ऐसी अवस्था में कई प्रश्न खड़े होते हैं।
1. पहला प्रश्न यह है कि प्रथम नौ अवतार भारत में आए, शेष एक को भी भारत में ही आना चाहिए। यह तो ईश्वर का बड़ा अन्याय होगा कि वह भारत के अलावा सारे संसार की अनदेखी करता रहे। ऐसे में धर्म की सच्चाई पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है।
2. कलयुग को आरम्भ हुए छः हजार साल के लगभग समय हो गया है, कलयुग तो स्वयं ही बुराई और अपराधों का युग था, परंतु अब जबकि माना जाता है कि यह समय घोर-अन्याय ज़ुल्म, ज़्यादती और अपराधों का समय है, तो आखिर ‘‘कल्कि’’ जो दुष्टों का नरसंहार और साधुओं की रक्षा करने के लिए आएंगे उन्हें काहे का इंतज़ार है?
3. कल्कि की उत्पत्ति ऊँट, घोड़ों, तलवार और खड्ग के समय में बताई गई है। कम से कम इस युग में तो ऐसा समय अब दोबारा आने वाला नहीं। हाँ अबसे चैदह सौ वर्ष पूर्व जब ‘‘मुहम्मद साहब’’ इस
संसार में पधारे थे, वह समय अवश्य वैसा ही था। वास्तव में बात यह है कि धर्म ग्रन्थों के अनुसार कल्कि में विश्वास रखने वाले यह तो जानते और समझते हैं कि कल्कि अवतार मुहम्मद साहब ही थे परंतु सत्य के मुक़ाबले स्वार्थ उन्हें मानने से रोकता है। ऐसे लोगों के लिए ही “क़ुरआन“ में ईश्वर कहते हैं -
“जिनको हमने धर्म ग्रन्थ दिए थे वह मुहम्मद साहब को, ऐसे पहचानते हंै जैसे लोग अपने पुत्रों को पहचान लेते है, परंतु जिन्हें घाटे में ही रहना है वह मानते नहीं“

कुछ सीधे-सादे बन्धु ऐसे भी है जो कहते हैं कि सारे धर्म समान हैं और सब उसी ईश्वर तक पुहँचने का मार्ग बताते हैं, परन्तु अगर ऐसा होता तो ईश्वर को युग-युग में अवतार लेने की क्या ज़रूरत थी? और पहले धर्मों में उसने जो ग्रन्थ दिए हैं, उनमें एक अन्तिम अवतार के आने की भविष्यवाणी क्यों की जाती? क्या इससे यह समझ में नहीं आता है कि आदिकाल के धर्म एवं उसके ग्रन्थ विशेष क्षेत्र एवं विशेष समय के लिए थे और वर्तमान का धर्म स्वयं ईश्वर की इच्छा के अनुसार वह है जिसकी भविष्यवाणी आदि ग्रन्थों में की गई थी।
अतः डा0 गौड़ जिन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि -
”इस पुस्तक के माध्यम से मैं आह्वान करता हूँ (मुसलमानों एवं ईसाइयों का ) कि वे अपने स्वधर्म में लौट आएं।“ -पेज 78
अतः मैं भी अपनी इस पुस्तक के माध्यम से डा0 गौड़ एवं उन जैसे विचार रखने वाले सभी भाई, बहनों का आह्वान करता हूं कि वे उक्त सच्चाई को स्वीकार करते हुए अपने मूल धर्म में लौट आएं जो पहले से चले आ रहे ईश्वरीय धर्म का रिवाईज़्ड एवं लेटेस्ट एडिशन है, जिसमें ईश वाणी की श्रृंखला का अन्तिम एवं फाइनल संस्करण पवित्र कु़रआन के रूप में आपके सामने है। यह कोई नया धर्म नहीं बल्कि सनातन धर्म का मूल रूप है जो आपकी ही खोई हुई अमानत है। मैं आपकी इस अमानत को आपकी सेवा में प्रस्तुत करने का सौभाग्य प्राप्त करता हूं।
परन्तु जो लोग आज के समय जानकर और समझकर भी सत्य को स्वीकार नहीं करते, वह उस समय अवश्य स्वीकार करेंगे जब मानने या
स्वीकार करने से कोई लाभ न होगा। मरणोपरांत जब मनुष्य ईश्वर की अदालत में उपस्थित होगा, उस समय का जो नक्शा क़ुरआन में खींचा गया है उसे पढ़कर रोंगटे खडे़ हो जाते हैं कहा गया है -
“और लोगों को उस दिन से डराइए जब अज़ाब आएगा उस समय ज़ालिम लोग कहेंगे हे ईश्वर हमें थोडी मोहलत देदे, अब की बार हम तेरी दावत (तेरे पैगा़म) को स्वीकार कर लेंगें, और संदेष्टा के बताए मार्ग पर चलेंगे“ सूरह इब्राहिम आयत नं0 44
लेकिन क़यामत के बाद कोई दूसरी क़यामत नहीं होगी न किसी को दोबारा से इस संसार में भेजा जाएगा।
पहली ज़िन्दगी में जिसने अच्छे कर्म किए होंगे उनके लिए ‘‘स्वर्ग’’ होगी तो बुरे कर्म करने वालों के लिए ’’नरक’’ की दहकती आग ‘‘कु़रआन’’ में है।
और जिन लोगों ने अपने पालनहार का इंकार किया उनके लिए नरक का अज़ाब है, और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है, जब वह उसमें फेंके जाएंगे तो उसके दहाड़ने की भयानक आवाज़ सुनेगें, और वह प्रकोप से बिफर रही होगी ऐसा लगेगा कि प्रकोप से अभी फट जाएगी, हर बार जब भी उसमें कोई समूह डाला जाएगा तो उसके कारिन्दे कहेंगे क्या तुम्हारे पास कोई सावधान करने वाला नहीं आया था, वह कहेंगे कि आया था परन्तु हम उसे झुठलाते रहे। सूरह मुल्क 8-9
कुरआन की उक्त आयतों के बाद “मिशकात शरीफ“ की उस हदीस को समझना उचित होगा जिसमें कहा गया है कि क़यामत उस समय तक नहीं आएगी जब तक अल्लाह इस्लाम की आवाज़ को संसार के हर घर में दाखिल न कर दें।
आज वह समय आ गया है हर मानने न मानने वाले के घर में अनेक माध्यम से इस्लाम की आवाज़ पहुँच चुकी है स्वयं डा0 गौड़ ने क़ुरआन को पढ़ लिया है। जैसा कि उनकी पुस्तक के अध्यन से पता चलता है।
और अगर सत्य के प्रकट हो जाने के बाद भी आपको सच्चाई स्वीकार नहीं है तो मैं पवित्र क़ुरआन की भाषा में आपके लिए केवल इतना कहना चाहूंगा कि -
”कोई भी किसी अन्य व्यक्ति के हिस्से का भार नहीं उठाएगा अपितु सबको अपना बोझ स्वयं उठाना हैं।“ सूरह,फातिर, आयत 18
अंत में पहले से चले आ रहे ईश्वरीय धर्म के अंतिम संस्करण (इस्लाम) की सूक्ष्म रूप रेखा प्रस्तुत करना उचित होगा ताकि “इस्लाम“ पर बेवजह कीचड़ उछालने वाले जान लंे कि इसके प्रसार से राष्ट्रवाद नष्ट नहीं होता,

इस्लाम के पाँच मौलिक सिद्धान्त
बुनयादी तौर पर “इस्लाम” के पाँच स्तम्भ हैं।
पहला कलिमाः- अर्थात् इस बात का यक़ीन करना कि समस्त ईश्वरीय सत्ता केवल उस निराकार सर्व शक्तिमान परमेश्वर की है जो केवल एक है, और वह अकेला ही पूजनीय है उसके अतिरिक्त किसी और की पूजा नहीं की जा सकती, और हज़रत मुहम्मद सा0 सल्ल0 उसके अंतिम दूत हैं।
कलिमे के दो अंग है पहला ईश्वर को एक मानना, दूसरा मुहम्मद सा0 सल्ल0 को उसका अंतिम दूत मानना, जब हम इन दोनों बातों को हृदय से स्वीकार कर लेते हंै तो हमें अलग-अलग क्षेत्रों में दो अलग-अलग लाभ प्राप्त होते हैं, जब हम इस बात में यक़ीन करते हैं कि सारी सत्ता केवल एक ईश्वर के पास है, वह ही मारता और ज़िंदगी देता है वह ही सुलाता और जगाता है, वह ही बनाता और बिगाड़ता है और हर अच्छी व बुरी तक़दीर उसी की ओर से है, तो यह यक़ीन हमें सैकड़ों झूठे सत्ताधारियों से भयमुक्त कर देता है और जब हम केवल उसी की पूजा करने का प्रण लेते हंै तो यह संकल्प हमें हज़ारों वस्तुओं को पूजने से छुटकारा देता है इस सूरत में हमको पैदा करने वाले, मारने वाले या अन्न देने वाले अलग खुदाओं की अलग-अलग पूजा की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि वह केवल एक ही है।
इंसान अपने जीवन में अन्न, पानी, हवा और रोशनी आदि का ऐसा मोहताज है कि इनकी कल्पना के बग़ैर मनुष्य का जीवन सम्भव नहीं परन्तु हमें इन सब वस्तुओं की पूजा की आवश्यकता नहीं, क्यों कि यह सब उसी एक ईश्वर की पैदा की हुई हंै जिसने इस सारे अद्भुत ब्रह्माण्ड की रचना की है। इसके बावजूद जो लोग प्रकृति और जड़ पदार्थ की पूजा करते है उनकी मिसाल उस बीमार जैसी है जो डाक्टर को छोड़कर दवा को धन्यवाद दे।
कलिमे का दूसरा अंग मुहम्मद सा0 को ईश्वर का अंतिम दूत मानना है। जब हम मुहम्मद सा0 को ईश्वर के अंतिम दूत के तौर पर स्वीकार कर लेते हैं तो ऐसी स्थिति में सारे संसार के विभिन्न क्षेत्रों में आने वाले और संसार की विभिन्न भाषाओं में ईश्वर का संदेश देने वाले लाखों ईशदूतों में हमारी आस्था स्थापित हो जाती है और हमें उन सभी ईशदूतों का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

दूसरा नमाज़
ः- हर मनुष्य चाहे वह कहीं भी और किसी भी स्थिति मे हो रात और दिन में पाँच बार ईश्वर के सामने एक विशेष क्रिया कलाप जिसमें केवल चन्द मिनट लगते हैं, यह जान और समझ कर करना है कि ईश्वर उसे देख रहा है और वह ईश्वर को। जब कोई मनुष्य रात दिन में पाँच बार ईश्वर के सामने इस यक़ीन के साथ खड़ा होता है कि मरने के बाद एक दिन उसे ईश्वर की अदालत में अपने हर अच्छे बुरे कार्य का हिसाब देना है जिसके बदले उसे या तो अनन्त तक के लिए स्वर्ग का आराम मिलेगा या नरक की यातनाएं, तो फिर वह अपने जीवन में अच्छे कार्य करता है और बुरों से बचता है, पाँच समय के अभ्यास से उसके के हृदय में ईश्वरीय सत्ता स्थापित हो जाती है, फिर वह चोरी नही करता, किसी का ना हक़ खून नही बहाता, किसी का हक़ नही मारता, किसी को बुरी नज़र से नही देखता, केवल इसलिए ही नही कि यह कार्य करने से उसे जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ सकता है बल्कि इसलिए भी कि वह दुनियावी अदालत की नज़र से तो बच सकता है परन्तु उस ईश्वर की नज़र से नही बच सकता जो हर समय और हर जगह है। अब अगर वह एक अधिकारी है तो रिश्वत नही लेगा केवल इसलिए नही कि उसे अपने से ऊपर के आॅफिसर का भय है जिसकी वह पकड़ मंे भी आ सकता है और बच भी सकता है, बल्कि इसलिए कि उसे ईश्वर की पकड़ का यक़ीन है। अब अगर वह एक कर्मचारी है तो उपने कर्तव्य और समय का पालन अधिकारी के डर से नही बल्कि ईश्वरीय डर से करता है, अर्थात् कोई उसे देख रहा हो या न देख रहा है, वह बुराई से बचता है और अच्छे कार्य करता है क्योंकि वह जहाँ भी है ईश्वर उसे देख रहा है जो उसके द्वारा किए कार्यो का हिसाब लेगा।
और अगर कोई नमाज़ पढ़ने के बावजूद भी बुराइयों से नही रूकता तो समझिए कि वह नमाज़ नही पढ़ रहा है केवल औपचारिकता निभा रहा है। क़ुरआन में है
सच में नमाज़ बुराइयों और बे हयाई की बातों से रोकती है। सूरह अनकबूत आयत 45

तीसरा ज़कात:-
एक निर्धारित सीमा से अधिक धन रखने वाले व्यक्ति के लिए अनिवार्य है कि वह धन का चालीसवाँ हिस्सा निकालकर भूखों, गरीबों और ज़रूरत मंदों को दें। ताकि समाज में आर्थिक संतुलन बना रह सके।
चैथा:- रोज़ा - वर्ष के बारह महीनों में से एक विशेष महीने के रोज़े रखना।
दुनिया में कितने लोग ऐसे है जिन्हें दो वक्त का खाना नसीब नही होता, कितने लोग बिना शाम का खाना खाए सो जाते हंै। भूख और प्यास से ग्रस्त व्यक्ति पर क्या गुज़रती है इसका अहसास केवल उसे ही हो सकता है, जिसे कभी भूख और प्यास का अहसास हुआ हो, रोज़ा इसलिए अनिवार्य किया गया है कि भूख और प्यास के दर्द को समझकर इंसान एक ओर भूखों और गरीबों की मदद करे तो दूसरी ओर ईश्वर के उन उपहारों पर उसका शुक्र अदा करे। जो ईश्वर ने उसे उपलब्ध कराए हैं।
पाँचवाँ हज:-
अगर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद किसी व्यक्ति के पास इतना धन बचता है कि वह उस नगर की यात्रा कर सके, जिसमें ईश्वर के अंतिमदूत हज़रत मुहम्मद सा0 ने जन्म लिया था तो ऐसे व्यक्ति पर जीवन में एक बार उस नगर मक्का की यात्रा करना ज़रूरी है, ताकि वह उस स्थान को देख और जान सके जहाँ से ईश्वर ने इस संसार को अपना अंतिम संदेश सुनाया -
कु़रआन इस्लाम का मूल ग्रंथ है, कु़रआन के बाद हज़रत मुहम्मद सा0 के द्वारा कही गई उन बातों (हदीसों) का भी महत्व है, जिनकी वास्तविकता प्रमाणित हो -
आइये अब यह देखें के उक्त पाँच मौलिक सिद्धान्त हिन्दु धर्म से कितने दूर या कितने पास हैं।
1. पहला कलिमा: अर्थान ईश्वर को एक मानना और मुहम्मद साहब को उसका अन्तिम दूत ।
इसके पहले अंश को ब्रहमसूत्र के परिपेक्ष में देखें जिसमें कहा गया है - ईश्वर एक ही है, दूसरा नहीं है, नहीं है, ज़रा भी नहीं है।
ध्यान रहे के ब्रहमसूत्र को वेदों का सार कहा जाता है ।
इसके अतिरिक्त निम्न के मत्र भी देखें -
1. वह ईश्वर केवल एक और अकेला है अर्थव वेद 13-4-12
2. वह एक है हमें केवल उसी की वन्दना करनी चाहिए ।
ऋग्वेद 8-1-1
3. उसके सिवा किसी की प्रशंसा न करो ऋग्वेद 6-45-16
उक्त प्रकार की ओर भी बहुत सी मिसालें हैं ।
कलिमे का दुसरा भाग हज़रत मुहम्मद सल0 को ईश्वर का अन्तिम दूत मानना है। इस विषय पर कलकि अवतार और नराशंस के हवाले से विस्तृत चर्चा हो चुकी है ।
2. इस्लाम धर्म का दूसरा मूल सिद्धान्त ”नमाज़“ नमः+अज अर्थात अजन्मे ईश्वर को नमस्कार करना । उसकी विधी क्या हो इसका वर्णन ”शिव पुराण“ आदि में अनेक स्थानों पर किया गया है ।
यह अंश देखें -
शंभू देव को भक्ति भाव से विधि पूर्वक साष्टांग प्रणाम करें । तदन्तर शुद्ध बुद्धि वाला उपासक शास्त्रोक्त विधि से इष्टदेव की परिक्रमा करे।
“संक्षिप्त शिव पुराण“ विद्येश्रवर संहिता पृष्ठ 50, गीता प्रेस, गोरखपुर ।
साष्टांग सः+अष्ट+अंग अर्थात वह दंडवत जिसमें शरीर के आठ अंग पृथ्वी पर लगें। यह वही स्थिति है जो नमाज़ के मुख्य भाग (सजदा) में होती है, इसके अतिरिक्त किसी अन्य स्थिति में शरीर के आठ अंग पृथ्वी को स्पर्श नहीं करते ।
3. ज़कात: - ज़कात एक प्रकार का दान है जिसकी सीमा निर्धारित है, दान का हिन्दु धर्म में क्या महत्व है इसको सब जानते हैं । इस्लाम ने केवल उस की सीमा निर्धारित करके मालदरों के लिए उसे अनिवार्य किया है ।
4. रोज़ा:- यह व्रत का मूल रूप है अपितु यही असली व्रत है।
5. हज:- यह एक तीर्थ यात्रा है इसमें दो बिना सिले कपडे पहनकर नंगे पाँव और नंगे सिर ”काबा“ की परिक्रमा की जाती है और फिर सिर के बाल मुडवाए जाते हैं । हिन्दु धर्म में बिना सिले वस्त्र धारण करना, नंगे परों परिक्रमा करना और विशेष अवसरों पर सिर के बाल मुण्डवाने का क्या महत्व है बताने की ज़रूरत नहीं ।
इसलिए हमारा यह मानना है के इस्लाम धर्म कोई नया धर्म नहीं, बल्कि यह सनातन धम का ही मूल रूप है । जो आप की खोई हुई अमानत है, मैं आपकी इस अमानत को आपकी सेवा में प्रस्तुत करने का सौभाग्य प्राप्त करता हूं।
एक वर्ग को शायद यह अपनी संस्कृति और सभय्ता पर प्रहार लगे, और उसे अपनी संस्कृति लुप्त होती दिखाई दे।
परन्तु इसपर भी अवश्य विचार किया जाना चाहिए कि संस्कृति का यह बेजा लोभ कहीं मरनोप्रांत के अनन्त जीवन में हमको नरक की भयानक आग का ईंधन न बनादे । क्योंकि ईश्वर की अदालत में किसी देश की संस्कृति या सभय्ता की पूछ नहीं होगी, अपितु उसके द्वारा किए गए कर्मो की पूछ होगी, जहां तक संस्कृति की बात है ईश्वर के लिए हर देश बराबर है और हर देश की संस्कृति बराबर है क्योकिं सारे देश एक ही ईश्वर के हैं । बात संस्कृति की आई तो इस पर भी विचार करना उचित होगा कि हम कहीं धर्म को तो संस्कृति से नहीं जोड़ रहे हैं, क्योंकि हिन्दु धर्म और हिन्दुस्तानी संस्कृति दो अलग-अलग वस्तुएं हैं। जबकि प्रायः देखा जाता है कि बात हिन्दुस्तानी संस्कृति की होती है और प्रस्तुत किया जाता है हिन्दु धर्म को ।
संस्कृति स्वयं से बनती है और वह कभी लुप्त नहीं होती जबकि धर्म को स्थापित किया जाता है वह स्वंय से नहीं बनता । इसलिए जो लोग संस्कृति को लेकर भयभीत हैं उन्हें भय का अनुभव करने की कोई आवश्यकता नहीं क्याकिं भारतीय संस्कृति पूरी दुनिया में लोहा मनवा चुकी है, सारी दुनिया में भारतीय अपनी अलग पहचान रखते हैं परन्तु वह संस्कृति किसी धर्म विशेष का नाम नहीं, धर्म संस्कृति से हट कर अलग चीज है जिसका वजूद सत्य है और इस सत्य की खोज करना हर बुद्धिमान व्यक्ति का कर्तव्य है, ताकि भविष्य में ईश्वर के सामने लज्जित न होना पडे ।
ईश्वर हमें सदबुद्धि दे ।


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लेखक:- डा. मौलवी मुहम्‍मद असलम क़ासमी (Right) साइबर मौलाना मुहम्‍मद उमर कैरानवी


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